मैंने अपने दोस्त अजय ब्रह्मात्मज के फेसबुक जाकर लिखा-
Ajay Brahmatmaj- @mahnaz ise hindi font mein nahin padh patin.aayinda khyal rakhoongamitra @jagdishwar
Shruti Shrivastava nice
Pankaj Shukla -अजय जी, गूगल ट्रांसलिटरेशन की मदद लेकर देखिए। नहीं तो हिंदी की टाइपिंग सीखना महज तीन दिन का काम है।
Ajay Brahmatmaj - @pankaj shukla यह 3 सेकेंड का भी काम नहीं है।
Ajay Brahmatmaj- कल मेरे अध्यापक मित्र जगदीश्वर चतुर्वेदी ने विरोधपूर्ण आपत्ति जतायी कि मैं हिंदी शब्दों को रोमन फॉण्ट में न लिखूं। उनकी भावनाओं की मैंने हमेशा कद्र की है,इसलिए उनसे पूरी तरह सहमत नहीं होने पर भी आज का स्टेटस नागरी...
अजय ब्रह्मात्मज- mitron ...roman mein likhne se mujhe kai aise mitra mile hain jo jo hindi bol aur samjh sakte hain,lekin likh-padh nahin paate.kya main aise mitron ki parwaah na karoon?main apna lekhan khalis hindi mein karta hoon,lekin ab mehsoos ho raha hai ki english mein likhna chahiye...bade recognition aur jyada paison ke liye.
Jagadishwar Chaturvedi- मेरी बात को गलत समझा गया है, मैं हिन्दी में न लिखने का विरोध नहीं कर रहा था। मैं उस समस्या की ओर ध्यान दिला रहा था जो अंग्रेजी में हिन्दी के लिखने से पैदा हो रही है।आप सभी दोस्त हैं कैसे भी लिखें , हिन्दी को लेकर मैं किसी भी किस्म के शुद्धतावाद के पक्ष में नहीं हूँ। आप जैसा चाहें लिखें। क्योंकि खिचड़ी भाषा या परायी भाषा के प्रति आकर्षण ही इंटरनेट संस्कृति का परिणाम है। सवाल यह है कि क्या हम अपनी भाषा को नेट के सार्वजनिक मंच के उपयुक्त बनाते हैं या नहीं ? बहुभाषियों में क्या हिन्दी संवाद का माध्यम नहीं हो सकती ?
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Arun Prakash Mishra - मैं समझता हूँ कि प्रत्येक भाषा को उसकी ही लिपि में लिखा जाना चाहिए - इससे भाषा ज्यादा बोधगम्य होती है | रोमन में हिंदी पढ़ने में बहुत मेहनत करनी पड़ती है |
Yogendra Tnb -यह सच है.रोमन में लिखने से पढ्ने में परेशानी होती है और समझने में भी.लेकिन हमारे सामने चुनौती तो है ही कि कैसे नेट पर हिन्दी संवाद की भाषा बनेगी?
बंधुवर गौरव,संवाद और प्रचार अभियान में अंतर होता है। यह अनैपचारिक संवाद-विवाद है। यहां एक समस्या बहसतलब है। बहस से चीजें आगे बढ़ती हैं।
Arun Prakash Mishra - कमाल है : लोग रोमन में लिखी हिंदी समझ लेते हैं और देवनागरी में लिखी समझने में परेशानी होती है |
Arun Prakash Mishra -सब भाषाएं अपनी लिपियों में लिखी जाएं
शशि भूषण -आज फादर कामिल बुल्के को याद कर सकते हैं.उन्होंने देवनागरी के लिए क्या किया इस पर अपना आत्मालोचन भी कर सकते हैं.
गौरव सोलंकी जी,हमारे देश का संविधान कहता है कि देवनागरी लिपि में हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा होगी.उसे रोमन में लिखा जाए या कम से कम उसे ऐसा लिखने के बारे में सोचा जाए यह बहुत बड़ा प्रायोजित हमला है.आप जाने किस चिंता में भारतीय भाषाओं के प्रति अपने समर्थन में हिंदी की लिपि पर संदेह करने को मजबूर कर रहे हैं.हिंदी कोई एक भाषा नहीं है यह भाषाओं का समुच्चय है.इसकी उपभाषाएँ और बोलियाँ कौन सी हैं उन्हें ज़रा याद तो कीजिए.
जगदीश्वर जी ने जो सवाल उठाएँ हैं वे बहुत ज़रूरी हैं.एक हम ही हैं जो अंग्रज़ी माध्यम की शिक्षा को श्रेष्ठ हैं समझते हैं कोई हमारे हिंदी समर्थन को दकियानूस सिद्ध कर देता है तो हम मुह तोड़ जवाब नहीं देते.हिंदी के खिलाफ़ जो चौतरफ़ा माहौल बनाया जा रहा है वह भाषायी उपनिवेशवाद का अंधा समर्थन है.मुझे यह जानकर वाकई खुशी हो रही है जगदीश्वर जी ने मुद्दे को इतनी गहराई से उठाया है
53 minutes ago · Like
Amitesh Kumar is baat me koi shak nahi ki hindi ko dewnagari lipi me hi likha janaa chaahiye par facebook aaur twiter jaisi site par jaldibazi ke calate ham aisa kar nahi paate jinke paas pc hai wo jarur hindi me likhe...pr hindi lipi padhane me ahindi log jo samjha jate hai unhe dikkat hoti hai...
33 minutes ago · Like
Jagadishwar Chaturvedi बंधुओ, मैं एक अन्य भाषायी दिक्कत को सामने लाना चाहता हूँ। जिसे बड़े ही तरीके से अजय ने उठाया है। समस्या है कि जो हिन्दी बोल लेते हैं लेकिन लिखना -पढ़ना नहीं जानते। मैं नहीं जानता महाराष्ट्र की स्थिति क्या है ,लेकिन बंगाल के अनुभव से कह सकता हूँ कि यहां के अधिकांश शिक्षित बंगाली हिन्दी जानते हैं,मेरे यहां कई वी.सी. हिन्दी पढ़ लेते थे लेकिन बोलने मे समस्या आती है।
दक्षिण भारत में खासकर केरल,आंध्र में बड़ी तादाद है हिन्दी को जानने और पढ़कर समझने वाले हैं। उत्तर-पूर्व में यही हाल है।
भाषा मानवीय संचार का एक माध्यम है,लेकिन जहां भाषा नहीं जानते वहां संवाद करते-करते भाषा सीखते हैं। सवाल यह है कि अंग्रेजी में लिखी जा रही हिन्दी कहां से आ रही है ,यह किस कारखाने में तैयार हो रही है ?
बंधुओ ,यह संस्कृति उद्योग के विज्ञापन जगत में तैयार हो रही है। विज्ञापनों की मार्केटिंग कला ने इस भाषा को जन्म दिया है,यह विज्ञापन में पैदा हुई भाषा है जिसे हम हिंग्लिश भी कहते हैं।
ऐसी द्विभाषा सबसे पहले एक जमाने में अमेरिका में विज्ञापन कंपनियों ने 1930-31 के आसपास बनायी थी।उस समय अंग्रेजी में स्पेनिश का वैसे ही छोंक लगाया गया जैसे अंग्रेजी में हिन्दी का इन दिनों चल रहा है। बहुभाषी समाजों में माल की बिक्री की सुविधा के लिए हिस्पेनिश भाषा का फार्मूला चलाया गया था आज बाजार में ऐसी ही खिचड़ी भाषा का वहां विज्ञापनों में बोलवाला है। लेकिन अमेरिकी बुद्धिजीवियों ने अंग्रेजी में भाषायी खिचड़ी नहीं पकायी,दुर्भाग्य की बात है भारत के हम हिन्दी वाले हिंग्लिश पर ऐसे फिदा हैं कि बुद्धिजीवी भी लेखन में उसकी हिमायत कर रहे हैं।हम सोचें कि हम कहां जा रहे हैं ?
Om Prakash Tiwari - देर आयद - दुरुस्त आयद
शशि भूषण -यह(हिंग्लिश) सिर्फ़ विज्ञापनों की मार्केटिंग कला से उपजी भाषा नहीं है.बल्कि भाषा के मुख्य द्वार से एक पूरी सांस्कृतिक दुनिया को नष्ट करने उसे ग़ुलाम बना लेने की पूरी योजना का प्राथमिक उत्पाद है.जगदीश्वर जी यह वो कंपनीराज है जो एफ़एम चैनलों,अखबारों आदि के माध्यम से एक पूरी पीढ़ी को इसके निर्माण की मोटी तनख्वाह देता है.उन्हें एक जीवन स्तर देता हप्रभु जोशी इसे क्रियोलाइजेशन की पूरी पद्धति के रूप में देखते हैं.पूरे मसले पर उनके दो लेख-डोमाजी उस्ताद मारो स्साली को औरइसलिए हिंदी को विदा करना चाहते हैं हिंदी के कुछ अखबार पढ़े जाने चाहिए.या फिर जनसत्ता में पिछले दिनों असगर वजाहत के लेख के जवाब में उनका लेख।
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