गुरुवार, 2 सितंबर 2010

फेसबुक पर अंग्रेजी लिपि के दीवाने और ग्लैमर

फेसबुक पर कुछ दोस्तों ने अंग्रेजी लिपि की हिमायत में तरह-तरह के तर्क दिए हैं। उन तर्कों को किसी एक धारणा में बांधे तो बहस को ज्यादा गंभीर बनाया जा सकता है। हमारे उर्दू के दोस्तों ने लिपि बनाम भाषा की पुरानी साहित्यिक बहस को यहां अपनी टिप्पणियों में उठाने की कोशिश की है।
    मैं विनम्रता के साथ कहना चाहता हूँ कि फेसबुक या इंटरनेट में हिन्दी  में  लिखने की बहस को उठाने का मकसद पुराने बोझे को ढ़ोना नहीं है। इस बहस का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में लिपि और भाषा के पुराने विवाद से कोई संबंध नहीं है। बल्कि यह एकदम नई बहस है और इसका संदर्भ है इंटरनेट की यूनीकोड भाषा। इस बहस का दूसरा संदर्भ है सांस्कृतिक साम्राज्यवाद और तीसरा संदर्भ है विज्ञापन और फैशन।
     इन तीन संदर्भों से फेसबुक पर हि्दी की बहस परिचालित है। मैं पहली बात यह कहना चाहता हूँ कि अंग्रेजी में हिन्दी लिखने वाले हिन्दी प्रेमी हैं वे हिन्दी के शत्रु नहीं हैं। उनका मानना है हिन्दी को हिन्दी लिपि में लिखने से ‘अपर्याप्त’ अभिव्यक्ति होती है और यही वजह है कि वे अंग्रेजी में हिन्दी को लिखने के लिए मजबूर हुए हैं। यानी वे अपनी बात हिन्दी लिपि में संप्रेषित नहीं कर पाते और वे भावी दोस्तों या ऐसे दोस्तों को खोना नहीं चाहते जो हिन्दी लिखना-पढ़ना नहीं जानते।
     इस क्रम में अंग्रेजी में हिन्दी के यूजरों ने हिन्दी के अधूरेपन की ओर ध्यान दिलाया है। यह भी कहा है कि इससे वे हिन्दी का भविष्य बना रहे हैं,कुछ लोगों ने यह भी कहा है जैसा मन में आए वैसा लिखो,महत्वपूर्ण है अभिव्यक्ति। ‘जैसा मन में आए वैसा लिखो’ के नारे पर यदि मानव समाज चलता तो आज हमारे पास भाषा का इतना विशाल अक्षय भंड़ार नहीं होता। बड़े-बड़े व्याकरणशास्त्री न होते। भाषा की शिक्षा की जरूरत नहीं थी। इस तरह के तर्क देने वाले भूल जाते हैं कि भाषा जन्मना नहीं पाते बल्कि उसे शिक्षा के जरिए अर्जित करते हैं।
       भाषा की अपर्याप्तता का तर्क भाषा का तर्क नहीं है यह फैशन की भाषा का तर्क है। यह तर्क भाषा को भविष्य में ले जाता है। यह भाषा में प्रचार की कला है। इसमें भाषा को भविष्यकाल के हवाले कर दिया गया है। वे मानते हैं भाषा के बारे में सोचो मत बोलो। भाषा के प्रयोग के बारे में बहस करना बेबकूफी है। जैसा मन करे वैसा लिखो। महत्वपूर्ण संचार है, भाषा नहीं। हिन्दी की यूनीकोड भाषा की बातें करना कठमुल्लापन है। हमें वही भाषा लिखनी चाहिए जिसमें आराम से व्यक्त कर सकें। इन लोगों का यह भी मानना है अंग्रेजी में हिन्दी लिखेंगे तो इससे हिन्दी और हिन्दीभाषी का रुतबा बढ़ेगा।
     इस तरह के तर्क भाषा के बारे में अवैज्ञानिक समझ से पैदा हुए हैं। इन तर्कों का आधार है उपयोगितावाद। भाषा में उपयोगितावाद के जनक अमेरिकी भाषाशास्त्री हैं। जीवनशैली और संस्कृति के विमर्शों में भी उपयोगितावाद के जनक वे ही हैं। उपयोगितावाद सबसे खतरनाक विचारधारा है। वे मानते हैं जो उपयोगी नहीं है वह बेकार है, उसका इस्तेमाल मत करो। यह समझ वस्तुओं के बाजारू तर्क और विज्ञापन कला के तर्क से संचालित है।  वे अंग्रेजी में हिन्दी के प्रयोग की हिमायत सिर्फ उपयोग को ध्यान में रखकर कर रहे हैं।  सवाल उठता है क्या भाषा को उपयोगितावाद का हिस्सा बनाना सही होगा ?
      वे अंग्रेजी में हिन्दी का प्रयोग करते हुए निज के रूपान्तरण पर जोर दे रहे हैं। यह मध्यवर्ग को संबोधित प्रचार की कला है । वे इसमें नए बदले वातावरण और बहुलतावादी समाज में भाषायी संचार की सुविधा का तर्क दे रहे हैं। वे अंग्रेजी में हिन्दी के प्रयोग के जरिए आम माहौल और संबंधों के बदलने या रूपांतरण पर जोर दे रहे हैं। सवाल उठता है  अंग्रेजी में हिन्दी लिखने के तर्कों के हिमायती कैसे पैदा हो रहे हैं ? वे कहते हैं परखकर देख लो हमारी बात सच है उर्दू वाला या तमिल वाला हिन्दी वाले से कैसे बात करेगा। इस प्रचार की साख इसलिए बची रहती है कि उसकी सत्यता की जांच की जा सकती है। सत्यता की जांच वायदे की वास्तविक पूर्ति के रूप में नहीं अपितु दर्शक ग्राहक की फैंटेसी और संचार की प्रासंगिकताओं के आधार पर हो रही है। इसका असल लक्ष्य भाषायी यथार्थ को लागू करना नहीं है बल्कि भाषायी दिवा-स्वप्न पैदा करना है।  
    अंग्रेजी में हिन्दी के यूजर ग्लैमर के स्नेहभाजन होना चाहते हैं। अभी तक उन्हें ग्लैमर का स्नेह नहीं मिला था। वे कह रहे हैं कि यदि वे अंग्रेजी में हिन्दी का प्रयोग करते हैं तो प्रभुवर्ग के भविष्य में स्नेहभाजन हो सकते हैं।
     कायदे से हमें भाषा में लोकतंत्र की स्थापना करनी चाहिए,सभी भाषाओं और बोलियों के विकास का वातावरण बनाना चाहिए,इसी क्रम में संचार की साझा भाषा भी बनेगी। लेकिन हमने भाषा में लोकतंत्र की बजाय भाषायी उपभोग की हिमायत आरंभ कर दी है। अभिव्यक्ति में चयन की स्वतंत्रता के नाम पर हम भाषा में लोकतंत्र की मांग नहीं कर रहे बल्कि उपभोग की मांग कर रहे हैं। कोई कैसे अपनी बात कह सकता है ,इस आधार पर हमने इस बात पर जोर दिया है कि कोई क्या खा सकता है।
     अब हम भाषा को खिला रहे हैं और भाषा खा रहे हैं। निजी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ने नाम पर यह सारा नाटक चल रहा है। इस क्रम में हमने सभी किस्म के भाषायी मानकों,नियमों आदि की छुट्टी कर दी है। अलोकतांत्रिक और भाषाविरोधी रूपों के साथ सामंजस्य बिठाना आरंभ कर जिया है। अपने इस तरह के भावों को हमने सुंदर जिंदगी के सपने के साथ जोड़ दिया है। इसके कारण हम पूरी तरह प्रचार जगत के गुलाम हो गए हैं।
     अंग्रेजी में हिन्दी के हिमायती जानते नहीं हैं कि वास्तव जगत से इस भाषा का कोई संबंध नहीं है। यह विज्ञापन,मीडिया या प्रौपेगैण्डा की भाषा है। हम एक खास किस्म के भाषायी संशयवाद में फंसकर रह गए हैं जिसमें कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा कहावत को चरितार्थ कर रहे हैं। आजकल मीडिया प्रचार में जिस तरह फोटो कहीं का होता है पाठ कहीं का। भाषा में भी यही हो रहा है।
    अंग्रेजी में हिन्दी लिखने वाले जाने-अनजाने जिस भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं वह प्रचार की भाषा है। प्रौपेगैण्डा या विज्ञापन की भाषा है। इसमें वर्तमान नदारत है साथ ही भाषा में जो हो सकता है वह भी नदारत है। उसे खत्म कर दिया गया है। यह प्रचार की भाषा है। यह अर्जन या अभिग्रहण के इंतजार की भाषा है। अर्जन की भूमिका ने सभी तरह की भूमिकाओं को अपदस्थ कर दिया है। 'होने' की धारणा ने सभी किस्म के अर्थों एवं भावों को समाप्त कर दिया है।
   



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