आज जब इलाहाबाद उच्चन्यालय की लखनऊ पीठ ने बाबरी मसजिद पर फैसला सुनाया तो आरंभ में टीवी चैनलों पर भगदड़ मची हुई थी,भयानक भ्रम की स्थिति थी। समझ में नहीं आ रहा था आखिरकार क्या फैसला हुआ ? लेकिन धीरे-धीरे धुंध झटने लगा। बाद में पता चला कि उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने बुनियादी तौर पर विवाद में शामिल पक्षों को सांस्कृतिक समझौते का रास्ता दिखाया है। इस फैसले की कानूनी पेचीदगियों को तो वकील अपने हिसाब से देखेंगे। लेकिन एक नागरिक के लिए यह फैसला चैन की सांस लेने का मौका देता है।
लखनऊ पीठ के फैसले की धुरी है भारत की सामयिक सांस्कृतिक-राजनीतिक विविधता और भाईचारा। बाबरी मसजिद का विवाद राजनीतिक-साम्प्रदायिक विवाद है। यह मंदिर-मसजिद का विवाद नहीं है बल्कि एक तरह से विचारधारात्मक विवाद भी है औऱ विचारधारात्मक विवादों पर बुर्जुआ अदालतों में फैसले अन्तर्विरोधी होते हैं।
राम के जन्म को लेकर जिस चीज को आधार बनाया गया है वह कानूनी आधार नहीं है ,वह सांस्कृतिक-राजनीतिक समझौते का आधार है। अदालत के फैसले से राम पैदा नहीं हो सकते और न भगवान के जन्म को तय किया जा सकता है। भगवान अजन्मा है। यह विवाद का विषय है।
मौटे तौर पर इस फैसले में जस्टिस एस यू. खान ने आरएसएस को विचारधारात्मक तौर पर करारा झटका दिया है। इस फैसले की पहली महत्वपूर्ण बात यह है कि बाबर ने राममंदिर तोड़कर मस्जिद नहीं बनायी थी। संघ परिवार का प्रौपेगैण्डा इस राय से ध्वस्त होता है। संघ परिवार का सारा प्रचार अभियान इसी आधार पर चला आ रहा था कि बाबर ने राम मंदिर तोड़कर बाबरी मस्जिद बनायी थी। अदालत ने इसे नहीं माना है।
अदालत ने विवादित जमीन पर साझा स्वामित्व को स्वीकार किया है। यानी हिन्दू-मुसलमानों के साझा स्वामित्व को माना है। यानी राममंदिर की मूर्ति जहां रखी है वह वहीं रहेगी और मुसलमानों को एक तिहाई जमीन पर स्वामित्व मिलेगा। संघ परिवार की यह मांग थी कि रामजन्मस्थान पर मसजिद नहीं बननी चाहिए। इस मांग को अदालत ने एकसिरे से खारिज कर दिया है। आज की स्थिति में मंदिर -मसजिद साथ में हो सकते हैं। मुसलमानों को एक तिहाई जमीन का स्वामित्व देकर अदालत ने संघ परिवार की मांग को एकसिरे से खारिज किया है।
संघ परिवार चाहता था कि अयोध्या में कहीं पर भी बाबरी मसजिद नहीं बनायी जाए। उसे दोबारा बनाया जाए तो अयोध्या के बाहर बनाया जाए। वे यह भी चाहते थे कि राम जन्मभूमि की जमीन पर मुसलमानों का कहीं पर भी कोई प्रतीक चिह्न न हो। लखनऊ पीठ ने विवादित जमीन पर मुसलमानों का एक-तिहाई स्वामित्व मानकर संघ परिवार को करारा झटका दिया। वक्फ बोर्ड की पिटीशन कानूनी दायरे के बाहर थी इसलिए खारिज की है।
लखनऊ पीठ के फैसले में सबसे खतरनाक पहलू है आस्था के आधार पर रामजन्म को मानना। निश्चित रूप से आस्था के आधार पर भगवान के जन्म का फैसला करना गलत है। इस आधार पर बाबरी मसजिद की जगह पर राम जन्मभूमि को रेखांकित करना, बेहद खतरनाक फैसला है। इसके आधार पर संघ परिवार आने वाले दिनों में अपने मंदिर मुक्ति अभियान को और तेज कर सकता है और जिन 3000 हजार मसजिदों की उन्होंने सूची बनायी है उनकी जगह वह मंदिर बनाने की मांग पर जोर दे सकता है। इससे काशी विश्वनाथ मंदिर के पास वाली मसजिद और मथुरा के कृष्णजन्मभूमि के पास बनी ईदगाह मसजिद को गिराने या हटाने या हिन्दुओं को सौंपने की मांग जोर पकड़ सकती है।
आस्था के आधार पर जब एकबार हिन्दू मंदिर या हिन्दू देवता की प्राचीनकाल में उपस्थिति को अदालत ने आधार बना लिया है तो फिर इस निर्णय के आदार संघ परिवार कम से कम इन दो मंदिरों के पास बनी मसजिदों को हासिल करने के लिए आंदोलन तेज करेगा। वे हाईकोर्ट में जा सकते हैं अथवा हाईकोर्ट के इस फैसले के आधार पर अपनी अतार्किकता को वैधता प्रदान करने की कोशिश कर सकते हैं।
लखनऊ पीठ के फैसले पर आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने जो बयान दिया है वह निश्चित रूप से महत्वपूर्ण है उन्होंने सभी से शांति बनाए रखने की अपील की है। उन्होंने राम मंदिर निर्माण में सभी से सहयोग मांगा है। लेकिन वे यह नहीं बोले कि उन्हें विवादित जमीन पर मसजिद भी कबूल है। इस प्रसंग में भाजपानेता और सुप्रीम कोर्ट वकील रविशंकर प्रसाद ने जिस तरह वकील की बजाय एक हिन्दू स्वयंसेवक के नाते मीडिया को संबोधित किया उससे यही बात पुष्ट होती है कि वे वकील कम स्वयंसेवक ज्यादा है।
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