आर्थिकमंदी ने अमेरिका की जनता की कमर तोड़ दी है। उन सभी लोगों को गहरी निराशा हाथ लगी है जो पूंजीवादी चेपियों और थेगडियों के जरिए नव्य-उदार आर्थिक संकट के निबट जाने की कल्पना कर रहे हैं। सभी रंगत के पूंजीवादी अर्थशास्त्री और राजनेता प्रतिदिन आने वाले सुनहरे समय का सपना देख रहे हैं और आश्वासन पर आश्वासन देते रहे हैं लेकिन मंदीजनित संकट थमने का नाम नहीं ले रहा।
दुनिया में कोई देश नहीं है जिसको मंदी ने प्रभावित न किया हो। इसकी चपेट में अमेरिका से लेकर भारत,चीन से चिली तक सभी देश शामिल हैं। नव्य उदारतावाद ने भूमंडलीकरण के नाम पर पूंजी की ग्लोबल लूट और गरीबी को वैधता प्रदान की है। अमेरिका में विगत वर्ष हुए राष्ट्रपति चुनाव में मंदीजनित संकट एक बड़ा सवाल था जिस पर राष्ट्रपति ओबामा को बड़ी जीत मिली थी । ओबामा ने वायदे के अनुसार कुछ उदार कदम भी उठाए हैं और उद्योग जनत को बड़ा आर्थिक पैकेज दिया। इस पैकेज में दिए गए सभी संसाधनों का अभी तक कोई सार्थक परिणाम सामने नहीं आया है। अमेरिका में मंदी के कारण पैदा हुई बेकारी कम होने का नाम नहीं ले रही है।
अमेरिका के श्रम विभाग के आंकड़े बताते हैं कि वहां बेकारी की दर 9.6 प्रतिशत थी जो मंदी के पैकेज की घोषणा के बाद कम होने की बजाय बढ़ी है और आज 16.7 प्रतिशत तक पहुँच गयी है। अमेरिका में बेकारी खत्म करने के लिए नए 22 मिलियन रोजगारों की जरूरत होगी। अमेरिका में ऐसा शासन और समाज चल रहा है जिसका कमाने से ज्यादा खर्च करने पर जोर है। वहां लोग जितना कमाते हैं उससे ज्यादा खर्च कर रहे हैं। घर के लिए कर्ज से लेकर एटीएम से कर्ज लेने वालों की संख्या करोड़ों में है।
आश्चर्य की बात है कि मंदी के बाबजूद अमीरों की मुनाफाखोरी, फिजूलखर्ची और घूसखोरी बंद नहीं हुई है। मंदी के दो प्रधान कारण हैं पहला है भ्रष्टाचार, जिसे सभी लोग इन दिनों ‘क्लिप्टोक्रेसी’ के नाम से जानते हैं। भ्रष्टाचार के नाम पर जनता का निर्मम शोषण हो रहा और जमकर घूसखोरी हो रही है। यह काम सरकारों और नौकरशाही के द्वारा खुलेआम हो रहा है । भ्रष्ट नेताओं और अफसरों का महिमामंड़न चल रहा है। इन लोगों ने निजी और सार्वजनिक सभी स्थानों पर अपना कब्जा जमा लिया है ।
यह अचानक नहीं है कि जो जितना बड़ा भ्रष्ट है वह उतना ही महान है। हमारे हिन्दी शिक्षण के पेशे से लेकर विज्ञान तक,अफसरों से लेकर जजों तक,मंत्रियों से लेकर पंचायत सदस्यों तक भ्रष्ट व्यक्ति की तूती बोल रही है। ये लोग बड़े ही बर्बर ढ़ंग से शोषण कर रहे हैं। इन लोगों को सत्ता,मुनाफा और पैसा की असीमित भूख है। इसके कारण साधारण आदमी के लिए सामान्यतौर पर शिक्षा,स्वास्थ्य, स्वच्छ शासन और कामकाज के अवसरों में तेजी से कमी आई है। दूसरी ओर आम जनता की क्रयशक्ति घटी है, आमदनी में कम आई है। मंहगाई,बैंक कर्जों और असमान प्रतिस्पर्धा ने आम आदमी की जिंदगी की तकलीफों में इजाफा किया है। इससे चौतरफा सामाजिक असुरक्षा का वातावरण बना है।
मंदी ने अमेरिका की बुरी गत बनायी है। 15 मिलियन से ज्यादा लोग बेकार हो गए हैं। कुछ शहरों का आलम यह है कि वहां आधी आबादी गृहविहीन है। 38 मिलियन लोगों को खाने के कूपन दिए जा रहे हैं। इतने बड़े अभाव को अमरीकी समाज ने विगत 50 सालों में कभी नहीं देखा था। अमेरिका में गरीबों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है। भारत में भी स्थिति बेहतर नहीं है। गरीबी यहां भी बढ़ी है। भारत और अमेरिका में गरीबी का बढ़ना इस बात का संकेत है कि नव्य उदारतावाद का हाइपर नारा पिट गया है।
आज हमारा समूचा परिवेश मुक्त व्यापार, मुक्त बाजार और अबाधित सूचना प्रवाह में कैद है। इससे निकलने के लिए जिस तरह की सांगठनिक संरचनाओं और वैकल्पिक व्यवस्था की जरूरत है उसके संवाहक दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहे हैं,इसने आम आदमी को हताश,असहाय, और दिशाहारा बनाया है।
‘क्लिप्टोक्रैसी’ के कारण बिहार से लेकर असम तक, कॉमनवेल्थ खेलों से लेकर संचार मंत्रालय तक अरबों रूपये के घोटाले हो रहे हैं लेकिन न कोई आंदोलन है और न कोई भारतबंद है। प्रतिवाद को शासकवर्ग के लोगों ने मीडिया बाइट्स में तब्दील कर दिया है।
देश की सुरक्षा के नाम पर जितना धन इन दिनों खर्च किया जा रहा है उतना पहले कभी खर्च नहीं किया गया। सुरक्षा पर जिस गति से खर्चा हो रहा है उस अनुपात में सामान्य सुरक्षा वातावरण तैयार करने और आम लोगों का दिल जीतने में शासकों को मदद नहीं मिली है। कश्मीर और उत्तर-पूर्व सुरक्षाबलों की असफलता का आदर्श उदाहरण हैं।
‘क्लिप्टोक्रैसी’ की लूट में रूचि होती है आम लोगों का दिल जीतने में रूचि नहीं होती। इसके कारण अमीर और ज्यादा अमीर हुए हैं । गरीब और ज्यादा गरीब हुआ है। संपदा संचय चंद घरानों के हाथों में सिमटकर रह गया है। ये लोग एक प्रतिशत से भी कम हैं और संपदा का बहुत बड़ा हिस्सा इनके पास है।
भारत में ‘क्लिप्टोक्रैसी’ का आधार है सरकार द्वारा सार्वजनिक विकास के नाम किया जाने वाला खर्चा। विकास योजनाएं मूलतः लूट योजनाएं बन गयी है। लूट का दूसरा बड़ा स्रोत है घूसखोरी। लूट का तीसरा बड़ा क्षेत्र है किसानों और आदिवासियों की जमीन और संसाधन। इस लूट की व्यवस्था में सभी लोग समान हैं । लोकतंत्र में अमीर और गरीब के बीच में समानता त्रासदी है। समान अवसरों की बात उपहास है। हर आदमी अपने लिए कमाने में लगा है,उसके पास इतना समय नहीं है कि वह दूसरों के बारे में सोच सके।
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