सोमवार, 13 सितंबर 2010

बहुलतावाद के शत्रु हैं माओवादी

       भारत में एक तबका है जो माओवादियों के नृशंस कर्मों पर इन दिनों फिदा है और आए दिन मीडिया और इंटरनेट में माओवादियों के पक्ष में ‘जय हो-जय हो’ करता रहता है। माओवाद के प्रति जाने-अनजाने हो रही इस जय-जयकार में असली सवालों पर बातें नहीं हो रही हैं।
    पहला सवाल यह है कि माओवादी संगठनों का मौजूदा हिंसाचार क्या जायज है, तार्किक है,वैध है,न्यायपूर्ण है ? क्या इस हिंसाचार से भारत के किसानों के जानो-माल की रक्षा हो रही है ? क्या माओवादी संगठनों के प्रभाव वाले इलाकों में किसान और आम आदमी चैन की नींद सो रहा है ? क्या माओवादी संगठन अपने प्रभाव वाले इलाकों में जबरिया धन वसूली कर रहे हैं या नहीं ? माओवादियों के पास कई हजार सशस्त्र गुरिल्ला हैं और उनकी पचासों टुकडियां हैं, इन सबके लिए पैसा कहां से आता है ? गोला-बारूद से लेकर पार्टी होलटाइमरों और सशस्त्र गुरिल्लाओं के वेतन का भुगतान किन स्रोतों से होता है ? कौन हैं वे देशी-विदेशी संगठन और लोग जो इतने बड़े पैमाने पर माओवादी गुरिल्लाओं को पैसा भेज रहे हैं ? माओवादी जबाब दें।  
   माओवादियों की बात मानें तो आदिवासी अतिदरिद्र हैं और वे कम से कम माओवादियों के लिए नियमित चंदा नहीं दे सकते। माओवादियों को कभी किसी ने शहरों में भी चंदा की रसीद काटकर या कूपन देकर चंदा वसूलते नहीं देखा। ऐसी स्थिति में वे धन कहां से प्राप्त करते हैं ? माओवादी यदि पारदर्शिता में विश्वास करते हैं तो उन्हें अपने आय-व्यय को सबको बताना चाहिए।
    हिन्दुस्तान की गरीब जनता और खासकर आदिवासियों यह  जानने का पूरा हक है कि माओवादियों के पास धन कहां से आता है ?और किन मदों में खर्च होता है ? भारत में सच्चा-झूठा हिसाब प्रत्येक दल को देना होता है। माओवादियों को कम से कम अपने उन बैंक खातों के बारे में बताना चाहिए जो बेनामी ढ़ंग से भारत में हैं या भारत के बाहर हैं। यदि नहीं हैं तो आखिर कोषाध्यक्ष कौन है ?
   आय के स्रोत न बताने के मामले में एक ही संगठन है जो माओवादियों जैसा है वह है आरएसएस। वह भी अपनी आय का स्रोत नहीं बताता। लेकिन भाजपा कम से कम बताती है। विश्व हिन्दू परिषद का भी हिसाब आयकर विभाग वालों ने राममंदिर निर्माण के लिए वसूले गए धन के चक्कर खोला है।
    माओवादियों के पक्ष में जो लोग राय रखते हैं वे सोचें और बताएं कि आखिर भारत के बहुलतावादी राजनीतिक विचारधारात्मक,धार्मिक और जातीय स्वभाव के बारे में उनकी क्या राय है ? क्या भारत की बहुलता को माओवादियों के राज्य में कोई जगह मिलेगी ? आज तक राजनीतिक,वैचारिक ,सामाजिक और धार्मिक बहुलतावाद के प्रति माओवादियों का घृणास्पद और बर्बर व्यवहार रहा है ऐसा ही व्यवहार साम्प्रदायिक,फंड़ामेंटलिस्ट और आतंकवादी संगठन भी करते हैं। सवाल यह है बहुलतावाद के प्रसंग में इनमें और माओवादियों में अंतर क्या है ?
    आज भारत में ऐसे दल हैं जो क्रांति लाना चाहते हैं। सर्वहारा के अधिनायकवाद के पक्षधर हैं। लेकिन वे भारत के बहुलतावादी समाज और राजनीतिक तानेबाने को मानते हैं और उसकी रक्षा के लिए समय-समय पर अपने दलीय स्वार्थ का भी उन्होंने त्याग किया है। उनकी लोकतंत्र और भारत के संविधान में आस्था है। इनमें भारत के दोनों कम्युनिस्ट दल इसके प्रमाण हैं।
     समस्या यह है कि माओवादी बहुलतावाद के प्रति सहिष्णु क्यों नहीं हैं ? यदि सहिष्णु हैं तो वह सहिष्णुता व्यवहार में नजर क्यों नहीं आती ? ‘ऊपर से छह इंट छोटा कर देने से लेकर दनादन मौत के घाट उतारने तक’ का माओवादियों का राजनीतिक सफर इस बात की ओर संकेत कर रहता है कि उनके यहां बहुलतावाद के लिए कोई जगह नहीं है।
    क्या हम यह कल्पना कर सकते हैं कि माओवादी शासन होगा और उसमें सभी धर्मों की आजादी बरकरार रहेगी ? सभी दलों की राजनीतिक स्वाधीनता बची रहेगी ? सभी वर्गों में भाईचारा रहेगा ? औरतों ,आदिवासियों और अल्पसंख्यकों की राजनीतिक-धार्मिक और भाषायी स्वाधीनता बरकरार रहेगी ? उनके राज्य में विभिन्न रंगत के मार्क्सवादी,राष्ट्रवादी,उदारवादी सुरक्षित और स्वतंत्रभाव से रहेंगे ? और उन्हें अभी जितनी आजादी बुर्जुआ संविधान के तहत मिली हुई है उससे भी ज्यादा स्वाधीनता और अधिकार प्राप्त होंगे ?
    माओवाद को भारत की मुख्य राजनीतिक शक्ति मानने वाले जबाव दें कि क्या भारत का सामाजिक शक्ति संतुलन उनके पक्ष में है ? क्या माओवाद प्रभावित 136 जिलों में सामाजिक-राजनीतिक शक्ति संतुलन माओवादियों के पक्ष में है ? जी नहीं ,माओवादी संगठन ही नहीं सभी रंगत के क्रांतिकारी संगठन मिल जाएं तो भी सामाजिक और राजनीतिक शक्ति संतुलन उनके पक्ष में होना तो दूर की बात है। 136 जिलों में सभी रंगत के वाम संगठनों और माओवादी मिल ताएं तो भी बुर्जुआ शक्ति संतुलन को जरा सा भी बदलने की स्थिति में नहीं हैं।
    माकपा और वाममोर्चा लंबे समय से पश्चिम बंगाल,त्रिपुरा और केरल में प्रमुख राजनीतिक शक्ति हैं लेकिन सामाजिक वर्गीय शक्ति संतुलन आज भी उनके पक्ष में नहीं हैं जबकि उन्हें जनता में बड़ी मात्रा में जनसमर्थन प्राप्त है। इसकी तुलना में माओवादियों का किसी भी राज्य में राजनीतिक वर्चस्व नहीं है,सामाजिक वर्गीय शक्ति संतुलन उनके पक्ष में होना तो दिवा-स्वप्न है। ऐसी स्थिति में एक ही निष्कर्ष निकलता है कि माओवादी संगठन भारत के स्वाभाविक छंद से भिन्न रास्ते पर हैं। यह ऐसा रास्ता है जिसमें फासीवादी अधिनायकवाद होगा।
     माओवादी संगठन किसान,आदिवासी और क्रांति की कितनी ही बातें करें भारत के वैचारिक, राजनीतिक, भाषायी,धार्मिक और सांस्कृतिक बहुलतावाद को नतमस्क होकर स्वीकार करना होगा। बहुलतावाद के इन रूपों को अस्वीकार करने के कारण सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के सभी देशों में समाजवाद गिर गया और कम्युनिस्ट पार्टियों के अंदर से विभिन्न रंगत के पृथकतावादी,फासिस्ट,अंधराष्ट्रवादी,अपराधी, राज्य की संपत्ति के लुटेरे पूंजीपतियों का समूह रातों-रात पैदा हो गया था। ये सारे लोग समाजवाद और कम्युनिस्ट पार्टी का मुखौटा लगाए बैठे थे।
        समाजवादी व्यवस्था के पराभव के साथ ही हठात् कम्युनिस्टों के अंदर से ऐसे तत्व बाहर आए हैं जिनकी कोई कल्पना तक नहीं कर सकता। आज पूर्व समाजवादी देशों की जनता का कम्युनिस्टों पर विश्वास कम हुआ है।
     कहने का अर्थ यह है कि वैचारिक ,सामाजिक और सांस्कृतिक बहुलतावाद को आज के हालात में सिर्फ बुर्जुआ लोकतंत्र में ही बचा सकते हैं। समाजवाद या माओवादी राजनीति का राजनीतिक बहुलतावाद से बैर है। ऐसी अवस्था में महाश्वेता देवी-अरूंधती राय-मेधा पाटेकर आदि से सवाल है कि माओवाद का भारत के राजनीतिक बहुलतावाद से भावी संबंध किस रूप में देखती हैं ?  
      राजनीतिक बहुलतावाद और लोकतंत्र एक सिक्के के ही दो पहलू हैं। माओवादियों की भारत के लोकतंत्र में आस्था नहीं है ऐसे में बहुलतावाद का क्या होगा ? क्या माओवाद के नाम पर भारत के लोग बहुआयामी बहुलतावाद की बलि देने को तैयार हैं ?
    एक अन्य सवाल उठता है कि माओवादी अंधाधुंध कत्लेआम क्यों कर रहे हैं ? इस कत्लेआम  का उनके प्रतिवादी संघर्षों और किसान-आदिवासियों में नव्य-उदारतावादजनित विस्थापन और भूमि अधिग्रहण के खिलाफ संघर्ष के एजेण्डे गहरा संबंध है। आज भारत में नव्य उदारतावाद का एजेण्डा पिट चुका है। दूसरा कारण है माओवादी आंदोलन का चंद क्षेत्रों तक सीमित हो जाना।  हिन्दुस्तान के अन्य वर्गों की समस्याएं उनके आंदोलन के केन्द्र में नहीं हैं।
    वे राजनेताओं और विभिन्न राजनीतिक दलों की नीतियों को खारिज करते हैं। कल तक माओवादियों के अंदर एक हिस्सा था जो लोकतंत्र को नहीं मानता था लेकिन अब वे चुनावों में भाग लेते हैं। माओवादी भी लालगढ़ में पुलिस संत्रास विरोधी कमेटी के बैनरतले आगामी विधानसभा का चुनाव लड़ना चाहते हैं और इस दिशा में तैयारियां चल रही हैं।
    आज माओवादियों के सामने संकट यह है कि नव्य-उदारतावाद के खिलाफ उनका संघर्ष किसानों से लेकर मध्यवर्ग तक अपील खो चुका है। दूसरी ओर बुर्जुआ उदार लोकतंत्र की साख में भी बट्टा लग चुका है। समाजवाद के अधिकांश मॉडल पिट चुके हैं ऐसी अवस्था में माओवादी समझ नहीं पा रहे हैं कि क्या करें ?
    एक और समस्या है वह यह कि माओवादियों ने हाल वर्षों में नव्य-उदारतावाद के खिलाफ संघर्ष करके जो जमीन बनायी थी वह ग्लोबल एजेण्डा पूरी तरह पिट गया है। यह अमरीकी ग्लोबल एजेण्डा था आज जब अमेरिका में इस एजेण्डे का अंत हुआ है तो स्वाभाविक तौर पर सारी दुनिया में इसकी विदाई की घोषणा हो गयी।
       नव्य-उदारतावाद की आर्थिकमंदी के साथ ही विदाई हो चुकी है। नव्य-उदारतावाद की विदाई की बेला में माओवादियों के पास सही एजेण्डे का अभाव है यही बुनियादी वजह है जिसके कारण वे अंधाधुंध हत्याएं कर रहे हैं। यह उनके दिशाहीन होने का  संकेत है। माओवादियों का हिंसाचार 2001 के बाद से क्रमशः बढ़ा है और यह उनके एजेण्डे के पिटने के कारण हुआ है।
    माकपा और वामदलों ने नव्यउदारतावाद के बरक्स अपनी राजनीति में संतुलन पैदा किया और विकल्प का मार्ग चुना और इस दौर में नव्य उदारतावाद के संदर्भ में नए नीतिगत उपाए लागू कराने में सफलता हासिल की। नव्य-उदारतावाद के पिटते ही सोनिया-राहुल गांधी भी किसानों के हितों का ख्याल रखने की बातें करने लगे हैं। आज सोनिया और माओवादियों में किसानों की जमीन के मामले में एक ही स्वर दिखाई दे रहा है। अब वे जमीन अधिग्रहण के मामले में नया सख्त कानून भी लाना चाहते हैं। लेकिन अधिकांश राज्यों में किसानों की लाखों एकड़ जमीन तो कारपोरेट घराने खरीद चुके हैं। कानून ही लाना था तो 10 साल पहले क्यों नहीं लाए ?
   माओवादी संगठनों के हिंसाचार का एक अन्य कारण है भारत में खासकर आदिवासी इलाकों में लोकतंत्र में जनता की व्यापक शिरकत। लोकतंत्र में व्यापक शिरकत के कारण ही वे लाख प्रचार करके भी साधारण लोगों को वोट ड़ालने से रोक नहीं पाए हैं। यही वजह है कि वे गरीबों की अंधाधुंध हत्याएं कर रहे हैं।
     नव्य-उदारतावाद के लाख दोष हों लेकिन आम आदमी की चेतना और शिरकत में कई गुना वृद्धि हुई है। संचार क्रांति ने क्रांति के सभी रूपों को फीका बना दिया है। बुर्जुआ लोकतंत्र के प्रति आकर्षण बढ़ा है। इसने माओवादियों की कुण्ठा को सातवें आसमान पर पहुँचा दिया है और वे अब सिर्फ हत्याएं कर रहे हैं। उनकी इस तरह की हरकतों ने आम जनता की तकलीफें और घेराबंदी बढ़ा दी है। फलतः आज आदिवासी इलाकों में वे किसी भी किस्म की राजनीतिक गतिविधि को पसंद नहीं कर रहे हैं और सिर्फ हत्याएं कर रहे हैं।        
  
    
   







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