भूमंडलीकरण के लागू किए जाने के बाद सारी दुनिया में दो चीजों में इजाफा हुआ है वह है प्रथम असमानता और दूसरा है भेदभाव। इन दो चीजों के कारण स्थितियां पहले से भी ज्यादा जटिल हो गई हैं। प्रत्यंक राष्ट्र बहुराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं के कर्जे में ढूबा हुआ है। कर्ज के काऱ विभिन्न राष्ट्र खासकर तीसरी दुनिया के देश किसी किस्म का ठोस विकास नहीं कर पा रहे हैं। फिदेल कास्त्रो का मानना था ''इस बारे में लगभग आम सहमति है कि भूमंडलीकरण के लाभ 80 प्रतिशत आबादी की कीमत पर केवल 20 प्रतिशत आबादी को मिल रहे हैं। धनी देशों और सीमांत दुनिया के बीच खाई बढ़ती जा रही है। संयुक्त राष्ट्र और अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय व्यवस्था का रूप बदलने की आवश्यकता पर भी एक मत था। ... शुल्क और गैर शुल्क पाबंदी के जरिए असमान तथा अनुचित व्यापार तीसरी दुनिया के निर्यात राजस्व को खा रहा है जिसकी वजह से कर्ज चुकाने तथा टिकाऊ आर्थिक और सामाजिक विकास करने के लिए पर्याप्त राशि नहीं बचती।''
फिदेल कास्त्रो ने यह भी कहा कि '' वैज्ञानिक और तकनीकी विकास पर धनी देशों के विशिष्ट क्लब का एकाधिकार है। इसलिए वह हमारी पहुंच के बाहर है। धनी देशों का अनुसंधान केंद्रों पर नियंत्रण है, 100 फीसदी पेटेंट उनके पास हैं तथा वे ज्ञान और प्रौद्योगिकी तक हमारी पहुंच में बाधा पैदा करते हैं। दक्षिण के कुछ नेताओं ने हमारा ध्यान एक ऐसे तथ्य की ओर दिलाया है जिसका उल्लेख नव उदार नीतियों और अर्थशास्त्र संबंधी किताबों में नहीं है। यह है तीसरी दुनिया के उच्च शिक्षा प्राप्त दिमागों की शर्मनाक चोरी। उत्तरी देश उन्हें अपने आगोश में समेट रहे हैं क्योंकि दक्षिण के पास पर्याप्त अनुसंधान केंद्र नहीं है। न ही उनके पास देने के लिए इतना वेतन है जो उन्हें उन उपभोक्ता समाजों की ओर जाने से रोक सके जिन्होंने उन पर एक धेला भी खर्च नहीं किया है। इसके अतिरिक्त, पूर्व उपनिवेशवादी शक्तियों के पास या अन्य धनी देशों के विश्वविद्यालयों में पढ़ रहे तीसरी दुनिया के प्रतिभाशाली युवा ग्रेजुएशन के बाद अपने देश नहीं लौटते।''
आज की सामाजिक सच्चाई पर रोशनी डालते हुए फिदेल ने कहा आज '' करोड़ों लोगों को जीने के लिए दो डालर से कम, एक डालर से कम या कुछेक सेंट ही मिलते हैं तो यह मानना पड़ता है कि हमारी इस धरती से मानवीयता खत्म हो गई है। किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी कि 200 साल पहले स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे के लिए क्रांति की शताब्दी और इसके बाद तेजी से हुए उद्योगीकरण तथा संचार, विज्ञान और श्रम उत्पादकता में जबर्दस्त प्रगति से युक्त हाल ही में समाप्त हुई शताब्दी के बाद हम अरबों लोगों के भूखे, कुपोषित, निरक्षर, बेरोजगार होने पर चर्चा करेंगे। इसी प्रकार अपनी उम्र के हिसाब से कम लंबाई या कम वजन वाले बच्चे हैं जिनके लिए कोई स्कूल या चिकित्सा सुविधा नहीं है या जिन्हें थका देने वाली स्थितियों में कम पैसे पर काम करना पड़ता है। हमारे देशों में शिशु मृत्यु दर धनी राष्ट्रों के मुकाबले 20 गुना अधिक है। हमारे यही स्थायी मानवाधिकार हैं।''
''हमारे युग के प्रतीक के रूप में हमारी स्मृति में एड्स से प्रभावित तीन करोड़ साठ लाख लोगों की संख्या अंकित है और जैसा कि संयुक्त राष्ट्र के महासचिव ने बताया है इनमें से दो करोड़ साठ लाख लोग अफ्रीका महाद्वीप में हैं। इनके इलाज के लिए प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष 10000 अमरीकी डालर चाहिए। अगले बारह महीनों में इस संख्या में साठ लाख लोग और जुड़ जाएंगे।''
फिदेल ने सवाल उठाया है कि यह सब क्यों होता है? यह सब कब तक चलेगा ? दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि '' पहले लोग अफ्रीका में नस्लभेद की बात किया करते थे। आज हम पूरी दुनिया में नस्लभेद की बात कर सकते हैं। यहां चार अरब लोग मानव के अत्यधिक बुनियादी अधिकारों अर्थात जीवन, स्वास्थ्य, शिक्षा, स्वच्छ जल, भोजन, मकान, रोजगार तथा अपने और अपने बच्चों के उज्ज्वल भविष्य की आशा के अधिकारों से वंचित हैं। हम जिस गति से आगे बढ़ रहे हैं, उससे हम सांस लेने के लिए स्वच्छ हवा से भी वंचित हो जाएंगे। यह हवा फिजूलखर्च उपभोक्ता समाजों द्वारा अधिकाधिक विषाक्त की जा रही है। ये जीवन के लिए आवश्यक तत्वों को दूषित कर रहे हैं और मानव के प्राकृतिक आश्रय को नष्ट कर रहे हैं। मध्य अमरीका, वेनेजुएला, मोजांबीक तथा अन्य देशोंजिनमें से लगभग सभी तीसरी दुनिया में हैंमें मुश्किल से 18 महीनों की अवधि में जो प्राकृतिक आपदाएं आई हैं उनका 20वीं शताब्दी में नाम तक नहीं सुना गया था। इन आपदाओं ने हजारों लोगों की जान ले ली। ये जलवायु परिवर्तनों और प्रकृति के विनाश का परिणाम हैं। हम यहां पर जमा हुए लोग यदि न्याय के सार्वभौमिक मानकों के साथ-साथ धरती पर जीवन की रक्षा के लिए संघर्ष शुरू करें तो गलत न होगा।''
''धनी दुनिया इस तथ्य की उपेक्षा कर रही है कि शताब्दियों तक हमारे देशों की दासता, उपनिवेशीकरण, नृशंस शोषण और लूट के कारण हम अविकसित और गरीब हैं। वे हमें घटिया राष्ट्र के रूप में देखते हैं। वे हमारी गरीबी का कारण यह बताते हैं कि अफ्रीकी, एशियाई, लैटिन अमरीकी देश अर्थात हम काली और पीली चमड़ी वाले देशी तथा मिश्रित नस्ल के लोग किसी तरह का विकास, यहां तक कि खुद पर शासन नहीं कर सकते। वे हमारी कमियां गिनाते हैं और यह भूल जाते हैं कि उन्होंने ही हमारे शुध्द तथा श्रेष्ठ लोगों में उपनिवेशवादी या शोषक की बुराइयां भरीं।''
''वे यह भी भूल जाते हैं कि जब यूरोप में ऐसे लोगों का वास था जिन्हें रोमन साम्राज्य वहशी कहता था उस समय चीन, भारत, सुदूर पूर्व, मध्य पूर्व और दक्षिणी तथा मध्य अफ्रीका में सभ्यताएं थीं और उन्होंने उन चीजों का सृजन कर दिया था जिन्हें दुनिया के अजूबे कहा जाता है। यूनानियों द्वारा पढ़ना सीखे जाने और होमर द्वारा इलियड लिखे जाने से पहले उन्होंने लिखित भाषाएं विकसित कर ली थीं। हमारे अपने गोलार्ध में माया और इंका पूर्व सभ्यताओं ने वह ज्ञान अर्जित कर लिया था जिससे आज भी दुनिया चकित रह जाती है।''
''मैं पूरे विश्वास के साथ कहता हूं कि धनी देशों द्वारा लादी गई वर्तमान आर्थिक व्यवस्था न केवल निर्दयी, अन्यायपूर्ण, अमानवीय और इतिहास के अवश्यंभावी प्रवाह के विपरीत है बल्कि मूल रूप में नस्लवादी है। इसके पीछे वही नस्लवादी विचार हैं जो किसी समय यूरोप में नाजी नरसंहार और यातना शिविरों की प्रेरणा बने थे। इन्हीं विचारों की छाया आज तीसरी दुनिया के तथाकथित शरणार्थी शिविरों में देखी जा सकती है। यहां गरीबी, भूख और हिंसा के शिकार लोगों को इकट्ठा कर दिया जाता है। ये वही नस्लवादी विचार हैं जिन्होंने अफ्रीका में विकराल नस्लभेद की व्यवस्था को प्रेरणा दी।''
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