पश्चिम बंगाल में इन दिनों स्थिति चिंताजनक है। ममता की आंधी के बाबजूद वामदलों के आंख और कान अभी तक खुले नहीं हैं। मैं व्यक्तिगत तौर पर मार्क्सवाद को मानता हूँ। यह भी चाहता हूँ कि वामदलों का खूब विकास हो। लेकिन वामदलों के कार्यकर्त्ताओं और नेताओं को सहिष्णुता और बुद्धिमानी से काम लेना होगा।
संगठन का नशा बेहद खराब होता है। वह बुद्धिहरण कर लेता है। निचले स्तर से लेकर मंत्रीस्तर तक अनेक कॉमरेडों में यह नशा और घमण्ड अभी भी टूटा नहीं है। वामदलों और खासकर भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) ने अपने घमंडी कार्यकर्त्ताओं को जल्दी दुरूस्त नहीं किया तो वामदलों की अपूरणीय क्षति हो सकती है। वामदलों के असहिष्णु और घमंडी कार्यकर्त्ता और राज्य का वामशासन किस दशा में राज्य को ले गया है उसका आलोचनात्मक मूल्यांकन सार्वजनिक तौर पर किया जाना चाहिए। सार्वजनिक आलोचना में ही वाम राजनीति दुरूस्त हुई है।
वाम राजनीति के दुरूस्तीकरण के लिए वाम कार्यकर्ताओं को खुलकर नीतिगत खामियों और व्यवहारगत कमियों का विवेचन करना चाहिए। इसी प्रसंग में मैं आज के ‘टाइम्स ऑफ इण्डिया’ के कोलकाता संस्करण में प्रकाशित एक महत्वपूर्ण खबर की ओर ध्यान खींचना चाहता हूँ।
अखबार के अनुसार पश्चिम बंगाल में 97.5 प्रतिशत आंगनबाड़ी का काम ठेकेदारों के जरिए हो रहा है। 97 प्रतिशत उचित मूल्य की दुकानें निजी स्वामित्व में चल रही हैं। 75 प्रतिशत आंगनबाड़ी संस्थाओं के पास निजी बिल्डिंग नहीं है। 66 प्रतिशत आंगनबाड़ी के पास पीने के पानी की सुविधा नहीं है। राज्य में 41.2 लाख बच्चे हैं जो अभी तक इंटीग्रेटेड चाइल्ड डवलपमेंट सर्विस स्कीम के बाहर हैं।
पश्चिम बंगाल में बच्चों में कुपोषण चरम पर है। कुपोषण के शिकार मात्र 41 प्रतिशत बच्चों तक ही अतिरिक्त भोजन पहुँच पाया है। कुपोषण के शिकार मात्र 24 प्रतिशत बच्चों को स्वास्थ्य केन्द्रों के पास भेजा गया है। सार्वजिक वितरण प्रणाली की अवस्था और भी खराब है । राज्य में 3 लाख नकली राशनकार्ड हैं। 31 लाख बच्चे ऐसे हैं जिन्हें स्कूल में खाना नहीं मिलता। अपर प्राइमरी के 43 प्रतिशत बच्चे हैं जिन्हें स्कूल में दोपहर का भोजन नहीं मिलता। 11 प्रतिशत प्राइमरी स्कूल के बच्चे हैं जिन्हें दोपहर का भोजन नहीं मिलता। ये कुछ निष्कर्ष है सुप्रीम कोर्ट कमिश्नर के द्वारा जारी रिपोर्ट के।
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