रूस के महान कवि मायकोव्स्की ने कहा था: 'कविता शांति-मठ नहीं / कविता बर्बर युध्द है'। निस्संदेह दिनकर की कविता प्राय: शांति मठ नही है किंतु बर्बर युध्द भी नहीं है, हां, क्रांतिकारी प्रबुध्द दलितों का युध्द उनके काव्य का मूल प्रतिपाद्य अवश्य है।
दिनकर ने स्वयं को 'काल का चारण' कहा है। निस्संदेह समय उनका सारथी था। अपने एक व्याख्यान में उन्होंने कहा है: ''साहित्य कला का न तो मैं स्वामी हूं और न उसका विद्वान आलोचक। मैं तो काल का चारण हूं और उसी के संकेत पर जीवन की टिप्पणियां लिखा करता हूं।''
दिनकर की काव्य चेतना में रोमांटिक कविता का प्रभाव आजीवन अक्षुण्ण बना रहा है। इस प्रसंग में उन्होंने कहा है: ''रोमांटिक कविता का सबसे बड़ा लक्षण आवेश है।... आवेश शब्द से एक ध्वनि यह भी निकलती है कि कवि अपने होश में नहीं है, वह स्वयं नहीं लिख रहा है बल्कि कोई और शक्ति उससे लिखवा रही है।'' इससे स्पष्ट है कि दिनकर की रोमांटिक काव्य चेतना बहुत गहरी है। उनके यहां आवेश उफान या झाग नहीं है, जिसे बहुत से कम्युनिस्ट आलोचक प्राय: कहते रहते हैं। दिनकर का स्वच्छंदतावाद पलायनवादी, रहस्यवादी और गलदश्रु भावुकतावादी नहीं है। उनका 'क्रांतिकारी स्वच्छंदतावाद' समतावादी आदर्शों से प्रतिबध्द है। वे अपने युगीन यथार्थ के मानव द्रोही पक्षों को बड़ी ईमानदारी के साथ चित्रित करते हैं तथा अपनी समकालीन क्रांतिकारी विचारधारा के भास्वर पक्षों के साथ अपनी प्रतिश्रुति व्यक्त करते हैं। एक मौलिक काव्यचेता की तरह वे न तो किसी का अनुशरण करने के हामी हैं और न समर्थन करने के। उनकी मौलिक काव्य-चेतना के आधार भूत तत्व हैं- अपनी कालजयी परंपरा के महान मूल्यों के साथ संबध्दता, देश प्रेम और राष्ट्रवाद, भारत के शोषित पीड़ित दलित वर्गों की पक्षधरता। यह कहना गलत न होगा कि दिनकर के प्रगतिशील काव्य का मुकाबला करने वाला हिंदी में नागार्जुन को छोड़कर एक भी प्रगतिवादी कवि नहीं है, भले ही वे माक्र्सवाद की नर्म ऋचाएं आजीवन क्यों न चबलाते रहे हों।
दिनकर लंदनियां साम्यवादी न थे। उनकी शिक्षा ऑक्सफोर्ड, कैम्ब्रिज में न हुई थी। वे देश बाह्य निष्ठा के कटु निंदक थे। समाजवाद के नाम पर उन्होंने रूस और चीन का एजेंट बनना स्वीकार नहीं किया। उन्होंने अपने देश के गरीबों के विश्वविद्यालयों से समाजवाद का पाठ पढ़ा। ''13-14 वर्ष की उम्र में नंगे पांव स्कूल जाते थे। गर्मी के दिनों में दियारे के तपते बालू में बगैर जूते के चलना पड़ता था। तपती रेत की जलन से बचने के लिए वे कपड़े की पोटली या झौआ का प्रयोग करते थे। छात्रावास में रहने को पैसे नहीं थे। उनकी गरीबी अकेले उन्हीं की गरीबी नहीं थी। सांमतों, उपनिवेशवाद के चाकरों के सिवा पूरा भारत भयानक गरीबी में जी रहा था। अकाल पर अकाल पड़ते थे। एक बार अकाल के समय उन्होंने अपने गांव की पाठशाला के गुरुजी को पेड़ के नीचे महुए के फलों को चुन-चुन कर खाते देखा था। उस दिन वे खूब रोए थे। इस गरीबी का प्रभाव उनकी कविता पर पड़ा है।''
कामेश्वर शर्मा ने दिनकर की काव्य संवेदना के निर्माण में इन तत्वों को चिह्नित किया है: ''दिनकर का बाल्यकाल घोर देहात में बीता, जिसकी भूमि को न जाने कब से गंगा अपने पावन जल से सींचती आ रही है। हरी-भरीभूमि, धान और गेहूं के लहलहाते पौधे, सरसों के फूल, उन्मुक्त पवन और मौजों में लहराती हुई गंगा, दिनकर के बाल नयनों ने इन्हें हर्ष और उल्लास के साथ देखा था। उजड़ते खलिहान, क्षीणकाय किसान, जमींदारों के शोषण, भूख से तड़पते बच्चे, रोदन और उत्पीड़न का साम्राज्य- दिनकर के किशोर नयनों ने इन्हें विस्मय और प्रश्नाकुल नयनों से देखा था। मनों गल्ला पैदा करने वाले किसानों को उसने भूख से तड़पते देखा था, घड़ों पसीना देखा था और फिर उदासी भरी संध्या के बाद उन्हें भर लोटा पानी पीकर संतोष भी करते देखा था। मुट्ठी भर शोषक, किस प्रकार अगणित शोषितों को भेड़ की तरह बेगार में हांककर ले जाता है, पीटता है, जबर्दस्ती भूखों काम करवा कर छूछे हाथ घर भेज देता है। दिनकर के अर्ध्द चेतन नयनों ने इन्हें भौंहो पर चढ़कर देखा था।'' यही वह परिवेश था जिसमें पलकर दिनकर अत्यन्त ही उग्रविचारों के राष्ट्रीय कवि हुए।
आज के भारत का कोई भी संवेदनशील मनुष्य इस मानवद्रोही समाज व्यवस्था को सहन नहीं कर सकता। जिनकी अंतरात्मा नहीं मरी है, जिनका धर्म-ईमान सही सलामत है, वे लोग इस राक्षसी सत्तातंत्र को बर्दाश्त नहीं कर सकते। कवि, कलाकार, समाजसेवी मानवता प्रेमी, सत्य, न्याय, करुणा, प्रेम, भ्रातृत्व के शाश्वत भारतीय मूल्यों में आस्था रखने वाले भारतीय नागरिक इस मानवद्रोही समाज व्यवस्था, शासन-तंत्रा के विरोध में एक दिन अवश्य उठ खडे होंगे। आज के पांच पांडव- किसान, मजदूर, कारीगर, कर्मचारी, व्यापारी-सत्ताधारी कौरवों से सिर्फ पांच चीजें- शिक्षा, रोजगार, इलाज, सुरक्षा और सम्मान- मांग रहे हैं, राज नहीं मांग रहे।
यूनानी दार्शनिक अरस्तू ने कहा है- गरीबी क्रांति को जन्म देती है। गरीबी के समुद्र में अमीरी के टापू सुरक्षित नहीं रह सकते। जहां 'एक ओर अंधी दौलत की पागल ऐशपरस्ती' हो और दूसरी ओर 'जिस्मों की कीमत रोटी से भी सस्ती' हो, वहां राक्षसी वातावरण के पक्ष में अश्लील गीत-संगीत, सिनेमा-नाटक, कविता-शायरी करने वाले कलावंत जनद्रोही नहीं तो और क्या कहे जाएंगे। संवेदनशील मानवतावादी कवि-कलाकारों को व्यभिचारियों के बिस्तर बनने से इंकार करना होगा। उन्हें सरकश तराने लिखने होंगे। मश्नोई ख्वाब आवर तरानों से बचना होगा और अपने सरकश तरानों की हकीकत को बयान करना होगा; बकौल साहिर लुधियानवी:
मेरे सरकश तरानों की हकीकत है तो इतनी है
कि जब मैं देखता हूं भूख से मारे किसानों को
गरीबों, मुफलिसों को, बेकस-बेसहारों को
सिसकती नाजनीनों को, तड़फते नौजवानों को
हुकूमत के तशद्दुद को, अमीरत के तकब्बुर को
इन फटे चीथड़ों को और इन शहंशाही खजानों को
तो मेरा दिल तावे निशाते ष्इशरत ला नहीं सकता
मैं लाख चाहूं तो भी ख्वाव आवर तराने गा नहीं सकता।
जो लोग शोषक वर्गों के हिमायती होते हैं, वे शांति के पुजारी बन जाते हैं। उन्हें शोषितों की चीत्कारों में बगावत सुनाई देती है। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने कहा है:
सुख समृध्दि का विपुल कोष, संचित कर कल,बल,छल से,
किसी क्षुधित का ग्रास छीन, धन लूट किसी निर्बल से।
सब समेट पहरी बिठला कर कहती कुछ मत बोलो,
शांति सुधा बह रही न इसमें गरल क्रांति का घोलो।
हिलो डुलो मत, हृदय रक्त अपना मुझ को पीने दो,
अचल रहे साम्राज्य शांति का, जियो और जीने दो।
जिनको इस शांति व्यवस्था में सुख भोग सुलभ है,
उनके लिए शांति ही जीवन-सार सिध्दि दुर्लभ है।
पर जिनकी अस्थियां चबाकर पीकर शोणित तन का,
जीती है यह शांति दाह कुछ पूछो उसके मन का।
संपदा हो या सत्ता जब कुछ हाथों में केंद्रित हो जाती है, तब समाज की गतिशीलता समाप्त हो जाती है। राज, राष्ट्र, समाज सड़ने लगता है और सबसे ज्यादा सडांध लंकापुरी में रहने वाले धन कुबेरों के दुराचार से फैलती है। क्योंकि 'अपने में सब कुछ भरकर, व्यक्ति कैसे विकास करेगा / यह एकांत स्वार्थ भीषण है, अपना नाश करेगा।' अत: 'कामायनी-कार' जयशंकर प्रसाद यह भावनात्मक मानवतावाद का प्रीतिकर समाधान देना जरूरी समझते हैं: 'औरों को हंसते देखो मनु, हंसो और सुख पाओ / अपने सुख को विस्तृत कर लो, सबको सुखी बनाओ।' यह काव्यात्मक न्याय है।
महान कवि समाधान भले ही न दें, लेकिन न्याय के पक्ष में अवश्य खड़े होते हैं। शांति समता और न्याय व्यवस्था के बिना संभव नहीं है। दिनकर की ओजस्वी वाणी इस न्याय व्यवस्था के पक्ष में सदैव मुखरित रही। उन्होंने कहा: ''शांति नहीं तब तक जब तक सुख भाग न नर का सम हो/ नहीं किसी को बहुत अधिक हो, नहीं किसी को कम हो/ ऐसी शांति राज करती है तन पर नहीं हृदय पर/ नर के ऊंचे विश्वासों पर श्रध्दा भक्ति प्रणय पर।'' शांति के लिए न्याय की भी आवश्यकता होती है: ''न्याय शांति का प्रथम न्यास है, जब तक न्याय न आता/ कैसा भी हो महल शांति का सुदृढ़ नहीं रह पाता/ कृत्रिाम शांति सशंक आप अपने ही से डरती है / खड्ग छोड़ विश्वास किसी का कभी नहीं करती है।'' दलितों उत्पीड़तों के संघर्ष को पातकी और निंदनीय बताने वालों को दिनकर ने न केवल फटकारा बल्कि समझाया भी: ''पातकी न होता प्रबुध्द दलितों का खड़ग, / उसे पातकी बताना दर्शन की भ्रांति है / शोषण की श्रृंखला के हेतु बनी है जो शांति, / युध्द है यथार्थ में व भीषण अशांति है, / सहना उसे हो मौन हार मनुजत्व की है, / ईश की अवज्ञा घोर पोरुष की श्रांति है; / पातक मनुष्य का है, मरण मनुष्यता का, / ऐसी श्रृंखला में धर्म विप्लव है! क्रांति है।''
काल्पनिक अहिंसा और शांति की बातें शासक-शोषक वर्ग के बुध्दिजीवी, समाजसेवी और सदाशयता के पथिक प्राचीन काल से करते आए हैं। क्योंकि उन्हें ऐसी शांति ही संपन्नता, प्रभुता, प्रतिष्ठा प्रदान करती है; लेकिन जिनके रक्त को पीकर और हड्डियों को चबाकर यह शांति जीती रही है, उनके मन का दाह किसी ने पूछा है। श्रमजीवी वर्ग के हित में समाज को बदले बिना शांति का मठवादी पाठ केवल पाखंड बन कर रह जाता है। वर्गों में विभक्त समाज की अनवरत प्रक्रिया से गुजरता रहता है। श्रमजीवियों पर युध्द थोपा जाता है। लेकिन जब वे अपनी रक्षा के लिए सशस्त्रा अथवा संवैधानिक संघर्ष करने को बाध्य होते हैं तो उन्हें हिंसक और अराजक कहकर कुचला जाता है। विधि, सत्ताा, न्याय और सूचना के तंत्र उन पर झपट्टा मारते हैं। इन तंत्रों के नियामक और संचालक यह नहीं सोचते कि समाज में युध्द को कौन आमंत्रित करता है। दिनकर ने तिलिस्मी तंत्रा के ऐयारों से पूछा हिंसक कौन है? ''युध्द को बुलाता है कौन, अनीति ध्वज धारी या कि, / वह जो अनीति-भाल पै दे पांव चलता। / वह जो दबा है शोषणों के भीम शैल से, / या जो खड़ा है मग्न हंसता-मचलता?/ वह जो बना के शांति-व्यूह सुख लूटता, / या वह जो अशांत हो क्षुधानल से जलता?/ कौन है बुलाता युध्द? जाल जो बनाता?/ या जो जाल तोड़ने को क्रुध्द काल-सा निकलता?'' भगत सिंह ने 1929-30 में कहा था, भारत में युध्द जारी है। दिनकर ने 1946 में कहा था, हम पर युध्द थोप दिया गया है। मैं कहता हूं भारत में युध्द आज भी जारी है। अगर इस 'रण' को रोकना है तो आर्थिक और सामाजिक असमानता की दीवारों को गिराना होगा। 'कुरुक्षेत्रा' में दिनकर दहाड़े थे, ठीक उसी प्रकार जैसे भगत सिंह अंग्रेजी अदालतों में दहाडे थे। दिनकर ने कहा:
रण रोकना है तो उखाड़ विषदंत फेंको,
वृक-व्याघ्र-भीति से मही मुक्त कर दो;
अथवा अजा के छागलों को भी बनाओ व्याघ्र
दांतों में कराल कालकूट-विष भर दो ;
वट की विशालता के नीचे जो अनेक वृक्ष ,
ठिठुर रहे हैं उन्हें फैलने का वर दो ;
रस सोखता है जो मही का भीमकाय वृक्ष ,
उसकी शिराएं तोड़ो, डालियां कतर दो ।
'कुरुक्षेत्र' महाकाव्य महाभारत के 'शांति पर्व' का उपजीव्य है। इसमें भारत के आंदोलन की समाजवादी पृष्ठभूमि की अनुगूंज है। युधिष्ठिर गांधी के रूप में शांति और अहिंसा के उपासक हैं। भीष्म क्रांति और वीरता के पक्ष में हैं। वे समस्त क्रांतिकारियों का पुंजीभूति व्यक्तित्व हैं, जिसमें भगत सिंह से लेकर तक के क्रांतिकारियों का स्वर मुखरित हुआ है। भीष्म पितामह मानते हैं कि समतावादी समाज की स्थापना हुए बिना, समरसता संभव नहीं है। प्रकृति पर सबका अधिकार समान है: धर्मराज! यह भूमि किसी की नहीं क्रीत है दासी ;
हैं जन्मना समान परस्पर इसके सभी निवासी।
है सबको अधिकार मृत्ति का पोषक रस पीने का,
विविध अभावों से अशंक होकर जग में जीने का।
सबको मुक्त प्रकाश चाहिए, सबको मुक्त समीरण,
बाधा-रहित विकास, मुक्त आशंकाओं से जीवन। हर मानवतावादी की यही आकांक्षा हुआ करती है। जानने, समझने और जताने से वातावरण बनता है लेकिन यथार्थ का तात्विक ज्ञान कराने से परिवर्तन की पृष्ठभूमि तैयार होती है। इस प्रसंग का छोर पकड़ कर दिनकर यथार्थ का परिज्ञान कराते हैं;
''लेकिन विघ्न अनेक अभी, इस पथ में पड़े हुए हैं/ मानवता की राह रोक कर, पर्वत अडे हुए हैं।/ न्यायोचित सुख सुलभ नहीं, जब तक मानव-मानव को/ चैन कहां धरती पर तब तक शांति कहां इस भव को?/ जब तक मनुष्य मनुष्य का यह सुख-भाग नहीं सम होगा; / शामित न होगा कोलाहल, संघर्ष नहीं कम होगा''
भगत सिंह के सपनों का भारत नहीं बना और न ही दिनकर की आकांक्षा के अनुरूप भारत की समाज रचना हो सकी। गांधी की अहिंसा और शांति सामंतों एवं पूंजीपतियों को 'ट्रस्ट्री' बनाने तथा उनके 'हृदय परिवर्तन' की अनवरत प्रतीक्षा करने तक सीमित हो गई। 'गांधीवाद', 'माक्र्सवाद' के विरोध में खड़ा हो गया। 1931 में भगत सिंह ने जिस गांधीवाद की सीमाओं की ओर इंगित किया था, कांग्रेसी 'सुराज' में वह गांधीवाद खुलकर सामंतों और पूंजीपतियों के हक में खड़ा हो गया। दिनकर ने इसका संज्ञान लिया और गांधीवादियों को चेतावनी भी दी: ''सुनो! माक्र्स से डरे हुओं का गांधी चौकीदार नहीं है,/ सर्वोदय का दूत किसी संचय का पहरेदार नहीं है।/ आशय में जिसके असत्य हिंसा से जिसकी कुत्सित काया;/ सत्य न देगा धूप, अहिंसा उसे न दे पाएगी छाया।''
क्रांति की प्रतीक्षा आज भी है। भगत सिंह दिनकर का क्रांतिकारी प्रत्यय देश भक्ति के साथ ही विश्व के श्रेष्ठतम रिक्थ को एक साथ लेकर चलता है। यहां भूषण के साथ लेनिन का स्मरण परंपरा, राष्ट्रवाद और अंतरराष्ट्रीय क्रांतिकारी परिदृश्य की एकतानता का वितान खड़ा करता है :
उठ भूषन की भाव रंगिणी! लेनिन के दिल की चिनगारी ;
युग-मर्दित यौवन की ज्वाला! जाग-जाग री क्रांति कुमारी।
लाखों कौंच कराह रहे हैं, जाग आदि कवि की कल्याणी ,
फूट-फूट तू कवि-कंठों से, बन व्यापक निज युग की वाणी।
दिनकर जब इन पंक्तियों को लिख रहे थे, तब उनकी आयु तेईस वर्ष थी। 1931 के वर्ष में 23 वर्ष की आयु में भगत सिंह ने बलिदानों की महान श्रृंखलाओं में अन्यतम कड़ी बनकर इतिहास रचा था। दिनकर ने भगत सिंह की शहादत से अभिभूत होकर उसी वर्ष 'कस्मै देवाय'? कविता में क्रांति को संबोधित करते हुए शहीद-ए-आजम को अपने क्रांतिकारी विचारों के अनुरूप श्रद्धांजलि में 'क्रांति कुमारी' का स्मरण किया:
क्रांति-धात्रि कविते जागो, उठ आडम्बर में आग लगा दे,
पतन, पाप, पाखंड जले जग में ऐसी ज्वाला सुलगा दे।
विद्युत की इस चका चौंध में देख दीप की लौ रोती है;
अरी हृदय को थाम, महल के लिए झोंपड़ी बलि होती है।
देख, कलेजा फाड कृषक दे रहे हृदय- शोणित की धारें,
बनती ही उन पर जाती है, वैभव की ऊंची दीवारें।
धन-पिशाच के कृषक-मेध में नाच रही पशुता मतवाली,
अतिथि मग्न पीते जाते हैं दीनों के शोणित की प्याली।
इस कविता पर भगत सिंह द्वारा दिए गए अदालती बयानों का स्पष्ट प्रभाव है।
भगत सिंह का अपने क्रांतिकारी जीवन में ऐसे कई क्रांतिकारियों से साक्षात्कार हुआ जो घोर भाग्यवादी, अकर्मण्यतावादी, मोक्षवादी, ईश्वरवादी और निवृत्ति मार्गी थे। उनमें से एक तो मुखबिर तक बन गया था। निवृत्तिामार्गी जीवन-दर्शनों की वजह से देश के बौध्दिक मानस में कायरता व्याप्त हो गई थी। दिनकर को भी इस मानवता विरोधी रुझानों का सामना करना पड़ा। दर्शन और आचार को छोड़कर भरतीय धर्मों ने जब उपासना पध्दतियों को ही सर्वस्व मान लिया तो अकर्मण्यता का बोलवाला हो गया। दिनकर ने लिखा: ''भारत में धर्म की साधना जब अपनी अति पर पहुंची थी, तब साधारणत: सभी साधक अकर्मण्य हो गए थे। गीता ने उपदेश तो फलासक्ति के त्याग का दिया था, किंतु साधकों ने कर्म न्यास का अर्थ फलासक्ति का त्याग नहीं कर्म का त्याग लगा लिया। इसीलिए भारत में धर्म पलायनवादी हो गया और तत्परिणाम स्वरूप भारतीयों ने अपनी स्वतंत्राता और वैभव दोनों गंवा दिए। निवृत्तिा से जीवन का पतन और प्रवृत्तिा से उसका उत्थान होता है।'' दिनकर ने 'कुरुक्षेत्रा' में प्रवृत्तिा को प्रतिष्ठा दी और कर्म को महिमा मंडित किया। उन्होंने बताया, संसार सत्य है, उससे होने वाला संघर्ष भी सत्य है और कर्म भी सत्य है। कर्म जीवन का स्वत्व है और संघर्ष है जीवन की आग। अत: कर्मयोगी संसार के संघर्ष में निरंतर कर्म-लीन रहता है। जीवन शून्य में आकाश में नहीं चलता है और उसका संबंध मिट्टी से है। अत: शून्य में, गगन मंडल में घर बसाना निरर्थक है। भीष्म युधिष्ठिर से कहते हैं: ''धर्मराज कर्मठ मनुष्य का पथ संन्यास नहीं है / नर जिस पर चलता है वह मिट्टी है आकाश नहीं / ऊपर सब कुछ शून्य-शून्य है, कुछ भी नहीं गगन में/ धर्मराज जो कुछ है वह मिट्टी में और भुवन में।''
जीवन के लिए अनवरत संघर्ष चलता रहता है, वह मनुष्य है जो विविध ताप को झेलता अपनी मंजिल की ओर बढ़ता रहता है। कर्मठ पुरुष ही संसार के विकास की प्रक्रिया को आगे ले जाता है। इस विकास प्रक्रिया का सारतत्व कर्म है। भीष्म कहते हैं: ''कर्मभूमि है निखिल महीतल, जब तक नर की काया, / जब तक है जीवन अणु-अणु में कर्तव्य समाया। / क्रिया धर्म को छोड़ मनुज कैसे निज सुख पाएगा?/ कर्म रहेगा साथ, भाग वह जहां कहीं जाएगा।''
कर्म से भाग खडे होने का नाम संन्यास है और यह मन की कायरता है। मनुष्यता का चरम लक्ष्य जीवन की गुत्थियों को सुलझाना है और निज वैयक्तिक सुख के स्थान पर करोड़ों- करोड़ व्यक्तियों को सुखी बनाने का आदर्श ही मानवतावाद है। भीष्म युधिष्ठिर को समझाते हैं: ''धर्मराज! संन्यास खोजना कायरता है मन की / है सच्चा मनुजत्व ग्रन्थियां सुलझाना जीवन की / दुर्लभ नहीं मनुज के हित निज वैयक्तिक सुख पाना, / किंतु कठिन है कोटि-कोटि मनुजों को सुखी बनाना।''
पुरुषार्थ एवं सच्चे कर्मवाद का घोर विरोधी भाग्यवाद है। भारत में इसकी जड़ेंगहरी रही हैं। निर्धनता से लेकर पराधीनता तक को भाग्यवाद के नाम पर सहा गया, बल्कि उसका महिमा मंडन भी हुआ। 'कुरुक्षेत्र' में भीष्म युधिष्ठिर को समझाते हैं: 'ब्रह्मा से कुछ लिखा भाग्य में मनुज नहीं लाया है।' प्रकृति में सारे पदार्थ हैं, लेकिन वे श्रम जल, उद्यम से ही प्राप्त होते हैं। प्रकृति कभी भाग्य से डरकर नहीं झुकती है : ''प्रकृति नहीं डर कर झुकती है कभी भाग्य के बल से / सदा हारती वह मनुज के उद्यम से, श्रम जल से।'' भाग्यवाद पाप का आवरण है, शोषण का शस्त्रा है। कोई ऐसा भाग्यवादी नहीं होगा जिसके पदाक्षेप से वसुधा अपने रत्नों को उगलने लगती हो: ''भाग्यवाद आवरण पाप का और शस्त्रा शोषण का / जिससे रखता दबा एक जन भाग दूसरे जन का / पूछो किसी भाग्यवाद से यदि विधि अंक प्रबल है / पद पर क्यों देती न स्वयं वसुधा निज रत्न उगल है।''
सारी मानवता का भाग्य है- श्रम-बल और भुज-बल। जिसके आगे पृथ्वी झुकती है, आकाश झुकता है। पसीने बहाने वाले का इस प्रकृति पर पहला अधिकार है: ''नर समाज का भाग्य एक है, वह श्रम-बल, वह भुजबल है / जिसके सम्मुख झुकी हुई पृथ्वी विनीत नभ तल है / जिसने श्रमजल दिया उसे पीछे मत रह जाने दो/ विजित प्रकृति से सबसे पहले उसको सुख पाने दो।''
प्रकृति पर सबका अधिकार है। उसके कण-कण पर जन-जन का स्वामित्व है। इस प्राकृतिक अधिकार से श्रम जलवालों को वंचित कर दिया गया, नहीं तो मानवता का स्वरूप और संसार का रूप कुरूप नहीं होता: ''जो कुछ न्यस्त प्रकृति में है, वह मनुज मात्रा का धन हैं / धर्मराज! उसके कण-कण का अधिकारी जन-जन है/ सहज-सुरक्षित रहता यह अधिकार कहीं मानव का / आज रूप कुछ और दूसरा ही होता इस भव का।'' इस प्राकृतिक न्याय की रक्षा की गई होती, श्रम ही को अमूल्य धन माना गया होता, तो राजा-प्रजा नहीं होते, भाग्य-लेख नहीं होते और कर्मठ भुज ही निर्णायक होता। इस सच्चे साम्यवाद की उद्धोषणा करते हुए भीष्म कहते हैं:
श्रम होता, सबसे अमूल्य धन, सब जन खूब कमाते,
सब अशंक रहते अभाव से सब इच्छित सुख पाते।
राजा प्रजा नहीं कुछ होता, होते मात्र मनुज ही ,
भाग्य लेख होता न मनुज का, होता कर्मठ भुज ही।
नेहरू स्वयं को बाएं बाजू की विचारधारा से प्रतिबध्द करते रहे लेकिन चलते हमेशा दाएं रहे। गांधी-नेहरू का युग्म देश पर सत्ताधारी वर्गों ने थोपा और वह चल निकला। पंचशील रचा और ध्वस्त हुआ। गांधीवाद और समाजवाद की बेमेल शादी हुई और तलाक हो गया। 1962 में जो देखने को मिला, उसने दिनकर को अंदर से तोड़ा। गांधीवाद की राजनीति का जनाजा तो देश विभाजन में 50 लाख लोगों की लाशों के साथ निकला, लेकिन गांधी के सत्य-अहिंसा की अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में ऐसी आत्मघाती पराजय 'न भूतो न भविष्यति' थी, देश हिल गया। दिनकर से ज्यादा भगत सिंह भाग्यशाली थे कि वे देश के अपमान को देखने के लिए नहीं रहे। दिनकर का हृदय और मस्तिष्क विजड़ित हो गया। उन्हें परशुराम की याद आई। गांधीवादी दुग्ध धवल खद्दर धारी नेताओं के चेहरे देश की जनता के सामने स्याह होकर उभरे। दिनकर गांधी को चाहकर भी नहीं चाह सके। वे अग्निधर्मा कवि थे। कवियों के कवि राष्ट्रकवि थे। वे अंगारों की ज्वाला से पूजा-अर्चना करने वाले भैरव कवि थे। एक बार उन्होंने गांधी के सम्मान में लिखना चाहा, आरंभ किया इन पंक्तियों से: ''जग जिन्हें पूजता आया है, /अब तक रोड़ी, फूलों और हारों से; / बापू मैं उन्हें पूजता आया हूं, / अब तक अंगारों से।'' फिर आगे ज्यादा न लिख सके। चीन से मिली घोर पराजय को दिनकर जी ने गांधीवाद और गांधी के क्लीव अनुयायियों की शिकस्त के रूप में देखा।
1962 के अक्टूबर माह में चीन का आक्रमण हुआ। 22दिसम्बर 1962 से 'परशुराम की प्रतीक्षा' कविता का लिखना आरंभ हुआ और 7 जनवरी 1963 को यह पूरी हुई। चीनी आक्रमण से उद्वेलित होकर उन्होंने कई कविताएं लिखीं, लेकिन इस कविता में देश का पूरा क्रोध समा गया। 25 दिसंबर 1962 तक काफी पद लिखे जा चुके थे। उनके मित्र मनोरंजन प्रसाद सिंह ने जब उसे सुना तब उन्हें लगा कि कवि दुस्साहस कर रहा है। पर दिनकर ऐसी टिप्पणी से बिल्कुल सहमत नहीं थे। उन्होंने अपनी डायरी में लिखा: ''कविता स्थिति के गूढ़ अंश से फूटी है, उसके मूल केंद्र से उठी है। केंद्र में जाने पर स्पष्ट होता है कि गलती बहुत भारी हुई है।'' उन दिनों पटना में आर्य कुमार पथ-स्थित अपने भवन के तिमंजिले में बैठ जाते थे, रोते रहते थे और लिखते जाते थे। अंग सिहरते थे, वेपथु और रोमांच होता था।
28 दिसंबर 1962 को इस कविता के कुछ अंश आकाशवाणी पटना से प्रसारित हुए। जब भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक लक्ष्मीचंद जैन ने यह कविता सुनी तब उन्होंने कवि से कहा: 'छागियो करो अभ्यास रक्त पीने का।' इस पंक्ति को आप निकाल दें तो अच्छा रहे। बाद में चलकर आपको इसके लिए पछताना पड़ेगा।' इस पर दिनकर ने उन्हें जवाब दिया: 'यह पंक्ति बड़ी अनूठी है। इससे आगे चलकर सूचना मिलेगी कि एक बार भारतवर्ष को इतना क्रोध चढ़ा था कि उसका एक कवि ऐसी राक्षसी पंक्ति लिखने से भी लज्जित नहीं हुआ।''
भगत सिंह की तरह दिनकर गांधी के 'तकलीवाद' और 'बकरीवाद' को पंसद नहीं करते थे। 1962 में मिली शर्मनाक पराजय के बाद उन्होंने लिखा: ''तलवार गलाकर जो तकली गढ़ते हैं / शीतल करते हैं अनल, प्रबुध्द प्रजा का / शेरों को सिखलाते है धर्म अजा का।'' सत्य और अहिंसा की घुटना-टेकू रणनीति उक्त दोनों विभूतियों को रास नहीं आई। दिनकर ने स्पष्ट कहा: ''छीनता हो स्वत्त कोई और तू, / त्याग से तप से काम ले यह पाप है। / पुण्य है विच्छिन्न कर देना उसे, / बढ़ रहा तेरी तरफ जो हाथ है।''
जिस तरह भगत सिंह और उनके साथी क्रांतिकारियों ने अपनी आन नहीं छोड़ी, शीश चढ़ा दिए बलिवेदी पर; दिनकर का यही आदर्श रहा जीवन भर: ''छोड़ो मत अपनीआन, सीस कट जाए, / मत झुको अनय पर, भले व्योम फट जाए। / दो बार नहीं यमराज कंठ वरता है, / मरता है जो, एक बार ही मरता है / तुम स्वयं मृत्यु के मुख पर चरण धरो रे, / जीना है तो मृत्यु से नहीं डरो रे।''
जिस देश के युवकों में आंधियां उमंग पैदा न करती हों, जहां वीरों के सीने संगीनों से डरते हों, शोषण के प्रतिकार में जहां केवल आंसू बहते हों; भला वह देश कभी स्वाधीन रह सकता है। ''आंधियां नहीं जिसमें उमंग भरती हैं, / छातियां जहां संगीनों से डरती हैं; / शोणित के बदले जहां अश्रु बहता है, / वह देश कभी स्वाधीन नहीं रहता है।''
व्यक्ति हो या राष्ट्र यदि उसकी वाणी में आग नहीं है तो उसकी वंदना भी व्यर्थ हो जाएगी। वीरता के अभाव में विनयशीलता क्रंदन बन जाती है। माथे की शोभा तलवार के घाव से या रक्त चंदन के तिलक से होती है। दानवों के रक्त से पाप धोये जाते हैं और तभी मनुष्यता का पथ प्रशस्त होता है: ''स्वर में पावक यदि नहीं, वृथा वंदन है, / वीरता नहीं, तो सभी विनय क्रंदन है। / सिर पर जिसके असिघात, रक्त-चंदन है, / भ्रामरी उसी का करती अभिनंदन है। / दानवी रक्त से सभी पाप धुलते हैं, / ऊंची मनुष्यता के पथ भी खुलते है।''
(भरतसिंह ,प्रोफेसर .हिन्दी विभाग,अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय,अलीगढ़)