शुक्रवार, 14 अगस्त 2009

पुस्‍तक अंश- मीडि‍या हिंसा हिंसा न भवति‍

माध्यम हिंसा मीठी हिंसा है।यह जहर है जो आनंद के साथ पिया जाता है। कलाओं में हिंसा का रूपायन मनुष्य बनाता है। किन्तु माध्यमों में हिंसा का प्रक्षेपण हिंसक बनाता है। हमारे समाज में ऐसे बहुत से लोग हैं जो माध्यम हिंसा के प्रति तदर्थभाव रखते हैं। अथवा यह मानकर चलते हैं कि माध्यम हिंसा का कोई असर नहीं होता। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अपने बच्चों को सुधारने के नाम पर टेलीविजन कार्यक्रम देखने से रोकते हैं। माध्यम जगत में इसके तात्कालिक और दीर्घकालिक प्रभावों को लेकर विस्तार से अध्ययन हुआ है। माध्यम निर्मित हिंसा मनुष्य में आक्रामकता बढ़ाती है।यह उसका पहला प्रभाव है।साथ ही आक्रामक व्यवहार के प्रति असहिष्णुता पैदा करती है।इसके अलावा संवेदनहीनता और भय पैदा करती है।

ए.एच.स्टेन और एल.के.फ्रेडरिक ने ''टेलीविजन कंटेंट एण्ड यंग चिल्ड्रेन''(1972)में अमरीका में असामाजिक तत्वों और उनके समर्थकों पर किए गए 48शोध कार्यों का विश्लेषण करते हुए लिखा कि 3से 18 वर्ष तक की आयु के बच्चों में टेलीविजन के हिंसक कार्यक्रमों ने आक्रामकता में वृध्दि की है।विगत 30 वर्षों में जितने भी शोधकार्य हुए हैं वे इसकी पुष्टि करते हैं।टेलीविजन हिंसा के प्रभाव को लेकर किए गए अध्ययन इस बात की पुष्टि करते हैं कि टेलीविजन हिंसा से आक्रामकता के अलावा असामाजिक व्यवहार में इजाफा होता है। हिंसक रूपायन का प्रभाव तात्कालिक तौर पर कई सप्ताह रहता है।कई लोग टेलीविजन हिंसा को अस्थायी तौर पर ग्रहण करते हैं या 'केजुअल' रूप में ग्रहण करते हैं। 'केजुअल'रूप में ग्रहण आक्रामकता में इजाफा करता है।खासकर उन लोगों पर इसका ज्यादा असर होता है जिनमें गुस्सा या आक्रामकता का भाव होता है।

माध्यम विशेषज्ञों ने तात्कालिक प्रभाव का अध्ययन करके बताया है कि दर्शक की रिहाइश, उम्र,लिंग,सामाजिक,आर्थिक अवस्था,एथिनिसिटी आदि की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। टेलीविजन हिंसा का प्रभाव न पड़े इसके लिए जरूरी है कि बच्चे / युवा को परिवार के जीवंत संपर्क में रखा जाए। उन बच्चों में कम प्रभाव देखा गया है जिनके परिवारों में हिंसा के खिलाफ माहौल है। अथवा जिन परिवारों में कभी मारपीट तक नहीं हुई। अथवा जिन परिवारों में सामाजिक विश्वासों की जड़ें गहरी हैं। किन्तु जिन परिवारों में बच्चों के साथ दर्ुव्यवहार होता है,उत्पीड़न होता है।वहां बच्चे हिंसा के कार्यक्रम ज्यादा देखते हैं। हिंसक हीरो के साथ अपने को जोड़कर देखते हैं। समकक्ष और वयस्क चरित्र बच्चों की चेतना और व्यवहार को जल्दी प्रभावित करते हैं।खासकर समवयस्क पुरूष चरित्रों का बच्चों के आक्रामक व्यवहार पर तात्कालिक असर होता है। जबकि वयस्क पुरूष चरित्रों का प्रभाव छह महीने तक रहता है।

जे.स्प्राफकीन,के.डी.गदोव और पी.ग्रियर्सन ने ''इफेक्टस ऑफ व्यूइंग एग्रेसिव कार्टून ऑन दि विहेवियर ऑफ लरनिंग डिसेविल चिल्ड्रन''(1987)शोधपत्र में लिखा कि सामान्य तौर पर आक्रामक कार्टून और कण्ट्रोल कार्टून देखने के बाद 6-10वर्ष के अपंग बच्चों के आइक्यू पर बुरा असर देखा गया। यह सोचना गलत है कि कार्टून बच्चों के आक्रामक रवैयये को प्रभावित नहीं करते। इसी तरह बच्चों की सोचने की क्षमता को भी कार्टून सीरियल प्रभावित करते हैं। यह व्याख्या पर निर्भर करता है कि बच्चे किस तरह कार्टून की व्याख्या करते हैं। साथ ही सोचने की स्थिति का बच्चे की उम्र से गहरा संबंध है। तीन वर्ष का बच्चा इतना सचेत हो जाता है कि वह अंतर्वस्तु का अर्थ खोजने लगता है। जबकि पांच साल का बच्चा दृश्यगत वैविध्य में आनंद लेने लगता है। यही वैविध्य उसकी मुख्य क्रीडास्थली है। तेजी से बदलते दृश्य,चरित्र,अनपेक्षित स्थान, घटनाएं,ध्वनि आदि उसे आकर्षित करती है। बच्चे कार्टून में हिंसा को बड़े गौर से देखते हैं।इस तरह के कार्टून के प्रति आकर्षण का कारण हिंसा नहीं है। बल्कि उसका वैविध्यपूर्ण उत्पादन है। छ से ग्यारह साल के बच्चे में यह क्षमता पैदा हो जाती है कि वह आने वाले प्लाट के बारे में पूर्वानुमान लगाने लगता है। साथ ही जो बच्चे ग्रहण क्षमता के लिहाज से अपंग होते हैं उनमें कार्टून धारावाहिकों का ज्यादा असर देखा गया है।

जो बच्चे भावनात्मक तौर पर परेशान रहते हैं उन पर आक्रामक चरित्र सबसे जल्दी असर पैदा करते हैं। इस तरह के बच्चे हिंसा के कार्टून ज्यादा चाव के साथ देखते हैं।आक्रामक या हिंसक चरित्रों को देखने के बाद बच्चों में समर्पणकारी एवं रचनात्मकबोध तेजी से पैदा होता है।

टेलीविजन कार्यक्रमों के बारे में किए गए सभी अध्ययन इस बात पर एकमत हैं कि इसके नकारात्मक प्रभाव से मानसिक उत्तेजना,गुस्सा और कुंठा पैदा होती है।साथ ही यह दर्शक को भड़काकर ऐसी अवस्था में ले जाता है जहां से उसमें आक्रामक रवैयया पैदा होता है। आक्रामक रवैयया ऐसी स्थिति में ज्यादा पैदा होता है जब दर्शक समाधानहीन उत्तेजना की स्थिति में होता है। बच्चे जब टेलीविजन पर आक्रामक या हिंसा के कार्यक्रम देख रहे होते हैं तब उनके चेहरे पर खुशी होती है। किन्तु बाद में इसके प्रभावस्वरूप कुण्ठा और उत्तेजना दिखाई देती है।

एच.पाइक और जी.कॉम स्टॉक ने ''दि इफेक्ट ऑफ टेलीविजन वायलेंस ऑन एण्टी सोशल विहेवियर:ए मेटा एनालिसिस'(1994)में बच्चों पर टेलीविजन प्रभाव के बारे में किए गए 217 शोधकार्यों का विश्लेषण करने के बाद पाया कि टेलीविजन कार्यक्रमों की हिंसा एवं असामाजिक आचरण संबंधी प्रस्तुतियों का बच्चों पर सीधा असर होता है। चाहे ये बच्चे किसी भी कक्षा में पढ़ते हों। जो दर्शक मीडिया के एक्सपोजर से परेशान होते हैं उनमें आक्रामकभाव ज्यादा देखा गया है। यह आक्रामकता खासतौर पर ऐसे समय पायी जाती है जब उत्तेजना का समाधान नहीं होता। टेलीविजन प्रभाव के लिए कुण्ठा का पहले से होना जरूरी नहीं है। बल्कि यह बाद में पैदा होती है। पेशेवर लोगों की मारपीट या हिंसा के बदले जब चरित्र बदले की कार्रवाई करता नजर आता है तब आक्रामक व्यवहार ज्यादा पैदा होता है। यह भी पाया गया है कि बच्चे जिस चरित्र से अपने को जोड़कर देखने लगते हैं उसका जल्दी प्रभाव होता है। प्रभावशाली चरित्र और खलनायक की हिंसा ज्यादा प्रभावित करती है। प्राइमरी के बच्चों में किए गए सर्वे बताते हैं कि बच्चों को महानायक जबर्दस्त प्रभावित करते हैं।

आम तौर पर मीडिया में पांच किस्म के संदर्भों में प्रस्तुतियां मिलती हैं।पुरस्कार और दण्ड,दुष्परिणाम,हिंसा की हिमायत,यथार्थवादी और उत्पादन की तकनीकी से निर्मित हिंसा। इसके अलावा हथियार की मौजूदगी और कामुकता के संदर्भ में भी हिंसा मिलती है। पुरस्कार और दंड के संदर्भ में निर्मित हिंसा यह सूचना देती है कि कौन सा एक्शन स्वीकार्य योग्य है।इस तरह के भी प्रमाण मिले हैं कि दस साल से ज्यादा उम्र के बच्चों पर इस तरह की मीडिया हिंसा का असर नहीं होता।क्योंकि वे पुरस्कार और दण्ड के बीच संबंध स्थापित करने में असमर्थ होते हैं। हिंसक चरित्र को यदि दण्डित किया जाता है तो दर्शक की आक्रामकता घट जाती है।इसी तरह गैर आक्रामक चरित्रों को जब पुरस्कृत किया जाता है तो दर्शक की आक्रामकता घटायी जा सकती है। दण्ड के अभाव में गुस्सा बढ़ता है। रुसक्रेंस और हर्टप ने तीन साल से लेकर पांच साल के बच्चों पर किए अनुसंधान में पाया कि जो बच्चे अनियमित ढ़ंग से वास्तव लोगों के हिसाचार को देखते रहे हैं उन पर टेलीविजन की हिंसा की बजाय वास्तव हिंसाचार का ज्यादा गहरा असर देखा गया है।

हिंसा के परिणामों का किस तरह और किस रूप में चित्रण दिखाया जाता है इससे भी प्रभाव का अनुमान किया जा सकता है। यदि हिंसा के परिणाम के तौर पर मुख्य चरित्र के यहां दर्द दिखाया जाता है तो इसका दर्शक पर असर होता है। पीड़ित का दर्द असर नहीं करता। हिंसा की वैधता और हिमायत में चित्रित रूपों के कारण बड़े पैमाने पर आक्रामक व्यवहार पैदा होता है। एल.बिरकोविट्ज और इ.रॉवलिंग ने ''इफेक्ट्स ऑफ फिल्म वायलेंस ऑन इनहिविटेशन्स अगेंस्ट सवसीक्वेंट अग्रेसन''(1963)शोधपत्र में लिखा कि फिल्मों में आक्रामक व्यवहार की वैधता दर्शक के वास्तव जीवन में हिंसा के निषेध को कम कर देती है। आम तौर पर मीडियावालों की तरफ से हिंसा की मंशा की वैधता के तर्क खूब सुने जाते हैं। आर.सी.ब्राउन और जे.टी.तिदेची ने ''डिटर्मिनेंट्स ऑफ परसीव अग्रेसन''(1976) शीर्षक शोधपत्र में लिखा कि हिंसा से ज्यादा वाचिक हिंसा का प्रभाव होता है।मसलन् मौखिक धमकी या गाली शारीरिक हमलों या हिंसक एक्शन की तुलना में ज्यादा हिंसक होती है। प्रतिशोध या प्रतिकार की मंशा से की गई हिंसा में भी हिंसा के प्रति अवरोध भाव पैदा करने की क्षमता होती है।

एल.बिरकोविट्ज और जे.टी.एलिओटो ने ''दि मीनिंग ऑफ वन ऑब्जवर्ड इवेंटएज ए डिटरमिनेंट ऑफ इट्स अग्रेसिव कॉनसिक्वेंस''(1973) शोधपत्र में खेल(मुक्केबाजी और फुटबाल) पर बनी फिल्म का मूल्यांकन करते हुए लिखा कि इस फिल्म के अभिनेता पेशेवर लोगों की तरह खेल में भाग ले रहे थे। जिनका लक्ष्य था जीतना अथवा बदला लेने की मंशा थी। वे अपने एक्शन से किसी दूसरे को आघात पहुँचाना चाहते थे। इस तरह की फिल्में लम्बे समय तक आघात या सदमे की अवस्था में रखती हैं। हिंसा की तुलना में आत्म रक्षा के लिए की गई हिंसा के रूपायन के समय अप्रतिरोधी भाव ज्यादा प्रबल होता है। जबकि परोपकारी हिंसा का भी गहरा असर होता है। मीडिया अनुसंधान बताते हैं कि आठ से पन्द्रह साल तक के बच्चों को हिंसा की मंशा समझने में असुविधा होती है। इसके कारण ये बच्चे नकारात्मक दिशा में प्रेरित हो जाते हैं। अमूमन बदले की कार्रवाई के तर्क के बहाने हिंसा को वैध ठहराया जाता है। मसलन् एक फिल्म में बदले की कार्रवाई के रूप में जब करेंट के झटके दिए जाने का दृश्य दर्शकों को दिखाया गया तो उन्होंने इसे हिंसा नहीं माना।अनुसंधान बताते हैं कि दर्शकों के द्वारा हिंसा का फैसला इस तर्क के आधार पर किया जाता है कि बदले की कार्रवाई क्यों की गई ? उसका संदर्भ क्या था।कुछ अनुसंधान यह भी बताते हैं कि हिंसा की यथार्थवादी प्रस्तुति देखकर लोग उसका वास्तव जीवन में वैसे ही व्यवहार करना चाहते हैं।

हिंसा की निर्माण तकनीकी के कारण भी हिंसा के प्रति रवैयये पर असर पड़ता है। कहानी की नाटकीयता में ग्राफिक या खुल्लमखुल्ला जब हिंसा पेश की जाती है तो वह ज्यादा ध्यान खींचती है। तीन साल से लेकर पांच साल तक के बच्चों पर किए गए अनुसंधान बताते हैं कि बच्चे प्रोडक्शन के विविधतापूर्ण रूपों जैसे चरित्रों की त्वरित गतिविधियों ,तेजी से बदलते दृश्यों, अनपेक्षित स्थानों और ध्वनियों की सघनता से ज्यादा प्रभावित होते हैं। इसी कारण बच्चों को कार्टून सीरियल और फिल्में ज्यादा अपील करती हैं। वे कार्टून फिल्में हिंसा के कारण नहीं देखते। जैसाकि कुछ लोगों का मानना है।हिंसा में हथियारों के संदर्भ के सवाल पर जो अनुसंधान किए गए हैं उनमें मिश्रित परिणाम आए हैं।कुछ मानते हैं कि हिंसा में हथियारों का प्रयोग आक्रामक व्यवहार में इजाफा करता है।जबकि कुछ ऐसे भी शोध परिणाम सामने आए हैं जो बताते हैं कि हिंसा में हथियारों के प्रयोग का कोई असर ही नहीं होता। कामुक लक्ष्य से की गई हिंसा या कामुक संदर्भ में की गई हिंसा का दर्शकों पर गहरा असर होता है। इससे वास्तव जिन्दगी में आक्रामक व्यवहार में वृध्दि होती है। खासकर व्यक्ति का परिवारीजनों के प्रति आक्रामक रवैयया है।इसी प्रकार यदि कामुक फिल्म में हिंसा नहीं भी हो तक भी आक्रामकता में इजाफा होता है।कामुक फिल्मों का सेक्स प्रभाव ही नहीं होता बल्कि उससे आक्रामकता में भी वृध्दि होती है।मसलन् कामुक फिल्मों के प्रभाव के बारे में किए गए एक सर्वे में पाया गया कि फिल्म देखने वाले मर्दों की कामेच्छा में इजाफा करने की बजाय इस तरह की फिल्में मर्दानगी के भावबोध को ज्यादा उभारती हैं। असल में कामुक फिल्मों का प्रभाव दर्शक की भाव दशा पर निर्भर करता है। मसलन् यदि किसी कामुक फिल्म में किसी की उकसावेभरी कार्रवाई का चित्रण होता है तो दर्शकों को ऐसी फिल्म उत्तेजित करेगी,असंतुष्ट करेगी।इसके विपरीत उत्तेजना रहित,संतोष देने वाली कामुक फिल्म या गैर उत्तेजक किस्म की फिल्म आक्रामकता कम नहीं करती। इसके विपरीत ऐसी फिल्में ज्यादा आक्रामक बनाती हैं। अगर कामुक फिल्मों का दर्शक तनाव में न हो तो उस पर इन फिल्मों का असर नहीं होता। कामुक फिल्मों का प्रभाव इस तथ्य पर निर्भर करता है किस तरह का कामुक चित्रण पेश किया जा रहा है। कामुक फिल्मों के दो काम हैं पहला उत्तेजित करना और दूसरा भावनात्मक तौर पर ध्यान हटाना।इन दोनों का यदि व्यग्रता के साथ संबंध स्थापित हो जाता है तो आक्रामक व्यवहार में इजाफा होता है।

हल्की-फुल्की कामुक फिल्म आक्रामक व्यवहार को रोकती है या आक्रामक व्यवहार को रोकने की संभावनाएं पैदा करती है। दर्शक जब हिंसा देखता है तो उसमें नकारात्मक भाव पैदा होते हैं। मन में उसके बारे में सोचता है। आक्रामक एक्शन की कैद में होता है। ऐसी अवस्था में हथियार ,प्रतीक या नाम वगैरह की उपस्थिति एक्शन के लिए तैयार कर सकती है। मीडिया हिंसा पर किए गए अब तक अनुसंधानों में सबसे महत्वपूर्ण निष्कर्ष यह निकला है कि इससे दर्शक में भय पैदा होता है। यह हिंसा का तात्कालिक असर है। साथ ही भावनात्मक प्रतिक्रिया,बेचैनी और हताशा पैदा करती है। तात्कालिक मनोवैज्ञानिक प्रभाव को कई अन्य कारण भी प्रभावित करते हैं। जैसे लक्ष्य के साथ में स्वयं को जोड़कर देखना,मसलन् चरित्र आकर्षक हो,बहादुर हो,अथवा दर्शक के सोच से मिलता-जुलता हो। ऐसी स्थितियों में तदनुभूति पैदा होतीे है। जब किसी हिंसा के शिकार चरित्र के साथ दर्शक अपने को जोड़कर देखता है तो भय में बढ़ोतरी होती है। इस तरह की अवस्था में उसका आनंद भी प्रभावित हो सकता है। पी.एच.तेन्नेवुम और इ.पी.गीर ने ''मूड चेंज एज ए फंक्शन ऑफ स्ट्रेस ऑफ प्रोटागोनिस्ट एण्ड डिग्री ऑफ आइडेंटीफिकेशन इन फिल्म व्यूइंग सिचुएशन''(1965) में लिखा है कि जो दर्शक हीरो के साथ जोड़कर देखते हैं उन्हें ज्यादा तनाव में रहना पड़ता है। ऐसे लोगों के लिए सुखान्त राहत पहुँचाता है। इसके विपरीत दुखान्त या अनिश्चित अंत तनाव में वृध्दि करता है। यदि किसी बच्चे को वास्तविक हिंसा का अनुभव हो तो बाद में वह घटना और चित्रण को तुलना करके देखने लगता है। इससे भय पैदा होता है। जब कोई दर्शक माध्यम हिंसा को वास्तव जीवन में देखने की कल्पना करता है तो उसे तत्काल भय होने लगता है।

माध्यम हिंसा के एक्सपोजर के प्रत्येक व्यक्ति के लिए अलग-अलग कारण होते हैं।कुछ कारण ऐसे होते हैं जिनके कारण भय की संभावनाओं को कम किया जा सकता है।यदि लोग मनोरंजन के कारण हिंसा के कार्यक्रम देख रहे हैं तो उनके अंदर भय की संभावनाएं कम होती हैं। उत्तेजना में भय की अनुभूति ज्यादा होती है। बच्चों की ज्ञान क्षमता कम होती है। वे प्लाट का सही अनुमान नहीं कर पाते। फलत:वे मीडिया हिंसा से ज्यादा प्रभावित होते हैं। अन्य दर्शकों की तुलना में बच्चों में कुछ हिंसक फैंटेसी रूपों को समझने की क्षमता नहीं होती। माध्यमों में तीन किस्म की प्रवृत्तियां नजर आती हैं।पहली प्रवृत्ति में खतरनाक और क्षतिकारक रुप आते हैं। मसलन् ऐसी घटना का चित्रण जिसमें व्यापक क्षति हुई हो। इसमें प्राकृतिक आपदा, विभिन्न किस्म के जानवरों के हमले, बड़े पैमाने की दुर्घटना आदि शामिल है। दूसरी कोटि में प्राकृतिक रूपों की विकृतियां,इसमें शरीर में दिखनेवाली विकृतियां,विरूपताएं,जन्मगत विकृतियां आदि शामिल हैं। तीसरी कोटि में अन्य से उत्पन्न खतरे एवं तद्जनित भय का रूपायन मिलता है। मसलन् अन्यायपूर्ण हिंसा का चित्रण भय पैदा करता है। व्यापकस्तर पर खुल्लमखुल्ला या विस्तृत हिंसा का चित्रण भय को विस्तार देता है। जब हिंसा करने वालों को दण्डित नहीं किया है तो दर्शकों को ज्यादा भय होता है। हिंसा का लाइव एक्शन कार्टून हिंसा की तुलना में ज्यादा उत्तेजित करता है। मीडिया हिंसा का बार-बार एक्सपोजर संवेदनाशून्य बनाता है।

माध्यम हिंसा के तात्कालिक प्रभाव की तुलना में इसके दीर्घकालिक प्रभाव के बारे में अनुमान लगाना मुश्किल काम है। इसका प्रधान कारण यह है कि दीर्घकालिक प्रभाव धीरे-धीरे पैदा होता है। प्रभाव जब पूर्ण शक्ल अख्तियार करता है तब उसे पीछे जाकर मीडिया से जोड़कर सिध्द करने में असुविधा होती है। मीडिया हिंसा के प्रभाव का अध्ययन करते समय यह साफ रहना चाहिए कि किसी एक माध्यम विशेष या कार्यक्रम विशेष को प्रभाव से जोड़ना मूर्खता होगी। दीर्घकालिक प्रभाव के अध्ययन के लिए हमारे लिए सबसे सही तुलना मानवविज्ञान से मिल सकती है। किसी व्यक्ति के दांत या हड्डियां खास तरह के क्यों होते हैं ? इसका फैसला जिस तरह मानवविज्ञानी करते हैं उसी तरह हमें हिंसा के प्रभाव का अध्ययन करना चाहिए। माध्यम हिंसा के दीर्घकाल तक एक्सपोजर में रहनेवालों के स्वभाव में आक्रामकता होती है। वे अमूमन आक्रामकता वाले कार्यक्रम देखना पसंद करते हैं। अनुसंधान बताते हैं कि व्यक्ति के स्वभाव में आक्रामकता के तत्व का विकास सिर्फ मीडिया के हिंसाप्रधान कार्यक्रमों के एक्सपोजर निर्भर नहीं करता। अपितु आक्रामक व्यवहार के निर्माण में अन्य तत्वों की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है।मीडिया हिंसा का समाज में जारी हिंसा से गहरा संबंध है। हमें देखना होगा कि टेलीविजन के आने के पहले किस तरह के अपराध ज्यादा मात्रा में होते थे। टेलीविजन आने के बाद किस तरह के अपराध ज्यादा मात्रा में होने लगे। पहले किस तरह के लोग अपराधकर्म में शामिल थे। बाद में किस सामाजिक समूह के लोग अपराध करने लगे।

मीडिया में हिंसा सबसे आकर्षक लगती है। मीडिया उद्योग आज सबसे जनप्रिय और सबसे ज्यादा मुनाफा देने वाला उद्योग है।कुछ लोग इसे पापुकल्चर कहते हैं ,कुछ लोग इसे संस्कृति उद्योग कहते हैं।सारी दुनिया में मीडिया उद्योग का मुखिया अमेरिका है।नए आंकड़े बताते हैं कि सारी दुनिया में सन् 2001 में 14 विलियन डालर सिनेमा देखने पर खर्च किया गया। इसमें अकेले अमेरिका के घरेलू बॉक्स ऑफिस पर 9 विलियन डालर खर्च किए गए। इसके अलावा यदि ग्लोबल स्तर पर मीडिया संगीत की बिक्री पर नजर डालें तो पाएंगे कि मीडिया की सबसे बड़ी मार्केट है संगीत। सन् 2000 में मीडिया संगीत की बिक्री का आंकडा 37 विलियन डालर पार कर गया। वीडियो गेम की बिक्री सन् 2002 में 31 विलियन डालर आंकी गयी। अमेरिकी मीडिया कंपनियों का आधे से ज्यादा बाजार अमेरिका के बाहर है। यह बाजार लगातार बढ़ रहा है। आज अमेरिकी मीडिया मालों से सारी दुनिया के बाजार भरे पड़े हैं। टीवी,वीसीआर ,सैटेलाईट डिश आदि की बाजार में बिक्री लगातार बढ़ रही है। अमेरिकी फिल्में 150 से ज्यादा देशों में दिखाई जा रही हैं। अमेरिकी टेलीविजन कार्यक्रमों का 125 से ज्यादा देशों में प्रसारण होता है। अमेरिकी फिल्म उद्योग 'जी' (जनरल)केटेगरी और 'पीजी' (पेरेण्टल गाइडेंस)केटेगरी की फिल्मों को देखने वालों की संख्या लगातार घट रही है और 'आर' केटेगरी की फिल्मों की संख्या बढ़ रही है। हॉलीवुड के द्वारा सन् 2001 में दो-तिहाई से ज्यादा 'आर' केटेगरी की फिल्में बनायी गयीं।इसके अलावा एक्शन फिल्मों की विदेशों में मांग ज्यादा है। एक्शन फिल्म के लिए जटिल प्लाट और चरित्रों की जरूरत नहीं होती। वहां तो सिर्फ मारधाड, हत्या, स्पेशल प्रभाव और विस्फोटों के माध्यम से जनता को बांधे रखा जाता है। जबकि कॉमेडी और नाटक में अच्छी कहानी चाहिए,गहरा व्यंग्य चाहिए,प्रामाणिक चरित्र चाहिए, ये सारी चीजें विशिष्ट संस्कृति केन्द्रित होती हैं,इसके विपरीत एक्शन फिल्म के लिए अच्छी स्क्रिप्ट और अच्छी एक्टिंग से ही काम चल जाता है। क्योंकि एक्शन फिल्म सरल होती है। उसे सारी दुनिया में कोई भी समझ सकता है। इसमें ज्यादा संवाद नहीं होते। एक ही वाक्य में कहें तो एक्शन फिल्म में 'संवाद कम धडकन ज्यादा होती है।' हॉलीवुड उद्योग सामाजिक मसलों पर फिल्म बनाने पर खर्चा नहीं करना चाहता। बल्कि एक्शन फिल्मों पर ज्यादा खर्चा करना चाहता है।

अमेरिकी फिल्मों की जनप्रियता ने सारी दुनिया में फिल्मों का एक नया ट्रेंड विकसित किया है। अब ज्यादा से ज्यादा अमेरिकी फिल्मों की तर्ज पर कहानी और एक्शन की मांग उठ रही है। अमेरिकी फिल्मों के प्रभाव के कारण ही संगीत में हिंसा और कामुकता की बाढ़ आयी है। अब वीडियो संगीत में हिंसक और असामाजिक इमेजों की ज्यादा खपत हो रही है। इससे सामाजिक जीवन में घृणा का प्रसार हो रहा है। घृणा आज सबसे पवित्र और बिकाऊ माल बन गया है। दुनिया की सबसे बड़ी संगीत कंपनी यूनीवर्सल म्यूजिक ग्रुप ने अपनी समूची मार्केटिंग शक्ति झोंक दी है और सभी नामी अश्वेत गायकों को मैदान में उतार दिया है। चर्चित गायकों में इमीनिम,डीआर,डीआरइ,लिम्प बिजकिट के नाम प्रमुख हैं। इन अश्वेत गायकों के द्वारा गाए गए अधिकांश गाने हिंसा और घृणा से भरे होते हैं। इनमें निशाने पर औरतें ,समलैंगिक और लेस्बियन होते हैं। इस तरह का हिंसा प्रदर्शन अपने चरमोत्कर्ष पर सन् 2001 में तब पहुँचा जब अमेरिका के प्रसिध्द ग्रेमी एवार्ड के लिए इमीनेम को चार पुरस्कारों के लिए नामांकित किया गया। इस गायक की सीडी दि 'इमीनेम शो' ने सन् 2002 में बाजार में आते ही पहले ही महिने में 3.63 मिलियन डालर की बिक्री की। यही स्थिति कमोबेश रेप संगीत की है।इसने पॉप म्यूजिक को पछाड़ दिया है। रेप में व्यापक पैमाने पर हिंसक गीत और हिंसक जीवन शैली का रूपायन हो रहा है। यही स्थिति वीडियो गेम की है।

चंद वर्षों में वीडियो गेम हिंसा के पर्याय बनकर रह गए हैं। आज विश्व मीडिया उद्योग में वीडियो गेम दूसरा सबसे ज्यादा मुनाफा देने वाला क्षेत्र है। अनुसंधान बताते हैं कि 'आर' केटेगरी की फिल्मों ,वीडियो गेम, कामुक वीडियो के सबसे बड़े उपभोक्ता युवा हैं। मीडिया हिंसा के बारे में विगत पचास साल में किए गए अनुसंधान एक स्वर से यह रेखांकित करते हैं कि मीडिया हिंसा का बच्चों पर गहरा असर होता है, खासकर जब वे बड़े हो जाते हैं तो इस असर को देखा जा सकता है। उनके व्यवहार में आक्रामकता आ जाती है। मीडिया में हिंसा के प्रभाव को लेकर सबसे पहले विवाद हिंसा की परिभाषा को लेकर हुआ। मीडिया हिंसा के महान् अध्येता और टेंपिल यूनीवर्सिटी में प्रोफेसर जॉर्ज गर्बनर ने लिखा ऐसा अभिनय ,भूमिका या धमकी जिससे किसी की हत्या हो या क्षति हो ,उसे हिंसा कहते हैं। इसको देखने के पैमाने अलग-अलग हैं।इसमें कार्टून हिंसा को भी शामिल करना चाहिए। जबकि कुछ मीडिया विशेषज्ञ यह मानते हैं कि कार्टून हिंसा को मीडिया हिंसा में शामिल नहीं करना चाहिए,क्योंकि वे व्यंग्यात्मक और अयथार्थ होते हैं । जो लोग यह मानते हैं कि मीडिया हिंसा आक्रामकता पैदा करती है ,उनसे भी असहमत विशेषज्ञ हैं।इन लोगों का मानना है कि ये दोनों एक-दूसरे से जुड़े हैं किन्तु इन दोनों में अनौपचारिक संबंध है।यह संबंध तब इस बात पर निर्भर करता है कि बच्चे कैसे सीखते हैं।


मीडि‍या सि‍द्धान्‍तकार- 1

( जगदीश्‍वर चतुर्वेदी,सुधा सिंह, 'भूमंडलीकरण और ग्‍लोबल मीडि‍या',2008,अनामि‍का पब्‍लि‍शर्स एंड डि‍स्‍ट्रीब्‍यूटस्र (प्रा.)लि‍., 4697 / 21 ए,अंसारी रोड़ ,दरि‍यागंज,नई दि‍ल्‍ली,110002 से प्रकाशि‍त )

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