बुधवार, 6 अप्रैल 2011

गुलामी का अस्त्र है राजनीतिक हिंसा


ममता बनर्जी की आंधी का असर सीधे वाम मोर्चा और खासकर माकपा नेताओं जैसे बुद्धदेव भट्टाचार्य और गौतम देव के टीवी टॉक शो और टीवी खबरों में साफ देखा जा सकता है। वे स्वीकार कर रहे हैं कि उनके दल से गलतियां हुई हैं। वे जानते हैं उनके रणबाँकुरे जो करते रहे हैं वह भारत के संविधान और कानून की खुली अवहेलना है। मसलन् ,राजनीतिक हिंसा के सवाल को ही लिया जाए। राजनीतिक हिंसा के सवाल पर पक्ष -विपक्ष में बहुत कुछ कहा जा रहा है। दोनों ही पक्ष मान रहे हैं कि विगत 35 सालों में राजनीतिक हिंसा में हजारों लोग मारे गए हैं। मारे गए लोगों की संख्या को लेकर विवाद हो सकता है। तेरे-मेरे मारे गए लोगों की संख्या को लेकर विवाद हो सकता है। लेकिन राजनीतिक हिंसा होती रही है और निर्दोष लोगों की जानें गयी हैं। इसके बारे में कोई विवाद नहीं है। सवाल यह है कि हिंसा के प्रति क्या रूख हो ? क्या हिंसा का महिमामंडन करना सही है ? माकपा नेताओं की मुश्किल यह है कि वे हिंसा में अपने दल की भूमिका को आलोचनात्मक ढ़ंग से नहीं देख रहे हैं। पश्चिम बंगाल में माकपा निर्मित हिंसा के कई रूप हैं। पहला रूप है वाचिक हिंसा का, दूसरा रूप है कायिक हिंसा का और तीसरा रूप है अधिकारहनन का। वाचिक हिंसा के तहत वे अपने विरोधी पर तरह-तरह के सामाजिक दबाब पैदा करते हैं जिससे वह अपना मुँह बंद रखे। वे ऐसा वातावरण पैदा करते हैं कि मुखरित व्यक्ति महसूस करे कि उसने अगर माकपा नेताओं की बात नहीं मानी तो उसका भविष्य अंधकारमय है। मुखरित व्यक्ति यदि सरकारी नौकर है तो उसे अकल्पनीय परेशानियों का सामना करना पड़ता है। वे मुखरित व्यक्ति का बहिष्कार करते हैं,चरित्रहनन करते हैं, दैनंदिन अपमान और उपेक्षा करते हैं। यह अहर्निश मानसिक उत्पीड़न है। माकपा के लोग जानते हैं कि अफवाह उडाना, चरित्रहनन करना ये फासिस्ट हथकंडे हैं। वाचिक हिंसा का दायरा बहुत व्यापक है और इस व्यापक वातावरण के खिलाफ बुद्धदेव भट्टाचार्य से लेकर गौतमदेव तक ,विमान बसु से लेकर रज्जाक मुल्ला तक किसी भी नेता को सरेआम मुँह खोलते किसी ने नहीं देखा है। वाचिक हिंसा का सर्वव्यापी रूप है लोकल यूनियन । आमतौर पर यूनियनों और संगठनों का काम होता है अधिकारों के लिए लड़ना। लेकिन पश्चिम बंगास में यूनियन का काम अधिकारों के लिए लड़ना नहीं है । बल्कि इनका काम है सदस्यों की निगरानी करना। उन्हें नियंत्रित करना। वे किसी अन्य विचारधारा के संगठन में न चले जाएँ,इसके लिए दबाब पैदा करना।
    पश्चिम बंगाल के हिंसाचार का दूसरा रूप है अन्य को जेनुइन राजनीतिक गतिविधियां करने से वंचित करना। इसके लिए साम,दाम,दण्ड,भेद सभी हथकंडे अपनाए जाते हैं। मसलन ममता बनर्जी को बेवजह माकपा कार्यकर्ता मीटिंगस्थल या घटनास्थल पर जाने से रास्ते में रोकते रहे हैं और टीवी चैनलों पर बैठे नेतागण इस तरह की अलोकतांत्रिक हरकतों की निंदा करना तो दूर की बात है उसकी हिमायत करते रहे हैं। सिंगूर-नंदीग्राम की घटनाओं के लाइव कवरेज और खासकर टीवी चैनलों द्वारा ममता बनर्जी के एक्शन के अहर्निश लाइव कवरेज के कारण इस तरह की चीजें लगातार एक्सपोज हुई हैं और राज्य प्रशासन इस मामले में मूकदर्शक रहा है। कभी किसी माकपा नेता ने इसके लिए माफी नहीं मांगी। यह एक तरह से हिंसा का महिमामंडन है।
     यह संभव है राज्य प्रशासन किसी खास कारण से किसी नेता को घटनास्थल पर न जाने दे। किसी खास वजह से 144 धारा लगाकर स्थिति को नियंत्रण में लाने की कोशिश करे। लेकिन यह कैसे हो सकता है कि धारा 144 को राजनीतिक उत्पीडन और हिंसा का अस्त्र बना दिया जाए और 1 साल और 2 साल तक धारा 144 लागू कर दी जाए और सारी राजनीतिक गतिविधियां ठप्प कर दी जाएं और सिर्फ माकपा की राजनीतिक गतिविधियां चलें। लालगढ़ से लेकर सिंगूर-नंदीग्राम के घटनाक्रम में यह देखा गया कि धारा 144 का भयानक राजनीतिक उत्पीड़न के अस्त्र के रूप में इस्तेमाल हुआ है। सामान्य राजनीतिक जुलूसों-रैलियों आदि तक को करने की इजाजत नहीं दी गयी। नंदीग्राम-सिंगूर आंदोलन के समय बार-बार ममता बनर्जी को माकपा सदस्यों ने सरेआम रोका और अपमानित किया। इस तरह की घटनाएं जो राजनीतिक हक छीनती हों वे हिंसा की कोटि में ही आती है। इसी तरह मंगलकोट में कांग्रेसी विधायकों और नेताओं को आतंकित करके दौड़ाना भी हिसा की कोटि में आता है। इस प्रसंग में जर्मनी के प्रसिद्ध मार्क्सवादी सिद्धान्तकार-आलोचक वाल्टर बेंजामिन ने लिखा है हिंसा पर कानून और न्याय के नजरिए से विचार करना चाहिए। हिंसा के मामले में माकपा ने न्याय और कानून का पालन नहीं किया है। मसलन् ममता बनर्जी को अकारण राजनीतिक रैली में जाने से रोकना उनके बुनियादी संवैधानिक अधिकारों का हनन है । विगत 35 सालों में इस तरह की घटनाओं के संदर्भ में राज्य प्रशासन ने माकपा के किसी भी कार्यकर्ता को कभी गिरफ्तार तक नहीं किया । कम से कम नंदीग्राम-सिंगूर-मंगलकोट की घटनाओं में विपक्षी नेताओं के एक्शन को बाधित करने वाले लोगों को राज्य प्रशासन गिरफ्तार करके एक संदेश दे सकता था। लेकिन वे ऐसा नहीं कर पाए। वाचिक हिंसा हो या कायिक हिंसा,ये दोनों किसी भी रूप में स्वीकार्य नहीं हैं। लोकतंत्र में इस तरह की हिंसा को रोकना राज्य प्रशासन की जिम्मेदारी है। हिंसा में कोई मारा जाए तो उसके लिए आर्थिक सहायता राशि देना कानूनन राज्य की जिम्मेदारी है। क्योंकि हिसा रोकने में राज्य असमर्थ रहा है । यह मानवाधिकार कानूनों के अंतर्राष्ट्रीय कन्वेंशन में आता है । भारत में ये अंतर्राष्ट्रीय कन्वेंशन लागू है। इसके ही आधार पर नंदीग्राम और नेताई के पीडि़तों को हाईकोर्ट के आदेश से आर्थिक सहायता राशि मिली है। कायदे से राज्य को घटना होने के साथ ही स्वतः ही आर्थिक सहायता राशि घोषित करके देनी चाहिए थी। उन तमाम हिंसा के शिकार लोगों को सहायता राशि राज्य को देनी चाहिए जिन्हें राजनीतिक हिंसाचार से बचाने में राज्य सरकार असमर्थ रही है। नई राज्य सरकार की यह जिम्मेदारी है कि वह विगत 35 सालों में राजनीतिक हिंसा में मारे गए लोगों के लिए आर्थिक मदद की घोषणा करे।यह काम दलीय पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर होना चाहिए।








2 टिप्‍पणियां:

  1. अगर हमारे देश की सरकारें अपना काम सही ढंग से करे तो शायद देश की तस्वीर ही कुछ और होती ..बहुत सुंदर लेख .

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  2. राजनीति और गुंडागर्दी में अधिक अंतर नहीं है। हां, चुनाव के समय इन गुंडों को नम्र देख कर हम गर्वित होते हैं और उन्हें फिर वोट दे देते हैं:)

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