बुधवार, 12 अगस्त 2009

ऑन लाइन संगीत और संस्‍कृति‍ के सवाल


एक जमाना था जब संगीत देसी और लोकल था। आज संगीत ग्लोबल है।उपग्रह चैनलों और इंटरनेट पर उपलब्ध संगीत ग्लोबल है।आज संगीत के दर्शक और श्रोता जितने हैं।उतने कभी नहीं रहे।इंटरनेट संगीत ने अस्मिता,संस्कृति और उप-संस्कृति के नए रूपों को जन्म दिया है।ग्लोबल सहृदय पैदा किया है।यह वर्णशंकर सहृदय है।इंटरनेट संगीत वर्णशंकर संगीत है।इस संगीत की खूबी यह है कि इसका सहृदय गुमनाम है और भरोसेमंद है।यह अस्मिता के प्रयोगों और उत्पादक उपभोग का सर्जक है।यह संगीत सहृदय निर्देशित और नियंत्रित है। गुंटेला,काजा और नेपस्टार जैसी ऑनलाइन संगीत वितरित करने वाली कंपनियों को परंपरागत मीडिया वितरकों से गंभीर चुनौतियों एवं बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है। परंपरागत मीडिया के वितरकों का तर्क है कि उनके संगीत की बिक्री घट रही है।अमेरिकी रिकॉर्डिंग इण्ड्रस्ट्रीज ने इस संबंध में कई मुकदमे भी दायर किए हैं।अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नए कानूनो की मांग की है।ये लोग यह भूल गए हैं कि इंटरनेट कानून मुक्त संचार है।अभिव्यक्ति की आजादी का सर्वोच्च रूप है। इसके आगे,राष्ट्र,सत्ता, प्रभुत्व, धर्म,विधा आदि के बंधन और सीमाएं बेमानी हैं।वह इनसे परे है।इनका नियंता है।इंटरनेट पर संगीत के प्रसारण को लेकर पक्ष-विपक्ष में जो भी तर्क दिए जा रहे हैं।वे प्रस्तुति की आजादी और सूचना के हिस्सेदार की थीम के इर्द -गिर्द चल रहे हैं।इसके अलावा स्वामित्व और शुल्क से जुड़े सवाल भी सामने आए हैं।मीडिया इतिहासकारों ने इन सवालों पर गंभीरता से विचार किया है।इ.अडर और बी..हुबेरमैन ''फ्री राइडिंग ऑन ग्नुटेल्ला''(2000)[1] में लिखा है कि ग्नुटेल्ला की संगीत फाइलों को बहुत कम लोग शेयर करते हैं।बमुश्किल दस फीसदी से ज्यादा लोग अन्य लोगों से संगीत फाइल शेयर नहीं करते।गुमनाम तरीके से संगीत फाइल शेयर करने वालों की संख्या बहुत कम है।इसके अलावा एमपी 3 की फाइलों को शेयर करने वालों की स्थिति भी ज्यादा बेहतर नहीं है।सामाजिक तौर पर ये लोग किसी भी किस्म का माहौल नहीं बनाते।एक अन्य अनुसंधान में पाया गया कि एमपी3 की फाइल शेयर करने वाले ज्यादातर लोग अपना परिचय छिपाते हैं।सामाजिक तौर पर उच्च सामाजिक अवस्था के लोग हैं। ये अपनी नागरिकता और उदारता को ज्यादा से ज्यादा शेयर करना चाहते है।ये दोनों ही अनुसंधान इंटरनेट संगीत की गंभीरता से समीक्षा नहीं करते। उल्लेखनीय है कि इंटरनेट के आने पहले से काफी अर्से से संगीत को शेयर करने की परंपरा रही है।संगीत सभाओं,ऑडियो,वीडियो कैसेट,सीडी आदि के जरिए हम संगीत को शेयर करते रहे हैं। एमपी3 वेबसाइड ने उल्लेखनीय काम यह किया है कि उन्होंने इंटरनेट संगीतप्रेमियों को विभिन्न सामाजिक समूहों,शैलियों और उप संस्कृतियों मे वर्गीकृत किया है।इससे संगीत प्रेमियों की नई सामाजिक पहचान बनी है।इंटरनेट संगीत को मीडिया के मासकल्चर मॉडल के परिप्रेक्ष्य में ज्यादा सुसंगत तरीके से समझ सकते हैं।इस प्रसंग में एडोर्नो और बाल्टर बेजामिन के विचार हमारी ज्यादा मदद करते हैं।एडोर्नो ने इनलाइटेंनमेंट की आलोचना की रोशनी में संगीत के सौंदर्य की मीमांसा की तो बेंजामिन ने दृश्य कलाओं और फिल्म के सौंदर्यशास्त्र का निर्माण किया।ये दोनों जर्मनी के फ्रेंकफुर्ट ज्ञकूल से जुड़ेथे।इन दोनों पर मार्क्‍सवादी दृष्टिकोण का गहरा असर था।इन दोनों ने मास ऑडिएंस के बारे में जो निष्कर्ष निकाले थे।वे आज भी प्रासंगिक हैं।इन दोनों का मानना था कि मास ऑडिएंस पेशिव या निष्क्रिय होती है।वह सिर्फ ग्रहण करती है।

एडोर्नो की राय थी कि पापुलर म्यूजिक औद्योगिक प्रक्रिया से जुड़ा है।इसमें स्तरीकृत फॉर्म हैं। इनका बड़ें पैमाने पर अनुकरण और उपभोग किया जा सकता है।पापुलर गाने के संगीतकार छद्म व्यक्तिवादिता और कृत्रिम व्यक्तिगत कलात्मकता को व्यक्त करते हैं।गंभीर संगीत के मुकाबले पापुलर म्यूजिक ऑडिएंस को बहुत कम सामग्री देता है।इसी तरह पॉप संगीत में एडोर्नो के मुताबिक ध्यान हटाने की क्षमता है।खासकर आनंद या विश्राम के समय जो तनाव होता है।उससे ध्यान हटाने का काम करता है।वह आनंद के समय को इकसार चीजों से भरता है।एडोर्नो ने लिखा है कि पापुलर संगीत बीसवीं शताब्दी के पूंजीवाद के वर्चस्व को स्थापित करता है।बेंजामिन ने कला के 'ओरा' की समाप्ति की घोषणा की।बेंजामिन का मानना था कि कला की व्यक्ति को रूपान्तरित करने की क्षमता खत्म हो जाती है।कलाओं के तकनीकी उत्पादन के कारण कलाएं रूपान्तरकारी भूमिका खो देती हैं।साथ ही अपना अर्थ भी खो देती हैं।तकनीकी उत्पादन के कारण कलाएं जल्द ही व्यापक ऑडिएंस तक पहुँच जाती हैं।इनका उपभोग विकेन्द्रीकृत हो जाता है। कला सब लोगों की जद में आ जाती हैं। कलाओं का तकनीकी पुनरूत्पादन कलाओं के प्रति जनसमूहों की प्रतिक्रिया बदल देता है।पिकासो की कलाकृतियों के प्रति प्रतिक्रियावादी दृष्टिकोण बदल जाता है।चैप्लिन के प्रति प्रगतिशील दृष्टिकोण बदल जाता है।परंपरागत तौर पर आनंद के समय हम अनालोचनात्मक दृष्टिकोण का इजहार करते थे।किंतु नई परिस्थितियों में कभी-कभार आलोचना कर लेते हैं।एडोर्नो और बेंजामिन ने जब अपने विचार रखे थे तब ऑडिएंस को कैसे पैदा किया जाता है।यह फिनोमिना सामने नहीं आया था।आजकल तो व्यापक पैमाने पर ऑडिएंस पैदा की जाती है।ऑडिएंस पैदा करने की प्रक्रिया बेहद जटिल और श्रम साध्य है।इसका राजनीति पर भी असर दिखाई देता है।प्रत्येक दल की अपनी-अपनी जनता है।जनता का इस तरह का विभाजन इस बात का संकेत है कि परवर्ती पूंजीवाद में जनता को एकजुट रखने की क्षमता नहीं है। एडोर्नो और बाल्टर बेंजामिन से भिन्न ब्रिटिश संस्कृति अध्येताओं ने साठ और सत्तर के दशक में 'एक्टिव ऑडिएंस' की अवधारणा प्रतिपादित की।यह ऑडिएंस विशिष्ट और वैविध्यपूर्ण है।इन लोगों ने पापुलर संस्कृति को संकेतशास्त्र,भौतिकवाद,स्त्रीवाद,उत्तर आधुनिकता वाद आदि दृष्टिकोणों से देखा। यह बताया कि पापुलर कल्चर किस तरह दैनन्दिन जीवन में दाखिल हो रही है।सामान्यत: लोगों के खानपान,रहन-सहन,व्यवहार,मूल्य और संस्कारों को बदल रही है।

इसी प्रसंग में सबसे उपयोगी धारणा मैकलुहान की है।मैकलुहान ने लिखा था कि ''माध्यम ही संदेश है।''इस अवधारणा को लेकर सबसे ज्यादा चर्चाएं हुई हैं। इसका अर्थ है किसी भी कम्युनिकेशन माध्यम का असर उसकी अंतर्वस्तु के संप्रेषण से कहीं ज्यादा होता है।मसलन् टेलीविजन का जीवन पर किसी कार्यक्रम विशेष के प्रभाव की तुलना में जीवन पर कहीं ज्यादा प्रभाव होता है।इसी तरह फोन का कही गई बातों की तुलना में मानवीय जीवन पर कहीं ज्यादा गहरा असर होता है।फोन सिर्फ बात करने का माध्यम मात्र नहीं है।बल्कि उसकी मानवीय संबंधों में परिवर्तकारी भूमिका है।''माध्यम ही संदेश है'' इस अवधारणा का मैकलुहान ने पहली मर्तबा 1960 में ''रिपोर्ट ऑन प्रोजेक्ट इन अण्डरस्टेडिंग न्यू मीडिया'' में इस्तेमाल किया था।सन् 1964 तक यह धारणा मीडिया जगत में जनप्रिय हो गई।मैकलुहान की राय थी कि कोई भी अंतर्वस्तु हमारा ध्यान तभी खींचती है जब हम मीडियम के बारे में अपनी समझ और दृष्टि सही रखते हैं। क्योंकि मीडियम सूर्य की रोशनी की तरह होता है।उसके प्रकाश में ही अंतर्वस्तु प्रकाशित होती है।''माध्यम की अंतर्वस्तु पके मांस के रस की तरह है।'' ''यह उठाईगीरे की तरह है जो दिमाग के चौकन्नेपन से ध्यान हटाता है।''हम अमूमन देखते हैं कि अखबार,रेडियो,टेलीविजन आदि की खबरों के बारे में हम बातें करते रहते हैं।किंतु मीडियम के बारे में भूल जाते हैं।हमें सिर्फ अंतर्वस्तु याद रहती है।आज हमारे घरों में बच्चे पढ़ने की बजाय टेलीविजन देखने पर ज्यादा समय खर्च करते हैं।बड़ों की भी यही आदत है।अब तो मध्यवर्गीय परिवारों में लोग इंटरनेट पर ज्यादा समय खर्च करने लगे हैं।ऐसी स्थिति में मैकलुहान की धारणा''माध्यम ही संदेश है'',का महत्व और भी बढ़ जाता है।मैकलुहान ने लिखा कि माध्यम का प्रभावी एवं सघन असर तब होता है जब वह अन्य माध्यम के लिए 'अंतर्वस्तु' दे।जैसे फिल्म को उपन्यास से अंतर्वस्तु मिली।दूसरे शब्दों में किसी भी माध्यम की अंतर्वस्तु ''मांस के रस''की तरह है।वह हमारी चेतना में प्रभुत्व बनाए रखती है।वह माध्यम के गहरे प्रभावों से ध्यान हटाती है।इस धारणा को वेबसाइड के संदर्भ में देखें तो पाएंगे कि वेब की अंतर्वस्तु किसी एक माध्यम से नहीं आ रही।अपितु अनेक माध्यमों से आ रही है।आज वेब में प्रेम पत्र से लेकर अखबार,रेडियो, टेलीविजन, फिल्म,पुस्तक,टेलीफोन आदि सभी माध्यमों की अंतर्वस्तु उपलब्ध है।किंतु इन सब अंतर्वस्तुओं का मूलाधार है लिखित शब्द।कम्प्यूटर ने वाचन को लेखन में बदल दिया है।फिलहाल की स्थिति यह है कि लिखित शब्दों ने माध्यमों के संचालक की जगह हासिल कर ली है।आज कम्प्यूटर ने हमारी लिखने और बोलने की प्रकृति को बदल दिया है।पुस्तक,अखबार और पत्रिकाओं के प्रकाशन ने हमारी पढ़ने की क्षमता का विकास किया।किंतु वेब का मामला थोड़ा आगे बढ़ गया है।वेब हमें सिर्फ पढ़ने के लिए ही नहीं बल्कि लिखने के लिए भी मौका देता है।यहां दुतरफा प्रक्रिया है।अखबार-पत्रिका वगैरह में इकतरफा प्रक्रिया थी।पत्रिका,पुस्तक आदि के सीमित संख्या में पाठकों का सिर्फ पढ़ने तक संबंध था। जबकि ऑन लाइन दुतरफा प्रक्रिया है।आप पढ़ सकते है।लिख भी सकते हैं।पाठक अपना योगदान कर सकता है।पहले हम अखबार से खबर पढ़ते थे।आज पाठक ऑनलाइन पर उपलब्ध अखबार के लिए खबर लिख भी सकता है।पहले खबरों की इकतरफा प्रक्रिया थी।आज दुतरफा प्रक्रिया है।पाठक चाहे तो वेब पर इमेज और ध्वनि के माध्यम से भी अपनी बात कह सकता है। इमेज और ध्वनि पर आज सबका हक है।सबको अपनी बात कहने का हक है।इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो इंटरनेट ज्यादा जनतांत्रिक है।

संप्रेषण और संचार तकनीकी की यह विशेषता है कि वह जिस उद्देश्य के लिए बनायी जाती है।उसके निर्माण में जो मंशाएं कार्यरत होती हैं।उनसे जल्दी ही अपने को मुक्त कर लेती है। दूसरी विशेषता यह है कि संप्रेषण तकनीकी के रूप एक-दूसरे से अभिन्न रूप से जुड़े हैं। संप्रेषण तकनीकी के रूप स्वभावत: जनतांत्रिक होते हैं।बोलना जिस तरह जनतांत्रिक है।इसकी तकनीकी भी जनतांत्रिक है।जो तकनीकी रूप अभिव्यक्ति के साथ जुड़े हैं।वे अ-जनतांत्रिक नहीं हो सकते।वे किसी एक की बपौती नहीं हैें।हमारे बीच में यह धारणा प्रचलित है कि संचार माध्यमों का स्वामित्व अभिव्यक्ति को निर्धारित करता है।यह धारणा बुनियादी तौर पर गलत है।इंटरनेट के प्रसार में लगी हुई कंपनियां बहुराष्ट्रीय कंपनियां हैं।किंतु ऑन लाइन अभिव्यक्ति पर इनका कोई नियंत्रण नहीं है।अभिव्यक्ति व्यक्तिगत कार्य-व्यापार है।इसका संचार तकनीकी से गहरा संबंध है।इसी अर्थ में अभिव्यक्ति,संचार तकनीकी और जनतांत्रिकबोध एक-दूसरे से अभिन्न हैं। यह संबंध बदलता रहता है।आज अकारादि अक्षर अपने मूल रूप में जैसे थे।वैसे ही नहीं हैं।एक जमाना था जब टैक्स्ट को एक समय में सिर्फ एक ही आदमी पढ़ सकता था।यदि कोई उसकी प्रतिलिपि या नकल तैयार करना चाहे तो तैयार कर सकता था।यहां तक कि इतिहास-पूर्व की अवस्था के भित्तीचित्रों को व्यक्तिगत या समूह में देख सकते थे।अथवा यों कहें सीमित संख्या में लोग देख सकते थे।यह सीमित संख्या में देखने की अवस्था अक्षर के जन्म के पहले की है।अक्षर के आने के बाद एक साथ पढ़ने,समानान्तर पढ़ने,एक स्थान से ज्यादा जगहों में पढ़ने की संभावनाओं का जन्म हुआ।अक्षरों में विसंयोजनकारी प्रवृत्ति होती है। अक्षर की अलगाऊ प्रवृत्ति को कुछ हद तक छापे की मशीन के जन्म के बाद खत्म करने में मदद मिली। छापे की मशीन ने मुद्रित शब्द की पुनरावृत्ति की,अनेक प्रतियों में टैक्स्ट को उपलब्ध कराया। एकाधिक व्यक्तियों को पाठ उपलब्ध हुआ।इससे अक्षर की अलगाऊ प्रवृत्ति कुछ हद तक कम हुई। मुद्रण की मशीन के आने के पहले तक पाठ चंद हाथों तक सीमित था।किंतु छापे की मशीन के आने के बाद मुद्रित सामग्री के जनतांत्रिकीकरण की प्रक्रिया शुरू हुई।इंटरनेट इस प्रक्रिया का चरमोत्कर्ष है।

छापे की मशीन से लेकर इंटरनेट तक की पाठ यात्रा एक मीडिया के माहौल से के दूसरे मीडिया माहौल के बीच की यात्रा है।प्रेस के उदय के साथ पाठ के राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक प्रसार की जो परंपरा शुरू हुई।वह आज विश्व साहित्य और जातीय साहित्य के रूप में चरमोत्कर्ष में है।आज ग्लोबल पाठ लोकल है।लोकल पाठ ग्लोबल है।मुद्रित पाठ या रेडियो एक खास समय में ही उपलब्ध था।किंतु इंटरनेट पर सब समय,सब जगह उपलब्ध है।इससे वास्तव अर्थों में अभिव्यक्ति को सार्वभौमत्व प्राप्त हुआ है।अभिव्यक्ति के अनंत,इकसार,वैविध्यपूर्ण,सर्वकालिक रूपों का जन्म हुआ है।परंपरागत रेडियो के कार्यक्रम निश्चित समय पर सुने जाते थे।किंतु आज इंटरनेट के कारण रेडियो कभी भी सुन सकते हैं।यहां तक कि रेडियो के पुराने कार्यक्रम भी सुन सकते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि मीडिया का परिवेश आज ज्यादा वैविध्यपूर्ण,स्थायी और परिवर्तनकारी स्थितियों को पैदा कर रहा है।आज लेखक को प्रकाशक की जरूरत नहीं है।वह स्वयं प्रकाशक बन सकता है।अपनी वेवसाइड बनाकर अपने सृजन को सामने ला सकता है।पहले शब्द का दृश्यकलाओं से सीधा संबंध नहीं था।किंतु इंटरनेट ने शब्द के साथ सभी दृश्यकलाओं का संबंध जोड़ दिया है।कम्प्यूटर के जरिए हम शब्दों के माध्यम से इंटरनेट में व्यक्त अन्य मीडियारूपों के साथ संबंध बनाते हैं।इंटरनेट के ब्लैंक ऑनलाइन पेज का शब्द के साथ-साथ दृश्य माध्यमों के लिए भी बेहद महत्व है।साइबर जगत में शब्द की शक्ति अनंत रूपों में बढ़ी है। आज 'यूजर' का निंयत्रण बढ़ा है।कागज पर शब्दों के आ जाने के बाद 'यूजर' का शब्दों पर बहुत सीमित नियंत्रण था।किंतु आज शब्दों पर नियंत्रण के माध्यम से दृश्य और वक्तृता पर भी शब्दों का नियंत्रण स्थापित हो गया है।आज स्थिति यहां तक पहुँच गई है कि शब्दों के नियंत्रण को हासिल करने के लिए लिखने में महारत हासिल करने की जरूरत नहीं है।आज शब्द अंतरिक्ष के माहौल का हिस्सा हैं।यह संभव हुआ है ऑनलाइन के कारण।अंतरिक्ष के परिवेश में कम्युनिकेशन के स्थित हो जाने कारण कभी भी कहीं भी शब्दों के माध्यम से संप्रेषण कर सकते हैं। कभी भी जीवंत बातचीत,परिचर्चा आदि कर सकते हैं।

छापे की मशीन के आने के बाद हमारे दृश्य शब्दों में बदल गए।आंखों की जगह शब्दों ने ले ली।आंखों और कानों की भूमिका घट गई।अब किसी घटना या दृश्य के बारे में बताने या दिखाने की बजाय शब्दों में लिपिबध्द करना शुरू हो गया।मुद्रण,रेडियो और टेलीविजन के साथ सीमित खुले परिवेश एवं सीमित संपर्क का जन्म हुआ।जबकि इंटरनेट ने इस सीमित खुले परिवेश को पूरी तरह खोल दिया।असीमित संपर्क की संभावनाएं खोल दीं।इंटरनेट की सबसे बड़ी विशेषता है 'खुलापन' और 'अंतर्क्रिया'।इसके अलावा ऑनलाइन अक्षरों की विशेषता है कि हम सूचना को आंखों से ग्रहण करते हैं।यहां विजुअल का महत्व है।यह अविभाजित एकाग्रता की मांग करता है।हम साइबरस्पेस को आंखें बंद करके नहीं देख सकते।हम रेडियो सुनते हुए अन्य चीजों में ध्यान लगा सकते हैं।जबकि टेलीविजन सामने बैठकर देखने की मांग करता है।वह हमारा समय मांगता है। इंटरनेट आया तो अक्षरों का महत्व बढ़ गया।यह संभावना दूर नहीं है कि इंटरनेट से अक्षर गायब हो जाएं और हम सिर्फ भाषण सुनें।सवाल पैदा होता है तब अक्षरों का क्या होगा ?इससे भी बड़ा सवाल यह है कि माध्यम जगत में आ रहे दैनन्दिन परिवर्तनों के कारण माध्यमों का भविष्य में क्या होगा ? इनकी क्या भूमिका होगी ?

मनुष्य सिर्फ जन्मदाता के रूप में ही व्यक्त नहीं करता।बल्कि चयनकर्ता के रूप में भी व्यक्त करता है।हम अपना चयन दो आधार पर करते हैं पहला, कम्युनिकेशन को बायोलॉजिकल सीमाओं के परे ले जाकर नग्नतम रूप में चीजों को देख और सुन सकें।दूसरा, मीडिया बायोलॉजिकल कम्युनिकेशन के विलुप्त तत्वों को पकड़े।दूसरे शब्दों में हम चाहते हैं कि हमारा स्वाभाविक कम्युनिकेशन हमारे अस्तित्व की सीमाओं को भी पार कर जाए। डारवियन दृष्टिकोण्ा से मीडिया को यदि देखा जाय तो पाएंगे कि सूचना और माध्यम तकनीकी का विकास क्रमश: हुआ है।साथ ही ये सभी तकनीकी रूप एक-दूसरे से अभिन्न रूप से जुड़े हैं।विकास की प्रक्रिया में नई तकनीक पुरानी तकनीक को अपदस्थ करती है।हाशिए पर डालती है।जैसे टेलीफोन ने टेलीग्राफ की जगह ली।श्वेत-श्याम की जगह रंगीन कलर ने ली।मूक फिल्म की जगह बोलती फिल्म आई।किंतु रेडियो और फिल्म को टेलीविजन अपदस्थ नहीं कर पाया।इसका प्रधान कारण है हमारी पूर्व -तकनीकी प्राकृतिक कम्युनिकेशन व्यवस्था।इसके दो प्रमुख तत्व हैं देखना और सुनना।रेडियो और फिल्म इन दोनों के प्रतिनिधि हैं।मीडिया की खूबी है कि उसके तकनीकी रूप कभी अप्रासंगिक नहीं होते।वे अपने को नई परिस्थितियों में ढाल लेते हैं।सामंजस्य बिठाते हैं। बदलते हैं।

ऑनलाइन कम्युनिकेशन वस्तुत: हवा की तरह है।जिस तरह हवा वगैर किसी बाधा या पूर्वाग्रह के सभी को स्पर्श करती है।ठीक उसी तरह ऑनलाइन कम्युनिकेशन सबके लिए है।वह देश,काल, जाति आदि किसी भी किस्म की बंदिशों को नहीं मानता।यह एक ऐसी सूचना व्यवस्था है जिसके लिए मानवीय मस्तिष्क ,समय और दूरी एकदम अप्रासंगिक हैं।जबकि वास्तव जगत में समय और दूरी का महत्व है।यह ऐसी कम्युनिकेशन व्यवस्था है जिसमें स्पीड का महत्व है।ट्रांसपोर्ट का नहीं।''हिन्दी पत्रकारिता के इतिहास की भूमिका''(1996) में मैंने विस्तार से कम्युनिकेशन और ट्रांसपोटर्ेसन के अन्तस्संबंध और इन दोनों के अलग हो जाने के बारे में टेलीग्राफ टैक्नोलॉजी के संदर्भ में विस्तार से विचार किया था।पहले किसी से बात करने के लिए उसके पास जाना पड़ता था।शारीरिक तौर पर मौजूदगी जरूरी थी।किंतु उन्नीसवीं शताब्दी में टेलीग्राफ के आने बाद से कम्युनिकेशन और ट्रांसपोटर्ेसन अलग -अलग हो गए। असल में जब से मनुष्य के पास फोन आया।मनुष्य अंतरिक्ष में चला गया।ऑनलाइन उसी का विस्तार है।मैकलुहान ने लिखा कि टेलीफोन ने कानून और नैतिकता के प्रति हमारी सभी प्रतिबध्दताओं को खत्म कर दिया।यही काम टेलीविजन ने किया।टेलीविजन ने नैतिकता के सभी मानदण्ड तोड़ दिए।मैकलुहान ने लिखा है कि मीडिया ने व्यक्तिगत अस्मिता और शहरी हिंसाचार जैसी अनैतिक चीजों को जन्म दिया। टेलीविजन हिंसाचार की फैंटेसी इस बात का संकेत है कि वास्तव जगत में हिंसा के लिए उन लोगों को प्रेरित किया जा रहा है जो अपनी पहचान खो चुके हैं। मैकलुहान की इस धारणा को हम ऑनलाइन पर लागू करें तो पाएंगे कि ऑनलाइन सामग्री प्राप्त करने वाले या इसके उपभोक्ता के लिए पहचान या अस्मिता का कोई महत्व नहीं है।ऑनलाइन उपभोक्ता की निजी पहचान खत्म करने के लिए हिंसा की भी जरूरत नहीं है।हमारे बहुत सारे युवाओं में ऑनलाइन प्यार का भूत भी देखा जाता है।हम फोन से प्यार की बातें करने वाले विज्ञापनों को भी देखते हैं। फोन से प्यार की बातें करने वाले शायद यह नहीं जानते कि फोन पर जिससे वे बातें कर रहे हैं वह कोई औरत नहीं है।बल्कि सिर्फ आवाज है।यह शरीर रहित आवाज है।आवाज के साथ शरीर की अनुपस्थिति को हम अपनी कल्पना से भरते हैं।यह तो सिर्फ शब्दों के साथ किया गया प्यार है। बहुत सारे लोगों को यह अनैतिक लग सकता है।किंतु इसमें अनैतिक जैसा कुछ भी नहीं है।किंतु एक खतरा पैदा हुआ है।छिपाने की असीमित संभावनाएं पैदा हुई हैं। ऑनलाइन इमेजों के जरिए हम शरीर को देख सकते हैं।शारीरिक क्रियाओं,संभोग क्रियाओं आदि को देख सकते हैं।किंतु असलियत में ऑनलाइन में कोई शरीर ही नहीं होता।शरीर तो घर में होता है जिसे हम दर्शक या उपभोक्ता का शरीर कहते हैं।वह शरीर अकेला होता है।

ऑनलाइन ने ऐसे लोगों के बीच संबंध बनाया है जो एक-दूसरे को एकदम नहीं जानते।ये ऐसे लोग हैं जो एक-दूसरे से छिपाते हैं।झूठ बोलते हैं।वे अपने शरीर,लुक,लिंग, उम्र,हैसियत आदि सभी चीजों के बारे में झूठ बोलते हैं।'छिपाना' ऑनलाइन की केन्द्रीय विशेषता है। यही वजह है कि ऑनलाइन सैक्स में न तो गर्भधारण का खतरा है और न बीमारी का खतरा है।यह ऐसी व्यवस्था है जो सभी किस्म की प्रतिबध्दताओं से मुक्त कर देती है।सभी किस्म की प्रतिबध्दताओं से मुक्ति इसका मूलाधार है।

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