बुधवार, 12 अगस्त 2009

ओबामा के संदर्भ में : डि‍जि‍टल युग में अस्‍मि‍ता खेल

डिजिटल युग में 'सिस्टम' महत्वपूर्ण है। सारा विमर्श 'सिस्टम' के संदर्भ में निर्मित होता है। चीजें, विचार, इमेज आदि 'सिस्टम' से निकलते हैं और अंत में 'सिस्टम' में समा जाते हैं। अर्थात् चीजें जहां से शुरू होती हैं फिर वहीं पहुँच जाती हैं। इस क्रम में जो चीज नष्ट होती है वह ' अदरनेस' अथवा 'अन्यत्व'। ओबामा के चुनाव प्रचार में जो चीज सामने आती है वह है ओबामा की अश्वेत पहचान का अंत और अमरीकी अस्मिता में विलय। ओबामा की पहचान का आरंभ अफ्रीकी-अमरीकी अश्वेत से हुआ और समाहार अमरीकी पहचान में हुआ। ओबामा के चुनावी घोषणापत्र में अफ्रीकी-अमरीकियों की कोई मांग शामिल नहीं की गयी। अफ्रीकी-अमरीकियों ने ओबामा के सामने अपनी कोई मांग ही नहीं रखी। क्या अफ्रीकी-अमरीकियों की कोई मांगें नहीं हैं ? मांगें थीं तो उन्हें उठाया क्यों नहीं गया ? यानी जहां से शुरू हुआ था वहीं पहुँचे और इस प्रसंग में अश्वेत की पहचान का लोप हो गया। इस पूरी प्रक्रिया में सभ्यताओं का संघर्ष,आतंकवाद आदि सभी विषयों के विमर्श अमरीकी सिस्टम से आरंभ होते हैं और अमरीकी सिस्टम में ही जाकर थमते हैं। अमरीका में 'सिस्टम' महान् है।

डिजिटल युग में प्रत्येक विषय पहले संवाद,मिथ और कहानी की शक्ल में आता है। ओबामा का आख्यान संवाद,मिथ और कहानी के क्रम से गुजरा है। यह ऐसी कहानी है जो अश्वेतों के महाख्यान के निषेध पर सवार होकर आयी है। ओबामा अपनी कहानी के जरिए अश्वेतों की वैधता अर्जित करते हैं। यह वैधता श्वेत और अश्वेत के बीच में विभाजन पैदा करके नहीं बल्कि 'अमरीकी' के नाम पर अर्जित करते हैं।

श्वेत-अश्वेत का खेल बहुत सारे उत्तर आधुनिक खेलों में से एक खेल है। ओबामा इस खेल के जरिए छद्म सामाजिक-नैतिक विविधता के यथार्थ और प्रतिस्पर्धी विजन को अभिव्यक्ति करते हैं। मीडिया यह संदेश दे रहे हैं कि अमरीकी समाज में अश्वेतों के साथ जो भेदभाव चल रहा है उसकी अब कोई वैधता नहीं है। नस्ली भेदभाव अब अमरीकी समाज का बड़ा मुद्दा नहीं है। ओबामा का जीतना मूलत: अश्वेत नैतिकता की जीत है।

डिजिटल युग में नैतिकता सर्वोपरि है। नैतिकता सही है या गलत ,इसका पैमाना है 'जनसमर्थन।' यदि 'जनसमर्थन' नहीं है तो अनैतिक है, 'जनसमर्थन' है तो नैतिक है। अश्वेत के रूप में ओबामा अपनी ऐतिहासिक सीमाओं का अतिक्रमण कर चुके हैं। अमरीकी महाख्यान का अंश है अश्वेत । अमरीकी महाख्यान के सामने ओबामा के समस्त लघु आख्यान गौण हैं। ओबामा ने अपने विजय भाषण में अश्वेत आख्यान के परिप्रेक्ष्य से बातें शुरू करते हुए उसका समाहार अमरीकी महाख्यान में किया। यह मूलत: अश्वेत आख्यान का अस्वीकार है। श्वेत-अश्वेत भेद का अस्वीकार है। अमरीकी सिस्टम में विलय है।

डिजिटल संस्कृति की निर्मिति होने के कारण ओबामा ने राष्ट्र-राज्य की सीमाओं का अतिक्रमण किया। अमरीका के बाहर प्रभावित और प्रेरित किया। वर्चस्वशाली तबकों के हितों के साथ नजर आए। ओबामा मूलत: दर्शकीय जनता का नायक है। यह ऐसी जनता है जो सिर्फ देख रही है। नजारे देख रही है। वह टेलीविजन नजारे का महानायक है।

ओबामा को हम जब टीवी पर देखते हैं तो व्यक्ति के रूप में नहीं देखते, अश्वेत के रूप में नहीं देखते बल्कि अमरीकी राष्ट्र के प्रतिनिधि के रूप में देखते हैं। ओबामा की इमेज अमरीकी मासकल्चर की देन है। वह मासकल्चर का उत्पाद है और मासकल्चर का संकटमोचन भी है। ओबामा की इमेज देती नहीं है बल्कि अपहरण ज्यादा करती है। दर्शक के शरीर,मन,विचार और यथार्थ का अपहरण करके अमरीकी संस्कृति के साथ एकीकृत करता है। ओबामा को देखते हुए हम स्वयं पर नजरदारी नहीं रख पाते। ओबामा को देखना उसे सौंपना है। ओबामा की इमेज की आभा सामाजिक यथार्थ को देखने नहीं देती।

कुछ लोगों का मानना है ओबामा की जीत सांस्कृतिक बहुलतावाद की जीत है। सांस्कृतिक बहुलतावाद का सम्मान है। यह बयान एकसिरे से गलत है। अमरीकी में उपभोक्तावाद ने किसी भी किस्म के सांस्कृतिक बहुलतावाद के लिए कोई जगह नहीं छोड़ी है। किसी भी किस्म की संस्कृति के लिए सम्मानजनक स्थिति नहीं छोड़ी है। आज अमरीकी संस्कृति के सामने ईसाई,मुस्लिम,हिन्दू,वैज्ञानिक,समाजवादी आदि किसी भी किस्म की संस्कृति की कोई औकात और पहचान नहीं बची है। अमरीकी संस्कृति ने सांस्कृतिक वैविध्य को एकसिरे से ध्वस्त किया है। ओबामा को वोट देने का अर्थ है ? शून्य। वोट मूलत: लोकतंत्र में वोट आत्मसात्करण की प्रक्रिया है। समाहित करने का औजार है। नीति के स्तर पर रिपब्लिकन और डेमोक्रेटिक उम्मीदवार के बीच में बुनियादी तौर पर कोई अंतर नहीं है।

अमरीकी संस्कृति सांस्कृतिक गुलामी है। हम नहीं जानते इससे कैसे मुक्ति प्राप्त करें। अमरीकी संस्कृति के खिलाफ कैसे बगावत करें ? यह गुई देवोर्द के शब्दों में दर्शकीय अलगाव है। आज ऐसे वातावरण में जी रहे हैं जिसमें दमनात्मक नियंत्रण और मुनाफे का वर्चस्व है। इसके कारण कभी कभी गुंडागर्दी के दृश्य भी नजर आते हैं। पूंजीवाद ने प्रत्येक अर्थहीन चीज को पुनर्निमित किया है। अमरीका में सभी दल अश्वेतों को किसी न किसी रूप में समाहित करना चाहते हैं। जिससे उनकी नस्लवाद विरोधी छवि बने। सच यह है कि अश्वेत आज भी बड़े पैमाने पर भयानक तकलीफों और घेटो में रह रहे हैं।

ओबामा लोकतंत्र का भ्रष्टाचार है। जिससे सारी दुनिया में कोई नहीं बच सकता। ओबामा अमरीका की ग्लोबल शक्ति का प्रतीक है । ओबामा को व्यक्ति विशेष में खोज ही लोकतंत्र का भ्रष्टाचार है। ओबामा जनतंत्र के नागरिक को बाजार के ग्राहक में तब्दील कर रहा है। बाजार के मॉडल में तब्दील कर रहा है। आर्थिक संकट की घड़ी में ओबामा सबको अनुशासित भी कर रहा है। सामूहिक प्रतिवाद के स्वरों को कमजोर बना रहा है।

यथार्थ कभी भी इलैक्ट्रोनिकली निर्मित यथार्थ में रूपान्तरित नहीं होता। इलैक्ट्रोनिकली यथार्थ के रूपान्तरण का अर्थ है विषय को अतिरिक्त मूल्य में बदलना। यथार्थ का इलैक्ट्रोनिकली सामग्री में रूपान्तरण यथार्थ का विषयीकरण है। नयी वर्चुअल तकनीक नियंत्रण और जोड़ने का काम करती है।

महायथार्थ या वर्चुअल रियलिटी कभी भी दैनन्दिन यथार्थ को अस्वीकार नहीं करती। बल्कि हम सभी दैनन्दिन यथार्थ में ही अपनी भूमिकाएं निभाते हैं। ओबामा को जिताने के लिए '' सम्मोहन की रणनीति'' का इस्तेमाल किया गया है। इस रणनीति के तहत अमूमन 'अस्मिता' को आधार बनाकर अस्मिता के दमन,उत्पीडन और वंचना का वातावरण तैयार किया जाता है और इसमें नेता को उस वंचना के प्रतिनिधि के रूप में पेश किया जाता है। नेता के कारनामों पर किए गए हमले या आलोचना को अस्मिता पर हमला मान लिया जाता है। इसे 'अस्मिता की सम्मोहन रणनीति' कहते हैं। इस रणनीति के केन्द्र में जो भी होता है उस पर हमला नहीं कर सकते। हमला करते है समूह विशेष उद्वेलित महसूस करने लगता है। मसलन् ओबामा या मायावती को ही लें। इन लोगों की प्रौपेगैण्डा रणनीति का लक्ष्य है उन लोगों का समर्थन हासिल करना जो उनके उद्देश्यों के प्रति वचनबध्द नहीं हैं। ओबामा अश्वेत हैं, उनका परिवार गुलाम था,मायावती दलित हैं,दलित के रूप में उपेक्षा और अवहेलना की वह शिकार रही हैं। इसका वैचारिक दोहन किया जाता है। अश्वेत ,गुलाम या दलित के मिथकीय दोहन से व्यापक सामाजिक आधार तैयार करने में मदद मिली।

दूसरी ओर ओबामा ने विरोधियों को मजबूर किया कि वे आगे आएं और इस पहलू पर हमला करें। यदि वे अश्वेत और पूर्व गुलामों पर हमले करते हैं तो अपना ही मुँह नोंच रहे होंगे। इससे उनका जनाधार कम होगा। दूसरी ओर इससे चुनावों में नैतिकता के सवालों ने प्रमुखता अर्जित कर ली। भारत में मायावती का दलितपंथ इसी ' अस्मिता के सम्मोहन' की राजनीति पर टिका है। ज्योंही मायावती की आलोचना करते हैं वह आलोचना दलितों की आलोचना और दलितों के प्रति चली आ रही उपेक्षा ,अवहेलना और घृणा में तब्दील हो जाती है। मीडिया में स्वयं ही दलित विरोधी इमेज बनने लगती है।

ओबामा ने अश्वेत इमेज को आगे रखा। ठीक यही काम मायावती करती है और दलित इमेज को आगे रखती है। 'अस्मिता सम्मोहन' की रणनीति में तीन महत्वपूर्ण चीजें हैं, 1. आपके विरोधी क्या कह रहे हैं , 2. स्वयं की भूमिका किस तरह परिभाषित करते हैं, 3. किनसे मुखातिब हैं। विरोधी को उन विषयों पर बोलने को मजबूर करते हैं जो आपने तय किए हैं। विरोधी और अपनी भूमिका स्वयं तय करते हैं। विरोधियों को भूमिका तय नहीं करने देते। बार-बार लक्ष्यीभूत जनता को 'अस्मिता' के आधार पर वर्गीकृत करके सम्बोधित करते हैं। सम्बोधन के केन्द्र में 'नैतिकता' को रखते हैं।

उत्पीडन,दमन,उपेक्षा,अवहेलना,असमानता आदि का नैतिक आख्यान सुनाते हैं। किसी भी किस्म के सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक पैरामीटर अथवा नीतिगत प्रश्न सामने नहीं आने देते। 'अस्मिता सम्मोहन की राजनीति' में नैतिकताया भावना प्रमुख है। विवेक,वैज्ञानिक तर्क आदि का कोई स्थान नहीं है। 'अस्मिता सम्मोहन' की राजनीति के लिए साधन की पवित्रता गौण है। सामाजिक समीकरण की पवित्रता गौण है। महत्वपूर्ण है 'अस्मिता का सम्मोहन'। इसकी धुरी है 'अस्मिता की नैतिकता'। नैतिकता के आधार पर जब राजनीतिक किला बनाते हैं तो इसके लिए किसी प्रमाण की जरूरत नहीं होती। 'अस्मिता का सम्मोहन' सामंजस्य के मुहावरों का बार-बार प्रयोग करता है। इस बात पर जोर रहता है कि अन्य लोग,अन्य समूह 'अस्मिता' के साथ सामंजस्य बिठाएं। 'अस्मिता' के श्रेष्ठत्व को मानें। 'अस्मिता' के दायरे में ही सोचें और यदि उसके बाहर रहकर सोचेंगे तो बहिष्कृत हो जाएंगे। यह फिनोमिना भारत में भी नजर आ रहा है।

ओबामा ने अश्वेत और परिवर्तन के प्रतिनिधि के रूप में परिभाषित किया। संदेश दिया बुश प्रशासन गलत मार्ग का अनुसरण कर रहा है। महायथार्थ के फ्रेमवर्क में प्रस्तुतियों और प्रचार अभियान का यह असर हुआ कि किसी ने पलटकर आलोचनात्मक नजरिए से ओबामा के 'अश्वेत और परिवर्तन के प्रतिनिधि' की धारणा को चुनौती ही नहीं दी। 'अस्मिता के सम्मोहन' के साँचे में सजाकर जब चीजें पेश की जाती हैं तो आप आलोचनात्मक नजरिए से मूल्यांकन करने में असमर्थ होते हैं।

'अस्मिता सम्मोहन' की राजनीति में आकर्षण और सम्मोहन दोनों है। इसके आधार पर विरोधियों को सम्मोहित करते हैं। छलते हैं। निरूत्तर करते हैं। यह खोखला सम्मोहन है। वह विरोधी को 'सम्मोहन' के नियमों के अनुसार खेलने के लिए मजबूर करता है। 'सम्मोहन' में वही देखते हैं जो दिखाया जाता है।

मीडिया प्रचार में ओबामा अश्वेत है, अश्वेत का अमरीका में जीतना सारी दुनिया में अश्वेतों या दलितों या वंचितों को प्रेरणा देता है। ओबामा अश्वेत है इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। अश्वेत होने के नाते वह युवाओं और राजनीति का आदर्श प्रेरक भी है यह बात तथ्यों और विचारधारा से पुष्ट नहीं होती। ओबामा अमरीका की अश्वेत राजनीतिक परंपरा का हिस्सा नहीं है, वह कारपोरेट राजनीति का प्रतिनिधि है। कारपोरेट राजनीति के बिना ओबामा की कोई हैसियत नहीं है। ओबामा को लोग डेमोक्रेट पार्टी के राजनेता के रूप में जानते हैं न कि अश्वेत नेता के रूप में। अश्वेत असंतोष को ओबामा ने राजनीतिक पूंजी में तब्दील किया है। जिस तरह अन्य रिपब्लिकन नेता अश्वेत राजनीति के फल भोगते रहे हैं उसी तरह ओबामा भी फल भोग रहा है।

राजनीति सत्ता का खेल है । व्यक्ति जब एकबार सत्ता के खेल में शामिल हो जाता है तो उसकी श्वेत,अश्वेत,हिन्दू,मुसलमान, दलित,नारी आदि की पहचान गायब हो जाती है। राजनीति की अपनी स्वतंत्र पहचान और राजनीतिक प्रक्रियाएं होती हैं जिसमें सिर्फ एक ही पहचान बचती है वह है राजनेता की और एक ही खेल होता है सत्ता का खेल। बाकी सब नाटक है।

राजनेता की पहचान व्यक्ति की समस्त अस्मिताओं को हजम कर जाती है। राजनेता कभी भी सत्ता के खेल के बाहर नहीं होता। श्वेत,अश्वेत,नारी,दलित आदि रूप सामाजिक जीवन में असर दिखाते हैं। किंतु व्यक्ति जब राजनीति करने लगता है तो वह सामाजिक पैराडाइम के बाहर चला जाता है। राजनीति उसका मूल पैराडाइम होता है। राजनीति पावर का क्षेत्र है अस्मिता का नहीं।

आंबेडकर दलित थे किंतु अंतत राजनीति का हिस्सा बने। राजनीति के पावरगेम का हिस्सा बने। दक्षिण अफ्रीका में अफ्रीकी कांग्रेस अश्वेतों का दल है,एक से बढ़कर एक अश्वेत क्रांतिकारी नेता इस दल ने पैदा किया है किंतु अंतत: अफ्रीकी कांग्रेस को राजनीति करनी है तो पावरगेम का हिस्सा बनना होगा और अश्वेत भावबोध को त्यागना होगा। आज अफ्रीकी कांग्रेस सत्ता की राजनीति कर रही है उसके कार्यकलापों का अस्मिता के कार्यकलापों के साथ प्रतीकात्मक संबंध है , निर्णायक संबंध पावरगेम के साथ है। श्रीमती इंदिरागांधी स्त्री थीं किंतु राजनीति के पावरगेम का हिस्सा थीं। यही दशा मायावती,ममताबनर्जी, जयललिता आदि नेत्रियों की है। सत्ता की राजनीति की चौपड़ में जब अस्मिता शामिल हो जाती है तो अस्मिता नहीं रहती बल्कि राजनीति के पावरगेम के रूप में रूपान्तरित हो जाती है।

ओबामा अब काले नहीं हैं,डेमोक्रेट भी नहीं हैं। बल्कि अमरीकी राजनीति के पावरगेम के नायक हैं। पावरगेम, नायक के द्वारा नहीं पावरगेम के मदारियों के द्वारा संचालित होता है। इस प्रसंग में मिशेल फूको के नजरिए का स्मरण करना समीचीन होगा। फूको ने ''डिसीपलीन एंड पनिश' (1975) में विस्तार के साथ पावर की अवधारणा पर विचार किया। इस किताब में पावर का प्रतीक जेलखाना नहीं है। बल्कि पावर वह है जो व्यक्ति पर प्रभुत्व स्थापित करता है। पावर के सामने व्यक्ति को समर्पण करना जरूरी है। पावर के सामने व्यक्ति का समर्पण ही राजनीति की धुरी है।

राजनीति के पावरगेम में शामिल होने के बाद व्यक्ति एक ऑब्जेक्ट बनकर रह जाता है। पावरगेम का अपना अनुशासन है। वह व्यक्ति के सामान्य कार्यव्यापार को इस तरह निर्देशित करता है जिससे सबको स्वाभाविक लगे। वह राजनीति के एथिक्स,व्यवहार आदि सीखता है। व्यक्ति आज्ञाकारी और ज्यादा उपयोगी हो जाता है।

ओबामा की समूची रणनीति उपभोग के सिध्दान्त के आधार पर तैयार की गई है। जिसमें ओबामा को अपने मतदाता अथवा भोक्ता से कुछ लेना है और कुछ देना है। ओबामा ने अपने संदेश और भाषणों के जरिए डेमोक्रेटिक पार्टी के विचारों के उपभोग और मेनीपुलेशन का वातावरण बनाया। अपने व्यक्तित्व के प्रत्येक पहलू को सैलेबरेटी भाव में पेश किया। वर्चुअल प्रस्तुतियों में ओबामा को '' देखो और भूलो'' के फ्रेम में पेश किया । समूचा प्रचार अभियान स्वचालित तकनीकों के माध्यम से दर्शकों तक पहुँचा । स्वचालित प्रचार में इंटरनेट,टीवी ,आईफोन आदि की बड़ी भूमिका रही है। स्वचालित प्रौपेगैण्डा का मूलाधार है 'आनंद', 'प्रलोभन'और 'सेल' की बाजारनीति । इस नीति के तहत सब कुछ काल्पनिक होता है। भाषणों के वायदे काल्पनिक ,विचार काल्पनिक और सपने भी काल्पनिक होते हैं। काल्पनिक होने के कारण ही स्वचालित प्रौपेगैण्डा को दर्शक हजम कर जाता है। इसमें 'दिखने' और 'जगह घेरने' का महत्व है।

'परिवर्तन' के नारे के तहत ओबामा ने अमरीकी सभ्यता की भी यात्रा करा दी । मसलन् ओबामा अपने पूर्वजों की गुलामी को बार-बार स्मरण करते हैं। यह अमरीका की राजनीति की सांस्कृतिक अपडेटिंग है। यह अश्वेत अस्मिता का अमरीकी राष्ट्र और कारपोरेट राजनीति के साथ विनिमय है। अमरीकी समाज को अपूर्ण दायित्व का ज्ञान कराने की कोशिश है ।

ओबामा की जीत को किसी एक मुद्दे से जोड़कर देखना सही नहीं होगा। दावे के साथ कहना संभव नहीं है कि ओबामा किस मुद्दे की वजह से जीते। ओबामा ने अपने प्रचार अभियान में अनेक मुद्दे उठाए हैं जिनका मीडिया में व्यापक प्रचार हुआ है। व्यापक जनहित के मुद्दे उठाने और चर्चशैली की भाषणकला ने ओबामा को जीत दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। ओबामा के द्वारा जिस तरह का प्रचार अभियान चलाया गया वह अमरीका के इतिहास का सबसे लंबी अवधि तक चला प्रचार अभियान था।

ओबामा जब 'प्रचार' कर रहे थे, 'संपर्क' स्थापित कर रहे थे तो वह सिर्फ डेमोक्रेटिक पार्टी की राजनीति अथवा अश्वेत की पीड़ा को संप्रेषित नहीं कर रहे थे बल्कि प्रतीकात्मक संचार के नाम पर पापुलिज्म को अभिव्यक्त कर रहे थे। पापुलिज्म कभी मासकल्चर के बिना प्रभावी नहीं होता। मासकल्चर में प्रस्तुति चिन्ह और प्रतीकों पर जोर देती है। अमूर्तबोध को छोड़ दिया जाता है। यह अमूर्तबोध 'परिवर्तन' के नारे के साथ आया। 'परिवर्तन' को दैनन्दिन जिंदगी की बदहाली के संदर्भ में व्यक्त करने से व्यापक अपील पैदा करने में सफलता मिली। दैनन्दिन जिंदगी की तकलीफों का आख्यान बनाने के लिए ओबामा ने अश्वेत के पहलू को भी कौशलपूर्ण ढ़ंग से भुनाने की कोशिश की। एक राजनेता के रूप में जब आप दैनन्दिन जिंदगी की समस्याओं को उठाते हैं और मतदाताओं की चेतना के सबसे निचले धरातल को सम्बोधित करते हैं तो सारा का सारा मामला इस बात पर आकर टिक जाता है कि समस्या विशेष को लेकर आपका 'सटीक उत्तर' क्या है ? यही उत्तर जीत की कुंजी है।

ओबामा ने 'परिवर्तन' के नारे को मासकल्चर के फ्रेमवर्क में पेश किया। इस पैमाने में जब प्रचार किया जाता है उसमें संस्कृति और ज्ञान दोनों समाहित रहते हैं। इन दोनों को औपचारिक 'कोड' के जरिए संप्रेषित किया जिससे सामूहिक शिरकत को सुनिश्चित बनाने में मदद मिली। ओबामा की राजनीति और सामुदायिकता का स्रोत चर्च और अश्वेत सामाजिकता। 'कोड' है अमरीकी राष्ट्रवाद,अश्वेत और यहूदीवाद। इन्हीं 'तीन कोड' से ओबामा की राजनीति खुलती है। ये ही तीन कोड हैं जो 'अस्मिता की सम्मोहन ' राजनीति की धुरी हैं।

अब तक जितने अश्वेत नेता आए हैं वे अमरीकी राष्ट्रवाद की बजाय देशभक्ति पर जोर देते रहे हैं। यहूदीवाद की बजाय लोकतांत्रिक समानता को प्राथमिकता दी है। 'अश्वेत' सामाजिकता को 'कोड' में बांधकर पेश करने से ओबामा को व्यापक जनसमर्थन मिला। अश्वेत आंदोलन से लेकर स्त्रीवादी संगठनों तक सभी ग्रुपों का व्यापक समर्थन मिला। ओबामा ने अपने 'कोड' को सख्ती के साथ बरकरार रखा।

'कोड' विभ्रमों से भरा होता है। 'कोड' आप जिस सामाजिकता के आधार से जोड़ेंगे वह उन्हें तो अपनी ओर खींचेगा ही साथ अन्य रूपों के साथ सामंजस्य पैदा करता है। ओबामा की संस्कृति क्या होगी यह 'कोड' तय करेंगे। राष्ट्रपति चुनाव में 'कोड' जीतता है सामाजिकता नहीं। 'कोड' वह चीज है जिसका अधिरचना के किसी भी हिस्से में सहज ही विकास किया जा सकता है।

उल्लेखनीय है पूर्व राष्ट्रपति बुश ने अपना चुनाव इसी 'कोड' के आधार पर लड़ा था। इसबार ओबामा ने 'परिवर्तन' को इस 'कोड़' के साथ जोड़ दिया और इस 'कोड' का दोहन करने में सफलता हासिल कर ली। आज प्रत्येक व्यक्ति एक ही सवाल पूछ रहा है अफ्रीकी-अमरीकी मूल के अश्वेत ओबामा ने राष्ट्रपति पद कैसे हासिल किया ? कैसे श्वेत जनता का दिल जीता ? कैसे काले-गोरे के भेद का अतिक्रमण किया ? अमरीका में काले-गोरे का भेद निश्चित तौर पर एक बड़ी समस्या है। किंतु इस समस्या से भी ज्यादा गंभीर समस्या है आर्थिक मंदी। जिसके कारण रिपब्लिकन पार्टी के प्रति व्यापक मोहभंग हुआ। इसके अलावा अफ्रीकी - अमरीकी लोग लंबे समय से उपेक्षा के शिकार हैं,आज भी अमरीका में बड़ा तबका है जो अश्वेत लोगों को हिकारत की नजर से देखता है। उनकी उपेक्षा को राजनीतिक अभिव्यक्ति देने में ओबामा सफल रहे।

अमरीका में अश्वेत अलगाव सबसे पहले संगीत में दूर हुआ। कला जगत में अश्वेतों की लंबी परम्परा है। अश्वेत सर्जकों की कला साधना अमरीका की सबसे बड़ी संपदा है। श्वेत सर्जकों में इसकी स्वीकृति है। खासकर अफ्रीकी पापुलर संगीत लंबे समय से अमरीका की जनता का कंठहार बना हुआ है। साठ के दशक में एलविस प्रेसली पहला श्वेत संगीतकार था जिसने अफ्रीकी अमरीकी पापुलर संगीत को आत्मसात किया और श्वेत-अश्वेत के भेद को खत्म करने की दिशा में कदम बढ़ाए। इसके बाद रॉलिंग स्टोन,बॉव डेलन और बीटल ग्रुपों ने अश्वेत संगीत की परंपरा को नई ऊँचाईयां प्रदान कीं।

सन् 1970 के बाद के वर्षों में अश्वेतों का डेमोक्रेट और रिपब्लिकन दोनों ही दलों में कोई न कोई बड़ा चेहरा नजर आने लगा। वहीं दूसरी ओर अश्वेतों में भी प्रतिवादी वैकल्पिक राजनीतिक चेतना का विस्तार हुआ। अमरीका में व्यापक स्तर पर अश्वेत राजनीतिक आंदोलन का जन्म हुआ। अश्वेतों और हाशिए के लोगों को मूलधारा से जोड़ने का काम मूलत: जॉन आफ कैनेडी ने आरंभ किया था।

दूसरी ओर हॉलीवुड फिल्मजगत में अश्वेत कलाकारों का प्रवेश होता है। टेलीविजन विज्ञापनों में अश्वेत कलाकारों का प्रेरक के तौर पर इस्तेमाल हुआ। इसने अमरीका के उपभोक्ता बाजार को विस्तार दिया। अमरीकी उपभोक्ता संस्कृति के बारे में कोई भी निष्कर्ष अश्वेत कलाकारों के विज्ञापनों और अश्वेत उपभोक्ताओं को दरकिनार करके निकालना संभव नहीं है। अश्वेतों की ये सब प्रतीकात्मक प्रस्तुतियां थीं जिनका आम नागरिक आनंद लेते रहे हैं। अफ्रीकी-अमरीकी नागरिक सबसे पहले प्रतीकात्मक तौर पर दृश्य माध्यमों और संगीत में सामने आते हैं, दृश्यजगत में श्वेत-अश्वेत का भेद खत्म होता है। सामाजिक जीवन में भी अश्वेतों के प्रति घृणा कम हुई।

अश्वेत जब प्रतीकात्मक तौर पर सामने आने लगे तो उनके मूल्य,विचार,संस्कार,कला आदि को भी संप्रेषित करने का मौका मिला। अश्वेतों के प्रति नैतिक दायित्वबोध बढ़ा। अश्वेत पहले उपभोक्ताओं को पर्सुएट करने का काम करते थे। कालान्तर में इस पर्सुएशन ने सत्ता प्रतिष्ठानों और नीतियों को भी प्रभावित करना शुरू कर दिया। इस समूची प्रक्रिया को प्रतीकात्मक और ठोस सामाजिक वास्तविकता में तब्दील होने से रोकना संभव नहीं था फलत: अश्वेतों का राजनीतिक हस्तक्षेप बढ़ा। डेमोक्रेट और रिपब्लिकन में अश्वेत नेताओं को मांग बढ़ी। इस समूची प्रक्रिया का ओबामा को भी लाभ मिला।

ओबामा आज व्यक्ति नहीं है, प्रतीक है। प्रतीक की इमेज हासिल करने में ओबामा को लंबा संघर्ष करना पड़ा। इस क्रम में ओबामा बदले हैं और डेमोक्रेट भी बदलेंगे। प्रतीक के रूप में ओबामा ने डेमोक्रेटिक पार्टी की राजनीतिक निरंतरता को बनाए रखा । प्रतीक के रूप में अश्वेत ओबामा ने जब अपने को डेमोक्रेट राजनीतिक परंपरा का हिस्सा बनाया तो उनके व्यक्तित्व के साथ अश्वेत का कारक प्रधान कारक नहीं रह गया बल्कि अश्वेतभाव गौण हो गया। इसके बाद ही ओबामा अश्वेत के दायरे के बाहर निकल पाए।

ओबामा का प्रतीक ठोस रूप में डेमोक्रेट और र्अमूत्त रूप में अश्वेत की छवि को संप्रेषित करता है। ओबामा अपने को अश्वेत टाइप से बाहर रखकर ही अमरीका के वैविध्यपूर्ण जगत के साथ जोड़ पाए हैं। अश्वेत से मुक्ति की प्रक्रिया के दौरान विगत दो वर्षों में ओबामा को नयी इमेज में ढाला गया । ओबामा जब आइकोनिक इमेज में अपने को रूपान्तरित कर रहे थे तो तो द्वंद्व था किंतु आइकोन बनने की प्रक्रिया अपने चरमोत्कर्ष पर तब पहुँची जब उन्हें डेमोक्रेटिक पार्टी ने नामांकित कर दिया। नामांकन अर्जित करने के पहले तक हिलेरी क्लिंटन और ओबामा प्रतीकात्मक जंग लड़ रहे थे। दोनों ओर अस्मिता थी। अस्मिता की जंग में जब दोनों ओर अस्मिता हो तो एक का समाहार जरूरी है। यह प्रक्रिया काफी लंबी चली और इसने अस्मिता को केन्द्रीय एजेण्डा बना दिया।

ओबामा का आइकोन के रूप में उभरना इस बात का संकेत नहीं है कि अमरीका में अश्वेतों की स्थिति में बदलाव आ गया है। वास्तविकता यह है कि अमरीका में आज भी अश्वेतों के साथ दूसरी श्रेणी के नागरिक की तरह व्यवहार किया जाता है। अमरीका का समूचा प्रशासन ऊपर से लेकर नीचे तक नस्लवादी विचारधारा का शिकार है और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में श्वेतों का वर्चस्व है। इसके बावजूद अमरीका के बारे में प्रचलित रंगभेदीय स्टीरियोटाईप को तोड़ने में प्रतीकात्मक तौर पर ओबामा की जीत का महत्वपूर्ण स्थान है। अमरीका में नस्लवाद शोषण की समस्या है। ऊपर से लेकर नीचे तक अश्वेतों का शोषण और वैषम्यपूर्ण जीवन व्यवस्था ही है जिसके कारण अश्वेतों के साथ भेदभाव किया जाता है। किसी अश्वेत का राष्ट्रपति बनना प्रतीकात्मक रूप में महत्वपूर्ण है। किंतु प्रतीकात्मकता से यथार्थ पर कोई असर नहीं पड़ता।

इस प्रसंग में भारत के अनुभवों से हम सबक हासिल कर सकते हैं। भारत में दलित और मुसलमान तकरीबन उसी अवस्था में हैं जिस अवस्था में अमरीका में अश्वेत हैं। भारत में राष्ट्रपति के पद पर मुसलमान और दलित राजनेताओं को पदाभिसिक्त करके भी मुसलमानों और दलितों के हालात में कोई गुणात्मक सुधार नहीं आया है बल्कि सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के तथ्यों को माने तो मुसलमानों की स्थिति बदतर हुई है।

आज अमरीकी मीडिया में अश्वेतों की जो अवस्था है वही स्थिति यहां पर मुसलमानों की फिल्म जगत में है। आज भी सबसे बिकाऊ,टिकाऊ और कमाऊ हीरो मुसलमान है। इसके बावजूद मुसलमानों के खिलाफ मीडिया से लेकर राजनीति तक सब जगह घृणा का प्रचार जारी है। कहने का तात्पर्य यह कि ओबामा के जीतकर आने से अश्वेतों के शोषण का सिलसिला थमने वाला नहीं है। जिस तरह भारत में धर्मनिरपेक्षता के बावजूद मुसलमानों के साथ बदसलूकी बंद नहीं हुई है वही स्थिति अमरीका में अश्वेतों की है। अश्वेत और श्वेत का संबंध, हिन्दू-मुसलमान,सवर्ण-दलित का संबंध यदि 'मानवीय संबंध' और 'मीडिया प्रस्तुतियों' के पैमाने पर परखा जाएगा तो सही निष्कर्ष निकालना संभव नहीं है। बल्कि 'शोषण' और 'व्यवस्था में शिरकत' के पैमाने पर इसे परखना चाहिए। मीडिया और राजनीतिक दलों की समस्त चालाकियां इसी आधार पर देखी जानी चाहिए।

भारत में कुछ विश्लेषक ओबामा की जीत को अश्वेत की जीत के रूप में चित्रित कर रहे हैं और भारत में राजनेताओं में ओबामा खोज रहे हैं। ये लोग विभ्रम के शिकार हैं। अमरीका में संपदा के अधिकांश हिस्से पर आज भी श्वेतों का कब्जा है। यही हाल भारत में सवर्णों का है। नौकरी से लेकर गांवों में जमीन के स्वामित्व तक सभी जगह सवर्णों के पास अधिकांश संपदा है। मुसलमान और दलित अभिजात्यों को देखकर यह नहीं कह सकते कि दलित और मुसलमान खुशहाल हैं। अभिजात्य समाज का आईना नहीं होते।

मायावती ,नजमा हेपतुल्ला ,फारूख अब्दुला ,शाहरूख खान मूलत: इन समुदायों के अभिजात्य हैं। इन्हें साधारण दलित और मुसलमान का प्रतिनिधि समझने की भूल नहीं करनी चाहिए। आजादी के बाद भारत में सवर्णों की संपदा में बेशुमार इजाफा हुआ है। इसकी तुलना में गैर-सवर्णों और मुसलमानों में संपदा का केन्द्रीकरण नहीं हुआ है। संपदा का बढ़ता असंतुलन अमरीका में भी है। गोरे आज भी अधिकांश संपदा के मालिक हैं।

ओबामा किस तरह के राष्ट्रपति होंगे यह तो भविष्य ही तय करेगा। किंतु अश्वेतों और आम अमरीकी नागरिक के जीवन की कुछ सच्चाईयां हैं जिन्हें जेहन में रखना बेहद जरूरी है। ओबामा जब राष्ट्रपति पद की शपथ ले रहे होंगे उस समय अमरीका की जेलों में बंद कैदियों की संख्या ग्यारह लाख होगी। इसमें गोरे कैदियों की तुलना में अश्वेत कैदियों संख्या आठ गुना ज्यादा है। ओबामा जिस समय शपथ ले रहे होंगे तब तक अश्वेतों की संपदा मौजूदा आर्थिक मंदी के कारण गोरों की संपत्ति से ग्यारह गुना कम हो चुकी होगी।

अमरीका में सामाजिक उन्नाति पर कम पैसा खर्च किया जाता है उसकी तुलना में हथियारों पर ज्यादा खर्चा किया जाता है। ओबामा जिस समय शपथ ले रहे होंगे उस समय अमरीका में तकरीबन साढ़े चार करोड़ से ज्यादा लोग होंगे जिनके पास किसी भी किस्म का स्वास्थ्य बीमा नहीं होगा। अमरीका में गरीबों के लिए इलाज कराना मुश्किल है। अमरीका में दुनिया की सबसे मंहगी चिकित्सा व्यवस्था है। ओबामा से लोग उम्मीद लगाए बैठे हैं कि इराक में युध्द बंद हो। इराक से अमरीकी सेना लौटे। समस्या सिर्फ इराक की ही नहीं है आज सारी दुनिया में 800 ठिकानों पर अमरीकी सेना ड़ेरा डाले पड़ी है। उसके रखरखाव पर बेशुमार खर्चा आ रहा है। ओबामा सिर्फ अश्वेतों के ही राष्ट्रपति नहीं हैं बल्कि समूचे अमरीका के राष्ट्रपति हैं। इसमें गोरे हैं धनी लोग भी आते हैं। ओबामा को उनके हितों का भी ख्याल रखना होगा।

ओबामा के आने के बाद अमरीका की नस्लवादी संरचना में कोई बुनियादी सुधार आता है तो अच्छी बात है। अश्वेत परिवारों की तुलना में श्वेत परिवारों के पास नौ गुना ज्यादा संपदा है। इसी तरह अश्वेत युवाओं की तुलना में श्वेत युवाओं के पास सात गुना ज्यादा संपदा है। अमरीका में गरीबों में खासकर अफ्रीकी-अमरीकी नागरिकों में बीमारियों ने अपने घर बसा लिए हैं। अमरीका के 75 फीसदी टीवी के शिकार अश्वेत हैं। स्वयं ओबामा के राज्य इलीनोसिस में एचआईवी-एड्स के अधिकांश मरीज अश्वेत हैं। दस में से तीन काले और लातिनी लोग गरीबी में गुजारा कर रहे हैं। इसी तरह गरीब अश्वेत बच्चों की तादाद श्वेत बच्चों की तुलना में तीन गुना ज्यादा है।

अमरीका के आंकड़े बताते हैं कि सन् 2007 में बच्चों में भुखमरी 50 फीसद बढ़ी है। केट रेंडल (ग्लोबल रिसर्च ,21 नबम्वर 2008) के अनुसार अमरीका में सन् 2007 में 691,000 बच्चे भुखमरी के शिकार थे। यह संख्या विगत वर्ष की तुलना में पचास फीसदी ज्यादा है। प्रति आठ अमरीकियों में एक अमरीकी अपना पेट मुश्किल से भर पाता है। तकरीबन 36.2 मिलियन लोग इस वर्ष भूख से लड़ रहे थे। यानी उन्हें किसी एक समय बिना खाए रहना पड़ रहा है। सन् 2007 में भयानक भूख से पीड़ितों की संख्या 11.9 मिलियन थी। यानी सन् 2000 की तुलना में भूखे लोगों की संख्या में 49 फीसद का इजाफा हुआ है।

सन् 2008 की आर्थिक मंदी के बाद भुखमरी के शिकार लोगों की संख्या और भी ज्यादा होने की संभावना है। चार लोगों के परिवार की आय 21,027 डालर के नीचे है तो उसे गरीब परिवार की केटेगरी में रखा जाता है। इतनी कम आय के लोगों को खाद्य असुरक्षा का सामना करना पड़ रहा है। खाद्य असुरक्षितों की संख्या बढ़कर 37.7 फीसद हो गयी है। इनमें अफ्रीकी-अमेरिकी परिवारों में 22.2 फीसद परिवार खाद्य असुरक्षा के शिकार हैं। 20.1 फीसदी हिसपेनिक परिवार, एकल महिला अभिभावक 30.2 फीसद परिवार और एकल पुरूष अभिभावक परिवारों की संख्या 18 फीसद है। यानी एकल अभिभावक परिवार ज्यादा गरीब हैं।

अमरीका के दक्षिणी राज्यों में ज्यादा खाद्य असुरक्षा है। इनमें मिसीसिपी (17.4 फीसद),न्यू मैक्सिको ( 15 फीसद) ,टेक्सास ( 14.8 फीसद) और अरकन्सास ( 14.4 फीसद) में सबसे ज्यादा गरीबी है। खाद्य असुरक्षा सिर्फ शहर के अंदरूनी इलाकों अथवा महानगरों तक ही सीमित नहीं है बल्कि गांवों और कम आबादी के इलाकों में भी खाद्य असुरक्षा ने पांव पसार दिए हैं। कम आबादी वाले अलास्का और लोवा में विगत नौ सालों से भयानक खाद्य असुरक्षा चल रही है। उल्लेखनीय है कि अमरीका में खाने पर ही लोग सबसे ज्यादा खर्च करते हैं। नए संकट ने सभी को खाने के बजट में कमी करने को मजबूर किया है।

पत्रकार का पहला काम है अपने दिमाग की सफाई करना। इन दिनों मुश्किल यह है कि पत्रकार का दिमाग तो प्रदूषित है ही वह समाज को भी प्रदूषित कर रहा है। यह प्रदूषण सूचना प्रदूषण के जरिए आ रहा है। ओबामा अश्वेत है ,इस प्रसंग में यह प्रदूषण ज्यादा फैलाया गया है। ओबामा अश्वेत है इससे किसका फायदा हो सकता है ? इससे श्वेत राजनीतिज्ञों को लाभ मिल सकता था इसीलिए यह बात प्रचारित की गयी कि ओबामा अश्वेत है और अश्वेत के रूप में अश्वेत समुदाय उसे स्वीकार कर ले। इस तरह के प्रचार अभियान के जरिए पूर्वाग्रह फैलाने की कोशिश की गयी। जबकि विज्ञान बताता है कि नस्ल जैसी अथवा अश्वेत या श्वेत जैसी कोई चीज नहीं होती। नस्ल की धारणा नस्लवाद की देन है इसका विज्ञानसम्मत नजरिए से कोई लेना-देना नहीं है। मीडिया में नस्ल के भ्रमों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता है। नस्ल की प्रशंसा की जाती है। अमरीका में जिसे काला माना जाता है,जरूरी नहीं है उसे अन्य देश में काला कहते हों। अश्वेत और श्वेत की धारण्ाा प्रत्येक देश में अलग-अलग है।

ओबामा ने अपनी अश्वेत और उत्तर-नस्लवादी इमेज में भावनात्मक और प्रतीकात्मक प्रतिक्रियाएं ज्यादा व्यक्त कीं। ओबामा ऐसा अश्वेत उम्मीदवार था जिसे उत्तर-नस्लवादी भविष्य अपील करता है। उसने बार-बार अपनी मिश्रित नस्ल का उदाहरण्ा पेश किया। अपने केन्याई पिता और केन्सास की माँ का आख्यान बार-बार सुनाकर भाव विभोर किया। अपने निजी आख्यान को सुनाते हुए ओबामा ने 'परिवर्तन' के संदेश में कहा अमरीका अपने नस्लवादी चरित्र का अतिक्रमण कर रहा है और इस 'परिवर्तन' को 'पीढियों का परिवर्तन' (जेनरेशनल चेंज) नाम दिया। इसके कारण ओबामा को तयशुदा पुरानी जड़ समझदारी (जिसमें नस्लवाद की विभाजनकारी भूमिका जिसमें श्वेत-अश्वेत, रेड स्टेट और ब्लू स्टेट) के परे जाकर सोचने का मौका मिला। इसके आधार पर नयी सामाजिक सहमति बनाने में मदद मिली।

दक्षिणी कैरोलीना विजय भाषण में ओबामा ने कहा '' लंबे समय के बाद अमरीका में ऐसा संयुक्त मोर्चा बना है। इसमें युवा और बूढ़े हैं, अमीर और गरीब हैं। अश्वेत और श्वेत हैं।लातिनो और एशियाई हैं। इसमें देशमोइन्स के डेमोक्रेट से लेकर कोनकार्ड के स्वतंत्र लोग भी हैं,इसमें ग्रामीण नवादा के रिपब्लिकन हैं तो सारे देश से आए युवा भी हैं। इन लोगों ने कभी इस तरह के विशाल मोर्चे में शामिल होने की कल्पना तक नहीं की थी।'' इस अर्थ में ओबामा ने वर्ग,नस्ल,धर्म आदि का अतिक्रमण करके बृहत्तर मोर्चा बनाने में सफलता हासिल कर ली।

ओबामा ने अपने प्रचार अभियान में बार-बार इस बात पर जोर दिया कि नस्ल की राजनीति अब गए-गुजरे जमाने की चीज है। ऐसा कहकर ओबामा ने नस्लवाद को लेकर जो विचारधारात्मक गांठ थी उसे नरम बनाया, नस्लवादी पूर्वाग्रहों के बाहर निकालने का काम किया। आम अमरीकी नागरिक यही चाहता था कि श्वेत-अश्वेत के वर्गीकरण के परे जाकर सोचा और देखा जाए। इसे 'तीसरे मार्ग' की संज्ञा दी गयी। यह तीसरा रास्ता क्या है ? इसके बारे में कोई साफ समझ नहीं रखी गयी।

'न्यू अमेरिका मीडिया' ( 4 नबम्बर 2008) में ई.ओ. हुचिंसन ने '' नॉट ब्लेक प्रेसीडेण्ट ओबामा,जस्ट प्रेसीडेण्ट ओबामा'' लेख में लिखा ओबामा की उम्मीदवारी की खूबी यह थी कि उसने अश्वेत उम्मीदवार के रूप में राष्ट्रपति चुनाव नहीं लड़ा बल्कि राष्ट्रपति प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ा। इस क्रम में व्यक्तिगत और राजनीतिक उद्देश्यों के बीच में अंतर किया। अगर ओबामा ने अश्वेत उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा होता तो चुनाव में नस्लवादी प्रतिस्पर्धा चल पड़ती। अगर वह अपनी किसी भी उपलब्धि को अश्वेत की उपलब्धि के रूप में प्रचारित करता तो उसे अफ्रीकी-अमरीकी जनता अपना अपमान समझती। ओबामा यदि नस्ल के आधार पर प्रचार करता तो व्यापक अभियान नहीं चला पाता।

ओबामा ने राजनीतिक तौर पर मध्यमार्गी रास्ता चुना। इसके कारण ओबामा को हॉलीवुड से लेकर साधारण आदमी तक सबका समर्थन मिला। इसके अलावा 640 मिलियन डालर चंदा इकट्ठा करने में सफलता मिली। इसकी तुलना में रिपब्लिकन उम्मीदवार मेककेन को 360 मिलियन डालर चंदा मिला। कुल मिलाकर अमरिकी चुनाव में शामिल दोनों प्रत्याशियों ने एक विलियन डालर चंदा उठाया। ओबामा की लोकप्रियता का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि उसने मात्र एक महीने में 150 मिलियन डालर चंदा उठाया। यह चंदा गरीबों से नहीं उठाया बल्कि अमरीका के समृध्दों से लिया । इस चंदे को लेने का अर्थ है कि ओबामा को अमरीका के समृध्दों के हितों का ख्याल रखना है।

अमरीका में व्यापक पैमाने पर नस्लभेद और असमानता के बावजूद ओबामा का जीतना निश्चित रूप से महत्वपूर्ण है। किंतु इस जीत का सामाजिक आधार विगत पचास सालों में तैयार हुआ है। विगत पचास सालों में बड़े पैमाने पर अन्तर्नस्लीय शादियां हुई हैं। जिसके कारण बड़ी मात्रा में मिश्रित नस्ल के नागरिकों का जन्म हुआ है। मतदाताओं में चालीस फीसदी मतदाता वे हैं जो मिश्रित संस्कृति की पैदाइश हैं। स्वयं ओबामा उसी परंपरा की देन हैं। पापुलरकल्चर में अफ्रीकी-लातीनी कल्चर का प्रभाव विस्तार हुआ है। इसके कारण पापुलरकल्चर के क्षेत्र में मिश्रित संस्कृति पैदा हुई है। अश्वेतों के प्रतिवादी आंदोलनों के प्रभाव के कारण मुख्यधारा के दोनों राजनीतिक दलों के अंदर अश्वेतों के एजेण्डे को स्वीकार करने का दबाव पैदा हुआ है। इस समूची प्रक्रिया में सामाजिक वातावरण में नस्लवादी घृणा कम हुई है किंतु नस्लवादी शोषण ज्यों का त्यों बना हुआ है।

अमरीका में नस्लवाद व्यक्तिगत समस्या नहीं है। बल्कि व्यवस्थागत शोषण है। ओबामा के राष्ट्रपति बनने से यह समस्या दूर होने वाली नहीं है। इसबार के राष्ट्रपति चुनाव में ओबामा को मिश्रित नस्ल के मतदाताओं के ज्यादा वोट मिले हैं। जबकि मेककेन को श्वेत मतदाताओं ने जमकर वोट दिया। पिछले चुनावों से इस बार के चुनाव का बुनियादी फ़र्क यह है कि रिपब्लिकन पार्टी हमेशा श्वेत मतदाताओं को श्वेत उम्मीदवार को ही वोट देने की अपील करती थी, इस बार भी यह अपील जारी की गई किंतु ज्यादातर श्वेत मतदाताओं ने इस अपील पर ध्यान नहीं दिया। फलत: श्वेत मतदाताओं में से 20 फीसदी मतदाताओं का ओबामा को वोट मिला। इसके अलावा आर्थिक मंदी के कारण जो तबाही फैली उसने रही सही कसर भी पूरी कर दी। फलत: इस बार का राष्ट्रपति चुनाव नस्लभेद के आधार पर सम्पन्ना नहीं हुआ। जबकि बार-बार रिपब्लिकन पार्टी ने नस्लभेद के आधार पर विभाजन पैदा करने की कोशिश की, यहां तक कि सीरिया पर अमरीका ने वेवजह हमला कर दिया किंतु मतदाताओं ने राष्ट्रपति बुश के हमलावर रूख को समर्थन नही दिया। यही अमेरिकी जनता चार साल पहले हमलावर बुश के साथ थी किंतु अपने कडुवे अनुभवों के बाद अधिकांश अमरीकी जनता युध्दपंथी बुश और रिपब्लिकन पार्टी का समर्थन करने को लिए तैयार नहीं थी।

तथ्य बताते हैं कि सारी दुनिया में अमरीका के सन् 2005 तक 737 सैन्य अड्डे हैं जिनमें 25 लाख से ज्यादा अमरीकी सैनिक तैनात हैं। ये सैनिक लोकतंत्र की सेवा के लिए नहीं बल्कि अमरीकी साम्राज्यवाद के विस्तार के काम में लगे हैं। इन सैन्य अड्डों के नाम पर बेशुमार संपदा पर कब्जा किया हुआ है। एक सर्वे के अनुसार सारी दुनिया में अमरीका के बड़े और मझोले किस्म के 38 अड्डे हैं। इनमें ज्यादातर नौसैनिक और हवाई सैन्य अड्डे हैं।

सारी दुनिया में सैन्य उद्योग में सबसे ज्यादा पूंजी निवेश करने वाले प्रथम दस देश अमरीका के मित्र और सहयोगी देश हैं। अमरीका ने सैन्यवाद का जिस गति से विकास किया है उसके चलते आज वह दुनिया के किसी भी क्षेत्र में पलक झपकते ही सैन्य कार्रवाई करने की स्थिति में है। 'एनालेटिकल मंथली रिव्यू' ( अक्टूबर 2008) के अनुसार अकेले सन् 2007 में अमरीका का सैन्य बजट 1,002.5 विलियन डालर था। अर्थात् सकल घरेलू उत्पाद का 7.3 फीसद हिस्सा सैन्य बजट पर खर्च होता है। अमरीका का अकेले सन् 2007 में एक ट्रिलियन डालर सैन्य खर्च था जबकि अमरीका के अलावा सारी दुनिया के देशों का सैन्य बजट 1.3 ट्रिलियन डालर था। अमरीका और यूरोप में नए किस्म की सैन्य दुरभि-संधि बनी हुई है। इसके कारण आर्थिक मंदी का सबसे ज्यादा असर भी अमेरिका और यूरोपीय यूनियन के सदस्य देशों पर हुआ है।

रिपब्लिकन पार्टी के प्रचारकों ने जब नस्ल की अपील को सीधे पिटते देखा तो उन्होंने आर्थिक बदहाली के लिए पक्षपात को बहाना बनाया और कहा अल्पसंख्यक कर्जगीरों के कारण आर्थिक तबाही आयी है। यह भी कहा ओबामा की इस्लाम के प्रति सहानुभूति है। इस तरह के साम्प्रदायिक और विद्वेषकारी प्रचार को श्वेत युवाओं ने एकसिरे से खारिज कर दिया। घृणा के प्रचारक यह भूल गए कि ग्लोबलाईजेशन में घृणा के आधार पर लोगों के दिमाग की धुलायी नहीं की जा सकती। यदि कोई ग्लोबलाईजेशन में कठमुल्लेपन या संकीर्णतावादी राजनीति को मोहरा बनाता है तो उसका राजनीतिक सफाया अवश्यंभावी है।

डी.एल.विलिंगटन ने ''बाराक ओबामा इन दि पब्लिक इमेजिनेशन' (डिसेंट, फाल 2008) में सवाल उठाया है ओबामा कितना अश्वेत है ? क्या खांटी अश्वेत है ? क्या अश्वेत अमरीकियों की अधिकांश जनसंख्या गैर-परंपरागत ओबामा में अपनी छवि देखती है ? ओबामा अफ्रीका के विस्थापित परिवार का बेटा है वह अमरीका के मूल गुलाम वंश परंपरा का हिस्सा नहीं है। ओबामा का जन्म हवाई में हुआ और विकास इण्डोनेशिया में हुआ। हार्वर्ड में उच्चशिक्षा प्राप्त की। जीवन का आरंभिक दौर अमरीका के बाहर गुजारा जिसके कारण ओबामा को अमरीका के अफ्रीकी समाज की तिक्तता का अनुभव नहीं है। ऐसी अवस्था में क्या ओबामा को अश्वेत कहना सही होगा ? क्या वह अश्वेतों के शोषण को समझता है ? इस तरह के सवाल जब उठते हैं तो अस्मिता के बारे में मूल प्रश्न पैदा कर देते हैं,मूल सवाल यह है क्या अश्वेत अस्मिता ऐतिहासिक अस्मिता है ? सामाजिक अस्मिता है ? अथवा मीडिया निर्मित अस्मिता है ? अश्वेत अस्मिता को मापने के क्या नियम हैं ? क्या ओबामा ने अश्वेत औरत से शादी न करके किसी गोरी औरत से शादी की होती तो क्या ओबामा का अश्वेतभाव कम हो जाता ?

कहने का तात्पर्य कि अस्मिता के निर्माण में कोई भी विपरीत तत्व जब शामिल हो जाता है तो अस्मिता की शुध्दता सवालों के घेरे में आ जाती है। अस्मिता का राजनीति से संबंध है, शरीर की त्वचा के रंग से अस्मिता का संबंध नहीं है। उल्लेखनीय है चुनाव के प्रचार अभियान के दौरान ही ओबामा की जीवनी प्रकाशित हुई। जिसमें ओबामा के युवाकाल के अनुभवों पर खासतौर ध्यान दिया गया ,इस जीवनी में बताया गया कैसे अपने युवाकाल में ओबामा अश्वेत साहित्य और अश्वेत आन्दोलन का अध्ययन किया करते थे और ओबामा ने अश्वेत परिप्रेक्ष्य में सारी दुनिया को देखना सीखा। सेल्वी स्टील रचित' बाउण्ड मैन'' नामक जीवनी ने ओबामा के बारे में आम जनता में वातावरण बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। यह किताब अश्वेत परिप्रेक्ष्य में ओबामा को पेश करती है। ओबामा की अश्वेत अस्मिता के मनोवैज्ञानिक आधार को इस किताब में कौशलपूर्ण ढ़ंग से पेश किया गया है।

ओबामा का चुनाव अभियान सुचिंतित भाव से नस्ल के दायरे के बाहर चलता है। वह यह संदेश देने में सफल रहा कि नस्लभेद के परे जाकर मतदान का निर्णय लिया जाना चाहिए। ओबामा ने अपने को 'एकता' और 'परिवर्तन' के प्रतीक के रूप में पेश किया जिसको आम जनता ने सराहा। दूसरा बड़ा संदेश था ओबामा व्यक्तिगत जिम्मेदारी से भागने वाला व्यक्ति नहीं है। इसके विपरीत बुश की सारी रणनीति व्यक्तिगत जिम्मेदारी से भागने की रही है। इसके प्रत्युत्तर में 'व्यक्तिगत जिम्मेदारी' को राजनीतिक दायित्व के रूप में चित्रित करने में ओबामा सफल रहा।

ओबामा अपने परिवार की मिश्रित संस्कृति का आख्यान बताकर दो काम एक साथ कर रहे थे पहला, यह कि श्वेत और अश्वेत साथ रह सकते हैं,जी सकते हैं, खुशहाल संतान को जन्म दे सकते हैं। दूसरा संदेश यह दिया कि ओबामा स्वयं अपने परिवार के साथ दायित्व निभा रहे हैं। अमरीका के आम नागरिकों में इस चीज मनोवैज्ञानिक वातावरण बनाने में बड़ा असर पड़ा। तीसरा संदेश यह दिया कि श्वेत-अश्वेत कुंठा से मुक्त होने की जरूरत है। पांचवां , अश्वेत लोग गैर जिम्मेदार नहीं बल्कि जिम्मेदार नागरिक हैं। छठा, अश्वेत आत्मनिर्भर बनें तो राष्ट्रपति तक बन सकते हैं। सातवां ,'परिवर्तन' के नारे के तहत समस्त सुधार संगठनों को मिलकर संयुक्त मोर्चा बनाना चाहिए। इन सातों संदेशों को व्यापक जन समर्थन मिला।

अमरीकी सामाजिक जीवन की वास्तविकता है कि वहां पर बड़े इजारेदार कारपोरेट घरानों और आम जनता के बीच सीधा अन्तर्विरोध है। आम जनता में समय-समय पर राजनीतिक-सामाजिक मसलों पर लामबंदी होती है। रैलियां निकलती हैं। जलसे होते हैं। कन्वेंशन होते हैं। मतदान में जमकर वोट पड़ते हैं और इसके बाद मामला शांत हो जाता है। अमरीका में दो पार्टी व्यवस्था है और दोनों ही पार्टियां कंजरवेटिव होने के लिए प्रतिस्पर्धा करती रहती हैं। अमरीकी कारपोरेट घरानों की जड़ें 'गुलाम-मालिक उत्पादन संबंधों' के साथ बंधी हैं। गुलाम व्यवस्था खत्म होने के बावजूद वे इस संबंध की मानसिकता से पूरी तरह अपने को मुक्त नहीं कर पाए हैं। अमरीका में जितने भी राजनीतिक परिवर्तन आए हैं उनमें जनता के जनप्रिय दबाव-आंदोलनों की बड़ी भूमिका रही है। अमूमन इन आंदोलनों का चरित्र शांत और जनतांत्रिक रहा है। अमरीका में इस तरह के जनप्रिय उभारों की यह सीमा है कि वे रैली,राय और मतदान तक जाकर थम जाते हैं। उसके आगे जाकर शक्ति संतुलन बदलने का काम नहीं कर पाते। थोड़ी बहुत सामाजिक अव्यवस्था जरूर पैदा करते हैं और आम जनता का ध्यान खींचते हैं।

अमरीकी मीडिया और राजनीति का असली विचारधारात्मक चेहरा तब सामने आया जब अमेरिका में एथनिक आधार पर रखकर प्रचार अभियान होने लगा। यहां तक मीडिया ने भी लिबरल विचारधारा के सभी मानक तोड़कर एथनिक आधार पर प्रचार अभियान चलाया। नस्ल,धर्म,राष्ट्रीयमूल के नाम पर बार-बार प्रचार किया और इस क्रम में यह भूल ही गए कि अमरीका के सभी बाशिंदे अमरीकी हैं। यही उनकी मूल पहचान है। ओबामा को अश्वेत,मुस्लिम आदि के रूप में प्रचारित करने के पीछे जो संदेश जा रहा था वह यह कि अमरीका असहिष्णुता के चरम पर पहुँच गया है। बार-बार प्रचार माध्यमों के द्वारा बताया गया कि ओबामा 'गुप्त मुसलमान' है।

पेव रिसर्च सेंटर ने अपने अनुसंधान में पाया कि बारह प्रतिशत डेमोक्रेट और रिपब्लिकनों के बीच में गहरा विश्वास था कि ओबामा मुसलमान है। दस प्रतिशत ने धर्म को प्राथमिकता नहीं दी,वे अन्य चीज पर विश्वास करते थे। 52 प्रतिशत मानते थे कि ओबामा क्रिश्चियन है। इसलिए उन्होंने ओबामा को वोट दिया। इसके विपरीत 37 प्रतिशत भूल से यह मानते थे कि ओबामा मुसलमान है। (एक्स्ट्रा,बेव पत्रिका, नबम्वर-दिसम्बर 2008) 'एक्स्ट्रा' वेब पत्रिका ने लिखा 'इस्लामोफोबिया' के खिलाफ मीडिया और राजनीतिक अभिजनों के तरफ से न्यूनतम प्रतिवाद तक नहीं किया गया। बल्कि कुछ मामलों में इसमें दिलचस्पी ली।

इस प्रसंग में जॉन बी. जूडी ( दि न्यू रिपब्लिक, 5नबम्वर 2008) ने लिखा 'न्यूजवीक' और 'वाशिंगटन पोस्ट' में इस तरह के शीर्षक से रिपोर्ट छप रही थीं कि ' अमेरिका दि कंजरवेटिव', इस तरह के दावों को ओबामा की विजय ठुकराती है। ओबामा की विजय के पीछे अनेक बड़े जमीनी परिवर्तनों का हाथ है। ये जमीनी परिवर्तन अमरीका के आर्थिक संबंधों में आए परिवर्तनों से जुड़े हैं। इनमें दो परिवर्तन बुनियादी हैं। उत्तरी अमरीका में शहरी औद्योगिक व्यवस्था पैदा हुई थी इसका उत्तर से कम मजूरी वाले,गैर-यूनियन वाले इलाकों की ओर स्थानान्तरण हुआ है । खासकर वर्जीनिया ,फ्लोरिडा से होते हुए टेक्सास और दक्षिणी कैलीफोर्निया की ओर स्थानान्तरण हुआ है। यह परिवर्तन उत्तर औद्योगिक अर्थव्यवस्था के कारण हुआ है। इस परिवर्तन की शुरूआत दस साल पहले हो चुकी थी। इस क्रम में डेमोक्रेटिक पार्टी के तीन बड़े वोटर समूह उभरकर सामने आए हैं। पहला, पेशेवर (कॉलेज शिक्षित मजदूर,जो विचार और सेवा देने का काम करते हैं।) दूसरा, अल्पसंख्यक, ( इसमें अफ्रीकी-अमरीकी,लातिनो,एशियन अमेरिकन) और तीसरा औरतें, (खासकर कामकाजी औरते,एकल औरत, कॉलेज शिक्षित औरत)। ये तीन समूहों के बड़े पैमाने पर वोट प्राप्त करने में ओबामा को सफलता मिली है।

ओबामा को पड़े मतों के बारे में जो एग्जिट पोल सामने आया उसे आधार बनाकर पॉल केंगर ने (अमेरिकन थिंकर, 18 नबम्बर 2008) लिखा युवा और पहलीबार वोट दे रहे मतदाताओं ने बड़ी तादाद में ओबामा को वोट दिया। एमएसएनबीसी के द्वारा किए गए एग्जिट पोल के अनुसार ( ये अनुमान अन्य अनुमानों से भी मिलते हैं) 18-29 साल की आयु के वोटरों में से पांच में से एक मतदाता ओबामा का था। यानी पच्चीस लाख मतपत्र ओबामा के पक्ष में पड़े। कुल पड़े 66 फीसद मतों में से 32 फीसद मत ओबामा को मिले। इसके कारण ओबामा का मत प्रतिशत तेजी से बढ़ गया। फलत: औसतन आठ फीसद वोट बढ़ गए। उल्लेखनीय है कि 11 फीसद मतदाता पहलीबार वोट डाल रहे थे। इनमें 69 में से 30 फीसद वोट ओबामा को मिले। तीन मतदाताओं में से एक सिंगल अविवाहित मतदाता है। इसमें 65 में से 33 फीसद वोट ओबामा को मिले।

युवाओं के बड़े पैमाने पर वोट ओबामा को मिलने का प्रधान कारण है कि युवा समुदाय विविधता,सहिष्णुता और सांस्कृतिक बहुलता का पक्षधर होता है। वह बोगस वर्गीकरण और अपीलों के चक्कर में नहीं पड़ता। ओबामा ने युवाओं की मानसिकता का वैचारिक दोहन किया और व्यापक जनसमर्थन हासिल करने में सफल रहे। इसके विपरीत रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार के सैन्य आख्यान में युवाओं की कोई दिलचस्पी नहीं थी।

ओबामा के पक्ष में बड़े पैमाने पर मतदाताओं ने वोट देकर जिस भावबोध को व्यक्त किया है वह निश्चित रूप से अमेरिका के इतिहास की विलक्षण घटना है। ओबामा को 62.3 मिलियन वोट मिले यानी तकरीबन 64 फीसद वोट मिले हैं। ''पायंटर ऑन लाइन'' पत्रिका में टाम हुआंग ने लिखा कि ओबामा की जीत को बहुजातीय हवा ने संभव बनाया। विभिन्ना किस्म की जातीयताओं के बीच में मोर्चा बनाने में ओबामा सफल रहे। मीडिया में विजय के बाद अश्वेत-श्वेत के बीच में किस तरह के भेद हैं और सीमाएं हैं, इन पर खूब लिखा गया है। जरूरत है कि इस तरह की सीमाओं के दायरे के बाहर निकलकर सोचा जाए। ओबामा ने 43 फीसद श्वेत मतदाताओं के वोट हासिल किए, 95 फीसद अश्वेत , 67 फीसद हिसपनिक और 62 फीसद एशियाई मत हासिल किए हैं। ओबामा की जीत की शक्ति बहुजातीय आधार है।

अमरीका के राष्ट्रपति चुनाव के बारे में कोई भी बहस या मूल्यांकन अमरीका के निजी चरित्र से पृथक् करके संभव नहीं है। सवाल यह है कि अमरीका क्या है ? उसे किस रूप में देखते हैं ? अमरीका की सही समझ के लिए अमरीका के निजी चारित्रिक़ वैशिष्ट्य को हमेशा ध्यान में रखना होगा। इस प्रसंग ऑक्टोवियो पॉज के द्वारा अमरीका के बारे में की गई टिप्पणी का जिक्र करना समीचीन होगा। उसने कहा था ''अमरीका ने इतिहास से पलायन की उम्मीदें पैदा की हैं। उसने ऐसा यूटोपिया निर्मित किया है जहां इतिहास से भागकर शरण ली जा सकती है। इस लक्ष्य में कुछ हद तक सफलता भी मिली है। इस लक्ष्य को अमरीका में आज भी हासिल करने की कोशिश की जा रही है।'' जबकि बौद्रिलार्द का मानना था अमरीका का कोई इतिहास नहीं है।

अमरीकी संस्कृति की धुरी है 'छूमंतर' संस्कृति। अमरीका में कोई चीज मरती नहीं है। किसी चीज का अंत नहीं होता बल्कि चीजें,नीति,पैसा,राजनीतिक विचार, राजनीतिक एक्शन आदि 'छूमंतर' हो जाते हैं। अनर््तध्यान हो जाते हैं। बुश की नीति खत्म नहीं होगी सिर्फ बुश 'छूमंतर' हो जाएंगे, बर्बर युध्द को थोपने और लाखों लोगों को मौत के घाट उतारने के लिए बुश को दंडित नहीं किया जाएगा, बैंक और बीमा कंपनियों को दिवालिया बनाने वालों, मजदूरों और साधारण नागरिकों, रिटायर्ड लोगों की पूंजी हड़प कर जाने वाले कभी पकड़े नहीं जाएंगे बल्कि 'छूमंतर' हो जाएंगे।

'छूमंतर' संस्कृति वर्चुअल संस्कृति है। इसमें पुराने और नए में कोई विवाद नहीं है। सिर्फ 'छूमंतर' होने की देर है। 'छूमंतर संस्कृति' ने अर्थनीति से लेकर राजनीति तक सबको प्रभावित किया है। ' छूमंतर' की माया के बिना अमरीकी संस्कृति का ताला नहीं खुलता। अमरीकी संस्कृति का दूसरा बड़ा मंत्र है '' नकल और सिर्फ नकल'', अमरीका में विकल्प नहीं होता,सिर्फ नकल होती है। नकल में थोड़ी अकल का प्रयोग करने से उसका स्वरूप सुंदर बन जाता है। ओबामा की राजनीति में अमरीका की परंपरा से भिन्ना नए की कल्पना करना बेवकूफी होगी। ओबामा ने ''नकल की नकल'' पेश की है। उसके राजनीतिक कार्यक्रमों से लेकर भाषणों तक इस नकल की गूंज सुनी जा सकती है।

'नकल की नकल' के कारण ओबामा आज जॉर्ज बुश से भी ज्यादा ताकतवर नजर आ रहा है। बुश हीरो था । ओबामा सुपरहीरो है। बुश आक्रामक था । ओबामा महाआक्रामक है। फिलीस्तीन से लेकर ईरान तक सभी जगह कंपकंपी छूटी हुई है। स्थिति यह है कि बाजार भी कांप रहा है। सब डरे हुए हैं और आशाएं लगाए बैठे हैं। ओबामा ने नए किस्म के जिन 25 लाख नौकरियों की अमरीकी युवाओं के लिए परिकल्पना की है वह एक तरह की राष्ट्रीयसुरक्षा सेना है जिसे स्वास्थ्य से लेकर सुरक्षा तक सभी क्षेत्रों में काम करना है। अमरीका में सरकारी क्षेत्र में कामों का क्षेत्र वही है जिसे सरकार पैदा करना चाहती है। यह मूलत: सेवा,सुरक्षा,शिक्षा,स्वास्थ्य आदि का क्षेत्र हैं जहां पर ओबामा एक नयी विशाल सेवकों की फौज खड़ी करना चाहते हैं।

अमरीका का तीसरा मंत्र है '' परफेक्शन'', इसके बिना कोई भी चीज पेश नहीं की जाती। ओबामा का आख्यान हाइपररीयल परिप्रेक्ष्य में पेश किया गया आख्यान है। इसमें यह अंतर करना मुश्किल है कि असली ओबामा कौन सा है ? वे कौन सी नीतियां हैं जो बुश प्रशासन से भिन्ना हैं। खासकर युध्द,आर्थिकमंदी आदि के संदर्भ में। अमरीकी प्रशासन अपने देश को जिस नजरिए से देखता है उसी नजरिए से गैर-अमरीकी देशों को नहीं देखता। ओबामा ने अपने राजनीतिक प्रचार अभियान में पापुलिज्म के पैंतरे लागू किए हैं। पापुलिज्म की हाइपररीयल परिप्रेक्ष्य के साथ संगति बैठती है और पापुलिज्म प्रामाणिकता अर्जित कर लेता है।

ओबामा ने प्रचार अभियान की रणनीति के तहत जनता को असंख्य मांगों को अभिव्यक्ति देकर वोटबैंक की राजनीति में एक नया अध्याय जोड़ा है। इससे ओबामा को काफी बड़ी मात्रा में ऐसे मतदाताओं को सक्रिय करने में मदद मिली है जो कभी भी डेमोक्रेटिक पार्टी के साथ नहीं थे। इसके अलावा दिशाहारा मतदाताओं की मांगों को आवाज देकर भी ओबामा को सफलता मिली है। निराश जनता की मांगे जब कोई शक्तिशाली संगठन उठाता है तो उसे वोटर को मतदान केन्द्र तक लाने में सफलता मिल जाती है और इस अर्थ में वोटर की इच्छाओं को वह राजनीतिक समर्थन में रूपान्तरित करने में सफल हो जाता है। इस अर्थ में मतदाता की मांगे उम्मीदवार के लिए उत्पादक शक्ति बन जाती हैं। यह सीधे इच्छा और वोट का अन्तस्संबंध है जो राजनीतिक समर्थन में रूपान्तरित होता है।

अमरीकी समाज विगत चालीस सालों में क्रमश: हाइपररीयल अवस्था में दाखिल हुआ है। हाइपररीयल अवस्था में कोई इमेज टिकाऊ नहीं होती। बल्कि प्रत्येक इमेज में 'छूमंतर' वाला गुण होता है। इमेज की हम सतह देखते हैं , मर्म से अनभिज्ञ और अछूते रहते हैं। आप जिस क्षण इमेज देखते हैं उसी क्षण भूल जाते हैं। हम जानते ही नहीं हैं कि इन्दिरागांधी की फोटोग्राफिक इमेज कहां गायब हो गयी, एनटीआर कहां लुप्त हो गए? ज्योतिबाबू कहां छूमंतर हो गए ? बुश कहां अनर््तघ्यान हो गए ? ओबामा को चुनते समय बिल क्लिंटन की इमेज कहां गायब हो गयी ? अब ओबामा की इमेज भी कहां गायब हो जाएगी कोई नहीं जानता। फोटोग्राफिक इमेज का होना जितना महत्वपूर्ण है उससे ज्यादा महत्व अनर््तध्यान हो जाने का है। यही हाल हाइपररीयल दौर में राजनीतिक वायदों का है। इस दौर में इमेज विसंदर्भीकृत रूप में आती है। इसके कारण इमेज के साथ जुड़ी अन्तर्वस्तु को सही संदर्भ में पकड़ना या समझना बेहद मुश्किल होता है।

राजनीतिक इमेज वास्तव इमेज नहीं होती आदर्श इमेज होती है। निर्मित इमेज होती है। कृत्रिम इमेज होती है। राजनेता जो कार्य करते हैं वह उनकी जिंदगी की वास्तविक समझ का परिचय नहीं देते। बल्कि वे जो कार्य करते हैं वह उनकी राजनीतिक मंशाओं और आकांक्षाओं को व्यक्त करते हैं। राजनीतिक इमेज में नेता का व्यक्ति मन राजनीतिक मंशा और आदर्श इमेज का गुलाम होता है। आदर्श का गुलाम होने के कारण उसमें सौम्यता और सामंजस्य का भाव नहीं होता इसके विपरीत वह आदर्श के अनुरूप कार्य करते हुए अपने व्यक्ति मन के साथ बदले लेता रहता है। विभिन्ना किस्म के माध्यमों के द्वारा राजनेता के जो फोटोग्राफ हम तक पहुँचते हैं वे उसकी अतिरंजित इमेज बनाते हैं। विभ्रम की सृष्टि करते हैं। इमेज के इर्दगिर्द जो कुछ भी होता है वह गायब हो जाता है और महज उसकी इमेज रह जाती है जो स्वयं 'छूमंतर' है।

इमेजों ,चिन्हों और विचारों के जिस प्रबल प्रवाह को हम चुनाव में देखते हैं उसका नेता की इमेज के साथ संबंध स्थापित करना मुश्किल होता है। इन तीनों चीजों (इमेज,चिन्ह और विचार) को हाइपररीयल परिप्रेक्ष्य और वातावरण टिकने नहीं देता और ये भी जल्दी ही छूमंतर हो जाते हैं। फोटो में आदमी सिर्फ फोटो होता है और कुछ नहीं। फोटो के साथ उसकी अंतर्वस्तु कभी भी नजर नहीं आती। फोटो में दिखने वाला व्यक्ति हमेशा अंतर्वस्तुरहित होता है। खोखला होता है। राजनीतिक व्यक्ति की फोटो जब देखते हैं तो उसकी व्यक्तिगत पहचान गायब हो जाती है और राजनीतिक पहचान सामने आ जाती है। ओबामा की भी यही दशा है वह न काला है न गोरा है,अफ्रीकी है न विदेशी बल्कि डेमोक्रेटिक पार्टी का प्रतीक है डेमोक्रेटिक पार्टी के प्रतीक को ही हम देखते और राय बनाते हैं। व्यक्ति ओबामा के गुणों की इस राय बनाने में कोई भूमिका नहीं है। ओबामा की इमेज में एक फैंटेसी है। यह फैंटेसी उनकी जनसभाओं और भाषणशैली में नजर आती है।

ओबामा ने प्रचार करते समय अपने को समस्त अमरीकी जनता के प्रतिनिधि के रूप में पेश किया और इस बात पर जोर दिया कि वह व्यवहारिक हैं और उनकी 'कथनी और करनी'' में अंतर नहीं है। इसके विपरीत मेककेन को यह बात आम लोगों के गले उतारने में सफलता नहीं मिली कि उनकी ''कथनी और करनी'' में अंतर नहीं है। इसका साफ कारण था बुश की '' कथनी और करनी में अंतर।''

अमरीकी संस्कृति की चौथी विशेषता है '' अमरीका रहस्यमयता। '' अमरीका को जितना जानते हैं उतना ही कम जानते हैं। वह सबके लिए रहस्य है। रहस्य और वर्चुअल का अन्तस्संबंध अमरीका की फैंटेसीमय इमेज सम्प्रेषित करता है। सामाजिक रहस्य यथावत बने रहते हैं। अमरीकी इमेज 'अति आधुनिक' और 'अति सक्रिय' है। फलत: चीजों की बाहरी परतों को देखते हैं। उसके शुध्द 'ऑपरेशन' और शुध्द 'सर्कुलेशन' को देखते हैं। इससे सामाजिक सारवस्तु में परिवर्तन नहीं आता।

अमरीकी पूंजीवाद ने सारी दुनिया में 'प्रतिस्पर्धा' और 'अमरीकी संदर्भ' को आधारभूत तत्व बनाया है। अमरीकी प्रतिस्पर्धा और अमरीकी संदर्भ के बिना पूंजीवाद पर कोई बात करना संभव नहीं है। प्रतिस्पर्धा संदर्भ के रूप में आज जितने भी प्रतीक हमारे बीच प्रचलन में हैं उनका स्रोत अमरीका है। अमरीका से निकले प्रतीक महज प्रतीक नहीं होते बल्कि विश्व शक्ति और विश्व व्यवस्था के सुनिश्चित भावबोध को संप्रेषित करते हैं। वे हमेशा ग्लोबल पूंजीवाद के रूप में सामने आते हैं। ओबामा का प्रतीक भी उनमें से एक है।

अमरीकी प्रतीकों को सुपर पावर की भूमिका से अलग करके नहीं देखा जा सकता। ओबामा की भी यही स्थिति है वह भी सुपर पावर का प्रतीक है और जब चीजें,व्यक्ति,विचार ,स्थापत्य आदि ग्लोबल पावर के साथ अन्तर्ग्रथित होकर आते हैं तो उनका काम है जगत को नियंत्रण में रखना। सुपर पावर का काम है जगत को नियंत्रण में रखना। सुपर पावर की धारणा किसी एक वस्तु,पार्टी, सांस्कृतिक माल, स्थापत्य आदि में सीमित करके देखने से स्थिति के कभी भी अनियंत्रित हो जाने अथवा ध्वस्त हो जाने का खतरा होता है। जैसा कि नाइन इलेवन की घटना के बाद देखा गया था। लोग सोच रहे थे कि अमरीका ध्वस्त हो गया ? अथवा हाल की आर्थिकमंदी के समय सोच रहे हैं कि अमरीका तबाह हो गया। यह सच नहीं है। अमरीका सुपर पावर है और सुपर पावर वह इसलिए है कि जगत को नियंत्रित करने की क्षमता रखता है। इसका अर्थ यह है कि अमरीका कभी ध्वस्त नहीं हो सकता। उसके यहां से निकली प्रत्येक चीज सुवर पावर का काम करती है। ग्लोबल नियंत्रण का काम करती है।

आज सभी लोग एकमत हैं अमरीका में जो संकट नजर आ रहा है, आर्थिक तबाही नजर आ रही है उसके लिए अमरीका के नीति निर्माता जिम्मेदार हैं। उन्होंने ऐसी नीतियां लागू कीं जिनके कारण यह तबाही आयी। यानी अमरीका ने अपनी मौत को स्वयं बुलाया है। दूसरे शब्दों में कहें कि विश्व पूंजीवाद ने अपनी नीतियों के चलते ही आत्महत्या की है। इसके लिए कोई और जिम्मेदार नहीं है। इसे दार्शनिक शब्दों में कहें कि जब कोई व्यक्ति आत्महत्या करता है तो एक तरह से समाज की आलोचना कर रहा होता है।

अमरीका का मौजूदा आर्थिक संकट स्वयं में अमरीका की सामाजिक आलोचना है। यह सामाजिक आलोचना वह अपनी शर्तों पर करता है। जब आलोचना करता है तो अपने नीतिगत फैसलों को बदलता है और आधिकारिक भाव को प्रदर्शित करता है। कुछ लोग सोच रहे हैं कि अमरीका का आर्थिक संकट अमरीका की विश्व अर्थ व्यवस्था पर पकड़ ढीली करेगा। यह भ्रम है। इस संकट के बाद अमरीका की विश्व व्यवस्था पर पकड़ पहले से भी ज्यादा मजबूत बनेगी।

पूंजीवाद के मौजूदा संकट में उन तमाम नीतियों और प्रतीकों का विनिमय होगा (अमेरिका और सारी दुनिया के बीच) जो जिनके जरिए सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक वर्चस्व को बनाए रखने में मदद मिलती है। अमेरिका ने सारी दुनिया के साथ अपना संबंध और अपनी पहचान प्रतीकात्मक बनायी है ,यह संकट भी प्रतीकात्मक विनिमय के रूप में आया है। किंतु प्रतीकात्मक विनिमय के दौरान यह संकट की शक्ल में नहीं रह जाएगा बल्कि बड़े पैमाने पर अलगाव,असमाजीकरण्ा और संकीर्णतावाद को छोड़ जाएगा। इससे उसकी ग्लोबल इजारेदारी दिखाई देती है। इस प्रक्रिया में अमरीका हमेशा सही,पारदर्शी,सकारात्मक नजर आता है।

अमरीकी पूंजीवाद की सबसे बड़ी खूबी है कि उसने प्रतीकों के विनिमय के द्वारा सारी दुनिया में यह चेतना निर्मित की है कि अब आप व्यवस्था पर हमला नहीं कर सकते। व्यवस्था को नष्ट नहीं कर सकते। पूंजीवादी व्यवस्था को नष्ट नहीं कर सकते। व्यवस्था हमारे ऊपर हावी है। जमीनी स्तर पर जो लोग व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष के नाम पर जो संघर्ष करते रहते हैं ये संघर्ष उनके स्वयं के यथार्थ के खिलाफ की गयी लड़ाईयां हैं, इन्हें व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष नहीं कहा जा सकता है।

आज व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष जटिल हो गया है। व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष के नाम पर अपने यथार्थ से ही लड़ते रहते हैं। आज आप व्यवस्था को नष्ट नहीं कर सकते। व्यवस्था की राजनीतिक संरचनाओं को नष्ट नहीं कर सकते। यह काम प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष किसी भी रूप में नहीं कर सकते। राजनीतिक और आर्थिक तौर पर भी नहीं कर सकते। पूंजीवाद को यथार्थ में परास्त करना संभव नहीं है। क्योंकि पूंजीवाद ने अपने को यथार्थव्यवस्था के रूप में रूपान्तरित कर लिया है। व्यवस्था पर हमले के नाम पर हम प्रतीकों को बदलते हैं, निशाना बनाते हैं। किंतु प्रतीक तो व्यवस्था की सतह हैं ये व्यवस्था की अंतर्वस्तु नहीं हैं। व्यवस्था को तब ही पलट सकते हैं जब व्यवस्था की नीतियों को पलटने और लागू करने की क्षमता हो। जब तक ऐसा नहीं होता व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष व्यवस्था को कमजोर नहीं बनाता। बल्कि व्यवस्था मजबूत बनाता है।

भारत में विगत साठ सालों में कम्युनिस्टों के द्वारा व्यवस्था के खिलाफ लड़ी गयी लड़ाईयों से पूंजीवदी व्यवस्था कमजोर हुई अथवा ताकतपर बनी है ? निश्चित तौर पर पूंजीवादी व्यवस्था ताकतवर बनी है। कम्युनिस्टों की जितनी भी लड़ाईयां हैं वे स्वयं के यथार्थ के खिलाफ लड़ी गयी जंग का हिस्सा हैं। इससे व्यवस्था कमजोर होने की बजाय और भी मजबूत हुई है। विभिन्ना इलाकों में चल रहे नक्सल आंदोलन और आतंकी संगठनों की कार्रवाईयों से पूंजीवाद कमजोर नहीं होता बल्कि इस तरह के संगठन अपनी कार्रवाईयों से अपने ही यथार्थ को नष्ट करते हैं और पूंजीवाद का कुछ भी नुकसान नहीं कर पाते।

पूंजीवाद को आप तब ही पछाड़ सकते हैं जब उससे ज्यादा श्रेष्ठ प्रतीक ले आएं, उनका विनिमय करने में सफल हो जाएं। पूंजीवाद से श्रेष्ठ विचार और नीतियां ले आएं और उन्हें लागू करने और बदलने में सफल हो जाएं। सोवियत संघ और चीन के अनुभव को ध्यान में रखें तो शायद बात समझ में आए। सोवियत संघ में समाजवादी व्यवस्था थी किंतु समाजवादी व्यवस्था एक अवस्था के बाद ठहराव का शिकार हुई, सोवियत संघ अपनी नीतियों को बदल नहीं पाया ,नयी नीतियां लागू नहीं कर पाया फलत: टूट गया। समाजवादी व्यवस्था का पतन हो गया।

इसके विपरीत चीन अपनी नीतियों को बदलने में समर्थ रहा और आज वह महाशक्ति है। सोवियत संघ का महाशक्ति से पतन और चीन का महाशक्ति में रूपान्तरण इस तथ्य का संकेत है कि जो नीति बदलते हैं और वातावरण के अनुरूप नीतियों को लागू करते हैं वे देश सफल होते हैं। वही व्यवस्था भी सफल होती है। यही स्थिति भारत की भी है भारत में नीतियों को बदलने की क्षमता है। फलत: भारत का ग्राफ विश्व स्तर पर ऊँचा उठा है। व्यवस्था को बनाए रखना, नीतियों को बदलना और नीतियों को प्रतीकात्मक तौर पर जनता में संप्रेषित करने से ही व्यवस्था अपने वर्चस्व को बनाए रखती है।

हम जिस भाषा का प्रतिवाद अथवा व्यवस्था परिवर्तन के संघर्षों में इस्तेमाल करते हैं और मानकर चलते हैं उसका जबर्दस्त सामाजिक असर होगा। यह धारणा बुनियादी तौर पर गलत है। आज भाषा का उसकी अंतर्वस्तु से संबंध पूरी तरह कट चुका है। जिस भाषा को हम बोलते हैं अथवा भाषा के जिन रूपों का इस्तेमाल करते हैं वे रूप कभी समाज में साकार नहीं होते। भाषा के रूप विचलन की शक्ल में आते हैं अथवा उधारी रूपों में आते हैं। भाषा और भाषण मूलत: ऐतिहासिक अंतर्वस्तु पर निर्भर होते हैं। सामाजिक परिस्थितियों पर भाषा और भाषण निर्भर करता है। सामाजिक परिस्थितियों का शुध्द या वैकल्पिक रूपों में विनिमय नहीं करते।

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