माओवादी हिंसा थमने का नाम नहीं ले रही है। हाल ही में माओवादियों ने बिहार में चार पुलिसवालोंका अपहरण किया था और उसमें से एक पुलिस वाले की हत्या कर दी और पश्चिम बंगाल के लालगढ़ इलाके में तो माओवादियों के माकपा के कार्यकर्त्ताओं पर हमले थमने का नाम नहीं ले रहे। लालगढ़ में माओवादियों ने आदिवासी संगीतकार, गीतकार, साहित्यकार,शिक्षक,खेतमजदूर, किसान, अबोधबच्चे,औरतें आदि की नृशंस हत्या की है।
सवाल यह है कि माओवादी हिंसा के तर्क क्या हैं ? क्या माओवादी वास्तव में सामाजिक विकल्प की लड़ाई लड़ रहे हैं ? क्या माओवादी हिंसा के माध्यम से समाजवाद या क्रांति का मार्ग प्रशस्त हो रहा है ? क्या लोकतंत्र में बंदूक के अलावा जंग का और कोई रास्ता नहीं है ? इत्यादि सवालों पर गंभीरता के साथ विचार करने की जरूरत है। पहली बात यह है कि माओवादी हिंसा का समाजवाद के साथ कोई संबंध नहीं है। माओवादी संगठनों की सारी कार्रवाईयां पूंजीवादी कार्रवाईयां हैं। वे पूंजीवादी व्यवस्था के हिंसाचार के प्रतिवाद के नाम पर हिंसाचार कर रहे हैं। उनके तर्क समाजवाद या माओवाद के नहीं हिंसा और व्यवस्था के तर्क हैं।
माओवादी और उनके समर्थक बुद्धिजीवी जानते हैं कि ‘काउण्टर वायलेंस’ का तर्क कमजोर का तर्क है। इस तर्क की आड़ में वे सभी किस्म के अपराधों को छिपाने का काम करते हैं। विगत पांच सालों में कई हजार निर्दोष गरीब लोग माओवादियों की हिंसा के शिकार हुए हैं। हिंसाचार के नाम पर विभिन्न इलाकों में माओवादियों के क्षत्रप या एरिया कमाण्डर तैयार हो गए हैं, जिनके पास क्षेत्र विशेष का स्वामित्व है। उस इलाके में वे हत्या और धन वसूली कर रहे हैं।
जिस इलाके में वे घुस जाते हैं वहां पर इलाका दखल करते हैं। लोगों के ज़ेहन में आतंक पैदा करते हैं। वे उस इलाके में न जमीन बांटने का संघर्ष चलाते हैं और न कोई विकासमूलक कार्य करते हैं। माओवादियों ने जिन इलाकों में विकासहीनता के नाम पर अपना कब्जा जमा लिया है वहां पर स्थानीय सामाजिक- आर्थिक संदर्भों की वे हत्या कर देते हैं।
वे जिन इलाकों में घुस जाते हैं वहां पर स्थानीय संदर्भ की विदाई हो जाती है। सामाजिक-राजनीतिक तौर पर अब इन इलाकों में सिर्फ माओवादी संदर्भ बचा रह गया है। अब सिर्फ माओवादी हिंसा ही एकमात्र संदर्भ है। माओवादियों का मानना है वे राज्य और कारपोरेट घरानों के शोषण के खिलाफ हैं और आदिवासियों को इन दोनों के शोषण से बचाने के लिए हिंसा का रास्ता अपनाने के लिए मजबूर हुए हैं। वे अपने को कारपोरेट शोषण के खिलाफ आशा की किरण के रूप में पेश कर रहे हैं। उनके इन तर्कों का बड़े पैमाने पर अनेक बुद्धिजीवी प्रचार कर रहे हैं।
जिन इलाकों में माओवादी काम करना आरंभ करते हैं वहां स्कूल-कॉलेज-बैंक-पोस्ट ऑफिस-पंचायत आदि सभी का अस्तित्व समाप्त हो जाता है और धीरे-धीरे हिंसा स्थायी स्थान बना लेती है। हिंसा में भी स्थानीय लोगों को निशाना बनाया जाता है इसके लिए सबसे आसान बहाना है ‘पुलिस एजेण्ट’ या ‘सत्ता का दलाल’। वे किसी को भी ‘पुलिस एजेण्ट’ कहकर मौत के घाट उतार देते हैं। इस बहाने वे तरह-तरह के अत्याचार और अपराध करते हैं।
माओवादी जिन इलाकों में दखल जमा लेते हैं उन इलाकों में जीना असंभव होता है। सामान्य जीवन पूरी तरह ठप्प हो जाता है। राज्य की गतिविधियां पूरी तरह ठप्प हो जाती हैं। सामान्य जीवन और राज्य के तंत्र की अनुपस्थिति में वे ‘क्रांतिकारी क्षेत्र’ का निर्माण करते हैं। समानान्तर प्रशासन चलाते हैं। कर वसूली से लेकर दण्ड देने तक के सभी काम समानान्तर व्यवस्था के जरिए करते हैं। उनके इस तरह के कार्यों को सामाजिक बर्बरता की कोटि में रखा जा सकता है।
वे ‘क्रांति’ और आदिवासियों के शोषण के नाम पर सामाजिक बर्बर की भूमिका अदा करते हैं। सामाजिक बर्बर वह है जो अपील,दलील,न्याय,सत्ता आदि किसी में विश्वास न करे और अपराधी माफिया गिरोहों की तरह काम करे। इलाका दखल करे। माओवादियों का प्रत्येक इलाके में अपना निजी इतिहास है। विशेष संदर्भ है। उनके पास हिंसाचार के अपने तर्क हैं। पूरी युद्धमशीन है। जिसके माध्यम से वे हिंसा का उत्पादन -पुनर्रूत्पादन करते हैं।
वे राज्य और कारपोरेट घरानों के शोषण का बहाना बनाकर समाज के व्यापक हितों के रक्षक का दावा करते हैं ,समाज से समर्थन मांगते हैं और तरह-तरह से ‘राष्ट्र-राज्य’ की धारणा की आलोचना करते हैं । अपने अनुसार इसे नए सिरे से परिभाषित करते हैं और समाज में,खासकर आदिवासियों या पिछड़े इलाकों में सामाजिक आधार बनाने की कोशिश करते हैं और इसके लिए वे तर्क का कम और हिंसा का प्रमुखतौर पर इस्तेमाल करते हैं।
माओवादियों के संगठन का सदस्य बनने के लिए उनकी ‘राष्ट्र-राज्य’ की धारणा और सशस्त्र संघर्ष की धारणा से एकमत होना जरूरी है। वे जिस इलाके में जाते हैं वहां पर नाटकीय ढ़ंग से कब्जा जमाते हैं। गरीबों में काम करने के बहाने,इलाज के बहाने, जमीन छीन ली गयी है तो जमीन दिलाने के बहाने, कोई पूंजीपति या ठेकेदार शोषण कर रहा है तो उसे साइज कर देने के बहाने दाखिल होते हैं।
माओवाद के नाम पर ‘खतरा’ और ‘मौत’ इन दो का जमकर इस्तेमाल करते हैं। इन दो धारणाओं के आधार पर ही वे कॉमरेडशिप और सहयोगिता का निर्माण करते हैं। इस प्रक्रिया में वे ‘खतरा’ और ‘मौत’ को एक वस्तु बना देते हैं। खासकर माओवाद प्रभावित इलाकों में ये दोनों धारणाएं आम हैं।
माओवाद प्रभावित इलाकों में हर समय और प्रत्येक व्यक्ति के लिए खतरा है और मौत कभी भी आ सकती है और कोई भी मारा जा सकता है। इस तरह वे आदिवासियों और गरीबों के जीवन में ‘खतरा’ और ‘मौत’ के सौदागर बनकर सामने आते हैं। ये दोनों चीजें सिर्फ युद्ध के समय ही सामने आती हैं लेकिन माओवादियों ने सुदूरवर्ती इलाकों में जिस तरह का नेटवर्क पैदा किया है उसने शांत इलाकों और शांत समुदायों को अहर्निश युद्ध की मनोदशा में फेंक दिया है। माओवाद प्रभावित इलाकों में इसके कारण अहर्निश हिंसा, राजनीतिक ध्रुवीकरण और असुरक्षा का वातावरण बना हुआ है।
जिस तरह माफिया गिरोह इलाका दखल करके हिंसा को वैध बनाते हैं ठीक उसी पैटर्न पर माओवादियों ने इलाका दखल करके हिंसा को वैध बनाया है। हिंसा को सांस्थानिक रूप दिया है। माओवादी अपनी जंग जुलूस,धरने,प्रदर्शन आदि से आरंभ करते हैं और अंत में बंदूक और बारूद के सहारे आतंक का वातावरण बनाते हैं। वे जिस इलाके में काम करते हैं वहां पर निरंतर एक्शन करते हैं। निरंतर एक्शन के जरिए वे इलाका दखल करते हैं,उनका ऐसा करना स्थानीय लोगों के लिए आरंभिक चेतावनी है। वे अपनी प्रिफॉमेंस को पहले कागज पर तैयार करते हैं और फिर तदनुरूप लागू करते हैं। इसके कारण वे स्थानीय लोगों को यह संदेश भी देते हैं कि अब किस तरह का हिंसाचार होगा। उनके हिंसाचार के बारे में पूर्वानुमान लगाना कठिन होता है।
माओवादी अपने हिंसाचार को आदिवासी प्रेम या स्थानीयता या जंगलमहल से प्रेम कहते हैं। आदिवासियों को भी वे यही समझाते हैं कि वे उन्हें बेइंतिहा प्यार करते हैं और उसी प्यार की खातिर वे हिंसा कर रहे हैं। अपने आदिवासी प्रेम को प्रदर्शित करने के लिए वे अन्य राजनीतिक दलों के कार्यकर्त्ताओं की हत्या करते हैं,उन्हें उत्पीड़ित करते हैं। पहले वे आदिवासी प्रेम प्रदर्शित करते हुए कुर्बानी का नाटक करते हैं,आम लोगों को समझाते हैं कि आदिवासियों में काम करने आया माओवादी कितना पढ़ा-लिखा है,विद्वान है। सारी सुख-सुविधाएं त्यागकर वह आदिवासी प्रेम के कारण उनके बीच काम करने चला आया है। इससे आदिवासी प्रभावित होते हैं। उनकी क्रांति,शोषण और कुर्बानी की भाषा आदिवासियों में हमदर्दी पैदा करती है। वे यह भी विश्वास दिलाने की कोशिश करते हैं कि वे आदिवासियों के लिए कोई भी जोखिम उठाने को तैयार हैं। वे कारपोरेट घरानों के हाथों जमीन की बेदखली रोकने,जंगलात की रक्षा करने,आदिवासियों को उनकी खोई हुई जमीन दिलाने का वायदा करते हैं।
माओवादी जब आदिवासी प्रेम प्रदर्शित करते हैं तो अपने को स्थानीय प्रेम में बांध लेते हैं और बृहत्तर समाज से प्रेम करना बंद कर देते हैं। वे स्थानीयस्तर पर आदिवासियों से प्रेम प्रदर्शित करते हुए सभी किस्म के राजनीतिक दलों से घृणा करना सिखाते हैं। संसदीय लोकतंत्र से घृणा करना सिखाते हैं। वे आदिवासियों के इतिहास को उनकी जनजाति में ही सीमित करके देखते हैं। इस प्रक्रिया में आदिवासियों को उनकी परंपरा, स्थानीय संस्कृति और विशिष्टताओं से काटकर माफिया संस्कारों और नियमों से जोड़ देते हैं।
माओवादी जिन इलाकों में काम करते हैं वहां पर अपराधकर्म का समानान्तर संसार उठ खड़ा होता है। समानान्तर संसार में नशीले पदार्थों की तस्करी,हथियारों की तस्करी,हफ्ता वसूली, सुपाड़ी लेकर हत्या, पेड़ और जंगलात की तस्करी आदि सामान्य फिनोमिना हैं। माओवादियों के दखल वाले किसी भी इलाके में अपराधकर्म के ये रूप साफतौर पर देखे जा सकते हैं।
माओवादियों की खूबी है कि वे स्थानीय लोगों के अधिकारों की रक्षा के नाम पर प्रवेश करते हैं फिर धीरे-धीरे अपने कारनामों से समूचे स्थानीय वातावरण और लोगों को बंदी बना लेते हैं। आदिवासियों या स्थानीय लोगों के प्रति व्यक्त हुआ उनका प्रेम सामाजिक ज़हर में तब्दील हो जाता है। अब वे जिन्हें प्यार करते थे उन्हें सताने लगते हैं। वे आदिवासी उत्पीड़न को नई ऊँचाईयों तक ले जाते हैं। जो आदिवासी कल तक प्रयार और शांति के वातावरण में रह रहे थे अब अशांति और भय के वातावरण में रह रहे हैं।
माओवादियों और अपराधी गिरोहों में गहरा भाईचारा है। जिन इलाकों में माओवादी काम करते हैं उस इलाके के गुण्डों और अपराधी गिरोहों से उनकी गहरी दोस्ती हो जाती है। अपराधी गिरोह उनके लिए स्पेस छोड़ने के लिए तैयार भी हो जाते हैं। जिससे वे जंगलों में चल रहे अवैध कारोबार को बचाए रख सकें।
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