मध्यवर्ग को संबोधित विज्ञापनों में 'पर्सुएसिव' रणनीति की केंद्रीय भूमिका होती है। वहां व्यक्तिवाद प्रमुख रूप में अभिव्यक्ति पाता है। विज्ञापन के व्यक्तिवाद की विशिष्ट प्रकृति यह होती है कि कोई वस्तु विशेष ही व्यक्ति की क्षमता के साथ मेल खाती है। उसकी क्षमता के साथ न्याय कर सकती है। यही विज्ञापन का व्यक्तिवाद है, यह व्यक्तिवाद मूलत: बाजार-चेतना से जुड़ा है। यह ऐसा व्यक्तिवाद है जो शंकालु, टालमटोल करनेवाला और गैर-लड़ाकू है। इसे सिर्फ प्रभाव की चिंता है। वह दुनिया को बदलना नहीं चाहता।
इस व्यक्तिवाद की धुरी 'मैं' है, यही फ्रायड का अहं भी है। इसमें औरों से श्रेष्ठता का भाव है। यह हृदयहीन व्यक्ति की श्रेष्ठता है। पूंजीवादी समाज में जहां पार्थक्य का बोलबाला होता है वहां केवल वस्तुओं का मूल्य होता है और मनुष्य भी वस्तुओं के बीच में एक वस्तु बन जाता है। इतना ही नहीं, वह उन वस्तुओं में भी सबसे ज्यादा नपुंसक, सबसे ज्यादा घृणास्पद वस्तु बन जाता है। माल का विज्ञापन तर्कबुध्दि के बजाय तर्कातीत दिशा की ओर ले जाता है। वह ऐसे समाज को पेश करता है जिसमें 'सफलता' ही सबकुछ है, मनुष्य कुछ भी नहीं। यही 'सफलता' वाला तत्व 'कैरियर' और 'सेक्सुअल इमेज' के साथ संप्रेषित किया जाता है।
विज्ञापन के बारे में मार्क्सवादी चिंतकों की यह आम राय है कि वह यथार्थ को छिपाता है। यथार्थ को छिपाना मूलत: पूंजीवादी रहस्यीकरण है। यह पूंजीवादी अलगाव का परिणाम है। भारतीय विज्ञापन की विशेषता है कि वह वस्तु के होने पर बल देता है। अगर 'वस्तु है' तो सबकुछ है। यानी 'होना ही सबकुछ है'। 'करना' कुछ भी नहीं। इस तरह वह 'करने' का निषेध करता है। किसी भी वस्तु के होने से जब मनुष्य के अस्तित्व की गारंटी की धारणा दी जाने लगती है तो इसमें कर्मशीलता का निषेध होता है। यही वजह है कि विज्ञापनों में 'कर्मशीलता' और 'कामगार व्यक्तित्व' की इमेज, काम की प्रक्रिया आदि का पूरी तरह लोप कर दिया गया है।
कर्मशील व्यक्तित्व गतिशील होता है। उसी तरह कर्म भी गतिशील होता है। इसका अर्थ यह भी होगा कि समाज भी गतिशील है। यह बुर्जुआ प्रचार अभियान के मिथ का खंडन है अत: विज्ञापन में अमूमन इसे नजरअंदाज किया जाता है।
विज्ञापनों में 'कर्मण्यता' के बजाय 'होना' की धारणा पर बल देने के कारण ही यथार्थ की मिथकीय और यथास्थितिवादी इमेज का संप्रेषण किया गया। विज्ञापन का व्यक्तिवाद ऐसे व्यक्ति की मनोसंरचना तैयार करता है जो समाज में किसी का भी नहीं होता, उसकी कोई विशिष्ट पहचान नहीं होती। वह यथार्थ को अयथार्थ में और मनुष्य को अमानुष में बदल देता है। परिणति स्वरूप व्यक्ति सामाजिक उत्तारदायित्वों और विचारधाराओं से पलायन कर जाता है। यही विज्ञापन का अमानवीय रूप है।
विज्ञापन में व्यक्तिवाद 'विशिष्ट' और 'खास' को जनाधारित उत्पादित माल के साथ
जोड़कर पेश करता है। इससे हमें एक काल्पनिक पर्दा मिलता है। हम आस-पास की चीजों और व्यक्तियों को पहचानना बंद कर देते हैं। वह वस्तु को सामाजिक हैसियत के साथ जोड़कर पेश करता है। सामाजिक वर्गों में विभाजित समाज में जब वस्तु के साथ 'विशिष्ट' और 'सामाजिक' हैसियत का तत्व आने लगता है तो वह श्रम से जुड़े मुद्दों को हजम करना शुरू कर देता है। इससे उच्च वर्ग के सामाजिक समर्थन को विस्तार मिलता है।
विज्ञापन न तो मात्र सूचना है और न ही सिर्फ जीवनशैली मात्र है बल्कि इस सबके बावजूद वह विचारधारा के रूप में मासकल्चर के पुनरुत्पादन का उपकरण है जिसका संदेश है भोग करो, खूब भोग करो, और मर जाओ।
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