हिन्दी के वरिष्ठ आलोचक नामवर सिंह लंबे समय से ‘गायब’ हैं। कोई नहीं बता रहा वे कहां चले गए। वैसे व्यक्ति नामवर सिंह साक्षात इस धराधाम में हैं और मजे में हैं। गड़बड़ी यह हुई है कि ‘आलोचक नामवर सिंह’ गायब हो गए हैं। उनका गायब होना एक बड़ी खबर होना चाहिए था। लेकिन हिन्दी वाले हैं कि उनके आलोचक के रूप में गायब हो जाने को गंभीरता से नहीं ले रहे।
नामवर सिंह हम सबके पूज्य हैं। आराध्य हैं। हमें उनसे प्रेरणा मिलती है। उनका एक -एक कथन आलोचना में हीरे की कण की तरह होता है। लेकिन लंबे समय से वे आलोचना से गायब हो गए हैं। यह बात दीगर है कि उनके नाम पर कुछ डमी नामवर बाजार में उपलब्ध हैं।
‘आलोचक नामवर सिंह’ हम सबके बुजुर्ग हैं और बुजुर्गों का हम सब आदर करते हैं और उनकी बातें भी मानते हैं। हम सब पहले भी उनकी बातें मानते थे। वे जैसा कहते थे वैसा ही करते थे इन दिनों भी वे जैसा कह रहे हैं हम वैसा ही कर रहे हैं। वे जो कुछ कहते हैं उसे आंख बंद करके मान लेते हैं। वे जिसका लोकार्पण करते और दस-पांच मिनट बोल दें,उसकी किताब हाथों-हाथ बिक जाती है और जिस व्यक्ति को हजारीप्रसाद द्विवेदी के बाद का सबसे बड़ा आलोचक बना दें तो उसकी किताब का झटके में द्वितीय संस्करण आ जाता है। प्रथम संस्करण के प्रकाशन के साथ ही राजकमल प्रकाशन उसे एक लाख का इनाम दे देता है।
यही हाल अलका सरावगी का भी हुआ उसके उपन्यास की गुरूवर ने इतनी प्रशंसा की कि उसे साहित्य अकादमी पुरस्कार मिल गया। कहने का अर्थ है नामवर सिंह की प्रशंसा का दाम है और उनकी प्रशंसा की बाजार में हमेशा रेटिंग ऊँची रही है। वे अब प्रशंसा करते है। आलोचना नहीं।
नामवर सिंह हिन्दी के एकमात्र ऐसे आलोचक हैं कि जिनका लोहा सभी मानते हैं और उनके जितने भी परिचित हैं,शिष्य हैं वे सब उनके फेन हैं। मैं भी उनका फेन हूँ। शिष्य भी हूँ। मेरी मुश्किल यह है मैंने आलोचक नामवर सिंह से पढ़ा था। मैंने सैलीबरेटी नामवर सिंह से नहीं पढ़ा था।
मुझे आज ही एक दोस्त ने पूछा था कि आलोचक नामवर सिंह कब से गायब हैं ? मुझे यह सवाल प्रासंगिक लगा और मैंने आलोचक नामवर सिंह की खोज आरंभ कर दी तो मुझे सौभाग्य से यह पता चला कि आलोचक नामवर सिंह आपातकाल में ही गायब हो गए।
आपातकाल के बाद किसी ने आलोचक नामवर सिंह को नहीं देखा है। आपातकाल में लुप्त हुए नामवर सिंह को अभी तक लोग खोज रहे हैं लेकिन उन्हें वे नहीं मिले हैं। किसी को कुलाधिपति नामवर सिंह मिले हैं, किसी को अमिताभ बच्चन के रूप में मिले हैं,किसी को लोकार्पण वाले नामवर सिंह मिले हैं। किसी को प्रशस्तियां पढ़ने वाले नामवर सिंह मिले हैं किसी को पुराने के प्रेमी नामवर सिंह मिले हैं, किसी को साक्षात्कार देने वाले नामवरसिंह मिले हैं,किसी को राजकमल प्रकाशन वाले नामवर सिंह मिले हैं, किसी को गुरूवर नामवर सिंह मिले हैं, किसी को आशीर्वाद देकर काम कराने वाले नामवर सिंह मिले हैं।
मैं बेबकूफों की तरह आलोचक नामवर सिंह को खोज रहा था और अपने सभी लक्ष्यों की प्राप्ति में असफल साबित हुआ। मैंने 30 से ज्यादा एक से एक सुंदर विषय पर किताबें लिखीं है और हिन्दी माध्यम समीक्षा और साहित्य समीक्षा का मान ऊँचा किया। लेकिन आश्चर्य की बात है कि आलोचक नामवर सिंह की मेरे ऊपर नजर तक नहीं पड़ी। उन्होंने मेरी किताबों को स्पर्श योग्य भी नहीं समझा।
मैं बार-बार सोचता था कि एकबार आलोचक नामवर सिंह मेरी दस साल पहले आई स्त्रीवादी आलोचना की किताब ‘स्त्रीवादी साहित्य विमर्श’ को जरूर पढ़ेंगे। लेकिन मुझे आश्चर्य हुआ कि आलोचक नामवर सिंह ने मेरी किताब नहीं देखी,यह बात दीगर है कि मेरी सारी किताबें अंतर्वस्तु के बल पर ,बिना किसी समीक्षक की सिफारिश या प्रशंसा के लगातार बिक रही हैं और मेरी अधिकांश किताबों की सरकारी खरीद भी नहीं हुई है। मामला यहीं तक नहीं थमा है आलोचक नामवर सिंह को एडवर्ड सईद,बौद्रिलार्द, मेकलुहान,नॉम चोमस्की, बोर्दिओ आदि पर केन्द्रित किताबें भी नजर नहीं आयीं।
उन्हें हिन्दी की लुप्तप्राय कविताओं का संकलन ‘स्त्री काव्यधारा’ दिखाई नहीं दिया। इसमें हिन्दी की स्त्री लेखिकाओं की वे कविताएं हैं जो नामवर सिंह और उनके अनेक भक्तों ने भी नहीं पढ़ी हैं। इनमें से अधिकांश लेखिकाओं का हिन्दी साहित्य के इतिहास में किसी ने जिक्र तक नहीं किया।
आलोचक नामवर सिंह ने उस किताब पर भी कुछ नहीं बोला जिसमें 70 से ज्यादा हिन्दी लेखिकाओं के वे दुर्लभ निबंध हैं जो हिन्दी आलोचना और इतिहास में चर्चा के योग्य नहीं समझे गए। आलोचक नामवर सिंह का इस तरह मेरी किताबों को एक नजर भी न देखना मेरे लिए चिन्ता की बात है। यही वो संदर्भ है जहां से हमें यह सवाल उनसे पूछना है कि आखिरकार पुरूषोत्तम अग्रवाल की आलोचना किताब में ऐसा क्या है जिसके कारण आप बार-बार उसकी प्रशंसा के लिए बाध्य होते हैं और मेरी आलोचना की किताब आपको नजर नहीं आती ?
अलका सरावगी में ऐसा क्या खास है कि उसके उपन्यास की प्रशंसा में आप प्रशंसा के सभी मानक तोड़ देते हैं लेकिन उदयप्रकाश की रचनाओं की प्रशंसा के लायक शब्द नहीं होते ?
हमें लगता है आलोचक नामवर सिंह अब हमारे बीच नहीं है। अब हम जिस नामवर सिंह को देखते रहते हैं। वह प्रशंसा करने वाला व्यक्ति है। यह ऐसा व्यक्ति है जिसने आपातकाल में अपना आलोचनात्मक विवेक खोया तो फिर उसे दोबारा अर्जित नहीं कर पाया। अब वह आलोचक कम और प्रशंसा करने वाला व्यक्ति है। यह आलोचना नहीं करता बल्कि मार्केटिंग करता है।
आलोचक नामवर सिंह की जगह सेलिब्रिटी नामवर सिंह का उदय ‘दूसरी परंपरा की खोज’ के प्रकाशन से होता है। उसके बाद वे हमेशा सेलिब्रिटी भाव में रहते हैं। उनके सेवाभावी शिष्य भी सैलीबरेटी भाव में रहते हैं। सेलिब्रिटी भाव के निर्माण के लिए मीडिया में उपस्थिति जरूरी है। इस ओर सेलिब्रिटी नामवर सिंह ने बड़ी मेहनत की है। इतनी मेहनत उन्होंने आलोचक नामवर बनने के लिए की होती तो साहित्य का भला होता लेकिन सेलिब्रिटी नामवर सिंह से मीडिया उपकृत हुआ। थोक किताबों के बिक्रेता उपकृत हुए। राजकमल प्रकाशन उपकृत हुआ।
उल्लेखनीय है आलोचक नामवर सिंह का सेलिब्रिटी नामवर सिंह में रूपान्तरण मुझे अपने छात्र जीवन में करीब से देखने को मिला था। सेलीब्रिटी नामवर सिंह की इमेज उनके अ-जनतांत्रिक कार्यकलापों से भरी पड़ी है। आलोचक के पास विवेक होता है ,सामाजिक जिम्मेदारी होती है। लेकिन सैलीबरेटी इनसे वंचित होता है। जिस तरह आलोचक नामवर सिंह का इतिहास है उसी तरह सैलीबरेटी नामवर सिंह का भी इतिहास है। यह इतिहास आलोचक नामवर सिंह का एकदम विलोम है।
सेलीब्रिटी नामवर सिंह की यह खूबी है कि वह किसी भी चीज पर विश्वास नहीं करता। वह जो कुछ है उसे सीधे जानता है. वह किसी अन्य के बहाने जानने की बजाय सीधे जानना पसंद करता है उसे किसी अन्य की राय पर नहीं अपनी राय और बुद्धि पर भरोसा है। वह दर्शकीय और संशयवादी भावबोध में रहता है।
सेलिब्रिटी नामवर सिंह प्रॉपरसेंस में विश्वास नहीं करता। प्रॉपरसेंस में नहीं सोचता। उसके लिए भक्ति और आस्था प्रधान है। जो इसे करने में असमर्थ हैं वह उन्हें अस्वीकार करता है। जो उन पर आस्था रखते हैं उनके प्रति वह संवेदनशील भी है। उनकी सीधे खबर भी रखते हैं। सेलिब्रिटी नामवर सिंह ‘तर्क’ और सकारात्मक ज्ञान के आधार पर नहीं सोचता और नहीं बोलता । जिन पर वह विश्वास नहीं करता उनके बारे में चुप रहता है या नकारात्मक टिप्पणियां करता है। ज्यादातर समय चुप ही रहता है।
सेलीब्रिटी नामवर सिंह का आस्था में अटूट विश्वास ही है जो उनके व्यक्तित्व में अनिश्चितता और भ्रम बनाता है। नामवर सिंह से आप किसी भी काम के लिए कहें इसके लिए कोई गारंटी नहीं है कि वह हो ही जाएगा। वे काम की गारंटी का वायदा नहीं करते वे आस्था की गारंटी का वायदा जरूर करते हैं। आपसे वे उम्मीद करते हैं आस्था बनाए रखो।
जबसे आलोचक नामवर सिंह का सेलिब्रिटी नामवर सिंह में रूपान्तरण हुआ है तब से ऐतिहासिक दृष्टिकोण की मौत हो गयी है। अब चीजों,व्यक्तियों,कृतियों,रचनाकारों आदि के बारे में आए दिन अनैतिहासिक बयानबाजी करते रहते हैं। पहले वे दिमाग खोलने का काम करते थे अब दिमाग को नियंत्रित करने का काम करते हैं। पहले वे आलोचक की भूमिका निभाते थे अब नैतिकतावादी प्रिफॉर्मेंस पर जोर देने लगे हैं।
पहले उनका सामाजिक तौर पर जनता के साथ एलायंस था लेकिन आपात्काल से उनका सत्ता के साथ एलायंस बना है। पहले वे जनता के मोर्चे में थे अब सत्ता के मोर्चे में हैं। पहले वे आलोचनात्मक विवेक पैदा करते थे,अब मिथ बनाते हैं। व्यक्तियों और आलोचकों के मिथ बनाते हैं। मसलन ‘यह महान है’ , ‘वह गधा है’ आदि।
सेलिब्रिटी नामवर सिंह ने आस्था को शिक्षा,साहित्य,आलोचना से ऊपर स्थान दिया है। आस्था के आधार पर वे इन दिनों साहित्यिक हायरार्की बना रहे हैं। वे अब आलोचना नहीं करते मेनीपुलेशन करते हैं। पर्सुएट करते हैं, फुसलाते हैं। पटाते हैं। इसी चीज को कोई जब उनके साथ भक्त करे तो उसे अपना बना लेते हैं। उन्हें फुसलाना और पटाना पसंद है। साहित्य,विवेक और शिक्षा नहीं है। उनके सामयिक विमर्श का आधार है पर्सुएशन। यह विज्ञापन की कला है। आलोचना की नहीं।
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