‘आजतक’ टीवी चैनल ने ‘हे राम’ के नाम से कई संतों की पोल खोलने वाला ‘स्टिंग ऑपरेशन’ पर आधारित एक कार्यक्रम कल यानी 10 सितम्बर 2010 को प्राइम टाइम में प्रसारित किया। संतों को नंगा करने वाले ऐसे ही अनेक कार्यक्रम यह चैनल सास-समय पर दिखाता रहता है। इसबार के कार्यक्रम में चार संत मुरारी बापू,सुधांशु महाराज,दाती महाराज (शनि ग्रह वाले) और स्वामी सुमनानंद जी थे।
इन चारों संतों के बारे में बताया गया कि ये संतई के अलावा विभिन्न किस्म के गैर धार्मिक धंधे करते हैं। भारत का प्रत्येक नागरिक और इनके भक्त यह बात अच्छी तरह जानते हैं कि सामयिक बड़े संतों में अधिकांश गैर संतई का धंधा करते हैं। मजेदार बात यह है जिन लोगों को इस कार्यक्रम में समर्थन में बोलने के लिए बुलाया गया उनमें बाबा रामदेव और धर्मेन्द्र जी के बारे में तो मैं कह सकता हूँ इनके पास गैर संतई का बड़ा कारोबार है। धर्मेन्द्रजी राममंदिर आंदोलन के गैर संतई के कारपोरेट प्रकल्प का हिस्सा रहे हैं और बाबा रामदेव का जड़ी-बूटी आदि का बडा व्यापारतंत्र और योग के मीडिया प्रोडक्ट का बड़ा धंधा है। सवाल यह है कि क्या गैर संतई के काम करने वाले इन संतों को ‘आजतक’ के संत फार्मूले के आधार पर संत माना जा सकता है ?
यह कॉमनसेंस की बात है कि संतों के गैर संतई के धंधों को सब जानते हैं। जिस संत ने संपत्ति जुगाड़ करने ,व्यापार करने,कैसेट बेचने,वीडियो बेचने, आशीर्वाद से काम कराने, इशारे से काम कराने आदि के कामों में अपने को लगा लिया है उसने संत के प्रचलित मार्ग का त्याग कर दिया है।
‘आजतक’ वालों ने जो बातें बतायी हैं वे कॉमनसेंस की बातें हैं इनसे संतों के प्रति घृणा पैदा नहीं होती। ‘आजतक’ वाले भूल गए कि संतों को उनके भक्त बहुत अच्छी तरह जानते हैं। वे जितना जानते हैं उसका चैनलों में एक प्रतिशत भी नहीं दिखाया जाता। संतों के भक्तों का संत के प्रति ज्ञान आज सत्य होते हुए भी निष्क्रिय है ।क्योंकि संतों ने आम जीवन के उपयोगितावाद से अपने को जोड़ लिया है। कारपोरेट ढ़ंग से काम कराने की कला में महारत हासिल कर ली है। यह आदर्श स्थिति है कि संत सिर्फ भक्ति करें,उपासना करें और गैर धार्मिक कार्यों में भाग न लें।
चैनल वाले भूल गए यह कारपोरेट संस्कृति का जमाना है और धर्म को यदि जिंदा रहना है.संतों को यदि शोहरत हासिल करनी है तो कारपोरेट पद्धति अपनानी होगी और भारत के संतों ने इस बात को पकड़ लिया है। अब पुराने जमाने का धर्म कहीं पर भी नहीं बचा अब पुराने जमाने के संत भी नहीं बचे। पुराने जमाने में न्यूनतम से संत का जीवन चल जाता था आज नहीं चलता।
पूंजीवाद ने संतों को भी जीने का रास्ता दिखाया है। पहले संतों को जीने मात्र के लिए न्यूनतम पूंजी की जरूरत होती थी और वे प्रचार पर ध्यान नहीं देते थे। क्योंकि उनके पास स्थानीय और परंपरागत संचारतंत्र था। लेकिन नए संत वैसे नहीं हैं। ‘आजतक’ चैनल की मुश्किल यहीं पर है वह आज के जमाने में पुराने संत ,संत की नैतिकता और धर्म को खोज रहा है।
मीडिया या टीवी चैनलों में इस तरह के कार्यक्रम मासकल्चर का फास्टफूड हैं। इनसे चैनल के दर्शकों को न सूचना मिलती है और नहीं ज्ञान मिलता है।सिर्फ समययापन में मदद जरूर मिलती है। इस तरह के कार्यक्रम संत-पंडित-पुजारी या धर्म का कुछ भी नुकसान नहीं करते। उनकी प्रतिष्ठा में इससे कोई कमी नहीं आती। उनके भक्तों की संख्या में गिरावट नहीं आती।
टीवी चैनल वाले यह सोचते हों कि उन्होंने किसी संत या धार्मिक संस्थान को नंगा करके तीर मार लिया या किसी महान यथार्थ का उद्घाटन कर दिया तो वे विभ्रम के शिकार हैं। संत या धर्म को आप मीडिया कवरेज से पछाड़ नहीं सकते। खासकर ‘स्टिंग ऑपरेशन’ से तो एकदम नहीं। ‘स्टिंग ऑपरेशन’ काल्पनिक सत्य पर आधारित होता है। काल्पनिक सत्य को राज्य,कानून,सरकार,न्यायालय और जनता कहीं पर भी जनसमर्थन नहीं मिलता। वह काल्पनिक है और काल्पनिक से सत्य पैदा नहीं होता। काल्पनिक सत्य के लिए अवैध है।
उल्लेखनीय है मीडिया की साख बनी थी ‘खोजी पत्रकारिता’ से। इसके लिए उसने वास्तव को आधार बनाया और पवित्र तरीके अपनाए। इस तरह की पत्रकारिता के जरिए जो भी सत्य सामने आया उस पर समाज,न्यायालय,सरकार और जनता सभी विश्वास करते हैं। नए जमाने के भारतीय टीवी पत्रकार अब सत्य की खोज में ‘खोजी पत्रकारिता’ नहीं कर रहे हैं। बल्कि असत्य और काल्पनिक के आधार पर ‘स्टिंग ऑपरेशन’ कर रहे हैं। वे कीचड़ से कीचड़ धोना चाहते हैं। ध्यान रहे कीचड़ साफ करने के लिए स्वच्छ पानी चाहिए।
हम याद करें बोफोर्स कांड की ‘खोजी पत्रकारिता को और उसकी राजनीतिक परिणतियों को, बोफोर्स की दलाली का सत्य सरकार गिरा चुका है। कहने का अर्थ यह है सत्य का असर होता है काल्पनिक का चाहे वह कितना ही प्रामाणिक हो कोई असर नहीं होता। अथवा बहुत ही सीमित और तात्कालिक असर होता है।
यह भी ध्यान रहे पाखंड को टीवी कार्यक्रमों या मीडिया कवरेज से पछाड़ा नहीं जा सकता। क्योंकि मीडिया के ढ़ोंग और धर्म के ढ़ोंग में बिरादराना संबंध हैं। जिस तरह मीडिया में चीजें ‘फ्लो’ में पढ़ी जाती हैं और ‘फ्लो’ के अनुसार प्रभाव छोड़ती हैं वैसे ही धर्म की भी गति है। धर्म का भी ‘फ्लो’ है। ‘फ्लो’ को ‘फ्लो’ के जरिए नहीं पछाड़ सकते। तुलनात्मक तौर पर धर्म का ‘फ्लो’ ज्यादा है और वह प्रभावशाली भी है क्योंकि धर्म के ‘फ्लो’ को ग्रहण करके लागू करने वाली सक्रिय संरचनाए हैं। मीडिया के संतों को नंगा करने वाले ‘फ्लो’ का अनुकरण करने वाली सामाजिक संरचनाएं नहीं है। यही वजह है इस तरह के कार्यक्रम कोई सामाजिक असर नहीं छोड़ते।
इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएं