वाममोर्चा ने पश्चिम बंगाल 31 अगस्त के दिन खाद्य आंदोलन की याद में शानदार रैली की। इस रैली को लेकर तरह -तरह का टीवी कवरेज था,चैनलों में जमकर इस रैली के तात्कालिक राजनीतिक अर्थों को खोलने की कोशिश की गयी। हमेशा की तरह बांग्ला चैनल राजनीतिक आधार पर बंटे हुए थे,चैनलों का इस रैली को लेकर सामयिक राजनीतिक नफा नुकसान खोजना बेतुका प्रयास ही कहा जाएगा। कायदे से खाद्य आंदोलन को लेकर वाममोर्चे की यह नयी पहल नहीं थी, फर्क इतना भर था पहले छोटा जलसा करते थे इसबार बड़ा जलसा किया । इस जलसे में वोट के संदर्भ अर्थ खोजना बेवकूफी होगी। आज से ठीक पचास साल पहले विधानचन्द्र राय के शासनकाल के दौरान तकरीबन तीन लाख लोगों की एक रैली आज के सभा स्थल के पास के मैदान में हुई थी ,उस रैली में भाग लेने वाले लोग अपने लिए अन्न की मांग कर रहे थे, उस समय पश्चिम बंगाल में गांवों में गंभीर खाद्य संकट था और तत्कालीन राज्य सरकार इससे निबटने में बुरी तरह विफल रही थी। गरीबों की उस रैली पर तत्कालीन प्रशासन के इशारे पर पुलिस ने नृशंस लाठीचार्ज किया और आंसूगैस के गोले छोडे,कहने के लिए पुलिस ने गोली नहीं चलायी थी,लेकिन बर्बर लाठीचार्ज के कारण 80 लोग मारे गए,हजारों घायल हुए और 27 हजार से ज्यादा लोगों ने गिरफ्तारी दी।मामला उसी दिन शांत नहीं हुआ बाद में कई दिनों तक रैली में भाग लेने वालों पर विभिन्न इलाकों में जुल्म चलता रहा। इस घटना में मारे गए शहीदों की स्मृति में आज इस घटना के पचास साल होने पर विशाल जनसभा का वाममोर्चे ने आयोजन किया था,यह आयोजन निश्चित रूप से प्रशंसनीय प्रयास कहा जाएगा।
वाममोर्चे के नेता अच्छी तरह जानते हैं कि हाल के लोकसभा चुनाव में हुई भारी पराजय और व्यापक स्तर पर जनता से कटाव को इस तरह के आयोजन से भरना संभव नहीं है। वामनेता यह भी अच्छी तरह जानते हैं कि राज्य में व्यापक पैमाने पर गरीबी और भुखमरी फैली हुई है। राज्य में खाद्य उत्पादन में विगत तीन सालों में गिरावट आयी है, चायबागानों में पिछले दिनों भुखमरी के कारण एक हजार से ज्यादा लोग मौत के मुंह में जा चुके हैं। यह भी एक वास्तविकता है कि विगत 35 सालों में पश्चिम बंगाल में भुखमरी का भी राजनीतिक बंटबारा हुआ है,केन्द्र की जितनी भी योजनाएं गरीबों के लिए हैं वे नौकरशाही और दलीय स्वार्थ की बलि चढ चुकी हैं। गरीब को राजनीतिक दलों के साथ नत्थी कर दिया गया है। वामदल अपने समर्थक को ही केन्द्र सरकार की योजनाओं के लाभ देना चाहते हैं,इसी तरह जहां तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस का वर्चस्व है वहां पर वे भी सिर्फ अपने ही समर्थक गरीबों को योजनाओं के लाभ देना चाहते हैं। तेरा गरीब मेरा गरीब की बंदरबांट के कारण राज्य में खाद्य का पर्याप्त भंडार होने के बावजूद सही वितरण व्यवस्था को राज्य सरकार अभी तक सुनिश्चित नहीं कर पायी है। वाममोर्चे को कायदे से आज के दिन यह प्रतिज्ञा करनी चाहिए कि गरीबों के लिए केन्द्र सरकार की सभी योजनाओं को पक्षपात और भेदभाव के बिना लागू किया जाएगा,इस काम में नौकरशाही और पार्टीतंत्र को आड़े नहीं आने दिया जाएगा। वाममोर्चे को आज के अवसर पर ज्योति बसु के द्वारा भेजे संदेश में निहित राजनीतिक संदेश को भी गंभीरता से लेना होगा। वाममोर्चा जनता से कट चुका है, जनता का दिल जीतने के लिए अपनी गलतियों को उसे खुले मन से आम लोगों के बीच में जाकर स्वीकार करना चाहिए और उन तमाम निहितस्वार्थी और अपराधी तत्वों को पार्टी से अलग करना चाहिए जिनकी आम जनता में छवि खराब है। खाद्य आंदोलन का वाममोर्चे के लिए एक ही सबक है कि राज्य में कोई व्यक्ति भूख से नहीं मरेगा। दुर्भाग्य की बात यह है कि वाममोर्चे ने इस सबक को अभी सीखा नहीं है, 35 साल के शासन के बावजूद वितरण प्रणाली को दुरूस्त नहीं किया है,गरीबों के खिलाफ पक्षपात करने वाले लोगों को चाहे वे किसी भी दल के हों, उन्हें कानून के हवाले नहीं किया है। यदि वाम मोर्चा आगामी दिनों में यह सब कर पाता है तो निश्चित तौरपर राज्य की जनता वाम को अपना प्यार देगी,दूसरी बात यह कि वाम को विपक्ष को अपमानित करने अथवा नीचा दिखाने वाली क्षुद्र राजनीति से अलग करना होगा। आज विपक्ष के पास वाम से ज्यादा जनसमर्थन है किसी भी किस्म की अपमानजनक अथवा उपहासजनक टिप्पणी वाम के लिए नुकसान कर सकती है। वाम नेताओं को यह बात सोचनी चाहिए कि अपनी खोई हुई साख वे कैसे अर्जित करते हैं ? ममता बनर्जी को व्यक्तिगत निशाना बनाने की रणनीति बुरी तरह पिट चुकी है,उससे ममता को लाभ मिला है। वाम को अपनी नीति और व्यवहार में साम्य पैदा करना होगा। इस संदर्भ में उन्हें अभी काफी कुछ करना बाकी है, महज एक दो रैली से वाम मोर्चे के प्रति जनता का विश्वास वापस नहीं आएगा। वाम की रैली में पहले भी ज्यादा लोग आते थे इसके बावजूद वाम का लोकसभा चुनाव में सफाया हो गया,रैली को जनप्रियता का मानक नहीं बनाएं। जनता के बीच में राज्य प्रशासन की अकर्मण्य प्रशासन की छवि को जब तक दुरूस्त नहीं किया जाता तब तक रैलियों को राजनीतिक पूंजी में तब्दील नहीं किया जा सकता।
जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
सोमवार, 31 अगस्त 2009
लालगढ़ कत्लेआम पर महाश्वेता- राजेन्द्र यादव की चुप्पी तकलीफ देती है
भारतीय बुद्धिजीवी ज्यादातर समय सत्ता के एजेण्डे पर काम करता है। उस एजेण्डे के बाहर जाकर सोचता नहीं है। वैकल्पिक एजेण्डे पर सोचता नहीं है।आम जनता के हित के एजेण्डे पर वहां तक जाता है जहां तक सत्ता जाती है। वह सत्ता के हितों के नजरिए से जनता के हितों को परिभाषित करता है। बुद्धिजीवीवर्ग में दूसरी कोटि में ऐसे लोग आते हैं जो दलीय प्रतिबद्धता में बंधे हैं। तीसरी कोटि ऐसे बुद्धिजीवियों की है जो मृत विषयों पर निरंतर बोलते और लिखते हैं। हमेशा परंपरा की गोद में ही बैठे रहते हैं। बुद्धिजीवियों की इन तीनों कोटियों से भिन्न ऐसे भी बुद्धिजीवी हैं जो हमेशा विकल्प की तलाश में रहते हैं,जनता के हितों पर सत्ता,दल और जड़ मानसिकता की कैद से परे जाकर सर्जनात्मक हस्तक्षेप करते हैं। लेकिन इन चारों ही कोटि के बुद्धिजीवियों में एक विलक्षण साम्य नजर आ रहा है ,ये पश्चिम बंगाल के गांवों में चल रहे हिंसाचार के बारे में अपने -अपने कारणों से चुप हैं। अथवा इस हिंसा को एकहरे रंग में देख रहे हैं। एकहरे रंग में हिंसा को देखने के कारण सबसे ज्यादा क्षतिग्रस्त आम आदमी हो रहा है, गांव के गरीब हो रहे हैं, आदिवासी हो रहे हैं। गांव के गरीब का सत्य बुद्धिजीवी के नजरिए,आस्था,प्रतिबद्धता और दलीय विचारधारा से कहीं बड़ा होता है। बुद्धिजीवी के नाते हम सिर्फ अपने ही रंग में रंगे रहेंगे और एक ही रंगत और एक ही विचारधारा के चश्मे से गांव के यथार्थ को देखेंगे तो हमें गांव का गरीब नजर नहीं आएगा। लोकसभा चुनाव के बाद पश्चिम बंगाल में जो हिंसाचार चल रहा है उसके कारण सैंकड़ों निर्दोष लोग मारे गए हैं। हजारों बेघर हुए हैं, सैंकड़ों शरणार्थी की तरह इधर उधर पडे हैं। आखिरकार हमारे बुद्धिजीवी चुप क्यों हैं? अपराधी राजनीतिक गिरोहों ,खासकर तथाकथित माओवादी अपराधी गिरोहों के हमलों से प्रतिदिन साधारण गरीब मारा जा रहा है। लोकसभा चुनाव के बाद अकेले लालगढ इलाके में अब तक 100 से ज्यादा गरीब लोगों को सरेआम माओवादियों ने कत्ल किया है और यह सब देखने के बावजूद भी यदि हमारे बुद्धिजीवी चुप हैं,खासकर पश्चिम बंगाल के बुद्धिजीवी चुप हैं तो हमें सोचना होगा आखिरकार बुद्धिजीवी की ऐसी नपुंसक कौम कैसे तैयार हुई ? आज इंटरनेट के दौर में भारत के प्रत्येक कोने में खबरें सहज रूप में उपलब्ध हैं,इसके बावजूद किसी भी कोने से पश्चिम बंगाल में हो रहे गरीबों के कत्लेआम का कहीं से भी बडा प्रतिवाद बुद्धिजीवियों की ओर से नहीं हुआ है। कलकत्ते की सडकें भी शांत पडी हैं।
सवाल उठता है हमारा बुद्धिजीवी गांव के सत्य से डरता क्यों है ? वह निर्भय होकर सत्य पर अपने भावों को व्यक्त क्यों नहीं करता। गांव के गरीबों के मानवाधिकार हनन और नृशंस हत्याकांडों पर हमारी सत्ता और कलमघिस्सु हिन्दी के तथाकथित वीर पत्रकार चुप क्यों हैं ? हिन्दी क्षेत्र में सक्रिय जनवादी लेखक संघ,प्रगतिशील लेखक संघ,जनवादी सांस्कृतिक मंच आदि संगठनों को पश्चिम बंगाल में माओवादी अपराधी गिरोहों द्वारा किया जा रहा गरीबों का कत्लेआम विचलित क्यों नहीं कर रहा ? एक जमाना था जब बेलछी में हरिजन हत्याकांड होने पर नागार्जुन ने प्रतिवाद में शानदार रचना लिखी थी आज कहीं से भी पश्चिम बंगाल के आदिवासियो,गरीबों,दलितों की हत्या के खिलाफ कोई गुस्सा नजर नहीं आरहा,बेलछी हत्याकांड से श्रीमती इंदिरागांधी विचलित हुई थीं और बेलछी भी गयी थीं किंतु लालगढ में न तो मुख्यमंत्री बुद्धदेव पहुंचे हैं और न देश का प्रधानमंत्री ही इन गरीबों के आंसू पोंछने के लिए समय निकाल पाया है, दूसरी ओर हिन्दी के बुद्धजीवी हाथ पर हाथ धरे किसी आपातकाल का इंतजार कर रहे हैं और फिर शायद वे महान रचना करें ? पश्चिम बंगाल में हिंसा के लिए कौन जिम्मेदार है इसके विवाद में जाए बिना हमें पश्चिम बंगाल में निर्दोष ग्रामीणों ,दलितोंऔर आदिवासियों की नृशंस हत्या के खिलाफ आवाज बुलंद करनी चाहिए। लेखक और बुद्धिजीवी शांति और सत्य की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध होते हैं। आज शांति और सत्य दोनों ही दांव पर लगे हैं। कुछ अपराधी गिरोह हिंसा का ताण्डव चलाकर गरीबों के कत्ल में व्यस्त हैं, प्रतिदिन गरीबों का वेवजह कत्ल कर रहे हैं। आश्चर्य की बात है जो लोग नंदीग्राम में राज्य पुलिस के द्वारा की गई गोलीबारी पर चीख पुकार कर रहे थे आज वे महाश्वेता देवी और उनके समानधर्मा लालगढ में अब तक माओवादियों के हाथों कत्ल किए गए 100 गरीबों की हत्या पर एकदम चुप हैं। महाश्वेता देवी की चुप्पी खतरनाक है, यह चुप्पी टूटनी चाहिए।उन्हें लालगढ के हत्यारों के खिलाफ भी शांति और सत्य की रक्षा का बिगुल बजाना चाहिए। महाश्वेता की चुप्पी हमें तकनीफ देती है। वे जब बोलती हैं तो गरीबों को बल मिलता है। आज पश्चिम बंगाल खासकर लालगढ के गरीब परिवार महाश्वेता देवी की ओर आशाभरी नजरों से देख रहे हैं। वे अपने समानधर्माओं के साथ लालगढ में चल रहे कत्लेआम की निंदा करें। प्रतिवाद संगठित करें। सडकों पर उतरें।महाश्वेता किसी एक की नहीं हैं वे गरीबों और आदिवासियों की हैं। उनकी आवाज हैं। उन्हें बोलना चाहिए। उन्हें शांति के लिए,गरीबों का कत्लेआम रोकने के लिए सडकों पर आना चाहिए। उनकी चुप्पी हमें तकलीफ दे रही है। हमें हिन्दी के प्रगतिशील दिग्गजों की भी चुप्पी तकलीफ दे रही है। हम चाहते हैं नामवर सिंह,प्रभाष जोशी,राजेन्द्र यादव,अशोक बाजपेयी ,मैनेजर पांडेय,नित्यानंद तिवारी,मुरलीमनोहर प्रसाद सिंह जैसे प्रगतिशील लेखक आगे आएं और लालगढ में मच रहे कत्लेआम का सामूहिक प्रतिवाद संगठित करें। अगर ये लोग आज नहीं बोलेंगे तो कब बोलेंगे ? हमारा सभी नेट लेखकों से अनुरोध है अपने अपने ब्लाग पर लालगढ में चल रहे कत्लेआम पर लिखें, लेखकों और बुद्धिजीवियों की ज्यादा से राय एकत्रित करके प्रकाशित करें। आज लालगढ के गरीब हमें शांति के पक्ष में और कत्लेआम की राजनीति के विरोध में खडे होने के लिए पुकार रहे हैं,हम चुप न बैठें,बोलें और लोगों को बोलने के लिए उदबुद्ध करें।
सवाल उठता है हमारा बुद्धिजीवी गांव के सत्य से डरता क्यों है ? वह निर्भय होकर सत्य पर अपने भावों को व्यक्त क्यों नहीं करता। गांव के गरीबों के मानवाधिकार हनन और नृशंस हत्याकांडों पर हमारी सत्ता और कलमघिस्सु हिन्दी के तथाकथित वीर पत्रकार चुप क्यों हैं ? हिन्दी क्षेत्र में सक्रिय जनवादी लेखक संघ,प्रगतिशील लेखक संघ,जनवादी सांस्कृतिक मंच आदि संगठनों को पश्चिम बंगाल में माओवादी अपराधी गिरोहों द्वारा किया जा रहा गरीबों का कत्लेआम विचलित क्यों नहीं कर रहा ? एक जमाना था जब बेलछी में हरिजन हत्याकांड होने पर नागार्जुन ने प्रतिवाद में शानदार रचना लिखी थी आज कहीं से भी पश्चिम बंगाल के आदिवासियो,गरीबों,दलितों की हत्या के खिलाफ कोई गुस्सा नजर नहीं आरहा,बेलछी हत्याकांड से श्रीमती इंदिरागांधी विचलित हुई थीं और बेलछी भी गयी थीं किंतु लालगढ में न तो मुख्यमंत्री बुद्धदेव पहुंचे हैं और न देश का प्रधानमंत्री ही इन गरीबों के आंसू पोंछने के लिए समय निकाल पाया है, दूसरी ओर हिन्दी के बुद्धजीवी हाथ पर हाथ धरे किसी आपातकाल का इंतजार कर रहे हैं और फिर शायद वे महान रचना करें ? पश्चिम बंगाल में हिंसा के लिए कौन जिम्मेदार है इसके विवाद में जाए बिना हमें पश्चिम बंगाल में निर्दोष ग्रामीणों ,दलितोंऔर आदिवासियों की नृशंस हत्या के खिलाफ आवाज बुलंद करनी चाहिए। लेखक और बुद्धिजीवी शांति और सत्य की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध होते हैं। आज शांति और सत्य दोनों ही दांव पर लगे हैं। कुछ अपराधी गिरोह हिंसा का ताण्डव चलाकर गरीबों के कत्ल में व्यस्त हैं, प्रतिदिन गरीबों का वेवजह कत्ल कर रहे हैं। आश्चर्य की बात है जो लोग नंदीग्राम में राज्य पुलिस के द्वारा की गई गोलीबारी पर चीख पुकार कर रहे थे आज वे महाश्वेता देवी और उनके समानधर्मा लालगढ में अब तक माओवादियों के हाथों कत्ल किए गए 100 गरीबों की हत्या पर एकदम चुप हैं। महाश्वेता देवी की चुप्पी खतरनाक है, यह चुप्पी टूटनी चाहिए।उन्हें लालगढ के हत्यारों के खिलाफ भी शांति और सत्य की रक्षा का बिगुल बजाना चाहिए। महाश्वेता की चुप्पी हमें तकनीफ देती है। वे जब बोलती हैं तो गरीबों को बल मिलता है। आज पश्चिम बंगाल खासकर लालगढ के गरीब परिवार महाश्वेता देवी की ओर आशाभरी नजरों से देख रहे हैं। वे अपने समानधर्माओं के साथ लालगढ में चल रहे कत्लेआम की निंदा करें। प्रतिवाद संगठित करें। सडकों पर उतरें।महाश्वेता किसी एक की नहीं हैं वे गरीबों और आदिवासियों की हैं। उनकी आवाज हैं। उन्हें बोलना चाहिए। उन्हें शांति के लिए,गरीबों का कत्लेआम रोकने के लिए सडकों पर आना चाहिए। उनकी चुप्पी हमें तकलीफ दे रही है। हमें हिन्दी के प्रगतिशील दिग्गजों की भी चुप्पी तकलीफ दे रही है। हम चाहते हैं नामवर सिंह,प्रभाष जोशी,राजेन्द्र यादव,अशोक बाजपेयी ,मैनेजर पांडेय,नित्यानंद तिवारी,मुरलीमनोहर प्रसाद सिंह जैसे प्रगतिशील लेखक आगे आएं और लालगढ में मच रहे कत्लेआम का सामूहिक प्रतिवाद संगठित करें। अगर ये लोग आज नहीं बोलेंगे तो कब बोलेंगे ? हमारा सभी नेट लेखकों से अनुरोध है अपने अपने ब्लाग पर लालगढ में चल रहे कत्लेआम पर लिखें, लेखकों और बुद्धिजीवियों की ज्यादा से राय एकत्रित करके प्रकाशित करें। आज लालगढ के गरीब हमें शांति के पक्ष में और कत्लेआम की राजनीति के विरोध में खडे होने के लिए पुकार रहे हैं,हम चुप न बैठें,बोलें और लोगों को बोलने के लिए उदबुद्ध करें।
राजेन्द्र यादव के 80वें जन्मदिन के साहित्यिक पटाखे के जबाव में
राजेन्द्र यादव को 80वें जन्मदिन पर बधाई । साहित्य का उन्होंने अगर जातिवादी आधार बनाया है और खासकर कविता का तो उन्ाकी बुद्धि की दाद देनी होगी, क्योंकि उनको मालूम है भक्ित आंदोलन दलितों से भरा है,उत्तर ही नहीं दक्षिण के भक्त कवियों में दलित हैं, भक्ति आंदोलन के दलित कवियों का बाकायदा इतिहास में सम्मानजनक स्थान है,साथ ही उन पर जमकर आलोचनाएं भी लिखी गयी हैं। कविता की आधुनिक सूची में आपने जिन बडे लोगों के नाम लिए हैं वे तो हैं ही, इसी तरह कथासाहित्य के बारे में उनकी समझदारी गड़बड़ है,यशपाल,वृन्दावनलाल वर्मा,जगदीश चन्द्र,भीष्म साहनी,सुभद्रा कुमारी चौहान,होमवती देवी,कमला चौधरी, कृष्णा सोबती,मन्नूभंडारी आदि अनेक बडे लेखकों के नाम उपलब्ध हैं जो संयोग से ब्राह्मण नहीं हैं। असल में राजेन्द्र यादव की दिक्कत है पटाका छोडने की, वे साहित्य में एटमबम छोड ही नहीं सकते। आपके संवाददाता की रिपोर्ट यदि दुरूस्त है तो राजेन्द्र यादव ने औरतों के लेखन को अपनी सूची से बाहर कर दिया है। क्या वे महादेवीवर्मा के अलावा किसी भी लेखिका को देख नहीं पा रहे हैं ? इसी को कहते हैं रचनाकार की दृष्टि पर हिन्दी की पुंसवादी आलोचनादृष्टि का गहरा असर। औरतों के साथ इतिहासग्रंथों में यही हुआ है वही अब राजेन्द्र यादव ने किया है।
(देशकाल डाट काम पर राजेन्द्र यादव के 80वें जन्मदिन की एक रिपोर्ट छपी है जिसमें उन्होंने जाति के आधार पर साहित्य को देखने की कोशिश की है, उस रिपोर्ट में राजेन्द्र यादव के विचारों पर व्यक्त प्रतिक्रिया,विस्तार से जानने के लिए देशकाल डाट काम को देखें )
(देशकाल डाट काम पर राजेन्द्र यादव के 80वें जन्मदिन की एक रिपोर्ट छपी है जिसमें उन्होंने जाति के आधार पर साहित्य को देखने की कोशिश की है, उस रिपोर्ट में राजेन्द्र यादव के विचारों पर व्यक्त प्रतिक्रिया,विस्तार से जानने के लिए देशकाल डाट काम को देखें )
आलोक तोमर के कुतर्की जबाव के प्रत्युत्तर में
आलोक तोमर जी आपने मूल बातों का जबाव नहीं दिया। दें भी क्यों आपको मूर्खों से बातें करने में आनंद नहीं आता। वे इस योग्य नहीं लगते । आपको अगर 'भले' लोगों से फुरसत मिले तो बातें करें, रही बात समय की तो हमारे पास ईश्वर का दिया समय,औकात,नौकरी , कुलपतियों के साथ बैठने का सुख सब कुछ है, यदि कोई चीज नहीं है तो यह कि गाली देकर तर्क करने का सलीका हमें नहीं आता, मैं हैसियत दिखाने के लिए नहीं लिख रहा,मुझे आपसे ईनाम थोडे ही लेना है और नहीं आपसे किसी के पास सिफारिश लगवानी है, रही बात योग्यता और अंकों की तो वह तब ही बताऊंगा जब आप मेरी बातों का तमीज के साथ जबाव देंगे। मैं पढाता कैसा हूं यह भी तब ही पता चलेगा जब पढने आएंगे,घर बैठे पता नहीं चलेगा। मूर्खता आपने की है और बिना पढे की है, जाकर देख लें कि कहां लिखा है फिर जबाव दें,हठी भाव से जबाव नहीं देना चाहेंगे तो यह भी आपका लोकतांत्रिक हक है,मैं आपके साथ सहानुभूति नहीं रख पा रहा हूं क्योंकि आपने जिस भाषा,असभ्यता और दंभ का प्रदर्शन किया है उसे इस संसार में कोई दुरूस्त नहीं कर पाया है,मुझे पढने,पढाने और गलत करने वालों को ,दंभियों को सबक सिखाने के लिए ही पगार मिलती है। इसके लिए विश्वविद्यालय की तरफ से पूरा समय दिया जाता है। यह काम हमें कक्षाएं समाप्त करने के बाद करना होता है, आपकी भाषा में इसे ओवरटाइम कहते हैं। यह हमारी नौकरी की शर्तों में है। दंभ और अहंकार में जीने वालों का क्या हुआ है आप अच्छी तरह जानते हैं। मेरे पास बंधक छात्र नहीं हैं। आपने पश्चिम बंगाल और जेएनयू के छात्र नहीं देखे आपने पता नहीं कहां के छात्र देखे हैं ,आप तर्क और संवाद से भागकर शांति चाहते हैं और बगैर पढे शांति चाहते हैं,गुरूजी को बीच मझधार में छोडकर शांति चाहते हैं, चलो शांति दी। लेकिन याद रहे असभ्यता आप जैसे लोगों के व्यक्तित्व का आईना है। आप चाटुकारिता और स्टेनोग्राफी को पत्रकारिता कहते हैं। आप जो कर रहे हैं या लिख रहे हैं वह सरासर बदतमीजी है और यही आपकी महानता का आधार भी है। इस आधार पर आकर आपसे कौन टक्कर ले सकता है। आप सारे मसले को व्यक्तिगत बना रहे हैं, मुद्दों का जबाव दो वरना चुप रहो । किसने कहा है हर बात पर बोलो,दोस्त थक जाओगे।
(देशकाल डॉट कॉम पर आलोक तोमर ने मेरे लेख पर जबाव दिया उसके प्रत्युत्तर में व्यक्त प्रतिक्रिया)
(देशकाल डॉट कॉम पर आलोक तोमर ने मेरे लेख पर जबाव दिया उसके प्रत्युत्तर में व्यक्त प्रतिक्रिया)
प्रभाष जोशी की साम्प्रदायिक पत्रकारिता के कुछ नमूने
प्रभाष जोशी के संपादकत्व में ‘जनसत्ता’ में किस तरह की अ-धर्मनिरपेक्ष पत्रकारिता हो रही थी,उसके संदर्भ में प्रभाष जोशी के भक्तों के लिए यही सुझाव दूंगा कि वे सिर्फ राममंदिर आंदोलन के दौर के जनसत्ता को देखें,कम समय हो तो ‘टाइम्स सेंटर ऑफ मीडिया स्टडीज’ के द्वारा उस दौर के कवरेज के बारे में तैयार की गयी विस्तृत सर्वे रिपोर्ट ही पढ़ लें, यह रिपोर्ट प्रसिद्ध पत्रकार मुकुल शर्मा ने तैयार की थी, जो इन दिनों अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन की भारत शाखा के प्रधान हैं।’टाइम्स सेंटर ऑफ मीडिया स्टडीज’ की रिपोर्ट के अनुसार ‘जनसत्ता’ अखबार ने जो उन दिनों दस पन्ने का निकलता था। लिखा है ” दस पेज के इस अखबार में 20 अक्टबर से 3 नवंबर तक कोई दिन ऐसा नहीं रहा,जिस दिन रथयात्रा अयोध्या प्रकरण पर 15 से कम आइटम प्रकाशित हुए हों। किसी -किसी रोज तो यह संख्या 24-25 तक पहुंच गई है। ” इसी प्रसंग में ‘जनसत्ता’ की तथाकथित स्वस्थ और धर्मनिरपेक्ष पत्रकारिता की भाषा की एक ही मिसाल काफी है। ‘जनसत्ता’ ने (३ नवंबर 1990 ) प्रथम पृष्ठ पर छह कॉलम की रिपोर्ट छापी। लिखा ” अयोध्या की सड़कें,मंदिर और छावनियां आज कारसेवकों के खून से रंग गईं।अर्द्धसैनिक बलों की फायरिंग से अनगिनत लोग मरे और बहुत सारे घायल हुए।” यहां पर जो घायल हुए उनकी संख्या बताने की बजाय ‘बहुत सारे’ कहा गया लेकिन मरने वाले उनसे भी ज्यादा थे। उन्हें गिना नहीं जा सकता था। ‘अनगिनत’ थे। प्रभाष जोशी के संपादकत्व में ‘जनसत्ता’ ने संघ की खुलकर सेवा की है,समूचा अखबार यही काम करता था। इसका एक ही उदाहरण काफी है। 27 अक्टूबर के जनसत्ता में निजी संवाददाता की एक रिपोर्ट छपी है।इस रिपोर्ट में लिखा है ” भारत के प्रतिनिधि राम और हमलावर बाबर के समर्थकों के बीच संघर्ष लंबा चलेगा।” क्या यह पंक्तियां संघ पक्षधरता के प्रमाण के रूप में काफी नहीं हैं ? संघ के भोंपू की तरह ‘जनसत्ता’ उस समय कैसे काम कर रहा था इसके अनगिनत उदाहरण उस समय के अखबार में भरे पडे हैं। कहीं पर भी प्रभाष जोशी के धर्मनिरपेक्ष विवेक को इस प्रसंग में संपादकीय दायित्व का पालन करते नहीं देखा गया, बल्कि उनके संपादनकाल में संघ के मुखर प्रचारक के रूप में ‘जनसत्ता’ का कवरेज आता रहा। संपादक महोदय ने तथ्य ,सत्य और झूठ में भी अंतर करने की कोशिश नहीं की।
(मोहल्ला डाट कॉम पर अविनाश के आलेख पर लिखी प्रतिक्रिया )
(मोहल्ला डाट कॉम पर अविनाश के आलेख पर लिखी प्रतिक्रिया )
शनिवार, 29 अगस्त 2009
आलोक तोमर की बेईमान पत्रकारिता
आलोक तोमर जी ,आप 'ईमानदार' हैं,यह बात कम से कम कहनी पड रही है, प्रभाष जोशी पर जितनी भी बहस हुई उसमें सबसे ज्यादा गंभीर बहस मैंने चलाई है,मेरा अनुमान सही था कि आपने अपना लेख बिना पढे लिख मारा। यह टिप्पणी भी बिना पढे ही पचा गए, सचमुच में मजेदार आदमी हैं,गुरू को भी पचा गए और दोस्तों के लिखें को भी हजम कर गए।
आलोक तोमर जी आपने लिखा है ''जगदीश्वर जी का लेख मैंने नहीं पढा है. कहाँ छपा था? '' मैं पता बताने की मूर्खता नहीं करूंगा,आप जानते हैं,नहीं जानते हैं तो जानें और अपने गुरू की रक्षा में जितनी रसद हो खर्च कर दें, कम पडे तो हमसे बोलिएगा, प्रभाष जोशी की हजार गलतियों के बावजूद हम उनके साथ हैं,लेकिन आलोचनात्मक विवेक को ताक पर रखकर नहीं। पगार,शिक्षा,औकात या सामाजिक हैसियत वाली बात इसलिए आयी थी क्योंकि आपने पत्रकारिता के उसूलों के बाहर जाकर लिखा था,मैंने आपसे आपके अंक नहीं पूछे थे मैंने प्रभाषजोशी के खिलाफ लिखी गयी अपनी आलोचना पर जबाव मांगा है, मैं जानता हूं आप पढे लिखे आदमी हैं किंतु गुरूभक्ति में अपने आलोचनात्मक विवेक से विश्वासघात कर रहे हैं। सत्य को देखकर भी अनदेखा कर रहे हैं। एक पत्रकार सत्य से आंखें नहीं चुराता, सत्य को देखे बगैर नहीं लिखता,आपने ठीक मेरा लिखा देखे बगैर किसी के कहने पर सीधे अपना लेख लिख मारा और आप यह भूल गए कि यह प्रेस का दौर नहीं है,इंटरनेट का दौर है, प्रेस के दौर में अखबार भी आपका था,लेखन भी आपका था,जैसा चाहे लिखते रहो किसी का जबाव नहीं छापना था,लेकिन इंटरनेट के दौर में प्रेस से लेकर नेट तक पत्रकार जो कुछ भी लिख रहा है,उसकी गहरी छानबीन चल रही है। प्रभाष जोशी के अब दिन लद गए हैं,अब उनके लिखे पर रोज आलोचनाएं छपेंगी और वे रोज तर्कहीन साबित किए जाएंगे। आप उनके साक्षात्कार पर लिखी मेरी टिप्पणियों पर आप खुलकर लिखें,आप बडे पत्रकार हैं, आपको नेट मालिक और नेट पत्रकार भी जानते हैं, आप जितना चाहेंगे स्पेस मिलेगा यदि कोई स्पेस नहीं देगा तो मैं दूंगा इस अनपढ का भी नेट पर ब्लाग है,वहां जितना चाहेगे आपको लिखने दूंगा। कृपया बहस के मैदान में आएं,अपने गुरूदेव से भी कहें कि वे भी अपने समूचे तर्कशास्त्र और मीडियाशास्त्र को लेकर मैदान में आएं हम वादा करते हैं, आप लोगों के प्रति जो सम्मान और प्यार है,उसे रत्तीभर कम नहीं होने देंगे। वैसे ही आप लोगों की खबर लेंगे,जैसे किसी दोस्त की खबर ली जाती है। यह भी वायदा करते हैं अपनी बातों की पुष्टि के लिए किसी घटिया तर्कशास्त्र और ग्रंथ का सहारा नहीं लेंगे। हम सिर्फ मीडियाशास्त्र और भारतीय इतिहास और परंपरा के बारे में प्रभाष जोशी के विवादास्पद साक्षात्कार के बारे में ही विवाद करेंगे और फिर अनुरोध है अब तक जो लिखा है, उसे खोजें और पढें,गुरूदेव को भी पढाएं, जरूरी हो तो लाइब्रेरी भी जा सकते हैं, गुरूदेव की मदद के लिए,लेकिन लौटकर नेट पर गुरू सहित जरूर आएं, यह नेट है और ज्ञान का सागर है, यह प्रेस का दफतर नहीं है, जिसमें कोई लाईब्रेरी नहीं होती, आपको हम वे सारे संदर्भ नेट पर ही उपलब्ध कराएंगे जो प्रभाष जोशी और आपकी भाषा और मान्यताओं के संदर्भ में प्रथम कोटि के विश्व विख्यात लोगों के हैं। भारत के इतिहास और परंपरा के बारे में भी हम सिर्फ वही सामग्री मुहैयया कराएंगे जो प्रथम कोटि के इतिहासकारों की है, उसके बाद ही तय करना कि प्रभाष जोशी के लिखे को कहां रखें, दोस्त वायदा है अपमानजनक नहीं सम्मानजनक शास्त्रार्थ होगा,ऐसा शास्त्रार्थ होगा जिसे नेट यूजर पढकर स्वास्थ्यलाभ करेंगे। आपको भी अपनी गलती का अहसास कराने के लिए यह बेहद जरूरी है, क्योंकि आपने अभी तक अपनी गलती नहीं मानी है, आपने बगैर पढे बगैर नाम के मेरे बारे में जो बातें कही हैं,एक अच्छे पत्रकार को उसके लिए माफी मांगनी चाहिए वरना साक्षात्कार पर शास्त्रार्थ के लिए तैयार रहना चाहिए ,मैं आपका इंतजार कर रहा हूं कि आप अपनी पोजीशन साफ करें माफी मांगे या शास्त्रार्थ करें, यह मामला व्यक्तिगत की हदें पार गया है,आप और आप जैसे ही लोग प्रभाष जोशी की छवि को इस हद तक पहुंचाने के लिए जिम्मेदार हैं, बेहतर यही होता आप हम लोगों की आपत्तियों पर उनका एक साक्षात्कार लेते और जहां पर आपने अपने गुरूज्ञान का परिचय दिया है, वहां पर ही छाप देते, प्रभाष जोशी नेट पर नहीं जाते हैं, लेकिन आप तो जाते हैं, आप किसी घटिया से मसले पर किसी साखरहित नेता के दरवाजे आए दिन खबर लेने चले जाते हैं लेकिन जब आपके गुरू पर आलोचनाएं लिखी जा रही हैं, तो अपने गुरू के दरवाजे जाकर उनकी राय को एकत्रित करके हमें बताने की भी जरूरत नहीं समझी आपको गाली और अपमान की भाषा में लिखने के लिए समय मिल गया किंतु हमारे लिखे को पढने और उस पर सोचने का समय नहीं मिला, यह कैसे हो सकता है आपको गुस्सा बगैर पढे ही आ गया और आपने अनाप शनाप लिख डाला ,क्या आपकी पत्रकारिता की इस शैली पर पुलित्जर पुरस्कार दिलवाने की मांग करें ? मैंने अपनी पगार की बात इसलिए उठायी थी क्योंकि आपने बडे ही घटिया ढंग से बेरोजगार नौजवानों का आपने अपमान किया हमारा भी अपमान किया ,जरा अपना लिखा गौर से पढें और सोचें आपको प्रायश्चित स्वरूप क्या करना चाहिए ? आलोक तोमर ने लिखा है '' जगदीश्वर जी हिन्दी स्नाकोत्तर परिक्षा में अंक कितने आये थे? मेरे ७० प्रतिशत थे और विश्वविद्यालय में सबसे ज्यादा थे. निरक्षर तो हम भी नहीं हैं.प्रोफेसर पद पर में भी पहुँच जाता...आखिर २१ साल की उम्र में डिग्री कालेज में पढा चूका हूँ. रही जनसत्ता के पतन की दास्तान, तो आपकी चिंता से सहमत हूँ मगर टेंपो और ट्रक टकरा जाएँ तो दोष प्रभाष जी का है? रामनाथ गोयनका जब तक रहे, जनसत्ता शान से चला, पर बाद के लोगों ने उसका राम नाम सत्य कर दिया।'' आलोक तोमर मुश्किल अंकों में है तो यह जान लो प्रभाष जोशी के बारे में जिन लोगों ने भी लिखा है, उनमें कई के बारे में मैं जानता हूं उनके अंक आपसे ज्यादा हैं और तर्क भी वैज्ञानिक हैं, आपके अंक भी कम है तर्क भी अवैज्ञानिक हैं। अखबार की 'धारण क्षमता' किसमें होती है ? अखबार को कौन धारण करता है ?कौन चलाता है ? मालिक या संपादक और पत्रकार ? गोयनकाजी कैसे थे क्या थे,यह यहां विवेचन का विषय नहीं है। आप स्वयं लिख चुके हैं,जनसत्ता अखबार में प्रभाष जोशी सर्वाधिकार सम्पन्न थे, सवाल यही है कि सर्वाधिकार सम्पन्न होने बावजूद,प्रभाष जोशी के धांसू लेखन के बावजूद प्रतिभाशाली पत्रकार उनसे अलग क्यों हो गए अथवा निकाल दिए गए अथवा अखबार का भटटा क्यों बैठ गया ? आलोक तोमर अखबार के बैठ जाने पर मात्र दो पंक्तियां और जिन शुभ चिंतकों ने आलोचना लिखी उन पर पूरा लेख वह भी धमकी और अपमानभरी मर्दवादी मवालियों की भाषा में। बंधु यह संतुलित लेखन नहीं है, कम से जनसत्ता के पतन के बारे में और उसमें संपादक और सर्वाधिकार सम्पन्न व्यक्ति के कार्यकलाप और धारण क्षमता के बारे में आपको मेरे सवालों के जबाव देने ही होंगे। हम चाहते हैं खुलकर बहस हो,दोस्ताना वातावरण है स्वस्थ बहस हो, व्यक्तिगत आपेक्ष किए बगैर बहस हो, आप कम से कम नेट भोगी पत्रकार हैं आप किनाराकशी नहीं कर सकते, इंतजार है,जबाव दें, और असभ्य भाषा के प्रयोग के बारे में प्रायश्चित करें।
( देशकाल डॉट कॉम पर आलोक तोमर की लिखी टिप्पणी पर प्रतिक्रिया,विस्तार से देशकाल डॉट कॉम और मोहल्ला लाइव डॉट काम पर जाकर पढें )
आलोक तोमर जी आपने लिखा है ''जगदीश्वर जी का लेख मैंने नहीं पढा है. कहाँ छपा था? '' मैं पता बताने की मूर्खता नहीं करूंगा,आप जानते हैं,नहीं जानते हैं तो जानें और अपने गुरू की रक्षा में जितनी रसद हो खर्च कर दें, कम पडे तो हमसे बोलिएगा, प्रभाष जोशी की हजार गलतियों के बावजूद हम उनके साथ हैं,लेकिन आलोचनात्मक विवेक को ताक पर रखकर नहीं। पगार,शिक्षा,औकात या सामाजिक हैसियत वाली बात इसलिए आयी थी क्योंकि आपने पत्रकारिता के उसूलों के बाहर जाकर लिखा था,मैंने आपसे आपके अंक नहीं पूछे थे मैंने प्रभाषजोशी के खिलाफ लिखी गयी अपनी आलोचना पर जबाव मांगा है, मैं जानता हूं आप पढे लिखे आदमी हैं किंतु गुरूभक्ति में अपने आलोचनात्मक विवेक से विश्वासघात कर रहे हैं। सत्य को देखकर भी अनदेखा कर रहे हैं। एक पत्रकार सत्य से आंखें नहीं चुराता, सत्य को देखे बगैर नहीं लिखता,आपने ठीक मेरा लिखा देखे बगैर किसी के कहने पर सीधे अपना लेख लिख मारा और आप यह भूल गए कि यह प्रेस का दौर नहीं है,इंटरनेट का दौर है, प्रेस के दौर में अखबार भी आपका था,लेखन भी आपका था,जैसा चाहे लिखते रहो किसी का जबाव नहीं छापना था,लेकिन इंटरनेट के दौर में प्रेस से लेकर नेट तक पत्रकार जो कुछ भी लिख रहा है,उसकी गहरी छानबीन चल रही है। प्रभाष जोशी के अब दिन लद गए हैं,अब उनके लिखे पर रोज आलोचनाएं छपेंगी और वे रोज तर्कहीन साबित किए जाएंगे। आप उनके साक्षात्कार पर लिखी मेरी टिप्पणियों पर आप खुलकर लिखें,आप बडे पत्रकार हैं, आपको नेट मालिक और नेट पत्रकार भी जानते हैं, आप जितना चाहेंगे स्पेस मिलेगा यदि कोई स्पेस नहीं देगा तो मैं दूंगा इस अनपढ का भी नेट पर ब्लाग है,वहां जितना चाहेगे आपको लिखने दूंगा। कृपया बहस के मैदान में आएं,अपने गुरूदेव से भी कहें कि वे भी अपने समूचे तर्कशास्त्र और मीडियाशास्त्र को लेकर मैदान में आएं हम वादा करते हैं, आप लोगों के प्रति जो सम्मान और प्यार है,उसे रत्तीभर कम नहीं होने देंगे। वैसे ही आप लोगों की खबर लेंगे,जैसे किसी दोस्त की खबर ली जाती है। यह भी वायदा करते हैं अपनी बातों की पुष्टि के लिए किसी घटिया तर्कशास्त्र और ग्रंथ का सहारा नहीं लेंगे। हम सिर्फ मीडियाशास्त्र और भारतीय इतिहास और परंपरा के बारे में प्रभाष जोशी के विवादास्पद साक्षात्कार के बारे में ही विवाद करेंगे और फिर अनुरोध है अब तक जो लिखा है, उसे खोजें और पढें,गुरूदेव को भी पढाएं, जरूरी हो तो लाइब्रेरी भी जा सकते हैं, गुरूदेव की मदद के लिए,लेकिन लौटकर नेट पर गुरू सहित जरूर आएं, यह नेट है और ज्ञान का सागर है, यह प्रेस का दफतर नहीं है, जिसमें कोई लाईब्रेरी नहीं होती, आपको हम वे सारे संदर्भ नेट पर ही उपलब्ध कराएंगे जो प्रभाष जोशी और आपकी भाषा और मान्यताओं के संदर्भ में प्रथम कोटि के विश्व विख्यात लोगों के हैं। भारत के इतिहास और परंपरा के बारे में भी हम सिर्फ वही सामग्री मुहैयया कराएंगे जो प्रथम कोटि के इतिहासकारों की है, उसके बाद ही तय करना कि प्रभाष जोशी के लिखे को कहां रखें, दोस्त वायदा है अपमानजनक नहीं सम्मानजनक शास्त्रार्थ होगा,ऐसा शास्त्रार्थ होगा जिसे नेट यूजर पढकर स्वास्थ्यलाभ करेंगे। आपको भी अपनी गलती का अहसास कराने के लिए यह बेहद जरूरी है, क्योंकि आपने अभी तक अपनी गलती नहीं मानी है, आपने बगैर पढे बगैर नाम के मेरे बारे में जो बातें कही हैं,एक अच्छे पत्रकार को उसके लिए माफी मांगनी चाहिए वरना साक्षात्कार पर शास्त्रार्थ के लिए तैयार रहना चाहिए ,मैं आपका इंतजार कर रहा हूं कि आप अपनी पोजीशन साफ करें माफी मांगे या शास्त्रार्थ करें, यह मामला व्यक्तिगत की हदें पार गया है,आप और आप जैसे ही लोग प्रभाष जोशी की छवि को इस हद तक पहुंचाने के लिए जिम्मेदार हैं, बेहतर यही होता आप हम लोगों की आपत्तियों पर उनका एक साक्षात्कार लेते और जहां पर आपने अपने गुरूज्ञान का परिचय दिया है, वहां पर ही छाप देते, प्रभाष जोशी नेट पर नहीं जाते हैं, लेकिन आप तो जाते हैं, आप किसी घटिया से मसले पर किसी साखरहित नेता के दरवाजे आए दिन खबर लेने चले जाते हैं लेकिन जब आपके गुरू पर आलोचनाएं लिखी जा रही हैं, तो अपने गुरू के दरवाजे जाकर उनकी राय को एकत्रित करके हमें बताने की भी जरूरत नहीं समझी आपको गाली और अपमान की भाषा में लिखने के लिए समय मिल गया किंतु हमारे लिखे को पढने और उस पर सोचने का समय नहीं मिला, यह कैसे हो सकता है आपको गुस्सा बगैर पढे ही आ गया और आपने अनाप शनाप लिख डाला ,क्या आपकी पत्रकारिता की इस शैली पर पुलित्जर पुरस्कार दिलवाने की मांग करें ? मैंने अपनी पगार की बात इसलिए उठायी थी क्योंकि आपने बडे ही घटिया ढंग से बेरोजगार नौजवानों का आपने अपमान किया हमारा भी अपमान किया ,जरा अपना लिखा गौर से पढें और सोचें आपको प्रायश्चित स्वरूप क्या करना चाहिए ? आलोक तोमर ने लिखा है '' जगदीश्वर जी हिन्दी स्नाकोत्तर परिक्षा में अंक कितने आये थे? मेरे ७० प्रतिशत थे और विश्वविद्यालय में सबसे ज्यादा थे. निरक्षर तो हम भी नहीं हैं.प्रोफेसर पद पर में भी पहुँच जाता...आखिर २१ साल की उम्र में डिग्री कालेज में पढा चूका हूँ. रही जनसत्ता के पतन की दास्तान, तो आपकी चिंता से सहमत हूँ मगर टेंपो और ट्रक टकरा जाएँ तो दोष प्रभाष जी का है? रामनाथ गोयनका जब तक रहे, जनसत्ता शान से चला, पर बाद के लोगों ने उसका राम नाम सत्य कर दिया।'' आलोक तोमर मुश्किल अंकों में है तो यह जान लो प्रभाष जोशी के बारे में जिन लोगों ने भी लिखा है, उनमें कई के बारे में मैं जानता हूं उनके अंक आपसे ज्यादा हैं और तर्क भी वैज्ञानिक हैं, आपके अंक भी कम है तर्क भी अवैज्ञानिक हैं। अखबार की 'धारण क्षमता' किसमें होती है ? अखबार को कौन धारण करता है ?कौन चलाता है ? मालिक या संपादक और पत्रकार ? गोयनकाजी कैसे थे क्या थे,यह यहां विवेचन का विषय नहीं है। आप स्वयं लिख चुके हैं,जनसत्ता अखबार में प्रभाष जोशी सर्वाधिकार सम्पन्न थे, सवाल यही है कि सर्वाधिकार सम्पन्न होने बावजूद,प्रभाष जोशी के धांसू लेखन के बावजूद प्रतिभाशाली पत्रकार उनसे अलग क्यों हो गए अथवा निकाल दिए गए अथवा अखबार का भटटा क्यों बैठ गया ? आलोक तोमर अखबार के बैठ जाने पर मात्र दो पंक्तियां और जिन शुभ चिंतकों ने आलोचना लिखी उन पर पूरा लेख वह भी धमकी और अपमानभरी मर्दवादी मवालियों की भाषा में। बंधु यह संतुलित लेखन नहीं है, कम से जनसत्ता के पतन के बारे में और उसमें संपादक और सर्वाधिकार सम्पन्न व्यक्ति के कार्यकलाप और धारण क्षमता के बारे में आपको मेरे सवालों के जबाव देने ही होंगे। हम चाहते हैं खुलकर बहस हो,दोस्ताना वातावरण है स्वस्थ बहस हो, व्यक्तिगत आपेक्ष किए बगैर बहस हो, आप कम से कम नेट भोगी पत्रकार हैं आप किनाराकशी नहीं कर सकते, इंतजार है,जबाव दें, और असभ्य भाषा के प्रयोग के बारे में प्रायश्चित करें।
( देशकाल डॉट कॉम पर आलोक तोमर की लिखी टिप्पणी पर प्रतिक्रिया,विस्तार से देशकाल डॉट कॉम और मोहल्ला लाइव डॉट काम पर जाकर पढें )
संस्कृतिहीन गद्य है आलोक तोमर का
मैंने दंभी आलोक तोमर नहीं देखा था,बेहद विनम्र और मिलनसार आलोक तोमर देखा है, वह यह आलोक तोमर नहीं है जो मैंने अपने जेएनयू के छात्र जीवन में पढते हुए देखा था, मवालियों की भाषा बोलने वाला आलोक तोमर कहां से आया ? आखिर यह पत्रकार दादागिरी की भाषा क्यों बोल रहा है ? मैंने ऐसी भाषा में कभी किसी पत्रकार को लिखते नहीं देखा। आलोक तोमर यह भारतेन्दु,महावीरप्रसाद द्विवेदी,प्रेमचंद,राजेन्द्रयादव,प्रभाष जोशी,राजेन्द्र माथुर की परंपरा वाली भाषा नहीं है। आलोक तोमर यह बताओ आखिरकार आदमी का इतना तेजी से पतन कैसे होता है कि वह पत्रकारिता की समस्त परंपराओं, एथिक्स, नीतियां,मानकों,संपादकीय नीति आदि सबको भूल जाए और गली के दादाओं की भाषा का इस्तेमाल करने लगे। आलोक तोमर जानते हैं आप जो कह रहे हैं पूरे होशोहवास में कह रहे हैं। यदि ये बातें बेहोशी मैं भी कही गयी हैं तब भी क्षम्य नहीं हैं। खासकर मेरे लेखन के संदर्भ में तो आपने अक्षम्य अपराध किया है। आपको लठैती कब से आ गयी ? कलम का सिपाही संस्कृतिविहीन लोगों की भाषा में सम्बोधन कर रहा है वह भी ऐसे लोगों से जो उससे अनेक गुना ज्यादा शिक्षित हैं। मैं खास तौर पर अपने संदर्भ में कह रहा हूं, आपने अक्षम्य अपराध किया है। यह पत्रकारिता के मानकों का भी अपमान है।
आलोक तोमर ने कहा है ''बात करो मगर औकात में रहकर बात करो। '' अरे भाई आप भडक किस बात पर रहे हैं ? किसे यह धमका रहे हैं ? औकात की भाषा कब से सभ्यता विमर्श की भाषा हो गई। मैंने सबसे गंभीर ढ़ंग से प्रभाषजोशी की आलोचना लिखी है, मैं क्या हूं और कहां पढाता हूं और कितना पढा लिखा हूं इसके बारे में मुझे आपको कम से कम बताने जरूरत नहीं है। वैसे भी आप भूल चुके हों तो बताना जरूरी है, आप याद करेंगे तो ध्यान आ जाएगा और सभ्यता बची होगी तो कभी अकेले पश्चाताप कर लेना कि जिस व्यक्ति को जेएनयू में छात्रसंघ का अध्यक्ष बनने पर हिन्दी का गौरव कहा था उसी को अब औकात बता रहे हो। आलोक तोमर मैंने गाली गलौज की भाषा में नहीं लिखा,मैंने कोई अपशब्द अथवा व्यक्तिगत बातें प्रभाष जोशी के बारे में नहीं कहीं, यदि कहीं हों तो बताएं,आपकी औकात कितनी और आपकी बुद्धि कितनी है यह तो इस तथ्य से ही पता चल रहा है कि आपने बगैर प्रतिक्रिया पढे ही अपना लेख लिख मारा है। आप नहीं जानते तो जान लें ,हिन्दुस्तान के सबसे बेहतरीन शिक्षकों का छात्र रहा हूं। जेएनयू में मेरा शानदार छात्रजीवन रहा है,आपने मेरी हजारों प्रेस विज्ञप्तियां छापी हैं। फिलहाल कलकत्ता विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हूं। मुझे कोई भी चीज गुरूकृपा से नहीं अपने बल से मिली है और मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि आप जरा गुरूकृपा के बिना अपने पैंरो से चलकर तो दिखाते ?
ध्यान रहे प्रभाष जोशी के बारे में नहीं उनके लेखन के बारे में बातें हो रही हैं। मैं आलोक तोमर के बारे में व्यक्तिगत तौर पर जितना जानता हूं वह यह कि वह बहुत अच्छा मिलनसार पत्रकार था,दंभ और अहंकारहीन व्यक्ति था, लेकिन उपरोक्त आलेख में उसकी भाषा और तेवर देखकर मैं दंग रह गया,आखिरकार कुछ गडबड हुआ है जो इस तरह की भाषा लिखी है। मैं देख रहा हूं हमारा हिंदी प्रेस कैसे दंभी पत्रकार बना रहा है, एक अच्छा लोकतांत्रिक पत्रकार कैसे 25 सालों में दंभी हो गया, लेखन में अपराधियों की भाषा का इस्तेमाल करने लगा है। आलोक तोमर आपने जिन शब्दों का प्रयोग किया है उनका अमूमन छुटभैये गुंडे इस्तेमाल करते हैं, क्या यह मानूं कि विगत 25 सालों में बिछुडने के बाद आपका भी वही स्वरूप बना है जो किसी प्रतिष्ठानी पत्रकार का होता है। आलोक तोमर यह दंभ आपने कहां से लिया है ? कम से शिक्षा दंभी नहीं बनाती।
आलोक तोमर को पत्रकारिता के इतिहास का ज्ञान कराना यहां अभीप्सित लक्ष्य नहीं है,वे 'ज्ञानी' पत्रकार हैं। वह मानकर चल रहे हैं प्रभाष जोशी को निबटाने के लिए उनकी हमने आलोचना लिखी है। उन्हें निबटाने के लिए नहीं, उनकी जुबान पर अंकुश लगाने के लिए उनकी आलोचना की जा रही है। एक संपादक की बेलगाम जुबान को साधारण पाठक ही दुरूस्त करता है, संपादक कितना ज्ञानी होता है और पाठक कितना अज्ञानी होता है यह बात आलोक तोमर अच्छी तरह जानते हैं। इसमें किसकी सत्ता महान है यह भी आलोक तोमर जानते हैं। पाठक लिखता नहीं है वह सिर्फ पढता है,वह उतना भी नहीं लिखता जितना नेट के यूजर प्रभाषजोशी पर लिख रहे हैं, इसके बावजूद वह ज्ञानी और महान प्रभाष जोशी को दरवाजा दिखा चुका है, आज प्रभाष जोशी हैं, उनकी कलम है, उनका ज्ञान है, उनका अखबार है,उनके भक्त हैं, किंतु उनका 'जनसत्ता' बैठ गया है, उसे अब कोई नहीं पढता, प्रभाष जोशी को निबटाने के लिए किसी नेता या अभिनेता की नहीं साधारण पाठक की जरूरत थी और हिंदी के साधारण पाठक ने आज 'जनसत्ता' को जिस स्थान पर स्थापित कर दिया है ,वह पर्याप्त टिप्पणी है उनके कर्मशील व्यक्तित्व पर,उनके लेखन के जादू पर। आलोक तोमर जरा गौर करें आपने क्या लिखा है
'' जिसे इंदिरा गांधी नहीं निपटा पाईं, जिसे राजीव गांधी नहीं निपटा पाए, जिसे लालकृष्ण आडवाणी नहीं निपटा पाए, उसे निपटाने में लगे हैं भाई लोग और जैसे अमिताभ बच्चन का इंटरव्यू दिखाने से टीवी चैनलों की टीआरपी बढ़ जाती है वैसे ही ये ब्लॉग वाले प्रभाष जी की वजह से लोकप्रिय और हिट हो रहे हैं।''
दोस्त हिंदी के जाहिल,असभ्य ,बेरोजगार पाठक प्रभाष जोशी की कलम के दम पर चलने वाले अखबार से कोसों दूर जा चुके हैं, यदि औकात हो तो पाठकों को 'जनसत्ता' के पास बुलाकर देखो। दोस्त एकबार सोचकर देखो क्या कह रहे हो ? अगर प्रभाष जोशी के पास आप जैसे वकील होंगे तो जनता की अदालत में वे मुकदमा हार चुके हैं, आपको चुनौती है कि आप आंकडे देकर बताएं कि प्रभाष जोशी के कारण 'जनसत्ता' का सर्कुलेशन विगत 20 सालों में क्या रहा है ? संपादक की औकात उसका अखबार का पाठक तय करता है,संपादक नहीं। संपादक का रूतबा पाठकों से है, पाठक कभी संपादक की औकात देखकर अखबार नहीं खरीदता बल्कि अखबार देखकर पैसा फेंकता है, प्रभाष जोशी पर कभी हिंदी का पाठक पैसा फेंकता था, 'जनसत्ता' खरीदता था,उसमें अकेले उनका ही नहीं बाकी लोगों का भी योगदान था,बल्कि यह कहें तो ज्यादा ठीक होगा कि नौका तो अन्य लोग खींच रहे थे। किसी भी पत्रकार की औकात कितनी है यह उसका अखबार,उसका सर्कुलेशन और आमदनी से तय होता है। संपादक कितना पेशेवर है और 'धारण क्षमता' रखता है यह इस बात से तय होता है कि आखिरकार अखबार को पेशेवर (तकनीकी,संपादकीय,प्रबंधन, आमदनी आदि) रूप देने में संपादक ने कितनी मेहनत की है इससे उसकी संपादकीय औकात का पता चलता है, आलोक तोमर बताएं क्या 'जनसत्ता' ने समग्रता में पेशेवर तौर पर तरक्की की है ? यदि तरक्की नहीं की है तो क्यों नहीं की है ? क्या प्रभाष जोशी इस संदर्भ में जिम्मेदार हैं या नहीं ? आलोक तोमर नेट बेकार की चीज नहीं है। यह सबसे प्रभावशाली संचार का माध्यम है।
आलोक तोमर ने लिखा है ''अनपढ़ मित्रों, आपकी समझ में ये नहीं आता।'' काश वे ऐसा न कहते,प्रभाषजी पर बहस करने वाला मैं भी हूं और दोस्त कितना पढा हूं,आप अच्छी तरह जानते हैं। बाकी लोग भी शिक्षित हैं जो बहस में लिखते रहे हैं। इसमें अनेक तो आलोक तोमर से हजार गुना ज्यादा शिक्षित हैं। आलोक तोमर ने लिखा है ''ये वे लोग हैं जो लगभग बेरोजगार हैं और ब्लॉग और नेट पर अपनी कुंठा की सार्वजनिक अभिव्यक्ति करते रहते हैं। नाम लेने का फायदा नहीं है क्योंकि अपने नेट के समाज में निरक्षरों और अर्ध साक्षरों की संख्या बहुत है।''
दोस्त नेट का समाज निरक्षरों का समाज नहीं है बल्कि यह कहें तो ज्यादा बेहतर होगा नेट पर आज दुनिया के अधिकांश ज्ञानी और शिक्षित लोग लिख रहे हैं, भारत के सभी श्रेष्ठ पत्रकार लिख रहे हैं। दूसरी बात यह कि बेरोजगार होना गाली नहीं है। मैं कम से रोजगार वाला हूं और एक प्रोफेसर की पगार जानते हैं प्रभाष जोशी की पगार से ज्यादा होती है। मुझे पगार पढाने ,शोध करने,कराने के साथ बेहूदों पर अंकुश लगाने के लिए,जनता में ज्ञान प्रसार करने के लिए मिलती है। मेरे जैसे और भी कई लोग हैं जिन्होंने प्रभाष जोशी पर लिखा है।
आलोक तोमर आपको खुश होना चाहिए कि बेरोजगार लडके बतर्ज आपके पैसा खर्च करके नेट पत्रकारिता कर रहे हैं,बगैर किसी सेठ की गुलामी किए पत्रकारिता कर रहे हैं, इन बेरोजगार नौजवानों का लेखन कुंठा नहीं है। कुंठा की इन्हें जरूरत नहीं है क्योंकि ये लोग जैसा सोचते हैं वैसा ही लिखते हैं, हमें ऐसे ही न्रिर्भय युवाओं की फौज चाहिए। पत्रकारिता अथवा लेखन किसी को खैरात में नहीं मिलता। पत्रकारिता किसी प्रतिष्ठानी प्रेस में काम करने मात्र से नहीं आती यदि ऐसा होता तो हिन्दी की समूची साहित्य परंपरा बेकार हो जाएगी। आलोक तोमर ने लिखा है
''आपने पंद्रह सोलह हजार का कंप्यूटर खरीद लिया, आपको हिंदी टाइपिंग आती हैं, आपने पांच सात हजार रुपए खर्च करके एक वेबसाइट भी बना ली मगर इससे आपको यह हक नहीं मिल जाता कि भारतीय पत्रकारिता के सबसे बड़े जीवित गौरव प्रभाष जी पर सवाल उठाए और इतनी पतित भाषा में उठाए।'' अगर इन नौजवानों ने अपनी आजीविका नेट पत्रकारिता के जरिए और अपने ही पैसे से पूरा सिस्टम बनाकर आरंभ कर दी है तो इसमें बुरा क्या है ? जिस तरह किसी सेठ की नौकरी करना बुरा नहीं है,वैसे ही नेट पर अपने दम पर पत्रकारिता करना भी बुरा नहीं है। प्रभाष जोशी 'जीवित गौरव' हैं, बने रहें, सिर्फ एक ही दिक्कत है वे अपना गौरव अपने ही हाथों नष्ट कर रहे हैं, इतना खराब साक्षात्कार देने के लिए उन्हें 'बेरोजगार', 'कुण्ठित' 'अनपढ' युवाओं ने तो प्रेरित नहीं किया था, 'जनसत्ता' यदि पाठक खो चुका है तो उसमें भी इन नौजवानों का कम से कम कोई हाथ नहीं है,आलोक जी सर्वे करा लें आपके 'जीवित गौरव' को प्रति सप्ताह कितने पाठक पढते हैं और इन बेरोजगार,अनपढ जाहिल लोगों को कितने नेट पाठक पढते हैं, ध्यान रहे ये बेरोजगार युवा और प्रभाष जोशी के बीच की जंग है और इसमें प्रभाष जोशी का भी वही हश्र होगा जो महाभारत में भीष्म पितामह का हुआ था, वे अर्जुन के हाथों मारे गए थे और प्रभाष जोशी भी इन बेरोजगार नौजवानों के तर्कों से ही मरेंगे। आलोक तोमर आप अपनी असल भाव भंगिमा में मैदान में पूरे गुरूदेव के साथ आएं और जबाव दें कि आखिरकार 'जनसत्ता' का पतन क्यों हुआ ? चाहें तो आप यह काम गाली गलौज की भाषा में भी कर सकते हैं यदि किसी अन्य अकादमिक मसले पर बहस करने का गुरू सहित मन है तो बंदा अपने को इसके लिए पेश करता है और चाहेगा कि आप विषय चुनें और वही विषय चुनें जो आपके गुरूदेव का सबसे प्रिय विषय हो, (कम से कम क्रिकेट नहीं) जिस पर वे जीभर कर लिख सकें, उन्हें नेट के पन्नों पर जगह का अभाव महसूस नहीं होगा। शर्त्त एक ही है आप बहस के नियम नहीं बनाएंगे, बहस स्वतंत्र होगी,ये बातें इसलिए लिखनी पड़ रही हैं कि एक पत्रकार अपने पाजामे के बाहर चला गया है। उसे पाजामा पहनाना हमारा काम है , आलोक तोमर को खुला निमंत्रण है वे अपने गुरू के साथ नेट पर आएं और सबसे पहले 'जनसत्ता' की पतनगाथा के पन्ने खोलें,हम देखना चाहते हैं कि दूसरों की औकात बताने वाले की स्वयं कितनी औकात है,उनके गुरूदेव का भी 'जनसत्ता' के पतन पर पूरा आख्यान पढना चाहेंगे। आलोक तोमर यदि 'जनसत्ता' का सच्चा आख्यान बताते हैं तो कम से कम प्रभाष जोशी की एक महान पत्रकार के रूप में क्या स्थिति रह गयी है,इसका खुलासा जरूर हो जाएगा। आलोक तोमर जी यदि असुविधा न हो तो प्रभाष जी के तथाकथित महान निबंधों पर ही हम लोग गंभीर मंथन कर लें और उनके नजरिए का पोस्टमार्टम कर डालें। तय मानो दोस्त आपकी श्रद्धा उनकी रक्षा नहीं कर पाएगी, उन्हें बेकार नौजवानों के हाथों पराजित होना ही है। अभी भी मौका है दंभ त्याग दें, दूसरों का अपमान करना बंद कर दें,अनपढ को अनपढ कहना गाली है , शिक्षित आलोक तोमर को यह शोभा नहीं देता। कोई सभ्य पत्रकार दंभ,औकात, बेरोजगारों के प्रति घृणा,स्वाभिमानी युवाओं को प्रताडित करने वाली भाषा नही लिख सकता,यह तो संस्कृतिविहीन होने का संकेत है। यह प्रेस के लिए शर्मिंदगी की बात है कि किसी हिन्दी पत्रकार ने इतनी घटिया भाषा का अपने गुरू की हिमायत में इस्तेमाल किया है।
आलोक तोमर ने लिखा है '' अगर गालियों की भाषा मैंने या मेरे जैसे प्रभाष जी के प्रशंसकों ने लिखनी शुरू कर दी तो भाई साहब आपकी बोलती बंद हो जाएगी और आपका कंप्यूटर जाम हो जाएगा। भाइयो, बात करो मगर औकात में रह कर बात करो। बात करने के लिए जरूरी मुद्दे बहुत हैं।'' इंतजार है आपकी 'शानदार' पत्रकारिता के करतब देखने का। प्लीज आप जरूर आएं और किसी मुद्दे के साथ आएं, किसकी कितनी औकात है और किसी कलम में दम है यह तो नेट के पाठक ही तय करेंगे।
आलोक तोमर ने कहा है ''बात करो मगर औकात में रहकर बात करो। '' अरे भाई आप भडक किस बात पर रहे हैं ? किसे यह धमका रहे हैं ? औकात की भाषा कब से सभ्यता विमर्श की भाषा हो गई। मैंने सबसे गंभीर ढ़ंग से प्रभाषजोशी की आलोचना लिखी है, मैं क्या हूं और कहां पढाता हूं और कितना पढा लिखा हूं इसके बारे में मुझे आपको कम से कम बताने जरूरत नहीं है। वैसे भी आप भूल चुके हों तो बताना जरूरी है, आप याद करेंगे तो ध्यान आ जाएगा और सभ्यता बची होगी तो कभी अकेले पश्चाताप कर लेना कि जिस व्यक्ति को जेएनयू में छात्रसंघ का अध्यक्ष बनने पर हिन्दी का गौरव कहा था उसी को अब औकात बता रहे हो। आलोक तोमर मैंने गाली गलौज की भाषा में नहीं लिखा,मैंने कोई अपशब्द अथवा व्यक्तिगत बातें प्रभाष जोशी के बारे में नहीं कहीं, यदि कहीं हों तो बताएं,आपकी औकात कितनी और आपकी बुद्धि कितनी है यह तो इस तथ्य से ही पता चल रहा है कि आपने बगैर प्रतिक्रिया पढे ही अपना लेख लिख मारा है। आप नहीं जानते तो जान लें ,हिन्दुस्तान के सबसे बेहतरीन शिक्षकों का छात्र रहा हूं। जेएनयू में मेरा शानदार छात्रजीवन रहा है,आपने मेरी हजारों प्रेस विज्ञप्तियां छापी हैं। फिलहाल कलकत्ता विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हूं। मुझे कोई भी चीज गुरूकृपा से नहीं अपने बल से मिली है और मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि आप जरा गुरूकृपा के बिना अपने पैंरो से चलकर तो दिखाते ?
ध्यान रहे प्रभाष जोशी के बारे में नहीं उनके लेखन के बारे में बातें हो रही हैं। मैं आलोक तोमर के बारे में व्यक्तिगत तौर पर जितना जानता हूं वह यह कि वह बहुत अच्छा मिलनसार पत्रकार था,दंभ और अहंकारहीन व्यक्ति था, लेकिन उपरोक्त आलेख में उसकी भाषा और तेवर देखकर मैं दंग रह गया,आखिरकार कुछ गडबड हुआ है जो इस तरह की भाषा लिखी है। मैं देख रहा हूं हमारा हिंदी प्रेस कैसे दंभी पत्रकार बना रहा है, एक अच्छा लोकतांत्रिक पत्रकार कैसे 25 सालों में दंभी हो गया, लेखन में अपराधियों की भाषा का इस्तेमाल करने लगा है। आलोक तोमर आपने जिन शब्दों का प्रयोग किया है उनका अमूमन छुटभैये गुंडे इस्तेमाल करते हैं, क्या यह मानूं कि विगत 25 सालों में बिछुडने के बाद आपका भी वही स्वरूप बना है जो किसी प्रतिष्ठानी पत्रकार का होता है। आलोक तोमर यह दंभ आपने कहां से लिया है ? कम से शिक्षा दंभी नहीं बनाती।
आलोक तोमर को पत्रकारिता के इतिहास का ज्ञान कराना यहां अभीप्सित लक्ष्य नहीं है,वे 'ज्ञानी' पत्रकार हैं। वह मानकर चल रहे हैं प्रभाष जोशी को निबटाने के लिए उनकी हमने आलोचना लिखी है। उन्हें निबटाने के लिए नहीं, उनकी जुबान पर अंकुश लगाने के लिए उनकी आलोचना की जा रही है। एक संपादक की बेलगाम जुबान को साधारण पाठक ही दुरूस्त करता है, संपादक कितना ज्ञानी होता है और पाठक कितना अज्ञानी होता है यह बात आलोक तोमर अच्छी तरह जानते हैं। इसमें किसकी सत्ता महान है यह भी आलोक तोमर जानते हैं। पाठक लिखता नहीं है वह सिर्फ पढता है,वह उतना भी नहीं लिखता जितना नेट के यूजर प्रभाषजोशी पर लिख रहे हैं, इसके बावजूद वह ज्ञानी और महान प्रभाष जोशी को दरवाजा दिखा चुका है, आज प्रभाष जोशी हैं, उनकी कलम है, उनका ज्ञान है, उनका अखबार है,उनके भक्त हैं, किंतु उनका 'जनसत्ता' बैठ गया है, उसे अब कोई नहीं पढता, प्रभाष जोशी को निबटाने के लिए किसी नेता या अभिनेता की नहीं साधारण पाठक की जरूरत थी और हिंदी के साधारण पाठक ने आज 'जनसत्ता' को जिस स्थान पर स्थापित कर दिया है ,वह पर्याप्त टिप्पणी है उनके कर्मशील व्यक्तित्व पर,उनके लेखन के जादू पर। आलोक तोमर जरा गौर करें आपने क्या लिखा है
'' जिसे इंदिरा गांधी नहीं निपटा पाईं, जिसे राजीव गांधी नहीं निपटा पाए, जिसे लालकृष्ण आडवाणी नहीं निपटा पाए, उसे निपटाने में लगे हैं भाई लोग और जैसे अमिताभ बच्चन का इंटरव्यू दिखाने से टीवी चैनलों की टीआरपी बढ़ जाती है वैसे ही ये ब्लॉग वाले प्रभाष जी की वजह से लोकप्रिय और हिट हो रहे हैं।''
दोस्त हिंदी के जाहिल,असभ्य ,बेरोजगार पाठक प्रभाष जोशी की कलम के दम पर चलने वाले अखबार से कोसों दूर जा चुके हैं, यदि औकात हो तो पाठकों को 'जनसत्ता' के पास बुलाकर देखो। दोस्त एकबार सोचकर देखो क्या कह रहे हो ? अगर प्रभाष जोशी के पास आप जैसे वकील होंगे तो जनता की अदालत में वे मुकदमा हार चुके हैं, आपको चुनौती है कि आप आंकडे देकर बताएं कि प्रभाष जोशी के कारण 'जनसत्ता' का सर्कुलेशन विगत 20 सालों में क्या रहा है ? संपादक की औकात उसका अखबार का पाठक तय करता है,संपादक नहीं। संपादक का रूतबा पाठकों से है, पाठक कभी संपादक की औकात देखकर अखबार नहीं खरीदता बल्कि अखबार देखकर पैसा फेंकता है, प्रभाष जोशी पर कभी हिंदी का पाठक पैसा फेंकता था, 'जनसत्ता' खरीदता था,उसमें अकेले उनका ही नहीं बाकी लोगों का भी योगदान था,बल्कि यह कहें तो ज्यादा ठीक होगा कि नौका तो अन्य लोग खींच रहे थे। किसी भी पत्रकार की औकात कितनी है यह उसका अखबार,उसका सर्कुलेशन और आमदनी से तय होता है। संपादक कितना पेशेवर है और 'धारण क्षमता' रखता है यह इस बात से तय होता है कि आखिरकार अखबार को पेशेवर (तकनीकी,संपादकीय,प्रबंधन, आमदनी आदि) रूप देने में संपादक ने कितनी मेहनत की है इससे उसकी संपादकीय औकात का पता चलता है, आलोक तोमर बताएं क्या 'जनसत्ता' ने समग्रता में पेशेवर तौर पर तरक्की की है ? यदि तरक्की नहीं की है तो क्यों नहीं की है ? क्या प्रभाष जोशी इस संदर्भ में जिम्मेदार हैं या नहीं ? आलोक तोमर नेट बेकार की चीज नहीं है। यह सबसे प्रभावशाली संचार का माध्यम है।
आलोक तोमर ने लिखा है ''अनपढ़ मित्रों, आपकी समझ में ये नहीं आता।'' काश वे ऐसा न कहते,प्रभाषजी पर बहस करने वाला मैं भी हूं और दोस्त कितना पढा हूं,आप अच्छी तरह जानते हैं। बाकी लोग भी शिक्षित हैं जो बहस में लिखते रहे हैं। इसमें अनेक तो आलोक तोमर से हजार गुना ज्यादा शिक्षित हैं। आलोक तोमर ने लिखा है ''ये वे लोग हैं जो लगभग बेरोजगार हैं और ब्लॉग और नेट पर अपनी कुंठा की सार्वजनिक अभिव्यक्ति करते रहते हैं। नाम लेने का फायदा नहीं है क्योंकि अपने नेट के समाज में निरक्षरों और अर्ध साक्षरों की संख्या बहुत है।''
दोस्त नेट का समाज निरक्षरों का समाज नहीं है बल्कि यह कहें तो ज्यादा बेहतर होगा नेट पर आज दुनिया के अधिकांश ज्ञानी और शिक्षित लोग लिख रहे हैं, भारत के सभी श्रेष्ठ पत्रकार लिख रहे हैं। दूसरी बात यह कि बेरोजगार होना गाली नहीं है। मैं कम से रोजगार वाला हूं और एक प्रोफेसर की पगार जानते हैं प्रभाष जोशी की पगार से ज्यादा होती है। मुझे पगार पढाने ,शोध करने,कराने के साथ बेहूदों पर अंकुश लगाने के लिए,जनता में ज्ञान प्रसार करने के लिए मिलती है। मेरे जैसे और भी कई लोग हैं जिन्होंने प्रभाष जोशी पर लिखा है।
आलोक तोमर आपको खुश होना चाहिए कि बेरोजगार लडके बतर्ज आपके पैसा खर्च करके नेट पत्रकारिता कर रहे हैं,बगैर किसी सेठ की गुलामी किए पत्रकारिता कर रहे हैं, इन बेरोजगार नौजवानों का लेखन कुंठा नहीं है। कुंठा की इन्हें जरूरत नहीं है क्योंकि ये लोग जैसा सोचते हैं वैसा ही लिखते हैं, हमें ऐसे ही न्रिर्भय युवाओं की फौज चाहिए। पत्रकारिता अथवा लेखन किसी को खैरात में नहीं मिलता। पत्रकारिता किसी प्रतिष्ठानी प्रेस में काम करने मात्र से नहीं आती यदि ऐसा होता तो हिन्दी की समूची साहित्य परंपरा बेकार हो जाएगी। आलोक तोमर ने लिखा है
''आपने पंद्रह सोलह हजार का कंप्यूटर खरीद लिया, आपको हिंदी टाइपिंग आती हैं, आपने पांच सात हजार रुपए खर्च करके एक वेबसाइट भी बना ली मगर इससे आपको यह हक नहीं मिल जाता कि भारतीय पत्रकारिता के सबसे बड़े जीवित गौरव प्रभाष जी पर सवाल उठाए और इतनी पतित भाषा में उठाए।'' अगर इन नौजवानों ने अपनी आजीविका नेट पत्रकारिता के जरिए और अपने ही पैसे से पूरा सिस्टम बनाकर आरंभ कर दी है तो इसमें बुरा क्या है ? जिस तरह किसी सेठ की नौकरी करना बुरा नहीं है,वैसे ही नेट पर अपने दम पर पत्रकारिता करना भी बुरा नहीं है। प्रभाष जोशी 'जीवित गौरव' हैं, बने रहें, सिर्फ एक ही दिक्कत है वे अपना गौरव अपने ही हाथों नष्ट कर रहे हैं, इतना खराब साक्षात्कार देने के लिए उन्हें 'बेरोजगार', 'कुण्ठित' 'अनपढ' युवाओं ने तो प्रेरित नहीं किया था, 'जनसत्ता' यदि पाठक खो चुका है तो उसमें भी इन नौजवानों का कम से कम कोई हाथ नहीं है,आलोक जी सर्वे करा लें आपके 'जीवित गौरव' को प्रति सप्ताह कितने पाठक पढते हैं और इन बेरोजगार,अनपढ जाहिल लोगों को कितने नेट पाठक पढते हैं, ध्यान रहे ये बेरोजगार युवा और प्रभाष जोशी के बीच की जंग है और इसमें प्रभाष जोशी का भी वही हश्र होगा जो महाभारत में भीष्म पितामह का हुआ था, वे अर्जुन के हाथों मारे गए थे और प्रभाष जोशी भी इन बेरोजगार नौजवानों के तर्कों से ही मरेंगे। आलोक तोमर आप अपनी असल भाव भंगिमा में मैदान में पूरे गुरूदेव के साथ आएं और जबाव दें कि आखिरकार 'जनसत्ता' का पतन क्यों हुआ ? चाहें तो आप यह काम गाली गलौज की भाषा में भी कर सकते हैं यदि किसी अन्य अकादमिक मसले पर बहस करने का गुरू सहित मन है तो बंदा अपने को इसके लिए पेश करता है और चाहेगा कि आप विषय चुनें और वही विषय चुनें जो आपके गुरूदेव का सबसे प्रिय विषय हो, (कम से कम क्रिकेट नहीं) जिस पर वे जीभर कर लिख सकें, उन्हें नेट के पन्नों पर जगह का अभाव महसूस नहीं होगा। शर्त्त एक ही है आप बहस के नियम नहीं बनाएंगे, बहस स्वतंत्र होगी,ये बातें इसलिए लिखनी पड़ रही हैं कि एक पत्रकार अपने पाजामे के बाहर चला गया है। उसे पाजामा पहनाना हमारा काम है , आलोक तोमर को खुला निमंत्रण है वे अपने गुरू के साथ नेट पर आएं और सबसे पहले 'जनसत्ता' की पतनगाथा के पन्ने खोलें,हम देखना चाहते हैं कि दूसरों की औकात बताने वाले की स्वयं कितनी औकात है,उनके गुरूदेव का भी 'जनसत्ता' के पतन पर पूरा आख्यान पढना चाहेंगे। आलोक तोमर यदि 'जनसत्ता' का सच्चा आख्यान बताते हैं तो कम से कम प्रभाष जोशी की एक महान पत्रकार के रूप में क्या स्थिति रह गयी है,इसका खुलासा जरूर हो जाएगा। आलोक तोमर जी यदि असुविधा न हो तो प्रभाष जी के तथाकथित महान निबंधों पर ही हम लोग गंभीर मंथन कर लें और उनके नजरिए का पोस्टमार्टम कर डालें। तय मानो दोस्त आपकी श्रद्धा उनकी रक्षा नहीं कर पाएगी, उन्हें बेकार नौजवानों के हाथों पराजित होना ही है। अभी भी मौका है दंभ त्याग दें, दूसरों का अपमान करना बंद कर दें,अनपढ को अनपढ कहना गाली है , शिक्षित आलोक तोमर को यह शोभा नहीं देता। कोई सभ्य पत्रकार दंभ,औकात, बेरोजगारों के प्रति घृणा,स्वाभिमानी युवाओं को प्रताडित करने वाली भाषा नही लिख सकता,यह तो संस्कृतिविहीन होने का संकेत है। यह प्रेस के लिए शर्मिंदगी की बात है कि किसी हिन्दी पत्रकार ने इतनी घटिया भाषा का अपने गुरू की हिमायत में इस्तेमाल किया है।
आलोक तोमर ने लिखा है '' अगर गालियों की भाषा मैंने या मेरे जैसे प्रभाष जी के प्रशंसकों ने लिखनी शुरू कर दी तो भाई साहब आपकी बोलती बंद हो जाएगी और आपका कंप्यूटर जाम हो जाएगा। भाइयो, बात करो मगर औकात में रह कर बात करो। बात करने के लिए जरूरी मुद्दे बहुत हैं।'' इंतजार है आपकी 'शानदार' पत्रकारिता के करतब देखने का। प्लीज आप जरूर आएं और किसी मुद्दे के साथ आएं, किसकी कितनी औकात है और किसी कलम में दम है यह तो नेट के पाठक ही तय करेंगे।
शुक्रवार, 28 अगस्त 2009
'हिन्दी वाला' फेमिनिज्म से क्यों डरता है ?
हिन्दी साहित्य में औरत है किंतु उसका शास्त्र नहीं है। स्त्रीशास्त्र के बिना औरत निरस्त्र है। अनाथ है,पराश्रित है। साहित्य की प्रत्येक विधा में लिखने वाली औरतें हैं,साहित्यिक पत्रिकाओं में 'हंस' जैसी शानदार पत्रिका है जिसके संपादक आए दिन स्त्री का महिमामंडन करते रहते हैं, छायावाद में स्त्री की महत्ता का उदघाटन करने वाले नामवर सिंह की इसी नाम से शानदार किताब है। इसके बावजूद 'हिन्दीवाला' (यहां लेखकों,बुद्धिजीवियों,शिक्षकों से तात्पर्य है) स्त्रीवाद को लेकर भडकता क्यों है ?
हिन्दी में स्त्री शास्त्र निर्मित क्यों नहीं हो पाया ? हिन्दी वाला 'फेमिनिज्म' अथवा 'स्त्रीवाद' पदबंध के प्रयोग से इतना भागता क्यों है ? हिन्दी में कोई फेमिनिस्ट पैदा क्यों नहीं हुआ ? हिन्दी विभागों में अरस्तू से लेकर मार्क्सवाद तक सभी सिद्धान्त पढाए जाएंगे लेकिन स्त्रीवाद नहीं पढाया जाता,ऐसा क्या है जो स्त्रीवाद का नाम सुनते ही हिन्दी वाले की हवा निकल जाती है। स्त्री के सवाल तब ही क्यों उठते हैं जब उस पर जुल्म होता है ? हिन्दी में स्त्री लेखिकाओं की लंबी परंपरा के बावजूद स्वतंत्र रूप से 'स्त्री साहित्य' पदबंध अभी भी लोकप्रिय नहीं है, आलोचना और इतिहास की किताबों से लेकर दैनन्दिन साहित्य विमर्श में स्वतंत्र रूप से 'स्त्री साहित्य' की केटेगरी को अभी तक स्वीकृति नहीं मिली है। हमारी ज्यादातर साहित्यिक पत्रिकाएं 'स्त्री साहित्य' केटेगरी को स्वतंत्र रूप में महत्व नहीं देतीं बल्कि साहित्य की केटेगरी के तहत 'स्त्री साहित्य' को समाहित करके चर्चा करते हैं। और वे जब ऐसा करते हैं तो सीधे स्त्री की स्वतंत्र पहचान का अपहरण करते हैं। जाने-अनजाने स्त्री साहित्य की प्रतिष्ठा की बजाय उसकी पहचान को लेकर विभ्रम पैदा करते हैं। हिन्दी की अधिकांश स्त्री लेखिकाएं महिला आन्दोलन से दूर हैं और फेमिनिज्म को एकसिरे से अपने नजरिए का हिस्सा नहीं मानतीं। हिन्दी के किसी भी प्रतिष्ठित आलोचक ने स्त्रीवादी साहित्यालोचना पर एक भी शटद क्यों नहीं लिखा ?
स्त्री साहित्य के सवाल हाशिए के सवाल नहीं हैं। स्त्री जीवन के केन्द्रीय सवाल हैं। स्त्री-विमर्श खाली समय या आनंद के समय का विमर्श नहीं है। हिन्दी में स्त्री साहित्य और उसकी सैध्दान्तिकी अभी भी अकादमिक जगत में प्रवेश नहीं कर पायी है। साहित्यिक पत्रिकाओं के स्त्री विमर्श लेखक जाने-अनजाने मांग और पूर्ति के मायावी तर्कजाल में कैद हैं।
स्त्री साहित्य या स्त्री विमर्श में प्रयुक्त धारणाओं का सही नाम और सही संदर्भ में इस्तेमाल नहीं हो रहा। स्त्री से जुड़ी धारणाओं की मनमानी व्याख्याएं पेश की जा रही हैं। स्त्री साहित्य के मूल्यांकन के संदर्भ में सबसे बड़ी चुनौती है अवधारणाओं की सही समझ की। हिन्दी साहित्य विमर्श में अवधारणाओं में सोचने की परंपरा का निरंतर ह्रास हो रहा है।
अंग्रेजी साहित्य में स्त्रीवादी साहित्यालोचना बेहद जनप्रिय पदबंध है। किन्तु हिन्दी में यह उतना जनप्रिय नहीं है। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि हिन्दी के समीक्षकों को इस पदबंध में कोई आकर्षण नजर नहीं आता। इसके अलावा हिन्दी में साहित्यिक पत्रिकाओं में जो संपादक स्त्री साहित्य के पक्षधर के रूप में नजर आते हैं वे भी इस पदबंध का प्रयोग नहीं करते।
साहित्यालोचना की परंपरा प्रत्येक समाज में बड़ी पुरानी है अत: स्त्रीवादी साहित्यालोचना हमेशा अन्य से ग्रहण करके ही अपना विकास करती है, इसमें अन्य के विचारों के प्रति तिरस्कार का भाव नहीं है। यह अन्य के विचारों को वहां तक आत्मसात् करने के लिए तैयार है जहां तक वे स्त्री के हितों ,भावों,जीवन मूल्यों और यथार्थ को विकसित करने में सहायता करते हैं। स्त्रीवादी साहित्यालोचना की पूर्ववर्ती साहित्यालोचना के स्कूलों से इस अर्थ में भिन्नता है कि वे एकायामी थे। जबकि स्त्रीवादी साहित्यालोचना बहुआयामी है। वैविध्यपूर्ण है।यह समाज के किसी एक संस्थान को सम्बोधित करने की बजाय समाज के विभिन्न संस्थानों को सम्बोधित करती है। स्त्रीवादी साहित्यालोचना ने आलोचना के स्कूलों की गंभीर आलोचना के साथ साथ समाज और साहित्य के प्रति आलोचना में नए तत्वों,अवधारणाओं और समझ का भी विकास किया है।
स्त्रीवादी साहित्यालोचना का लक्ष्य है समाज में पुंसवादी प्रभुत्व की समाप्ति करना। पुंसवादी संस्कृति की संरचना को ध्वस्त करना। संस्कृति की संरचनाओं कलाएं ,धर्म ,कानून ,एकल परिवार , पिता और राष्ट्र-राज्य के असीमित अधिकार आते हैं,वे सभी इमेज,संस्थाएं,संस्कार और आदतें आती हैं जो यह बताती हैं कि औरत किसी काम की नहीं होती,अर्थहीन है,अदृश्य है।माया है।
स्त्रीवादी साहित्यालोचना के इस लक्ष्य को हासिल करने का हिन्दुस्तान में क्या तरीका हो सकता है ? इसके बारे में एक जैसी रणनीति अपनाना संभव नहीं है। हिन्दुस्तान में सामाजिक वैविध्य और स्त्रीचेतना के अनेक स्तरों को मद्देनजर रखते हुए संवाद और संघर्ष के रास्ते पर साथ-साथ चलना होगा। इस क्रम में त्याग और ग्रहण की पध्दति अपनानी होगी।
स्त्रीवादी साहित्यालोचना को प्रचलित साहित्यालोचना में कुछ हेरफेर करने बाद निर्मित नहीं किया जा सकता। इसके लिए समाज के प्रति बुनियादी रवैयया बदलना होगा। परंपरागत दृष्टियों को ऊपरी फेरबदल के साथ स्त्रीवादी हितों के पक्ष में रूपान्तरित नहीं किया जा सकता। स्त्रीवादी साहित्यालोचना क्रांतिकारी साहित्यालोचना है उसका लक्ष्य है प्रचलित और प्रभुत्व बनाकर बैठे आलोचना स्कूलों को चुनौती देना, उन्हें अपदस्थ करना। प्रभुत्ववादी विमर्शों को चुनौती देना, उन्हें अपदस्थ करना।सभी किस्म के विमर्शों में स्त्रीवादी नजरिए से हस्तक्षेप करना। स्त्रीवादी साहित्यालोचना की हिमायत करना,उसे विस्तार देने का काम सिर्फ औरतों का ही नहीं है बल्कि इसमें पुरूषों को भी शामिल किया जाना चाहिए। स्त्री का संघर्ष सिर्फ स्त्री का नहीं उसमें पुरूषों की भी समान हिस्सेदारी होनी चाहिए।
स्त्रीवादी साहित्यालोचना में मर्दवादी नजरिए से यदि पुरूष समीक्षक दाखिल होते हैं तो वे स्त्रीवादी साहित्यालोचना का विकास नहीं कर सकते ,ऐसे समीक्षकों को स्त्रीवादी समीक्षक कहना मुश्किल है।हिन्दी में यह फैशन चल निकला है कि अब हरेक मर्दवादी समीक्षक स्त्री विषय पर हाथ भांज रहा है। हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाओं में इस तरह के फैशनपरस्त या जिज्ञासु आलोचकों में अनेक मर्द संपादक और आलोचक हैं। स्त्रीवादी साहित्यालोचना का विकास मर्द समीक्षकों द्वारा फैशन ,सहानुभूति या जिज्ञासा के आधार पर नहीं किया जा सकता।बल्कि इसके लिए क्रांतिकारी रवैयये की जरूरत है।अभी तक जिन मर्दों ने स्त्रीवादी साहित्यालोचना में योगदान किया है उनका किसी न किसी रूप में क्रांतिकारी संघर्षों, क्रांतिकारी विमर्श,आमूल परिवर्तनकामी आलोचना परंपरा से संबंध रहा है।ये लोग स्त्रीवादी नजरिए के परिवर्तनकामी रूझानों के पक्षधर रहे हैं। वे मानते हैं कि स्त्रीवादी नजरिया प्रत्येक किस्म के उत्पीडन,शोषण,अन्याय आदि का सख्त विरोधी है।जिन पुरूषों ने स्त्रीवादी साहित्यालोचना के पक्ष में लिखा है उनमें प्रतिबध्दता का गहरा भाव रहा है। उन्होंने जिज्ञासावश नहीं लिखा।
हिन्दी में स्त्री आलोचना में जो मर्द दाखिल हो रहे हैं वे फैशन के नाम पर आ रहे हैं ,उनका साहित्य के क्रांतिकारी विमर्श,समाज के क्रांतिकारी संघर्षों और विचारधाराओं से कोई संबंध नहीं है। ऐसे मर्द समीक्षकों को स्त्रीवादी विमर्श अपना अंग नहीं मानता। स्त्रीवादी साहित्यालोचना के अंदर स्त्रियां उन्हीं पुरूषों को स्वीकार करने को तैयार हैं जो स्त्री के अधिकारों और स्त्रीवादी नजरिए के प्रति पूरी तरह प्रतिबध्द हैं ,आमूल सामाजिक परिवर्तन के पक्षधर हैं। स्त्रीवादी साहित्यालोचना को सैध्दान्तिक तौर पर वे मर्द स्वीकार्य हैं जो सिध्दान्तत: लिंग को आधार बनाकर समीक्षा का विकास कर रहे हों।स्त्री के अनुभवों को स्त्री के नजरिए से देखते हैं।
हिन्दी में स्त्री के सवालों, समस्याओं, अनुभूति आदि को आलोचक मर्दवादी नजरिए से देखते हैं, इस तरह के लेखन की इन दिनों हिन्दी में बाढ़ आई हुई है। आज सारी दुनिया में स्त्रीवादी साहित्यालोचना के योगदान की कोई अनदेखी नहीं कर सकता। किन्तु हिन्दी में साहित्य सैध्दान्तिकी में स्त्रीवादी सैध्दान्तिकी का अध्ययन नहीं कराया जाता। स्त्रीवादी साहित्यालोचना पर विचार करते समय बुनियादी तौर पर यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि लिंग के रूप में पुंसवादी नजरिए की आलोचना का यह अर्थ नहीं निकालना चाहिए कि मर्द को स्त्री का शत्रु घोषित कर दिया जाए। पुरूष को शत्रु घोषित करने वाली मानसिकता मूलत: मर्दवाद के प्रत्युत्तर में पैदा हुआ 'स्त्रीवादी आतंकवाद' है। इसके दृष्टिकोण से मर्द केन्द्रीय समस्या है।अत: उसे बिना शर्त्त स्त्री के आगे आत्मसमर्पण कर देना चाहिए। आतंकवादी नजरिया लिंगाधारित ध्रुवीकरण करता है ,यह दृष्टिकोण अंतत: ऐसी स्थिति पैदा करता है कि मर्द या तो स्त्रीवाद की उपेक्षा करे या स्त्रीवाद पर हमला करे। इस दृष्टिकोण के शिकार लोग एक-दूसरे पर हमला बोलते रहते हैं। इससे स्त्री को कोई लाभ नहीं मिलता। 'हंस' के सम्पादकीय इस तरह के नजरिए से भरे पड़े हैं।
असल में 'स्त्रीवादी आतंकवाद' मर्दवाद का विलोम है। यह विभाजनकारी नजरिया है। समग्रता में स्त्रीवादी आतंकवादी नजरिए से स्त्री को कोई लाभ नहीं मिलता, समाज में मर्द के प्रभुत्व में कोई कमी नहीं आती। उलटे स्त्रीवाद के प्रति संशय पैदा करता है, स्त्री के सामाजिक और बौध्दिक स्पेस को संकुचित करता है।
स्त्रीवाद आस्था नही है,बल्कि स्त्री-सत्य की खोज का मार्ग है। अकादमिक जगत में स्त्रीवाद को जब तक पढ़ाया नहीं जाएगा उसका ज्ञानात्मक प्रसार नहीं होगा। शिक्षकों का काम है स्त्रीवाद की शिक्षा देना न कि स्त्रीवाद पैदा करना। स्त्रीवाद के पक्ष में जो लोग लिखते हैं उन्हें अपने लिखे की आलोचना को विनम्रतापूर्वक ग्रहण करना चाहिए और उसकी रोशनी में अपने विचारों को और भी ज्यादा सुसंगत बनाने की कोशिश करनी चाहिए। यह देखा गया है कि जब भी किसी स्त्रीवादी विचारक की आलोचना हुई है उसने इसे स्त्रीवाद पर हमला घोषित किया है। यह रवैयया सही नहीं है।स्त्रीवाद के बारे में की गई आलोचना वैचारिक विकास की प्रक्रिया का अंग है उसे विनम्रतापूर्वक स्वीकार किया जाना चाहिए। स्त्रीवादी साहित्यालोचना का अकादमिक जगत में प्रवेश तब ही संभव है जब उसे आस्था के रूप में पेश करने की बजाय नए परिवर्तनकामी विचार के रूप में पेश किया जाये।
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हिन्दी में स्त्री शास्त्र निर्मित क्यों नहीं हो पाया ? हिन्दी वाला 'फेमिनिज्म' अथवा 'स्त्रीवाद' पदबंध के प्रयोग से इतना भागता क्यों है ? हिन्दी में कोई फेमिनिस्ट पैदा क्यों नहीं हुआ ? हिन्दी विभागों में अरस्तू से लेकर मार्क्सवाद तक सभी सिद्धान्त पढाए जाएंगे लेकिन स्त्रीवाद नहीं पढाया जाता,ऐसा क्या है जो स्त्रीवाद का नाम सुनते ही हिन्दी वाले की हवा निकल जाती है। स्त्री के सवाल तब ही क्यों उठते हैं जब उस पर जुल्म होता है ? हिन्दी में स्त्री लेखिकाओं की लंबी परंपरा के बावजूद स्वतंत्र रूप से 'स्त्री साहित्य' पदबंध अभी भी लोकप्रिय नहीं है, आलोचना और इतिहास की किताबों से लेकर दैनन्दिन साहित्य विमर्श में स्वतंत्र रूप से 'स्त्री साहित्य' की केटेगरी को अभी तक स्वीकृति नहीं मिली है। हमारी ज्यादातर साहित्यिक पत्रिकाएं 'स्त्री साहित्य' केटेगरी को स्वतंत्र रूप में महत्व नहीं देतीं बल्कि साहित्य की केटेगरी के तहत 'स्त्री साहित्य' को समाहित करके चर्चा करते हैं। और वे जब ऐसा करते हैं तो सीधे स्त्री की स्वतंत्र पहचान का अपहरण करते हैं। जाने-अनजाने स्त्री साहित्य की प्रतिष्ठा की बजाय उसकी पहचान को लेकर विभ्रम पैदा करते हैं। हिन्दी की अधिकांश स्त्री लेखिकाएं महिला आन्दोलन से दूर हैं और फेमिनिज्म को एकसिरे से अपने नजरिए का हिस्सा नहीं मानतीं। हिन्दी के किसी भी प्रतिष्ठित आलोचक ने स्त्रीवादी साहित्यालोचना पर एक भी शटद क्यों नहीं लिखा ?
स्त्री साहित्य के सवाल हाशिए के सवाल नहीं हैं। स्त्री जीवन के केन्द्रीय सवाल हैं। स्त्री-विमर्श खाली समय या आनंद के समय का विमर्श नहीं है। हिन्दी में स्त्री साहित्य और उसकी सैध्दान्तिकी अभी भी अकादमिक जगत में प्रवेश नहीं कर पायी है। साहित्यिक पत्रिकाओं के स्त्री विमर्श लेखक जाने-अनजाने मांग और पूर्ति के मायावी तर्कजाल में कैद हैं।
स्त्री साहित्य या स्त्री विमर्श में प्रयुक्त धारणाओं का सही नाम और सही संदर्भ में इस्तेमाल नहीं हो रहा। स्त्री से जुड़ी धारणाओं की मनमानी व्याख्याएं पेश की जा रही हैं। स्त्री साहित्य के मूल्यांकन के संदर्भ में सबसे बड़ी चुनौती है अवधारणाओं की सही समझ की। हिन्दी साहित्य विमर्श में अवधारणाओं में सोचने की परंपरा का निरंतर ह्रास हो रहा है।
अंग्रेजी साहित्य में स्त्रीवादी साहित्यालोचना बेहद जनप्रिय पदबंध है। किन्तु हिन्दी में यह उतना जनप्रिय नहीं है। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि हिन्दी के समीक्षकों को इस पदबंध में कोई आकर्षण नजर नहीं आता। इसके अलावा हिन्दी में साहित्यिक पत्रिकाओं में जो संपादक स्त्री साहित्य के पक्षधर के रूप में नजर आते हैं वे भी इस पदबंध का प्रयोग नहीं करते।
साहित्यालोचना की परंपरा प्रत्येक समाज में बड़ी पुरानी है अत: स्त्रीवादी साहित्यालोचना हमेशा अन्य से ग्रहण करके ही अपना विकास करती है, इसमें अन्य के विचारों के प्रति तिरस्कार का भाव नहीं है। यह अन्य के विचारों को वहां तक आत्मसात् करने के लिए तैयार है जहां तक वे स्त्री के हितों ,भावों,जीवन मूल्यों और यथार्थ को विकसित करने में सहायता करते हैं। स्त्रीवादी साहित्यालोचना की पूर्ववर्ती साहित्यालोचना के स्कूलों से इस अर्थ में भिन्नता है कि वे एकायामी थे। जबकि स्त्रीवादी साहित्यालोचना बहुआयामी है। वैविध्यपूर्ण है।यह समाज के किसी एक संस्थान को सम्बोधित करने की बजाय समाज के विभिन्न संस्थानों को सम्बोधित करती है। स्त्रीवादी साहित्यालोचना ने आलोचना के स्कूलों की गंभीर आलोचना के साथ साथ समाज और साहित्य के प्रति आलोचना में नए तत्वों,अवधारणाओं और समझ का भी विकास किया है।
स्त्रीवादी साहित्यालोचना का लक्ष्य है समाज में पुंसवादी प्रभुत्व की समाप्ति करना। पुंसवादी संस्कृति की संरचना को ध्वस्त करना। संस्कृति की संरचनाओं कलाएं ,धर्म ,कानून ,एकल परिवार , पिता और राष्ट्र-राज्य के असीमित अधिकार आते हैं,वे सभी इमेज,संस्थाएं,संस्कार और आदतें आती हैं जो यह बताती हैं कि औरत किसी काम की नहीं होती,अर्थहीन है,अदृश्य है।माया है।
स्त्रीवादी साहित्यालोचना के इस लक्ष्य को हासिल करने का हिन्दुस्तान में क्या तरीका हो सकता है ? इसके बारे में एक जैसी रणनीति अपनाना संभव नहीं है। हिन्दुस्तान में सामाजिक वैविध्य और स्त्रीचेतना के अनेक स्तरों को मद्देनजर रखते हुए संवाद और संघर्ष के रास्ते पर साथ-साथ चलना होगा। इस क्रम में त्याग और ग्रहण की पध्दति अपनानी होगी।
स्त्रीवादी साहित्यालोचना को प्रचलित साहित्यालोचना में कुछ हेरफेर करने बाद निर्मित नहीं किया जा सकता। इसके लिए समाज के प्रति बुनियादी रवैयया बदलना होगा। परंपरागत दृष्टियों को ऊपरी फेरबदल के साथ स्त्रीवादी हितों के पक्ष में रूपान्तरित नहीं किया जा सकता। स्त्रीवादी साहित्यालोचना क्रांतिकारी साहित्यालोचना है उसका लक्ष्य है प्रचलित और प्रभुत्व बनाकर बैठे आलोचना स्कूलों को चुनौती देना, उन्हें अपदस्थ करना। प्रभुत्ववादी विमर्शों को चुनौती देना, उन्हें अपदस्थ करना।सभी किस्म के विमर्शों में स्त्रीवादी नजरिए से हस्तक्षेप करना। स्त्रीवादी साहित्यालोचना की हिमायत करना,उसे विस्तार देने का काम सिर्फ औरतों का ही नहीं है बल्कि इसमें पुरूषों को भी शामिल किया जाना चाहिए। स्त्री का संघर्ष सिर्फ स्त्री का नहीं उसमें पुरूषों की भी समान हिस्सेदारी होनी चाहिए।
स्त्रीवादी साहित्यालोचना में मर्दवादी नजरिए से यदि पुरूष समीक्षक दाखिल होते हैं तो वे स्त्रीवादी साहित्यालोचना का विकास नहीं कर सकते ,ऐसे समीक्षकों को स्त्रीवादी समीक्षक कहना मुश्किल है।हिन्दी में यह फैशन चल निकला है कि अब हरेक मर्दवादी समीक्षक स्त्री विषय पर हाथ भांज रहा है। हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाओं में इस तरह के फैशनपरस्त या जिज्ञासु आलोचकों में अनेक मर्द संपादक और आलोचक हैं। स्त्रीवादी साहित्यालोचना का विकास मर्द समीक्षकों द्वारा फैशन ,सहानुभूति या जिज्ञासा के आधार पर नहीं किया जा सकता।बल्कि इसके लिए क्रांतिकारी रवैयये की जरूरत है।अभी तक जिन मर्दों ने स्त्रीवादी साहित्यालोचना में योगदान किया है उनका किसी न किसी रूप में क्रांतिकारी संघर्षों, क्रांतिकारी विमर्श,आमूल परिवर्तनकामी आलोचना परंपरा से संबंध रहा है।ये लोग स्त्रीवादी नजरिए के परिवर्तनकामी रूझानों के पक्षधर रहे हैं। वे मानते हैं कि स्त्रीवादी नजरिया प्रत्येक किस्म के उत्पीडन,शोषण,अन्याय आदि का सख्त विरोधी है।जिन पुरूषों ने स्त्रीवादी साहित्यालोचना के पक्ष में लिखा है उनमें प्रतिबध्दता का गहरा भाव रहा है। उन्होंने जिज्ञासावश नहीं लिखा।
हिन्दी में स्त्री आलोचना में जो मर्द दाखिल हो रहे हैं वे फैशन के नाम पर आ रहे हैं ,उनका साहित्य के क्रांतिकारी विमर्श,समाज के क्रांतिकारी संघर्षों और विचारधाराओं से कोई संबंध नहीं है। ऐसे मर्द समीक्षकों को स्त्रीवादी विमर्श अपना अंग नहीं मानता। स्त्रीवादी साहित्यालोचना के अंदर स्त्रियां उन्हीं पुरूषों को स्वीकार करने को तैयार हैं जो स्त्री के अधिकारों और स्त्रीवादी नजरिए के प्रति पूरी तरह प्रतिबध्द हैं ,आमूल सामाजिक परिवर्तन के पक्षधर हैं। स्त्रीवादी साहित्यालोचना को सैध्दान्तिक तौर पर वे मर्द स्वीकार्य हैं जो सिध्दान्तत: लिंग को आधार बनाकर समीक्षा का विकास कर रहे हों।स्त्री के अनुभवों को स्त्री के नजरिए से देखते हैं।
हिन्दी में स्त्री के सवालों, समस्याओं, अनुभूति आदि को आलोचक मर्दवादी नजरिए से देखते हैं, इस तरह के लेखन की इन दिनों हिन्दी में बाढ़ आई हुई है। आज सारी दुनिया में स्त्रीवादी साहित्यालोचना के योगदान की कोई अनदेखी नहीं कर सकता। किन्तु हिन्दी में साहित्य सैध्दान्तिकी में स्त्रीवादी सैध्दान्तिकी का अध्ययन नहीं कराया जाता। स्त्रीवादी साहित्यालोचना पर विचार करते समय बुनियादी तौर पर यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि लिंग के रूप में पुंसवादी नजरिए की आलोचना का यह अर्थ नहीं निकालना चाहिए कि मर्द को स्त्री का शत्रु घोषित कर दिया जाए। पुरूष को शत्रु घोषित करने वाली मानसिकता मूलत: मर्दवाद के प्रत्युत्तर में पैदा हुआ 'स्त्रीवादी आतंकवाद' है। इसके दृष्टिकोण से मर्द केन्द्रीय समस्या है।अत: उसे बिना शर्त्त स्त्री के आगे आत्मसमर्पण कर देना चाहिए। आतंकवादी नजरिया लिंगाधारित ध्रुवीकरण करता है ,यह दृष्टिकोण अंतत: ऐसी स्थिति पैदा करता है कि मर्द या तो स्त्रीवाद की उपेक्षा करे या स्त्रीवाद पर हमला करे। इस दृष्टिकोण के शिकार लोग एक-दूसरे पर हमला बोलते रहते हैं। इससे स्त्री को कोई लाभ नहीं मिलता। 'हंस' के सम्पादकीय इस तरह के नजरिए से भरे पड़े हैं।
असल में 'स्त्रीवादी आतंकवाद' मर्दवाद का विलोम है। यह विभाजनकारी नजरिया है। समग्रता में स्त्रीवादी आतंकवादी नजरिए से स्त्री को कोई लाभ नहीं मिलता, समाज में मर्द के प्रभुत्व में कोई कमी नहीं आती। उलटे स्त्रीवाद के प्रति संशय पैदा करता है, स्त्री के सामाजिक और बौध्दिक स्पेस को संकुचित करता है।
स्त्रीवाद आस्था नही है,बल्कि स्त्री-सत्य की खोज का मार्ग है। अकादमिक जगत में स्त्रीवाद को जब तक पढ़ाया नहीं जाएगा उसका ज्ञानात्मक प्रसार नहीं होगा। शिक्षकों का काम है स्त्रीवाद की शिक्षा देना न कि स्त्रीवाद पैदा करना। स्त्रीवाद के पक्ष में जो लोग लिखते हैं उन्हें अपने लिखे की आलोचना को विनम्रतापूर्वक ग्रहण करना चाहिए और उसकी रोशनी में अपने विचारों को और भी ज्यादा सुसंगत बनाने की कोशिश करनी चाहिए। यह देखा गया है कि जब भी किसी स्त्रीवादी विचारक की आलोचना हुई है उसने इसे स्त्रीवाद पर हमला घोषित किया है। यह रवैयया सही नहीं है।स्त्रीवाद के बारे में की गई आलोचना वैचारिक विकास की प्रक्रिया का अंग है उसे विनम्रतापूर्वक स्वीकार किया जाना चाहिए। स्त्रीवादी साहित्यालोचना का अकादमिक जगत में प्रवेश तब ही संभव है जब उसे आस्था के रूप में पेश करने की बजाय नए परिवर्तनकामी विचार के रूप में पेश किया जाये।
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गुरुवार, 27 अगस्त 2009
कंधहार फैसले में क्या आरएसएस शामिल था ?
भूतपूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ब्रजेश मिश्रा ने आज एक निजी टेलीविजन को साक्षात्कार में जो कुछ कहा है वह हमारे देश के लिए शर्म की बात है और कम से कम भाजपा के नेतृत्व के लिए यह सीधे देश के खिलाफ विश्वासघात का मामला बनता है। कंधहार प्रकरण के तथ्य धीरे -धीरे सामने आ रहे हैं और बड़े ही पुख्ता तरीके से पेश किए जा रहे हैं, सवाल यह है ब्रजेश मिश्रा साहब ने ये सभी बातें उसी समय देश के सामने क्यों नहीं रखीं ? वे कौन सी मजबूरियां थीं जिनके चलते उनका अब तक मुंह बंद था और अचानक अब उनको सत्य बोलने की जरूरत पड़ रही है ? यही सवाल जसवंत सिंह जी से भी पूछा जाना चाहिए कि उन्होंने जिस समय कंधहार मसले पर फैसला लिया था और आज जब इतने दिनों बाद उस पर रोशनी डाल रहे हैं तो क्या 'सुरक्षा केबीनेट कमेटी' का फैसला सही था या गलत ? क्या इस तरह का फैसला जब लिया गया और जेल में बंद आतंकियों को लेकर वे जब कंधहार गए थे तब क्या उन्होंने भारत के संविधान की रक्षा की थी ? आज रहस्योदघाटन करके वे क्या गोपनीयता भंग नहीं कर रहे ? यदि नहीं तो उसी समय देश की जनता को क्यों नहीं बताया ? क्या यह फैसला आरएसएस की सहमति से लिया गया था ? यह एक खुला सच है कि आरएसएस से अनुमति लिए बगैर कभी भी कोई बड़ा राजनीतिक फैसला तत्कालीन एनडीए सरकार ने नहीं लिया। आरएसएस के पक्के कार्यकर्त्ता केबीनेट के फैसलों पर कडी नजर रखे थे,जब 'सुरक्षा केबीनेट कमेटी' ने कंधहार प्रसंग में आतंकवादी छोडने का निर्णय लिया था तब संघ परिवार के संगठनों की क्या राय थी ? खासकर संघ प्रमुख के क्या विचार थे ? संघ के नेताओं को जब मालूम पडा तब उनकी राट्रभक्ति कहां थी ? असल में कंधहार मसले पर जो भी फैसला लिया गया उसे केबीनेट मंत्रियों के अलावा संघ प्रमुख जानते थे और उनसे अनुमति या र्निदेश जो भी कहें, मिलने के बाद आतंकवादियों को छोडने का फैसला हुआ था, संघ प्रमुख की इस प्रसंग में अब तक चुप्पी बहुत कुछ संदेश दे रही है। क्या आज भारत सरकार गोपनीयता को राष्ट्रहित में भूलकर 'सुरक्षा केबीनेट कमेटी' के मिनट्स आम जनता के हित में उजागर करेगी ?, क्या वर्तमान केन्द्र सरकार पुरानी सरकार के फैसले को सही मानती है ? इस प्रसंग में उन अफसरों और स्टेनोग्राफर को भी अपना बयान देना चाहिए जो उस मीटिंग में मौजूद था। आखिरकार वह मिडिलमैन कौन था जिसने यह सौदा पटाया ? क्या अपहृत यात्रियों को छुडाने के लिए मोटी रकम भी दी गयी थी ? क्योंकि अभी तक कोई सच नहीं बता रहा, सच छन छनकर काफी धीमी गति से आ रहा है और यह सीधे राजद्रोह का मामला बनता है ? मंत्री के नाते संविधान और गोपनीयता भंग का मामला बनता है। इसके बारे में कानूनी प्रावधान हैं उनके आधार पर कानूनी कार्रवाई करने के बारे में केन्द्र सरकार को कानूनविदों से सलाह मशाविरा करना चाहिए।
पोर्न विरोधी घोषणापत्र- मानवता का अपमान है पोर्न
इंटरनेट आने के बाद पोर्नोग्राफी का कारोबार बढा है। पहले पोर्न को लेकर शर्म आती थी अब पोर्न निर्भय होकर हमारे घर में घुस आया है। पोर्न के कारोबार में बड़े कारपोरेट घराने शामिल हैं,वे बड़ी निर्लज्जता के साथ पोर्न का धडल्ले से धंधा कर रहे हैं, सरकारी और निजी क्षेत्र की संचार कंपनियां पोर्न से अरबों डालर कमा रही हैं। जब से इंटरनेट आया है और ब्रॉडबैण्ड का कनेक्न आया है तब से हमारी केन्द्र सरकार भी जाने-अनजाने पोर्न का हिस्सा हो गयी है,प्लास्टिक मनी के प्रचलन में आने के बाद हमारी राष्ट्रीयकृत बैंक भी पोर्न की कमाई में शामिल हो चुकी हैं। आज पोर्न सबसे ज्यादा देखा जा रहा है और सबसे कम उस पर बातें हो रही हैं।
भारतीय समाज की विशेषता है कि वह जिन सामाजिक बीमारियों का शिकार है उनके बारे में कभी भी गंभीरता के साथ चर्चा नहीं करता। इंटरनेट आने के बाद पोर्न का जितना तेज गति से विकास हुआ है उतनी तेज गति से किसी भी चीज का विकास नहीं हुआ। पोर्न ने हमारे सामाजिक जीवन में खासकर युवाओं के जीवन में जिस तरह का हस्तक्षेप और दखल शुरू किया है उसे यदि अभी तत्काल नहीं रोका गया तो भारतीय समाज की शक्ल पहचानने में नहीं आएगी।
हमारे देश में बड़े बड़े विद्वान हैं,बुद्धिजीवी हैं,पत्रकार हैं,लेखक हैं, लेखकों, संस्कृतिकर्मियों के संगठन भी हैं लेकिन किसी भी कोने से पोर्न के खिलाफ स्वर सुनाई नहीं पड़ रहा। समाज के जागरूक लोगों की चुप्पी भय पैदा कर रही है। जागरूक लोगों की पोर्न के खिलाफ चुप्पी टूटनी चाहिए। पोर्न पर पाबंदी लगाने के लिए केन्द्र सरकार पर राजनीतिक और सामाजिक दबाव पैदा किया जाना चाहिए कि वह तुरंत पोर्न के प्रसारण पर रोक लगाए ,सभी सर्वर मालिकों से कहा जाए कि वे भारत में पोर्न का प्रसारण न करें। जितने भी सर्वर पोर्न का प्रसारण करते हैं उन्हें भारत सरकार तुरंत बाधित करे,पोर्न देखना, दिखाना और प्रसारित करना गंभीर अपराध घोषित किया जाए।
पोर्न के खिलाफ केन्द्र और राज्य सरकारों का सक्रिय होना बेहद जरूरी है। साथ ही राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक धरातल पर पोर्न के खिलाफ दबाव पैदा करने की जरूरत है।
पोर्न कोई ऐसी चीज नहीं है जिसका असर नहीं होता,पोर्न सबसे प्रभावशाली अस्त्र है किसी भी समाज को अपाहिज बनाने का। पोर्न मूलत: मर्दवाद का विचारधारात्मक अस्त्र है,औरतों के लिए संक्रामक रोग है, पोर्न का प्रसार औरतों के प्रति संवेदनहीन बनाता है। औरतों को निहत्था और जुल्म का प्रमुख लक्ष्य भी बनता है। औरतों को बचाना है तो पोर्न पर पाबंदी जरूरी है, युवाओं और तरूणों को सुंदर भविष्य के हाथों में सौंपना है तो पोर्न के खिलाफ पाबंदी जरूरी है।
पोर्न का कारोबार बहुराष्ट्रीय मीडिया कारपोरेट के मुनाफे की खान है,पोर्न जनता के लिए मीठा जहर है। पोर्न एक तरह से स्त्री को अधिकारहीन बनाने का अस्त्र है। औरतों को भेदभाव और शोषण के खिलाफ जंग करने के अधिकार से वंचित करता है। पोर्नोग्राफी का निर्माण एवं प्रसार लिंगभेद और स्त्री शोषण को वैधता प्रदान करता है। पोर्नोग्राफी स्त्री पर किया गया प्रत्यक्ष हमला है। मर्द के द्वारा पोर्न का इस्तेमाल उसे यह शिक्षा देता है कि औरत समर्पण के लिए बनी है।पोर्न पुरूष में कामुक उत्तेजना पैदा करता है और स्त्री के मातहत रूप को सम्प्रेषित करता है। पोर्न यह संदेश भी देता है कि औरत को पैसे के लिए बेचा जा सकता है।मुनाफा कमाने के लिए मजबूर किया जा सकता है।स्त्री का शरीर प्राणहीन होता है।उसके साथ खेला जा सकता है।बलात्कार किया जा सकता है।उसे वस्तु बनाया जा सकता है।उसे क्षतिग्रस्त किया जा सकता है।हासिल किया जा सकता है।पास रखा जा सकता है। असल में पोर्नोग्राफी संस्कार बनाती है,स्त्री के प्रति नजरिया बनाती है। यह पुरूष के स्त्री पर वर्चस्व को बनाए रखने का अस्त्र है।
पोर्न का प्रसारण अभिव्यक्ति की आजादी का दुरूपयोग है और समूचे समाज को नरक कुंड में डुबो देने की घृणिततम साजिश है। पोर्न का लक्ष्य अभिव्यक्ति की आजादी नहीं है बल्कि उसका असली निशाना है औरत को गुलाम बनाना। युवाओं की ऐसी फौज तैयार करना जो औरत के खिलाफ मर्दवादी मूल्यों से लैस हो, औरत पर होने वाले हमलों के समय मूकदर्शक ही नहीं रहे बल्कि युवावर्ग बढ-चढकर औरत पर हमले करे, औरतों को निशाना बनाए,उनका शिकार करे।पोर्न औरत के जीने के अधिकार के खिलाफ की गई कार्रवाई है। पोर्न के प्रसार का अर्थ औरत की स्वतंत्रता और स्वायत्तता की विदाई है। एक मनुष्य के रूप में स्त्री की गरिमा और मान-मर्यादा के आधुनिक रूपों,मूल्यों और संस्कारों का खात्मा है। पोर्न मूलत: स्त्री के खिलाफ हमला है।
पोर्नोग्राफी ने पुरूष फैंटेसी के जरिए औरतों के खिलाफ हिंसाचार को बढावा दिया है। बलात्कार का महिमामंडन किया है। पोर्न पुंस फैंटेसी का महिमामंडन है। पोर्न इस मिथ का महिमामंडन है कि स्त्री चाहती है उसके साथ गुप्त रूप में बलात्कार किया जाए। बलात्कारी पुरूष यह मानने लगता है कि उसका बलात्कारी व्यवहार संस्कृति के वैध नियमों के तहत आता है। पोर्न का मानवीय विवेक पर सीधे हमला होता है। पोर्न एक लत है और अनेक किस्म की गंभीर सामाजिक बीमारियों का स्रोत है।
पोर्नोग्राफी स्त्री को चुप करा देती है।मातहत बनाती है।पोर्नोग्राफी असल में शब्दऔर इमेज का एक्शन है।यहां एक्शन को चित्रों और शब्दों के जरिए सम्पन्न किया जाता है।इसका देखने वाले पर असर होता है। मसलन् किसी पोर्नोग्राफी की अंतर्वस्तु में काम-क्रिया व्यापार को जब दरशाया जाता है तो इससे दर्शक में खास किस्म के भावों की सृष्टि होती है। स्त्री के प्रति संस्कार बन रहा होता है।आम तौर पर पोर्न में स्त्री और सेक्स इन दो चीजों के चित्रण पर जोर होता है। इन दोनों के ही चित्रण का लक्ष्य है स्त्री को मातहत बनाना। उसके प्रति गुलामी का बोध पैदा करना।
पोर्न के संदेश को उसके चित्र,भाषा,इमेज के परे जाकर ही समझा जा सकता है। इसमें प्रच्छन्नत: खास तरह की भाषा और काम क्रियाओं का रूपायन किया जाता है। पोर्न की वैचारिक शक्ति इतनी प्रबल होती है कि वह आलोचक की जुबान बंद कर देती है।
जिस तरह चीन ने कानून बनाकर समस्त किस्म की इंटरनेट पोर्न सामग्री को प्रसारित होने से रोका है और पोर्न के खिलाफ जेहाद छेडा हुआ है ठीक वैसा ही जेहाद हमारे यहां भी आरंभ किया जाना चाहिए। पोर्न के खिलाफ लेखकों,बुद्धिजीवियों और संस्कृतिकर्मियों को खासतौर पर अपनी आवाज बुलंद करनी चाहिए ,सभी दलों के सांसदों के द्वारा भारत सरकार पर यह दबाव डालना चाहिए कि पोर्न का प्रसारण तत्काल बंद किया जाए। इसके आरंभिक चरण के तौर पर प्रत्येक स्तर पर पोर्न पर पाबंदी के लिए हस्ताक्षर अभियान चलाया जाना चाहिए। पंचायत से लेकर संसद तक,गलियों से लेकर ब्लाग लेखन के स्तर पर प्रत्येक व्यक्ति को पोर्न के बारे में लिखना चाहिए और पोर्न के खिलाफ माहौल बनाना चाहिए।
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भारतीय समाज की विशेषता है कि वह जिन सामाजिक बीमारियों का शिकार है उनके बारे में कभी भी गंभीरता के साथ चर्चा नहीं करता। इंटरनेट आने के बाद पोर्न का जितना तेज गति से विकास हुआ है उतनी तेज गति से किसी भी चीज का विकास नहीं हुआ। पोर्न ने हमारे सामाजिक जीवन में खासकर युवाओं के जीवन में जिस तरह का हस्तक्षेप और दखल शुरू किया है उसे यदि अभी तत्काल नहीं रोका गया तो भारतीय समाज की शक्ल पहचानने में नहीं आएगी।
हमारे देश में बड़े बड़े विद्वान हैं,बुद्धिजीवी हैं,पत्रकार हैं,लेखक हैं, लेखकों, संस्कृतिकर्मियों के संगठन भी हैं लेकिन किसी भी कोने से पोर्न के खिलाफ स्वर सुनाई नहीं पड़ रहा। समाज के जागरूक लोगों की चुप्पी भय पैदा कर रही है। जागरूक लोगों की पोर्न के खिलाफ चुप्पी टूटनी चाहिए। पोर्न पर पाबंदी लगाने के लिए केन्द्र सरकार पर राजनीतिक और सामाजिक दबाव पैदा किया जाना चाहिए कि वह तुरंत पोर्न के प्रसारण पर रोक लगाए ,सभी सर्वर मालिकों से कहा जाए कि वे भारत में पोर्न का प्रसारण न करें। जितने भी सर्वर पोर्न का प्रसारण करते हैं उन्हें भारत सरकार तुरंत बाधित करे,पोर्न देखना, दिखाना और प्रसारित करना गंभीर अपराध घोषित किया जाए।
पोर्न के खिलाफ केन्द्र और राज्य सरकारों का सक्रिय होना बेहद जरूरी है। साथ ही राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक धरातल पर पोर्न के खिलाफ दबाव पैदा करने की जरूरत है।
पोर्न कोई ऐसी चीज नहीं है जिसका असर नहीं होता,पोर्न सबसे प्रभावशाली अस्त्र है किसी भी समाज को अपाहिज बनाने का। पोर्न मूलत: मर्दवाद का विचारधारात्मक अस्त्र है,औरतों के लिए संक्रामक रोग है, पोर्न का प्रसार औरतों के प्रति संवेदनहीन बनाता है। औरतों को निहत्था और जुल्म का प्रमुख लक्ष्य भी बनता है। औरतों को बचाना है तो पोर्न पर पाबंदी जरूरी है, युवाओं और तरूणों को सुंदर भविष्य के हाथों में सौंपना है तो पोर्न के खिलाफ पाबंदी जरूरी है।
पोर्न का कारोबार बहुराष्ट्रीय मीडिया कारपोरेट के मुनाफे की खान है,पोर्न जनता के लिए मीठा जहर है। पोर्न एक तरह से स्त्री को अधिकारहीन बनाने का अस्त्र है। औरतों को भेदभाव और शोषण के खिलाफ जंग करने के अधिकार से वंचित करता है। पोर्नोग्राफी का निर्माण एवं प्रसार लिंगभेद और स्त्री शोषण को वैधता प्रदान करता है। पोर्नोग्राफी स्त्री पर किया गया प्रत्यक्ष हमला है। मर्द के द्वारा पोर्न का इस्तेमाल उसे यह शिक्षा देता है कि औरत समर्पण के लिए बनी है।पोर्न पुरूष में कामुक उत्तेजना पैदा करता है और स्त्री के मातहत रूप को सम्प्रेषित करता है। पोर्न यह संदेश भी देता है कि औरत को पैसे के लिए बेचा जा सकता है।मुनाफा कमाने के लिए मजबूर किया जा सकता है।स्त्री का शरीर प्राणहीन होता है।उसके साथ खेला जा सकता है।बलात्कार किया जा सकता है।उसे वस्तु बनाया जा सकता है।उसे क्षतिग्रस्त किया जा सकता है।हासिल किया जा सकता है।पास रखा जा सकता है। असल में पोर्नोग्राफी संस्कार बनाती है,स्त्री के प्रति नजरिया बनाती है। यह पुरूष के स्त्री पर वर्चस्व को बनाए रखने का अस्त्र है।
पोर्न का प्रसारण अभिव्यक्ति की आजादी का दुरूपयोग है और समूचे समाज को नरक कुंड में डुबो देने की घृणिततम साजिश है। पोर्न का लक्ष्य अभिव्यक्ति की आजादी नहीं है बल्कि उसका असली निशाना है औरत को गुलाम बनाना। युवाओं की ऐसी फौज तैयार करना जो औरत के खिलाफ मर्दवादी मूल्यों से लैस हो, औरत पर होने वाले हमलों के समय मूकदर्शक ही नहीं रहे बल्कि युवावर्ग बढ-चढकर औरत पर हमले करे, औरतों को निशाना बनाए,उनका शिकार करे।पोर्न औरत के जीने के अधिकार के खिलाफ की गई कार्रवाई है। पोर्न के प्रसार का अर्थ औरत की स्वतंत्रता और स्वायत्तता की विदाई है। एक मनुष्य के रूप में स्त्री की गरिमा और मान-मर्यादा के आधुनिक रूपों,मूल्यों और संस्कारों का खात्मा है। पोर्न मूलत: स्त्री के खिलाफ हमला है।
पोर्नोग्राफी ने पुरूष फैंटेसी के जरिए औरतों के खिलाफ हिंसाचार को बढावा दिया है। बलात्कार का महिमामंडन किया है। पोर्न पुंस फैंटेसी का महिमामंडन है। पोर्न इस मिथ का महिमामंडन है कि स्त्री चाहती है उसके साथ गुप्त रूप में बलात्कार किया जाए। बलात्कारी पुरूष यह मानने लगता है कि उसका बलात्कारी व्यवहार संस्कृति के वैध नियमों के तहत आता है। पोर्न का मानवीय विवेक पर सीधे हमला होता है। पोर्न एक लत है और अनेक किस्म की गंभीर सामाजिक बीमारियों का स्रोत है।
पोर्नोग्राफी स्त्री को चुप करा देती है।मातहत बनाती है।पोर्नोग्राफी असल में शब्दऔर इमेज का एक्शन है।यहां एक्शन को चित्रों और शब्दों के जरिए सम्पन्न किया जाता है।इसका देखने वाले पर असर होता है। मसलन् किसी पोर्नोग्राफी की अंतर्वस्तु में काम-क्रिया व्यापार को जब दरशाया जाता है तो इससे दर्शक में खास किस्म के भावों की सृष्टि होती है। स्त्री के प्रति संस्कार बन रहा होता है।आम तौर पर पोर्न में स्त्री और सेक्स इन दो चीजों के चित्रण पर जोर होता है। इन दोनों के ही चित्रण का लक्ष्य है स्त्री को मातहत बनाना। उसके प्रति गुलामी का बोध पैदा करना।
पोर्न के संदेश को उसके चित्र,भाषा,इमेज के परे जाकर ही समझा जा सकता है। इसमें प्रच्छन्नत: खास तरह की भाषा और काम क्रियाओं का रूपायन किया जाता है। पोर्न की वैचारिक शक्ति इतनी प्रबल होती है कि वह आलोचक की जुबान बंद कर देती है।
जिस तरह चीन ने कानून बनाकर समस्त किस्म की इंटरनेट पोर्न सामग्री को प्रसारित होने से रोका है और पोर्न के खिलाफ जेहाद छेडा हुआ है ठीक वैसा ही जेहाद हमारे यहां भी आरंभ किया जाना चाहिए। पोर्न के खिलाफ लेखकों,बुद्धिजीवियों और संस्कृतिकर्मियों को खासतौर पर अपनी आवाज बुलंद करनी चाहिए ,सभी दलों के सांसदों के द्वारा भारत सरकार पर यह दबाव डालना चाहिए कि पोर्न का प्रसारण तत्काल बंद किया जाए। इसके आरंभिक चरण के तौर पर प्रत्येक स्तर पर पोर्न पर पाबंदी के लिए हस्ताक्षर अभियान चलाया जाना चाहिए। पंचायत से लेकर संसद तक,गलियों से लेकर ब्लाग लेखन के स्तर पर प्रत्येक व्यक्ति को पोर्न के बारे में लिखना चाहिए और पोर्न के खिलाफ माहौल बनाना चाहिए।
( deskaal.com पर भी देखें )
बुधवार, 26 अगस्त 2009
राजनीतिक असभ्यता का गोमुख कहां है ?
भारत में इन दिनों राजनीतिक असभ्यता की बाढ़ आयी हुई है, असभ्यता किसी एक दल की बपौती नहीं है, इस पर उन सबका समान हक है जिनका सभ्यता पर हक है। जो सभ्य होते हैं वे ही असभ्यता भी करते हैं। आखिरकार राजनीतिक असभ्यता पैदा क्यों होती है ? इसका स्रोत कहां है ? जसवंत सिंह को भाजपा से निकाल दिया गया क्योंकि उन्होंने अपनी किताब में जिन्ना की वकालत की थी, मैं भाजपा के द्वारा पारित अब तक के सभी राजनीतिक प्रस्ताव देख गया मुझे कहीं पर भी एक भी प्रस्ताव नहीं मिला जहां भाजपा ने जिन्ना के बारे में अथवा भारत विभाजन के बारे में पार्टी नजरिए का प्रतिपादन किया हो, कृपया भाजपा उन प्रस्तावों को सार्वजनिक करे जो जिन्ना और भारत विभाजन के सवाल पर उसने कभी पास किए थे।
जिन्ना,पाकिस्तान,भारत-विभाजन आदि मसलों पर आरएसएस के सरसंघचालक की लिखी किताबें जरूर मिलती हैं,जहां पर संघ का नजरिया व्यक्त किया गया है, किंतु भाजपा ने कभी भी इन मसलों पर कोई प्रस्ताव पारित नहीं किया। भाजपा की स्थापना के साथ जो प्रस्ताव पारित किए गए थे वे भी इन दोनों मसलों पर कोई रोशनी नहीं डालते। सवाल यह है क्या जसवंत सिंह को आरएसएस से भिन्न नीति और नजरिया व्यक्त करने के कारण भाजपा से निकाला गया है ? यदि ऐसा है तो पूर्व सरसंघचालक सुदर्शन जिन्ना के बारे में दुरंगी बातें क्यों कर रहे हैं ? क्या उन्हें भी संघ से निकाला जाएगा ? अरूण शौरी जैसे शिक्षित व्यक्ति की राजनीतिक असभ्यता ही है जो उन्होंने भाजपा के सदस्य के अनुशासन को तोडकर बेशर्मी के साथ मीडिया से वे सब बातें कहीं जो उन्हें नहीं कहनी चाहिए थीं। उन्हें लगता था कि भाजपा गलत कर रही है उनके पास पार्टी के मंच थे उन पर अपनी बातें रखते,जैसा उन्होंने मीडिया से कहा भी कि उन्होंने जो कुछ पार्टी के बारे में मीडिया को बताया है वे सभी बातें वे भाजपा और संघ के मंचों पर भी उठा चुके हैं। सवाल यह है जब शौरी साहब अपनी बातें पार्टी मंचों पर उठा चुके हैं तो उन्होने यह बाहर मीडिया में नाटक क्यों किया ? सीधी भाषा में इसे राजनीतिक असभ्यता कहते हैं।
कांग्रेस के लोग खुश हैं कि भाजपा में यह सब हो रहा है,हम भी कुछ राजनीतिक असभ्यता का प्रदर्शन करें और इसी बीच में राजनीतिक असभ्यता का प्रदर्शन करते हुए दिग्विजय सिंह ने बयान दे डाला , राष्ट्रवादी कांग्रेस को कांग्रेस में अपना विलय कर लेना चाहिए। उनसे कुछ दिन पहले केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री असभ्यता व्यक्त कर चुके थे कि स्वाइन फ्लू के बारे में राज्य सरकारें जिम्मेदारी नहीं निभा रही हैं। उत्तर प्रदेश के समाजवादी और बसपा के नेता तो आए दिन राजनीतिक असभ्यता से भरे बयान देते रहते हैं उनमें से एक हैं अमरसिंह। उनका शाहरूख के साथ अमेरिका में हुए दुर्व्यवहार के बारे में दिया गया बयान, इसी कोटि में आता है।
जब चारों ओर एक-दूसरे से बेहतर असभ्य होने की होड लगी हो तो माकपा के नेता इस मामले में कैसे पीछे रह सकते हैं, हाल ही में ममता बनर्जी ने कोलकाता में मेट्रो रेल के नए विस्तार रूट का उदघाटन किया और उस मौके पर पश्चिम बंगाल के सभी नामी-गिरामी फिल्मी कलाकारों और बुद्धिजीवियों को एकत्रित करने में उसे सफलता मिल गयी, इसी मौके पर टालीगंज मेट्रो स्टेशन का नाम प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता उत्तम कुमार के नाम पर रख दिया गया और जो नए मेट्रो स्टेशन बने हैं उनके नाम भी स्वाधीनता सेनानियों,संस्कृतिजगत की महान विभूतियों के नाम पर रखे गए हैं,संभवत: यह रेल के इतिहास में पहलीबार हुआ है। यह अच्छी बात है। राज्य के मुख्यमंत्री ने अपनी बुद्धि का प्रदर्शन करते हुए कहा 'यह सब तमाशा है।' सवाल किया जाना चाहिए कि आखिरकार पहलीबार किसी नेता ने सांस्कृतिक और स्वाधीनतासेनानियों के नाम पर यदि सार्वजनिक परिवहन अथवा सार्वजनिक स्थानों के नाम रखे हैं तो इसमें 'तमाशा' क्या है ? राजनीतिक असभ्यता का तांडव यही तक ही थमा नहीं है,हाल ही में पश्चिम बंगाल में 'आइला' चक्रवाती तूफान आया था जिससे लाखों लोगों की संपत्ति का नुकसान हुआ था इन 'आइला' पीडितों को तीन माह हो गए अभी तक राज्य सरकार के द्वारा घोषित सहायता राशि नहीं मिली है, जानते हैं क्यों ? क्योंकि वाममोर्चे के पंचायत सदस्यों ने पीडितों की सूची पर दस्तखत नहीं किए हैं। सरकारी नियम है आपदा सहायता राशि तब ही दी जाएगी जब संबंधित पंचायत के पक्ष-विपक्ष के सभी सदस्य हस्ताक्षर कर दें। इस इलाके में इसबार के पंचायत चुनावों में तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस को बहुमत मिला और वाम मोर्चे के हाथ से इस इलाके की पंचायतें चली गयीं तो वाममोर्चे के पंचायत सदस्यों ने अपनी राजनीतिक असभ्यता का प्रदर्शन किया और अभी तक पीडितों की सूची पर ,जिसे जिलाधीश के द्वारा तैयार कराया गया था उस पर महज इसलिए दस्तखत नहीं किए क्योंकि इस क्षेत्र की जनता ने वाम को लोकसभा और पंचायत चुनावों में करारी शिकस्त दी थी,तूफान पीडित लोग सहायता राशि का तीन महिनों से इंतजार कर रहे हैं।
राजनीतिक असभ्यता का आख्यान दक्षिण में भी जारी है वहां हाल ही में हुए विधानसभा उपचुनावों का अन्ना द्रमुक ने बहिष्कार किया और कहा क चुनाव निष्पक्ष ढंग से नहीं होते, चुनाव आयोग निष्पक्ष नहीं है। लोकसभा चुनाव में जयललिता को चुनाव आयोग निष्पक्ष नजर आ रहा था और लोकसभा चुनाव में पराजय के बाद निष्पक्ष नजर नहीं आ रहा।
बुनियादी सवाल है राजनीतिक असभ्यता पैदा क्यों होती है ? हमारे नेतागण आए दिन मूर्खतापूर्ण, बेसिर-पैर की बातें क्यों करते रहते हैं ? मीडिया बेसिर -पैर की बातों में रस क्यों लेता है ?
राजनीतिक असभ्यता का स्रोत है खुद पर अविश्वास। जब राजनीतिक व्यक्ति की अपने कर्म पर आस्था खत्म हो जाती है तो वह असभ्य आचरण करने लगता है। अनाप-शनाप बकने लगता। अनाप-शनाप और गलत में हम मजा लेने लगते हैं, मीडिया उसे अतिरंजित बनाकर पेश करने लगता है, तरह-तरह से असभ्यता की वैधता और अवैधता की खोज शुरू हो जाती है ।
राजनीतिक असभ्यता का उदय यथार्थ के अस्वीकार के कारण होता है। हम जब चीजों और घटनाओं को यथार्थ नजरिए की बजाय आत्मगत नजरिए से देखते हैं तो राजनीतिक असभ्यता पैदा होती है। निजगत भाव से चीजों को देखने से समग्रता में देख नहीं पाते,जहां नजर लगी होती है,उसे ही देखते हैं और यह मानकर चलते हैं कि यथार्थ वही है जो दिख रहा है। सच यह है यथार्थ वह भी होता है जो नहीं दिख रहा होता है।यथार्थ वह भी जिसे हम नहीं जानते। बुद्धदेव भट्टाचार्य से लेकर जसवंत सिंह तक सबकी मूल दृष्टि में यही बुनियादी खोट है कि उन्हें सिर्फ अपना इच्छित यथार्थ ही नजर आ रहा है जबकि यथार्थ का दायरा उससे काफी बडा है।
राजनीतिक असभ्यता तब व्यक्त होती है जब समाज गंभीर संकट में हो, आज हमारे देश में 140 से ज्यादा जिलों में सूखा है, मंदी और मंहगाई का व्यापक असर है,ऐसे में राजनीतिक असभ्यताएं ज्यादा होंगी। इन असभ्यताओं का लक्ष्य है यथार्थ सवालों से ध्यान हटाना। किंकर्त्तव्यविमूढ़ अवस्था में राजनीतिक असभ्यताएं ज्यादा फलती फूलती है,यह दिशाहीन राजनीतिज्ञों का श्रृंगार है।राजनीतिक असभ्यता मीडिया का सुस्वादु भोजन है,ठलुओं की खुराक है।
[ deskaal.com पर प्रकाशित )
जिन्ना,पाकिस्तान,भारत-विभाजन आदि मसलों पर आरएसएस के सरसंघचालक की लिखी किताबें जरूर मिलती हैं,जहां पर संघ का नजरिया व्यक्त किया गया है, किंतु भाजपा ने कभी भी इन मसलों पर कोई प्रस्ताव पारित नहीं किया। भाजपा की स्थापना के साथ जो प्रस्ताव पारित किए गए थे वे भी इन दोनों मसलों पर कोई रोशनी नहीं डालते। सवाल यह है क्या जसवंत सिंह को आरएसएस से भिन्न नीति और नजरिया व्यक्त करने के कारण भाजपा से निकाला गया है ? यदि ऐसा है तो पूर्व सरसंघचालक सुदर्शन जिन्ना के बारे में दुरंगी बातें क्यों कर रहे हैं ? क्या उन्हें भी संघ से निकाला जाएगा ? अरूण शौरी जैसे शिक्षित व्यक्ति की राजनीतिक असभ्यता ही है जो उन्होंने भाजपा के सदस्य के अनुशासन को तोडकर बेशर्मी के साथ मीडिया से वे सब बातें कहीं जो उन्हें नहीं कहनी चाहिए थीं। उन्हें लगता था कि भाजपा गलत कर रही है उनके पास पार्टी के मंच थे उन पर अपनी बातें रखते,जैसा उन्होंने मीडिया से कहा भी कि उन्होंने जो कुछ पार्टी के बारे में मीडिया को बताया है वे सभी बातें वे भाजपा और संघ के मंचों पर भी उठा चुके हैं। सवाल यह है जब शौरी साहब अपनी बातें पार्टी मंचों पर उठा चुके हैं तो उन्होने यह बाहर मीडिया में नाटक क्यों किया ? सीधी भाषा में इसे राजनीतिक असभ्यता कहते हैं।
कांग्रेस के लोग खुश हैं कि भाजपा में यह सब हो रहा है,हम भी कुछ राजनीतिक असभ्यता का प्रदर्शन करें और इसी बीच में राजनीतिक असभ्यता का प्रदर्शन करते हुए दिग्विजय सिंह ने बयान दे डाला , राष्ट्रवादी कांग्रेस को कांग्रेस में अपना विलय कर लेना चाहिए। उनसे कुछ दिन पहले केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री असभ्यता व्यक्त कर चुके थे कि स्वाइन फ्लू के बारे में राज्य सरकारें जिम्मेदारी नहीं निभा रही हैं। उत्तर प्रदेश के समाजवादी और बसपा के नेता तो आए दिन राजनीतिक असभ्यता से भरे बयान देते रहते हैं उनमें से एक हैं अमरसिंह। उनका शाहरूख के साथ अमेरिका में हुए दुर्व्यवहार के बारे में दिया गया बयान, इसी कोटि में आता है।
जब चारों ओर एक-दूसरे से बेहतर असभ्य होने की होड लगी हो तो माकपा के नेता इस मामले में कैसे पीछे रह सकते हैं, हाल ही में ममता बनर्जी ने कोलकाता में मेट्रो रेल के नए विस्तार रूट का उदघाटन किया और उस मौके पर पश्चिम बंगाल के सभी नामी-गिरामी फिल्मी कलाकारों और बुद्धिजीवियों को एकत्रित करने में उसे सफलता मिल गयी, इसी मौके पर टालीगंज मेट्रो स्टेशन का नाम प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता उत्तम कुमार के नाम पर रख दिया गया और जो नए मेट्रो स्टेशन बने हैं उनके नाम भी स्वाधीनता सेनानियों,संस्कृतिजगत की महान विभूतियों के नाम पर रखे गए हैं,संभवत: यह रेल के इतिहास में पहलीबार हुआ है। यह अच्छी बात है। राज्य के मुख्यमंत्री ने अपनी बुद्धि का प्रदर्शन करते हुए कहा 'यह सब तमाशा है।' सवाल किया जाना चाहिए कि आखिरकार पहलीबार किसी नेता ने सांस्कृतिक और स्वाधीनतासेनानियों के नाम पर यदि सार्वजनिक परिवहन अथवा सार्वजनिक स्थानों के नाम रखे हैं तो इसमें 'तमाशा' क्या है ? राजनीतिक असभ्यता का तांडव यही तक ही थमा नहीं है,हाल ही में पश्चिम बंगाल में 'आइला' चक्रवाती तूफान आया था जिससे लाखों लोगों की संपत्ति का नुकसान हुआ था इन 'आइला' पीडितों को तीन माह हो गए अभी तक राज्य सरकार के द्वारा घोषित सहायता राशि नहीं मिली है, जानते हैं क्यों ? क्योंकि वाममोर्चे के पंचायत सदस्यों ने पीडितों की सूची पर दस्तखत नहीं किए हैं। सरकारी नियम है आपदा सहायता राशि तब ही दी जाएगी जब संबंधित पंचायत के पक्ष-विपक्ष के सभी सदस्य हस्ताक्षर कर दें। इस इलाके में इसबार के पंचायत चुनावों में तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस को बहुमत मिला और वाम मोर्चे के हाथ से इस इलाके की पंचायतें चली गयीं तो वाममोर्चे के पंचायत सदस्यों ने अपनी राजनीतिक असभ्यता का प्रदर्शन किया और अभी तक पीडितों की सूची पर ,जिसे जिलाधीश के द्वारा तैयार कराया गया था उस पर महज इसलिए दस्तखत नहीं किए क्योंकि इस क्षेत्र की जनता ने वाम को लोकसभा और पंचायत चुनावों में करारी शिकस्त दी थी,तूफान पीडित लोग सहायता राशि का तीन महिनों से इंतजार कर रहे हैं।
राजनीतिक असभ्यता का आख्यान दक्षिण में भी जारी है वहां हाल ही में हुए विधानसभा उपचुनावों का अन्ना द्रमुक ने बहिष्कार किया और कहा क चुनाव निष्पक्ष ढंग से नहीं होते, चुनाव आयोग निष्पक्ष नहीं है। लोकसभा चुनाव में जयललिता को चुनाव आयोग निष्पक्ष नजर आ रहा था और लोकसभा चुनाव में पराजय के बाद निष्पक्ष नजर नहीं आ रहा।
बुनियादी सवाल है राजनीतिक असभ्यता पैदा क्यों होती है ? हमारे नेतागण आए दिन मूर्खतापूर्ण, बेसिर-पैर की बातें क्यों करते रहते हैं ? मीडिया बेसिर -पैर की बातों में रस क्यों लेता है ?
राजनीतिक असभ्यता का स्रोत है खुद पर अविश्वास। जब राजनीतिक व्यक्ति की अपने कर्म पर आस्था खत्म हो जाती है तो वह असभ्य आचरण करने लगता है। अनाप-शनाप बकने लगता। अनाप-शनाप और गलत में हम मजा लेने लगते हैं, मीडिया उसे अतिरंजित बनाकर पेश करने लगता है, तरह-तरह से असभ्यता की वैधता और अवैधता की खोज शुरू हो जाती है ।
राजनीतिक असभ्यता का उदय यथार्थ के अस्वीकार के कारण होता है। हम जब चीजों और घटनाओं को यथार्थ नजरिए की बजाय आत्मगत नजरिए से देखते हैं तो राजनीतिक असभ्यता पैदा होती है। निजगत भाव से चीजों को देखने से समग्रता में देख नहीं पाते,जहां नजर लगी होती है,उसे ही देखते हैं और यह मानकर चलते हैं कि यथार्थ वही है जो दिख रहा है। सच यह है यथार्थ वह भी होता है जो नहीं दिख रहा होता है।यथार्थ वह भी जिसे हम नहीं जानते। बुद्धदेव भट्टाचार्य से लेकर जसवंत सिंह तक सबकी मूल दृष्टि में यही बुनियादी खोट है कि उन्हें सिर्फ अपना इच्छित यथार्थ ही नजर आ रहा है जबकि यथार्थ का दायरा उससे काफी बडा है।
राजनीतिक असभ्यता तब व्यक्त होती है जब समाज गंभीर संकट में हो, आज हमारे देश में 140 से ज्यादा जिलों में सूखा है, मंदी और मंहगाई का व्यापक असर है,ऐसे में राजनीतिक असभ्यताएं ज्यादा होंगी। इन असभ्यताओं का लक्ष्य है यथार्थ सवालों से ध्यान हटाना। किंकर्त्तव्यविमूढ़ अवस्था में राजनीतिक असभ्यताएं ज्यादा फलती फूलती है,यह दिशाहीन राजनीतिज्ञों का श्रृंगार है।राजनीतिक असभ्यता मीडिया का सुस्वादु भोजन है,ठलुओं की खुराक है।
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प्रभाष जोशी का कचरा इतिहास ज्ञान
प्रभाष जोशी के पूरे साक्षात्कार पर एक बात रेखांकित करना बेहद जरूरी है इस साक्षात्कार में उन्होंने अपना जो इतिहास ज्ञान प्रदर्शित किया है, उसका इतिहास के तथ्यों से कोई लेना देना नहीं है बल्कि यह इतिहास के बारे में गलतबयानी है। इस गलतबयानी की जड़ है इतिहास की गलत समझ। कुछ नमूने दखें और गंभीरता के साथ विचार करें कि प्रभाष जोशी कितना सच बोल रहे हैं।
प्रभाष जी ने कहा है ''मारिया मिश्रा नाम की एक ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय की महिला हैं, उन्होंने एक अच्छी किताब लिखी है India since the Rebellion: Vishnu's Crowded Temple. उसमें उन्होने कहा है कि जवाहर लाल नेहरू तो आजाद भारत के पहले गवर्नर जनरल थे. क्योंकि उन्होंने उन्हीं चीजों को कंटिन्यू किया जो कि गवर्नर जनरल करते थे।''
क्या यह बयान तथ्यों से पुष्ट होता है ? क्या भारत की आज जो आत्मनिर्भर देश की छवि है वह क्या अंग्रेजों के मार्ग पर चलने के कारण संभव थी ? सार्वजनिक क्षेत्र का जो विशाल तंत्र खड़ा किया गया वैसा क्या अंग्रेजों की नीतियों पर चलते हुए संभव था ? आज स्थिति यह है अमेरिका को आर्थिक मंदी के संकट से निकालने में भारत प्रमुख आर्थिक मददगार है। अमरीकी बैंकों के चीन के बाद सबसे ज्यादा बॉण्ड भारत ने खरीदे हैं । आज ब्रिटेन अपनी भी मदद करने की स्थिति में नहीं हैं। सार्वजनिक क्षेत्र में नेहरू ने ऐसे समय पर निवेश शुरू किया जब भारत में कोई इसके पक्ष में नहीं था,सिवाय पूंजीपतियों के। नेहरू ने बुनियादी उद्योगों का निर्माण किया और आज हम उसी फिक्स डिपोजिट को बेच बेचकर देश चला रहे हैं। अर्थशास्त्र की भाषा में इसे विनिवेश कहते हैं। जबकि यह सार्वजनिक संपत्ति की खुली लूट है। भारत के लोकतंत्र में हजार कमियां निकाल सकते हैं किंतु यह अपने आपमें यूनिक है, इसका संविधान विशिष्ट है। यह ब्रिटेन के संविधान की नकल नहीं है।
प्रभाष जी ने कहा है ''कम्युनिस्टों ने भारत छोड़ो आंदोलन के खिलाफ अंग्रेजों की मुखबिरी की थी।'' यह वक्तव्य एकसिरे से आधारहीन है,प्रभाष जोशी को चुनौती है कि वे उन कम्युनिस्टों के नाम बताएं जो मुखबिरी करते थे,कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य स्वाधीनता संग्राम की अग्रणी कतारों में थे, खासकर 1940- 41 के बाद कांग्रेस संघर्ष कर रही थी या कम्युनिस्ट संघर्ष कर रहे थे ? प्रभाष जी चाहें तो अपने प्रिय धर्मनिरपेक्ष इतिहासकारों के लेखन पर एक एक नजर डालकर देख लें, ज्यादा न सही यशपाल की किताबें ही पढ़ लें, कम से कम यशपाल उनसे कम देशभक्त नहीं थे, लेखक भी उनसे कमजोर नहीं थे,कम से कम जसवंत सिंह की किताब पढ़ने से ज्यादा आनंददायक पाठ है उनका।
प्रभाष जोशी के अनुसार ''जब अंग्रेज यहां आकर औद्योगिकरण कर रहे थे तो मार्क्स ने कहा कि वो भारत की उन्नति कर रहे हैं।'' भारत में अंग्रेजों औद्योगिकीकरण नहीं किया बल्कि निरूद्योगीकरण किया,भारत के कच्चे माल के दोहन से औद्योगिक क्रांति ब्रिटेन में हो रही थी, भारत के विकास के जो आंकड़े प्रभाष जी ने दिए हैं, वे भी सही नहीं हैं। अंग्रेजों की नीतियों के चलते भारत के किसान की कृषिदासता बढ़ी, पामाली बढ़ी,अनगिनत अकाल पढ़े। इन सभी पहलुओं पर मार्क्सवादियों ने ही सबसे पहले रोशनी डाली थी, गांधीजी ने नहीं। प्रभाष जोशी जानते हैं कि दादाभाई नौरोजी पहले बड़े देशभक्त थे जिन्होंने अंग्रेजों की किसान विरोधी नीतियों पर जमकर लिखा था, उनके लेखन में आए आंकड़े भी प्रभाष जोशी के मत की पुष्टि नहीं करते। जोशी जी जान लें अंग्रेजों के आने के बाद सन् 1770 में पहला अकाल पड़ा था जिसने लगभग एक करोड लोगों की जान ले ली,तब से अकाल,हैजा,प्लेग,संक्रामक बीमारियों के हमले आम बात हो गए। कार्ल मार्क्स पहले विचारकों में थे जिनके द्वारा पहलीबार ब्रिटेन के साम्राज्य का भयावह चित्रण सामने आया था, उनके सारे लेख अब हिंदी में भी हैं। मार्क्स ही पहले व्यक्ति थे जिन्होने यह रेखांकित किया था कि आखिरकार भारत में अंग्रेज क्यों आने में सफल रहे।
( यह टिप्पणी 'deshkal.com पर प्रकाशित प्रभाष जोशी के विवादास्पद साक्षात्कार पर लिखी गयी )
प्रभाष जी ने कहा है ''मारिया मिश्रा नाम की एक ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय की महिला हैं, उन्होंने एक अच्छी किताब लिखी है India since the Rebellion: Vishnu's Crowded Temple. उसमें उन्होने कहा है कि जवाहर लाल नेहरू तो आजाद भारत के पहले गवर्नर जनरल थे. क्योंकि उन्होंने उन्हीं चीजों को कंटिन्यू किया जो कि गवर्नर जनरल करते थे।''
क्या यह बयान तथ्यों से पुष्ट होता है ? क्या भारत की आज जो आत्मनिर्भर देश की छवि है वह क्या अंग्रेजों के मार्ग पर चलने के कारण संभव थी ? सार्वजनिक क्षेत्र का जो विशाल तंत्र खड़ा किया गया वैसा क्या अंग्रेजों की नीतियों पर चलते हुए संभव था ? आज स्थिति यह है अमेरिका को आर्थिक मंदी के संकट से निकालने में भारत प्रमुख आर्थिक मददगार है। अमरीकी बैंकों के चीन के बाद सबसे ज्यादा बॉण्ड भारत ने खरीदे हैं । आज ब्रिटेन अपनी भी मदद करने की स्थिति में नहीं हैं। सार्वजनिक क्षेत्र में नेहरू ने ऐसे समय पर निवेश शुरू किया जब भारत में कोई इसके पक्ष में नहीं था,सिवाय पूंजीपतियों के। नेहरू ने बुनियादी उद्योगों का निर्माण किया और आज हम उसी फिक्स डिपोजिट को बेच बेचकर देश चला रहे हैं। अर्थशास्त्र की भाषा में इसे विनिवेश कहते हैं। जबकि यह सार्वजनिक संपत्ति की खुली लूट है। भारत के लोकतंत्र में हजार कमियां निकाल सकते हैं किंतु यह अपने आपमें यूनिक है, इसका संविधान विशिष्ट है। यह ब्रिटेन के संविधान की नकल नहीं है।
प्रभाष जी ने कहा है ''कम्युनिस्टों ने भारत छोड़ो आंदोलन के खिलाफ अंग्रेजों की मुखबिरी की थी।'' यह वक्तव्य एकसिरे से आधारहीन है,प्रभाष जोशी को चुनौती है कि वे उन कम्युनिस्टों के नाम बताएं जो मुखबिरी करते थे,कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य स्वाधीनता संग्राम की अग्रणी कतारों में थे, खासकर 1940- 41 के बाद कांग्रेस संघर्ष कर रही थी या कम्युनिस्ट संघर्ष कर रहे थे ? प्रभाष जी चाहें तो अपने प्रिय धर्मनिरपेक्ष इतिहासकारों के लेखन पर एक एक नजर डालकर देख लें, ज्यादा न सही यशपाल की किताबें ही पढ़ लें, कम से कम यशपाल उनसे कम देशभक्त नहीं थे, लेखक भी उनसे कमजोर नहीं थे,कम से कम जसवंत सिंह की किताब पढ़ने से ज्यादा आनंददायक पाठ है उनका।
प्रभाष जोशी के अनुसार ''जब अंग्रेज यहां आकर औद्योगिकरण कर रहे थे तो मार्क्स ने कहा कि वो भारत की उन्नति कर रहे हैं।'' भारत में अंग्रेजों औद्योगिकीकरण नहीं किया बल्कि निरूद्योगीकरण किया,भारत के कच्चे माल के दोहन से औद्योगिक क्रांति ब्रिटेन में हो रही थी, भारत के विकास के जो आंकड़े प्रभाष जी ने दिए हैं, वे भी सही नहीं हैं। अंग्रेजों की नीतियों के चलते भारत के किसान की कृषिदासता बढ़ी, पामाली बढ़ी,अनगिनत अकाल पढ़े। इन सभी पहलुओं पर मार्क्सवादियों ने ही सबसे पहले रोशनी डाली थी, गांधीजी ने नहीं। प्रभाष जोशी जानते हैं कि दादाभाई नौरोजी पहले बड़े देशभक्त थे जिन्होंने अंग्रेजों की किसान विरोधी नीतियों पर जमकर लिखा था, उनके लेखन में आए आंकड़े भी प्रभाष जोशी के मत की पुष्टि नहीं करते। जोशी जी जान लें अंग्रेजों के आने के बाद सन् 1770 में पहला अकाल पड़ा था जिसने लगभग एक करोड लोगों की जान ले ली,तब से अकाल,हैजा,प्लेग,संक्रामक बीमारियों के हमले आम बात हो गए। कार्ल मार्क्स पहले विचारकों में थे जिनके द्वारा पहलीबार ब्रिटेन के साम्राज्य का भयावह चित्रण सामने आया था, उनके सारे लेख अब हिंदी में भी हैं। मार्क्स ही पहले व्यक्ति थे जिन्होने यह रेखांकित किया था कि आखिरकार भारत में अंग्रेज क्यों आने में सफल रहे।
( यह टिप्पणी 'deshkal.com पर प्रकाशित प्रभाष जोशी के विवादास्पद साक्षात्कार पर लिखी गयी )
मंगलवार, 25 अगस्त 2009
चीन के कम्युनिस्टों का संपत्ति प्रेम
हाल ही में जारी हुरून रिपोर्ट में बताया गया है कि दुनिया के सबसे ज्यादा अमीर चीन में रहते हैं। एक लाख तेतालीस हजार मल्टीमिलिनियर और आठ हजार आठ सौ बिलिनियर चीन में हैं। अकेले शंघाई में 1,16,000 मल्टीमिलिनियर और सात हजार बिलिनियर हैं। इनमें ज्यादातर वे लोग हैं जो चीन के कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य हैं,अथवा सदस्यों के करीबी रिश्तेदार हैं,अथवा भू.पू. सेना अधिकारी हैं। इनके शौक हैं शानदार बड़े बड़े रिहाइशी भवन,विला ,मर्सडीज कार आदि खरीदना,इनकी बीबियों के शौक हैं मंहगे शानदार क्लबों में जाना,पियानो बजाना सीखना,कलाकृतियां खरीदना ,दुनिया के वित्तीय जगत के बारे में अपडेट रहना। काश भारत में कम्युनिस्ट अरबपति होते।
सोमवार, 24 अगस्त 2009
प्रभाष जोशी पर बहस व्यक्तिगत नहीं पेशेवर है
सिद्धार्थ जी ,लगता है आप समझदार व्यक्ति हैं,लिखा हुआ पढ़ लेते हैं,मेरा सारा लिखा आपके सामने है आप कृपया बताएं कि कहां पर गाली-गलौज की भाषा का इस्तेमाल किया गया है। क्या आलोचना लिखना गाली है ? यदि आलोचना लिखना गाली है तो फिर आलोचना विधा को क्या कहेंगे ? लिखा हुआ और यथार्थ की कसौटी पर परखा हुआ छद्म नहीं वास्तविक होता है,छद्म लेखन के लिए जिन उपायो की जरूरत होती है उनमें से एक है रूपकों के जरिए अनेकार्थी बातें करना और यह काम प्रभाष जोशी ने अपने साक्षात्कार में खूब किया है ,सती के प्रसंग में।
किसी के लिखे पर लिखना,आलोचनात्मक नजरिए से लिखना गाली-गलौज नहीं कहलाता,यह स्वस्थ समाज का लक्षण है, आंखें बंद करके रखना,जो कहा गया है उसे अनालोचनात्मक ढ़ंग से मान लेना आधुनिक होना नहीं है, आधुनिक व्यक्ित वह है जो असहमत होता है,आप जब असहमत होने वालों को गलत ढ़ंग से व्याख्यायित करते हैं तो हमें दिक्कत होगी ,हम चाहेंगे आप हमसे तर्क के साथ असहमति व्यक्त करें।निष्कर्ष और जजमेंट सुनाकर फैसला न दें।
भाई रणवीर जी, इंटरनेट पर जाओगे तो कुछ भी हो सकता है,मैं बहुत ही भरोसे कह रहा हूं, ‘मोहल्ला लाइव’ पर आयी प्रतिक्रियाओं को महज प्रतिक्रिया के रूप में लें,संपादकों के नाम पत्र तो इससे भी खराब भाषा में आते हैं और संपादकजी उन्हें पढते भी हैं,यह बात दीगर है कि छापते नहीं हैं।
‘निर्मम कुटाई’ को शाब्दिक अर्थ में ग्रहण न करें ,उसकी मूल भावना को पकडने की कोशिश करें ,जैसे प्रभाष जी से सती के ‘सत्व’ और ‘निजत्व’ की मौलिक खोज की है, वे जरा प्रमाण दें सती के ‘सत्व’ के ? उनकी सती का ‘सत्व’ सावित्री तक ही क्यों रूका हुआ है ? वह वर्तमान काल में क्यों नहीं आता ? मैं दावे के साथ कह सकता हूं यदि वे यही बात हाल के दिनों में हुई किसी सती के बारे में बताएं तो उनकी सारी पोल स्वत: खुल जाएगी। कृपया रूपकंवर के ‘सत्व’ का रहस्य बताएं ? क्या राजस्थान में सती के मंदिर स्त्री के ‘सत्व’ और ‘निजत्व’ के प्रदर्शन के लिए बने हैं ? बलिहारी है,कृपया सतीमंदिरों के सती को ‘सत्व’ में रूपान्तरित करके देखें क्या अर्थ निकलता है ? जरा उस बेलगाम गद्य की बानगी ‘नेट’ पाठक भी देखें और ‘सत्व’ का आनंद लें ? दूसरी बात यह कि मेरा परिचय और पता जान लें ,वेब पर नाम के साथ आसानी से मिल जाएगा।
चार्वाक सत्य जी, आप काहे को नाराज हो रहे हैं, आलोक तोमर के गद्य में व्यंग्य होता है और सत्य भी। आलोक जी का यह कथन प्रभाष जोशी के लिए काफी है,आलोक तोमर ने लिखा है ”लेकिन जहां तक भारत में नेट का समाज नहीं होने की बात है, वहां मैं अपने गुरु से विनम्रतापूर्वक असहमत होने की आज्ञा चाहता हूं। भारत में इंटरनेट का समाज आज लगभग उतना ही विकसित है जितना छपे हुए अखबारों और पत्रिकाओं का। प्रभाष जी ने अगर एक शब्द लिखा या बोला तो नेट के तमाम ब्लॉग और वेबसाइट पर हर शब्द के जवाब में हजारों लाखों शब्द लिखे गए।” इससे बेहतर प्रशंसा नेट लेखकों की नहीं हो सकती,रही बात प्रभाषजी के ‘महानायक’ होने की तो वे ‘महानायक’ रहेंगे, उस पद का फिलहाल दूर-दूर तक हिंदी में कोई संपादक दावेदार नहीं है। वे अपने चर्चित साक्षात्कार में व्यक्त किए गए प्रतिगामी विचारों के बावजूद ‘महानायक’ रहेंगे।वे प्रेस संपादकों की परंपरा के अंतिम ‘महानायक’ हैं, क्योंकि यह युग ‘नायक’ और ‘महानायक’ के अंत के साथ ही शुरू हुआ है।
आलोक तोमर ने लिखा है ”प्रभाष जी को बताया गया था कि इंटरनेट पर बहुत धुआंधार बहस उनके बयानों को लेकर छिड़ गई थी और अब तक छिड़ी हुई है। उस बहस में मैं भी शामिल था इसलिए उन्होंने मुझसे बात की। गुस्से में लिखे हुए एक वाक्य के लिए झाड़ भी लगाई।” यहां ‘ झाड़’ शब्द पर ध्यान दें। प्रभाष जोशी अपने सबसे प्रिय पत्रकार को क्या लगा रहे हैं ? ‘झाड़’, हम लोगों से संवाद नहीं करने का मूल सूत्र यहां मिल गया है,काश हम भी उनके चेले होते अथवा सहकर्मी होते तो कम से कम जो सौभाग्य बंधुवर आलोक तोमर को मिला है वह हमें भी नसीब होता। आलोक तोमर की बाकी बातों पर कुछ नहीं कहना है क्योंकि उन्हें अपनी बात अपने लहजे में कहने का उन्हें पूरा हक है ,और ‘अल्लू पल्लू’ कोई गाली नहीं है,वैसे ही बेकार का शब्द है। दोस्त अगर गाली भी दे तो हंसकर सुन लेना चाहिए ,आलोक तोमर हमारे अजीज दोस्त रहे हैं और आज भी हैं।
चार्वाक सत्य जी,’जनसत्ता’ को बर्बाद करने में मालिकों की बड़ी भूमिका है,संपादक तो निमित्त मात्र है। आप प्रभाष जी को कहां रखते हैं यह समस्या नहीं है, वे जहां हैं वहीं रहेंगे। किसी पत्रकार को प्रबंधन क्षमता के आधार पर नहीं संपादकीय क्षमता के आधार पर देखना चाहिए। प्रभाष जोशी निश्चित रूप से अद्वितीय संपादक थे। यह स्थान उन्होंने लेखन के बल पर बनाया है,भूल और गलतियों के आधार पर नहीं,प्रत्येक लेखक से भूलें होती हैं,दृष्टिकोणगत भूलें भी होती हैं,’परफेक्शन’ की कसौटी पर प्रभाषजी को परखने की जरूरत नहीं है,वे उन बीमारियों के भी शिकार रहे हैं जो प्रतिष्ठानी प्रेस के संपादक में होती हैं। ये बीमारियां प्रतिष्ठानी प्रेस के संपादक में कहीं पर भी हो सकती हैं। ‘एक्सप्रेस ग्रुप’ की हालत को समग्रता में देखें, किस तरह वह धीरे धीरे मार्केट में कमजोर होता चला गया है,’जनसत्ता’ इस प्रक्रिया में तुलनात्मक तौर पर ज्यादा बर्बाद हुआ है,यह दुख की बात नहीं है, आप अखबार को यदि ‘विचार’ साहित्य का पर्याय बना देंगे तो यह दुर्गत किसी के भी साथ हो सकती है, खबरों के युग में,नई तकनीक और नई प्रबंधन कला के युग में ‘एक्सप्रेस’ ग्रुप के मालिक अपने को समय के अनुरूप तेज गति से बदल ही नहीं पाए और एक्सप्रेस ग्रुप को समग्रता में संकट से गुजरना पड़ रहा है। ‘जनसत्ता’ अखबार बेखबर लोगों का अखबार जब से बनना शुरू हुआ तब से उसका प्रेस जगत में दीपक लुप लुप करने लगा। यह दुर्दशा प्रभाषजी के संपादनकाल से ही आरंभ हो गयी थी। एक जमाना ‘जनसत्ता’ हिन्दी के जागरूक पाठकों का ही नहीं हिन्दी अनिवार्य अखबार था,बाद में किसी को पता ही नहीं है कि वह कहां है, क्या छाप रहा है,पाठकों से जनसत्ता का अलगाव पैदा क्यों हुआ यह अलग बहस का विषय है।
चार्वाक सत्य जी, मुश्किल यह है प्रभाष जी सोचते हैं वे ‘महान’ कार्य कर रहे थे , ‘महान’ लेखन कर रहे थे , वे जो भी कुछ लिखते हैं ‘महान’ लिखते हैं ,और इस ‘महानता’ के बोझ ने ही ‘जनसत्ता’ अखबार के बारह बजा दिए। संपादक के नाते और सलाहकार संपादक के नाते प्रभाष जोशी अपनी भूमिका निभाने में एकदम असफल रहे हैं, ‘जनसत्ता’ की दुर्दशा के कारणों में से उनका संपादकीय रवैयाया गैर पेशेवर था, वे प्रधान कारण थे। वे यह मानते ही नहीं थे, कि अखबार के लिए नयी तकनीक,नयी प्रबंधन शैली,नयी मार्केटिंग आदि की जरूरत होती है, वे तो सिर्फ ‘विचार’ और ‘अपने नाम’ पर अखबार बेचना चाहते थे और परिणाम सामने हैं। उनके नाम से अखबार पसर चुका है, कोई उसे खरीदने को तैयार नहीं है। आज ‘जनसत्ता’ को कम से कम छापा जाता है और उससे भी कम बिक्री होती है।अधिकांश शहरों में तो वह स्टाल पर भी नजर नहीं आता,यह स्थिति दिल्ली की भी है। ‘जनसत्ता’ का पराभव ठोस सच्चाई है आभासी अगर कुछ है तो प्रभाष जोशी का लेखन। आलोक तोमर ने सही बात कही है उसे गंभीरता से लेना चाहिए,आलोक तोमर ने प्रभाष जी के बारे में सही लिखा है वह,’ एक हद तक आत्मघाती सरोकारों से जुड़े रहे हैं ।’ एक संपादक के ‘आत्मघाती सरोकार’ उसके व्यक्ितत्व,पेशे और पाठक सबको नष्ट करते हैं। ‘जनसत्ता’ कमाए यह चिन्ता प्रभाषजी की कभी नहीं थी,यह बात दीगर थी कि जनसत्ता के बहाने उन्होंने अपना हिसाब-किताब ठीक जरूर रखा। उनके गैर पेशेवर रवैयये के कारण ही बेहतरीन पत्रकारों को जनसत्ता से अलग होना पड़ा।
चार्वाक सत्य जी,थोड़ा गंभीरता के साथ इस ‘डिस इनफारर्मेशन’ अभियान यानी ‘सत्य का अपहरण कांड’ पर भी ध्यान दें,
प्रभाष जोशी के अभी पुराने साक्षात्कार की स्याही सूखी भी नहीं थी कि उन्होंने अपने ‘ज्ञान’ और ‘सत्यप्रेम’ का परिचय फिर से दे दिया है। जो लोग उनके प्रति श्रद्धा में बिछे हुए हैं उन्हें गंभीरता के साथ ‘जनसत्ता’ (23 अगस्त 2009) के ‘कागद कारे’ स्तम्भ में प्रकाशित ‘सड़ी गॉठ का खुलना’ शीर्षक टिप्पणी पर सोचना चाहिए। यह टिप्पणी एक महान सम्पादक के सत्य- अपहरण की शानदार मिसाल है।
प्रभाष जोशी ने अपने मिजाज और नजरिए के अनुसार चाटुकारिता की शैली में जसवंत सिंह प्रकरण पर जसवंत सिंह के बारे में लिखा है ,” अपने काम,अपनी निष्ठा और अपनी राय पर इस तरह टिके रहकर जसवंत सिंह ने अपनी चारित्रिक शक्ति और प्रमाणिकता को ही सिद्ध नहीं किया है, अपने संविधान में से दिए गए अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार को भी बेहद पुष्ट किया है।” आश्चर्यजनक बात यह है कि प्रभाषजी एक ऐसे व्यक्ति के बारे में यह सब लिख रहे हैं जो खुल्लमखुल्ला भारत के संविधान और संप्रभुता को गिरवी रखकर कंधहार कांड का मुखिया था,इस व्यक्ति को मौलिक अधिकार का इस्तेमाल करने का अधिकार देने का अर्थ है हिटलर की टीम के गोयबल्स को बोलने का अधिकार देना , सवाल यह है गोयबल्स यदि हिटलर से अपने को अलग कर लेगा तो क्या उसके इतिहास में दर्ज अपराध खत्म हो जाएंगे ? प्रभाषजी जब जसवंत सिंह की पीठ थपथपा रहे हैं तो प्रकारान्तर से जसवंत सिंह के ठोस राजनीतिक कुकर्मों ,राष्ट्रद्रोह और सत्य को भी छिपा रहे हैं, क्या भाजपा और शिवसैनिकों के द्वारा किए गए सांस्कृतिक हमले और अभिव्यक्ति की आजादी पर किए गए हमलों का जसवंत सिंह द्वारा किया गया समर्थन हम भूल सकते हैं ? क्या बाबरी मस्जिद विध्वंस और दंगों में संघ और उनके संगठनों की भूमिका और उसके प्रति जसवंत सिंह का समर्थन भूल सकते हैं ? प्रभाषजी जब संघ के बारे में,कांग्रेस के बारे में लिखते हैं उन्हें अतीत की तमाम सूचनाएं याद आती हैं,घटनाएं याद आती हैं,लेकिन जसवंत सिंह प्रकरण में उन्हें जसवंत सिंह की कोई भी पिछली घटना याद नहीं आयी, इसी को कहते हैं सत्य का अपहरण और ‘डिस- इनफॉरर्मेशन’ .
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रभाष जी को इतिहास और राजनीतिक दलों के अन्तस्संबंध पर विचार करते समय यह भी धन रखना होगा कि कांग्रेस,कम्युनिस्ट, सोशलिस्ट आदि सभी दलों के मानने वाले इतिहासकारों में अपनी ही विचारधारा और नजरिए के लोगों के बीच मतभेद रहे हैं, इतिहास को लेकर मतभिन्नता के आधार पर कभी कांग्रेस और कम्युनिस्टों ने अपने सदस्य इतिहासकारों के खिलाफ कभी कोई कार्रवाई नहीं की।
प्रभाष जी यदि जसवंत सिंह को अपनी एक सडी गॉठ खोलने के लिए यदि साढे छह सौ पेज चाहिए तो आपको जसवंत सिंह के राजनीतिक सत्य का उजागर करने के अभी कितने पन्ने और चाहिए ? प्रभाषजी जैसा महान पत्रकार यह विश्वास कर रहा है कि जसवंत सिंह को किताब लिखने के कारण निकाला गया,सच यह है कि राजस्थान के अधिकांश भाजपा विधायक और उनकर नेत्री चाहती थीं कि पहले अनुशासनहीनता के लिए जसवंत सिंह को पार्टी से निकालो, वरना वे सब चले जाते,भाजपा ने हानि लाभ का गणित बिठाते हुए जसवंत सिंह को निकालने में पार्टी का कम नुकसान देखा, उनके निष्कासन में अन्य किसी कारक की खोज करना मूर्खता ही है। इससे भी बड़ी बात यह है कि इतिहास के प्रति प्रभाषजी का किस्सा गो का रवैयया रहा है। भक्तों से जबाव की अपेक्षा है।
शंबूक जी, बहस को हल्का बनाने से क्या होगा ? आप उन्हें नायक,महानायक नहीं मानते ठीक है, आपका लोकतांत्रिक हक है और लोकतांत्रिक विवेक है कि आप उन्हें ही क्यों किसी को कुछ भी मानें,आप धन्य हैं,हमें धिक्कार है, आपका मूल्यांकन सही ,मामला अगर इतने से ही शांत हो जाए और जोशी जी बोलें तो समझें ठीक है, वरना तो विभारानी की बात ही ठीक है ‘हम सब रहम करें’,
अव्छी नेट पत्रकारिता को खराब करने से क्या लाभ ? आप जिस तरह के उदाहरण दे रहे हैं और हल्की बातें कहकर सारे मामले को दूसरी दिशा देना चाहते हैं वह तो प्रभाष जोशी के लिए अच्छा होगा और उनके भक्तों की इस बहस में व्यक्त धारणाओं की पुष्टि ही होगी।आप कम से कम अपना नहीं तो अपने कहे के प्रभाव का तो ख्याल रखें,ऐसा करते रहेंगे तो इससे साख नहीं बनेगी, इसे उपदेश न समझें,यह सुझाव भी नहीं है, यह महज एक राय है। इसे मानें या न मानें आपके ऊपर है। सबसे अच्छा तो यही होता कि आपको लोग वास्तव में नामों से सामने अपनी बातें रखते, खुलकर प्यार से बातें करते, नाम बदलकर लिखने से बात का वजन खत्म हो जाता है,मुखौटों पर लोग वैसे भी विश्वास नहीं करते। आप अच्छे लोग हैं और लोकतांत्रिक लय में रहते हैं, हमारे लिए तो यही काफी है अब यह आपके ऊपर है अपना गांव किसे सौंपें ,अपना काम कैसे करें,कैसे व्यक्त करें,सही नाम से या छद्म नाम से ,यह तो आपके ऊपर है। आप अपने दोस्त और दुश्मन को नहीं पहचानेंगे तो फिर हम बहस क्यों कर रहे हैं ?मैं फिर दोहरा रहा हूं, प्रभाष जोशी हमारे वर्ग शत्रु नहीं हैं। हम लोग लिखते हैं,घृणा का व्यापार नहीं करते। जो लेखक,पाठक, यूजर, राजनीतिज्ञ,संस्कृतिकर्मी घृणा का व्यापार करता है उसका समाज में कोई स्थान नहीं है।हमें अभी तक यही लगा है आप अच्छे लोग हैं,लोकतंत्र में विश्वास करते हैं,घृणा तंत्र में नहीं। हमारे मतभेद,विरोध,असहमति आप जो भी कुछ कहें वह प्रभाष जोशी के लिखे के साथ हैं, उनके व्यक्तिगत जीवन से हमें क्या लेना-देना जब तक वह सामाजिक नहीं होता.
( mohalla Live पर विभारानी की टिप्पणी 'प्रभाष जी की मति भ्रष्ट हो गयी है, आप सब रहम करें' को विस्तृत अध्ययन के लिए देखें ,उपरोक्त विचार वहां पर ही व्यक्त किए गए थे )
किसी के लिखे पर लिखना,आलोचनात्मक नजरिए से लिखना गाली-गलौज नहीं कहलाता,यह स्वस्थ समाज का लक्षण है, आंखें बंद करके रखना,जो कहा गया है उसे अनालोचनात्मक ढ़ंग से मान लेना आधुनिक होना नहीं है, आधुनिक व्यक्ित वह है जो असहमत होता है,आप जब असहमत होने वालों को गलत ढ़ंग से व्याख्यायित करते हैं तो हमें दिक्कत होगी ,हम चाहेंगे आप हमसे तर्क के साथ असहमति व्यक्त करें।निष्कर्ष और जजमेंट सुनाकर फैसला न दें।
भाई रणवीर जी, इंटरनेट पर जाओगे तो कुछ भी हो सकता है,मैं बहुत ही भरोसे कह रहा हूं, ‘मोहल्ला लाइव’ पर आयी प्रतिक्रियाओं को महज प्रतिक्रिया के रूप में लें,संपादकों के नाम पत्र तो इससे भी खराब भाषा में आते हैं और संपादकजी उन्हें पढते भी हैं,यह बात दीगर है कि छापते नहीं हैं।
‘निर्मम कुटाई’ को शाब्दिक अर्थ में ग्रहण न करें ,उसकी मूल भावना को पकडने की कोशिश करें ,जैसे प्रभाष जी से सती के ‘सत्व’ और ‘निजत्व’ की मौलिक खोज की है, वे जरा प्रमाण दें सती के ‘सत्व’ के ? उनकी सती का ‘सत्व’ सावित्री तक ही क्यों रूका हुआ है ? वह वर्तमान काल में क्यों नहीं आता ? मैं दावे के साथ कह सकता हूं यदि वे यही बात हाल के दिनों में हुई किसी सती के बारे में बताएं तो उनकी सारी पोल स्वत: खुल जाएगी। कृपया रूपकंवर के ‘सत्व’ का रहस्य बताएं ? क्या राजस्थान में सती के मंदिर स्त्री के ‘सत्व’ और ‘निजत्व’ के प्रदर्शन के लिए बने हैं ? बलिहारी है,कृपया सतीमंदिरों के सती को ‘सत्व’ में रूपान्तरित करके देखें क्या अर्थ निकलता है ? जरा उस बेलगाम गद्य की बानगी ‘नेट’ पाठक भी देखें और ‘सत्व’ का आनंद लें ? दूसरी बात यह कि मेरा परिचय और पता जान लें ,वेब पर नाम के साथ आसानी से मिल जाएगा।
चार्वाक सत्य जी, आप काहे को नाराज हो रहे हैं, आलोक तोमर के गद्य में व्यंग्य होता है और सत्य भी। आलोक जी का यह कथन प्रभाष जोशी के लिए काफी है,आलोक तोमर ने लिखा है ”लेकिन जहां तक भारत में नेट का समाज नहीं होने की बात है, वहां मैं अपने गुरु से विनम्रतापूर्वक असहमत होने की आज्ञा चाहता हूं। भारत में इंटरनेट का समाज आज लगभग उतना ही विकसित है जितना छपे हुए अखबारों और पत्रिकाओं का। प्रभाष जी ने अगर एक शब्द लिखा या बोला तो नेट के तमाम ब्लॉग और वेबसाइट पर हर शब्द के जवाब में हजारों लाखों शब्द लिखे गए।” इससे बेहतर प्रशंसा नेट लेखकों की नहीं हो सकती,रही बात प्रभाषजी के ‘महानायक’ होने की तो वे ‘महानायक’ रहेंगे, उस पद का फिलहाल दूर-दूर तक हिंदी में कोई संपादक दावेदार नहीं है। वे अपने चर्चित साक्षात्कार में व्यक्त किए गए प्रतिगामी विचारों के बावजूद ‘महानायक’ रहेंगे।वे प्रेस संपादकों की परंपरा के अंतिम ‘महानायक’ हैं, क्योंकि यह युग ‘नायक’ और ‘महानायक’ के अंत के साथ ही शुरू हुआ है।
आलोक तोमर ने लिखा है ”प्रभाष जी को बताया गया था कि इंटरनेट पर बहुत धुआंधार बहस उनके बयानों को लेकर छिड़ गई थी और अब तक छिड़ी हुई है। उस बहस में मैं भी शामिल था इसलिए उन्होंने मुझसे बात की। गुस्से में लिखे हुए एक वाक्य के लिए झाड़ भी लगाई।” यहां ‘ झाड़’ शब्द पर ध्यान दें। प्रभाष जोशी अपने सबसे प्रिय पत्रकार को क्या लगा रहे हैं ? ‘झाड़’, हम लोगों से संवाद नहीं करने का मूल सूत्र यहां मिल गया है,काश हम भी उनके चेले होते अथवा सहकर्मी होते तो कम से कम जो सौभाग्य बंधुवर आलोक तोमर को मिला है वह हमें भी नसीब होता। आलोक तोमर की बाकी बातों पर कुछ नहीं कहना है क्योंकि उन्हें अपनी बात अपने लहजे में कहने का उन्हें पूरा हक है ,और ‘अल्लू पल्लू’ कोई गाली नहीं है,वैसे ही बेकार का शब्द है। दोस्त अगर गाली भी दे तो हंसकर सुन लेना चाहिए ,आलोक तोमर हमारे अजीज दोस्त रहे हैं और आज भी हैं।
चार्वाक सत्य जी,’जनसत्ता’ को बर्बाद करने में मालिकों की बड़ी भूमिका है,संपादक तो निमित्त मात्र है। आप प्रभाष जी को कहां रखते हैं यह समस्या नहीं है, वे जहां हैं वहीं रहेंगे। किसी पत्रकार को प्रबंधन क्षमता के आधार पर नहीं संपादकीय क्षमता के आधार पर देखना चाहिए। प्रभाष जोशी निश्चित रूप से अद्वितीय संपादक थे। यह स्थान उन्होंने लेखन के बल पर बनाया है,भूल और गलतियों के आधार पर नहीं,प्रत्येक लेखक से भूलें होती हैं,दृष्टिकोणगत भूलें भी होती हैं,’परफेक्शन’ की कसौटी पर प्रभाषजी को परखने की जरूरत नहीं है,वे उन बीमारियों के भी शिकार रहे हैं जो प्रतिष्ठानी प्रेस के संपादक में होती हैं। ये बीमारियां प्रतिष्ठानी प्रेस के संपादक में कहीं पर भी हो सकती हैं। ‘एक्सप्रेस ग्रुप’ की हालत को समग्रता में देखें, किस तरह वह धीरे धीरे मार्केट में कमजोर होता चला गया है,’जनसत्ता’ इस प्रक्रिया में तुलनात्मक तौर पर ज्यादा बर्बाद हुआ है,यह दुख की बात नहीं है, आप अखबार को यदि ‘विचार’ साहित्य का पर्याय बना देंगे तो यह दुर्गत किसी के भी साथ हो सकती है, खबरों के युग में,नई तकनीक और नई प्रबंधन कला के युग में ‘एक्सप्रेस’ ग्रुप के मालिक अपने को समय के अनुरूप तेज गति से बदल ही नहीं पाए और एक्सप्रेस ग्रुप को समग्रता में संकट से गुजरना पड़ रहा है। ‘जनसत्ता’ अखबार बेखबर लोगों का अखबार जब से बनना शुरू हुआ तब से उसका प्रेस जगत में दीपक लुप लुप करने लगा। यह दुर्दशा प्रभाषजी के संपादनकाल से ही आरंभ हो गयी थी। एक जमाना ‘जनसत्ता’ हिन्दी के जागरूक पाठकों का ही नहीं हिन्दी अनिवार्य अखबार था,बाद में किसी को पता ही नहीं है कि वह कहां है, क्या छाप रहा है,पाठकों से जनसत्ता का अलगाव पैदा क्यों हुआ यह अलग बहस का विषय है।
चार्वाक सत्य जी, मुश्किल यह है प्रभाष जी सोचते हैं वे ‘महान’ कार्य कर रहे थे , ‘महान’ लेखन कर रहे थे , वे जो भी कुछ लिखते हैं ‘महान’ लिखते हैं ,और इस ‘महानता’ के बोझ ने ही ‘जनसत्ता’ अखबार के बारह बजा दिए। संपादक के नाते और सलाहकार संपादक के नाते प्रभाष जोशी अपनी भूमिका निभाने में एकदम असफल रहे हैं, ‘जनसत्ता’ की दुर्दशा के कारणों में से उनका संपादकीय रवैयाया गैर पेशेवर था, वे प्रधान कारण थे। वे यह मानते ही नहीं थे, कि अखबार के लिए नयी तकनीक,नयी प्रबंधन शैली,नयी मार्केटिंग आदि की जरूरत होती है, वे तो सिर्फ ‘विचार’ और ‘अपने नाम’ पर अखबार बेचना चाहते थे और परिणाम सामने हैं। उनके नाम से अखबार पसर चुका है, कोई उसे खरीदने को तैयार नहीं है। आज ‘जनसत्ता’ को कम से कम छापा जाता है और उससे भी कम बिक्री होती है।अधिकांश शहरों में तो वह स्टाल पर भी नजर नहीं आता,यह स्थिति दिल्ली की भी है। ‘जनसत्ता’ का पराभव ठोस सच्चाई है आभासी अगर कुछ है तो प्रभाष जोशी का लेखन। आलोक तोमर ने सही बात कही है उसे गंभीरता से लेना चाहिए,आलोक तोमर ने प्रभाष जी के बारे में सही लिखा है वह,’ एक हद तक आत्मघाती सरोकारों से जुड़े रहे हैं ।’ एक संपादक के ‘आत्मघाती सरोकार’ उसके व्यक्ितत्व,पेशे और पाठक सबको नष्ट करते हैं। ‘जनसत्ता’ कमाए यह चिन्ता प्रभाषजी की कभी नहीं थी,यह बात दीगर थी कि जनसत्ता के बहाने उन्होंने अपना हिसाब-किताब ठीक जरूर रखा। उनके गैर पेशेवर रवैयये के कारण ही बेहतरीन पत्रकारों को जनसत्ता से अलग होना पड़ा।
चार्वाक सत्य जी,थोड़ा गंभीरता के साथ इस ‘डिस इनफारर्मेशन’ अभियान यानी ‘सत्य का अपहरण कांड’ पर भी ध्यान दें,
प्रभाष जोशी के अभी पुराने साक्षात्कार की स्याही सूखी भी नहीं थी कि उन्होंने अपने ‘ज्ञान’ और ‘सत्यप्रेम’ का परिचय फिर से दे दिया है। जो लोग उनके प्रति श्रद्धा में बिछे हुए हैं उन्हें गंभीरता के साथ ‘जनसत्ता’ (23 अगस्त 2009) के ‘कागद कारे’ स्तम्भ में प्रकाशित ‘सड़ी गॉठ का खुलना’ शीर्षक टिप्पणी पर सोचना चाहिए। यह टिप्पणी एक महान सम्पादक के सत्य- अपहरण की शानदार मिसाल है।
प्रभाष जोशी ने अपने मिजाज और नजरिए के अनुसार चाटुकारिता की शैली में जसवंत सिंह प्रकरण पर जसवंत सिंह के बारे में लिखा है ,” अपने काम,अपनी निष्ठा और अपनी राय पर इस तरह टिके रहकर जसवंत सिंह ने अपनी चारित्रिक शक्ति और प्रमाणिकता को ही सिद्ध नहीं किया है, अपने संविधान में से दिए गए अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार को भी बेहद पुष्ट किया है।” आश्चर्यजनक बात यह है कि प्रभाषजी एक ऐसे व्यक्ति के बारे में यह सब लिख रहे हैं जो खुल्लमखुल्ला भारत के संविधान और संप्रभुता को गिरवी रखकर कंधहार कांड का मुखिया था,इस व्यक्ति को मौलिक अधिकार का इस्तेमाल करने का अधिकार देने का अर्थ है हिटलर की टीम के गोयबल्स को बोलने का अधिकार देना , सवाल यह है गोयबल्स यदि हिटलर से अपने को अलग कर लेगा तो क्या उसके इतिहास में दर्ज अपराध खत्म हो जाएंगे ? प्रभाषजी जब जसवंत सिंह की पीठ थपथपा रहे हैं तो प्रकारान्तर से जसवंत सिंह के ठोस राजनीतिक कुकर्मों ,राष्ट्रद्रोह और सत्य को भी छिपा रहे हैं, क्या भाजपा और शिवसैनिकों के द्वारा किए गए सांस्कृतिक हमले और अभिव्यक्ति की आजादी पर किए गए हमलों का जसवंत सिंह द्वारा किया गया समर्थन हम भूल सकते हैं ? क्या बाबरी मस्जिद विध्वंस और दंगों में संघ और उनके संगठनों की भूमिका और उसके प्रति जसवंत सिंह का समर्थन भूल सकते हैं ? प्रभाषजी जब संघ के बारे में,कांग्रेस के बारे में लिखते हैं उन्हें अतीत की तमाम सूचनाएं याद आती हैं,घटनाएं याद आती हैं,लेकिन जसवंत सिंह प्रकरण में उन्हें जसवंत सिंह की कोई भी पिछली घटना याद नहीं आयी, इसी को कहते हैं सत्य का अपहरण और ‘डिस- इनफॉरर्मेशन’ .
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रभाष जी को इतिहास और राजनीतिक दलों के अन्तस्संबंध पर विचार करते समय यह भी धन रखना होगा कि कांग्रेस,कम्युनिस्ट, सोशलिस्ट आदि सभी दलों के मानने वाले इतिहासकारों में अपनी ही विचारधारा और नजरिए के लोगों के बीच मतभेद रहे हैं, इतिहास को लेकर मतभिन्नता के आधार पर कभी कांग्रेस और कम्युनिस्टों ने अपने सदस्य इतिहासकारों के खिलाफ कभी कोई कार्रवाई नहीं की।
प्रभाष जी यदि जसवंत सिंह को अपनी एक सडी गॉठ खोलने के लिए यदि साढे छह सौ पेज चाहिए तो आपको जसवंत सिंह के राजनीतिक सत्य का उजागर करने के अभी कितने पन्ने और चाहिए ? प्रभाषजी जैसा महान पत्रकार यह विश्वास कर रहा है कि जसवंत सिंह को किताब लिखने के कारण निकाला गया,सच यह है कि राजस्थान के अधिकांश भाजपा विधायक और उनकर नेत्री चाहती थीं कि पहले अनुशासनहीनता के लिए जसवंत सिंह को पार्टी से निकालो, वरना वे सब चले जाते,भाजपा ने हानि लाभ का गणित बिठाते हुए जसवंत सिंह को निकालने में पार्टी का कम नुकसान देखा, उनके निष्कासन में अन्य किसी कारक की खोज करना मूर्खता ही है। इससे भी बड़ी बात यह है कि इतिहास के प्रति प्रभाषजी का किस्सा गो का रवैयया रहा है। भक्तों से जबाव की अपेक्षा है।
शंबूक जी, बहस को हल्का बनाने से क्या होगा ? आप उन्हें नायक,महानायक नहीं मानते ठीक है, आपका लोकतांत्रिक हक है और लोकतांत्रिक विवेक है कि आप उन्हें ही क्यों किसी को कुछ भी मानें,आप धन्य हैं,हमें धिक्कार है, आपका मूल्यांकन सही ,मामला अगर इतने से ही शांत हो जाए और जोशी जी बोलें तो समझें ठीक है, वरना तो विभारानी की बात ही ठीक है ‘हम सब रहम करें’,
अव्छी नेट पत्रकारिता को खराब करने से क्या लाभ ? आप जिस तरह के उदाहरण दे रहे हैं और हल्की बातें कहकर सारे मामले को दूसरी दिशा देना चाहते हैं वह तो प्रभाष जोशी के लिए अच्छा होगा और उनके भक्तों की इस बहस में व्यक्त धारणाओं की पुष्टि ही होगी।आप कम से कम अपना नहीं तो अपने कहे के प्रभाव का तो ख्याल रखें,ऐसा करते रहेंगे तो इससे साख नहीं बनेगी, इसे उपदेश न समझें,यह सुझाव भी नहीं है, यह महज एक राय है। इसे मानें या न मानें आपके ऊपर है। सबसे अच्छा तो यही होता कि आपको लोग वास्तव में नामों से सामने अपनी बातें रखते, खुलकर प्यार से बातें करते, नाम बदलकर लिखने से बात का वजन खत्म हो जाता है,मुखौटों पर लोग वैसे भी विश्वास नहीं करते। आप अच्छे लोग हैं और लोकतांत्रिक लय में रहते हैं, हमारे लिए तो यही काफी है अब यह आपके ऊपर है अपना गांव किसे सौंपें ,अपना काम कैसे करें,कैसे व्यक्त करें,सही नाम से या छद्म नाम से ,यह तो आपके ऊपर है। आप अपने दोस्त और दुश्मन को नहीं पहचानेंगे तो फिर हम बहस क्यों कर रहे हैं ?मैं फिर दोहरा रहा हूं, प्रभाष जोशी हमारे वर्ग शत्रु नहीं हैं। हम लोग लिखते हैं,घृणा का व्यापार नहीं करते। जो लेखक,पाठक, यूजर, राजनीतिज्ञ,संस्कृतिकर्मी घृणा का व्यापार करता है उसका समाज में कोई स्थान नहीं है।हमें अभी तक यही लगा है आप अच्छे लोग हैं,लोकतंत्र में विश्वास करते हैं,घृणा तंत्र में नहीं। हमारे मतभेद,विरोध,असहमति आप जो भी कुछ कहें वह प्रभाष जोशी के लिखे के साथ हैं, उनके व्यक्तिगत जीवन से हमें क्या लेना-देना जब तक वह सामाजिक नहीं होता.
( mohalla Live पर विभारानी की टिप्पणी 'प्रभाष जी की मति भ्रष्ट हो गयी है, आप सब रहम करें' को विस्तृत अध्ययन के लिए देखें ,उपरोक्त विचार वहां पर ही व्यक्त किए गए थे )
रविवार, 23 अगस्त 2009
'सच का समाना' और रियलिटी टीवी का खेल
हाइपररियलिटी का सबसे बड़ा खेल टेलीविजन इमेजों में चल रहा है। टीवी इमेजों के माध्यम से हमारे बीच रियलिटी शो पहुँच रहे हैं। रियलिटी टेलीविजन के जरिए हाइपररीयल और रीयल के बीच का भेद खत्म हो गया है। टेलीविजन अब हाइपररीयल इमेजों को ही प्रक्षेपित कर रहा है। यथार्थ और फैंटेसी के बीच फर्क भूल गए हैं। बगैर सोचे समझे फैण्टेसी के जाल में उलझ जाते हैं। ऐसी अवस्था में हम जान ही नहीं पाते कि क्या कर रहे हैं।
हाइपररीयल की चारित्रिक विशेषता है यथार्थ को समृध्द करना। इस प्रसंग में देरिदा का तर्क है यथार्थ को समृध्द करने के नाम पर कृत्रिमता को पेश किया जाता है और उसको ही दर्ज किया जाता है। दर्ज से अर्थ है घटनाविशेष की प्रस्तुति । इस तरह की प्रस्तुतियां पुंसवाद में इजाफा करती हैं और निजता (प्राइवेसी) पर हमला करती हैं। बौद्रिलार्द ने लिखा इससे ऑबशीन के प्रति हमारे मन में आकर्षण पैदा होता है। देखने की इच्छा का ही परिणाम है कि अन्य देखने के लिए आएं।
रियलिटी शो में हम अपनी सुविधाओं ,सत्य और आराम का महिमामंडन करते हैं। रियलिटी शो या खबरों में अन्य के कष्टों को देखकर परपीडक आनंद लेते हैं। टेलीविजन इमेज यथार्थ से भी बेहतर नजर आती है। बौद्रिलार्द के शब्दों में अब हम टेलीविजन नहीं देखते बल्कि टेलीविजन हमें देखता है। रियलिटी टेलीविजन की सफलता के बाद बौद्रिलार्द का उपरोक्त कथन ज्यादा प्रामाणिक नजर आने लगा है। रियलिटी टेलीविजन हमें अच्छा इसलिए लगता है क्योंकि इसमें ”जीवंत” (लाइव) प्रस्तुतियां होती हैं। ये टेली प्रस्तुतियां हैं।
देरिदा के शब्दों में घटनाओं के आगमन का ‘स्पेस’ तैयार किया जा रहा है। उम्मीदों को गैर-उम्मीद बनाया जा रहा है। खास किस्म के वैविध्य,भिन्नता और स्वर्त:स्फूर्त्तता को टेली स्क्रिप्ट के माध्यम से बनाए रखा जाता है। रियलिटी टेलीविजन की स्क्रिप्ट स्वर्त:स्फूर्त्तता का आभास देती है। यह अ-निर्देशित है । जिसके कारण ”प्रामाणिक” को कैद करना,चरित्रों के छिपे हुए आयामों को कैमरे में कैद करना इसका लक्ष्य होता है। इसके कारण यह स्वर्त:स्फूर्त्त लगती है। देरिदा ने इस प्रक्रिया को messianism नाम दिया है। देरिदा ने Echographies of Television में लिखा है कि messianism के द्वारा घटना को निर्देशित किया जाता है। भविष्य का वायदा किया जाता है। इसका खुलापन इस बात की संभावनाओं के द्वार खोलता है कि हम आनंद ले सकें। लाइव टेलीविजन में पुष्टि और सत्य का तत्व रहता है। जिससे इसे लिखित स्क्रिप्ट वाले कार्यक्रमों जैसे-टॉक शो आदि से अलग करने में मदद मिलती है। यह सारा लाइव रीयल टाइम में सम्पन्न होता है। इस तरह के कार्यक्रम में एकल विलक्षणता होती है। इसमें जिस आकार के क्षणों को बांधने की कोशिश की जाती है वे वर्तमान का अपरिवर्तनीय रूप हैं। इसमें यह तथ्य छिपा है कि ” यह चीज तो वहां थी। ” यह भी तर्क दिया जा सकता है कि जिसे सम्बोधित किया जा रहा है वह खुश होता है कि उसे रियलिटी टेलीविजन के द्वारा सम्बोधित किया जा रहा है। किंतु ग्रहणकर्त्ता इसके अर्थनिर्माण में हिस्सा नहीं लेता। आत्मस्वीकारोक्ति के दृश्य ही यथार्थ होते हैं। वैसे ही जैसे प्रसारित कार्यक्रमों की रिपोर्टिंग का प्रधान लक्ष्य होता है दर्शकों को कार्यक्रम में व्यस्त रखना, बांधे रखना। कार्यक्रम में दर्शकों की ‘शिरकत’ को सुनिश्चित बनाने का तरीका है एसएमएस के जरिए इण्डियन आइडल जैसे कार्यक्रमों में दर्शकों को भागीदारी के लिए उद्बुध्द करना। दर्शक जिसके पक्ष में एसएमएस करते हैं उस पसंदीदा कलाकार की प्रस्तुतियां देखते हैं, उत्तेजित होते हैं, अपनी राय का इजहार करते हैं,संवाद करते हैं। इसी को देरिदा ने ‘यथार्थ प्रभाव” कहा है।
रियलिटी टेलीविजन देखते समय आमलोग पारदर्शी रूप में देखते हैं। इसकी पोर्नोग्राफी और अश्लीलता के साथ तुलना की जा सकती है। यह बर्बरता के नाटक का एकदम विलोम है। यह हिंसा जैसी बर्बरता नहीं है, किंतु यह बर्बरता है जब अभिनेता समस्त कपड़े उतार देता है,अपने मुखौटे उतार देता है और सत्य को दर्शक के सामने पेश करता है। यह ऐसा सत्य है जिसे दर्शक देखना नहीं चाहते। इसका पाठ ,अर्थ पर हावी रहता है।
रियलिटी शो में नाटकीयता के जरिए विलक्षण और विशिष्ट भाषा निर्मित की जाती है। विचार,भावभंगिमा को अवधारणा की शक्ल प्रदान की जाती है। इस प्रक्रिया में रियलिटी टीवी जब हस्तक्षेप करता है तब बर्बररूप में ही हस्तक्षेप करता है। चाहे वर्चुअल रूप में ही सही। हाल ही में ‘सच का सामना’ की पद्धति का अनुसरण करके स्त्री पर हमले घटना सिर्फ प्रमाण मात्र है।
खबरों और अन्य कार्यक्रमों अपराध की घटनाओं को ‘परफेक्ट क्राइम’ के रूप में पेश किया जा रहा है। ‘परफेक्ट क्राइम’ की घटना बनाते समय उसे महज सूचना में तब्दील कर दिया जाता है। ‘परफेक्ट क्राइम’ लोगों को आकर्षित करता है,यह ऐसा अपराध है जो उन्हें जिंदगी में अपराध से पार्थक्य रखना सिखाता है। अपराध को परफेक्ट अपराध बनाते समय टीवी अपराध को तुच्छ,साधारण अपराध,उपेक्षणीय अपराध बनाता है। अपराध की तुच्छता इनदिनों भवितव्यता अथवा नियति के रूप में आ रही है। जाहिर है जब भाग्य ही खराब है तो मनुष्य कुछ भी नहीं कर सकता। उसे भाग्य को मान लेना होगा। समर्पण कर देना चाहिए। मनुष्य से बड़ा है उसका भाग्य या नियति। ऐसी अवस्था में मनुष्य कुछ भी नहीं कर सकता।
वास्तविकता एक नियति के रूप में आ रही है,हमारी इच्छा इस नियति को देखने की होती है। हम ज्योंही इसके दृश्यों को देखना शुरू करते हैं,हम स्वयं को मीडिया ऑब्जेक्ट के रूप में देखना शुरू कर देते हैं।
( mohalla Live में मज्क़ूर आलम के लेख 'मेरा ज़ख़्मी जमीर अभी जिंदा है उर्फ एक करोड़ का झूठा सच' पर व्यक्त विचार )
हाइपररीयल की चारित्रिक विशेषता है यथार्थ को समृध्द करना। इस प्रसंग में देरिदा का तर्क है यथार्थ को समृध्द करने के नाम पर कृत्रिमता को पेश किया जाता है और उसको ही दर्ज किया जाता है। दर्ज से अर्थ है घटनाविशेष की प्रस्तुति । इस तरह की प्रस्तुतियां पुंसवाद में इजाफा करती हैं और निजता (प्राइवेसी) पर हमला करती हैं। बौद्रिलार्द ने लिखा इससे ऑबशीन के प्रति हमारे मन में आकर्षण पैदा होता है। देखने की इच्छा का ही परिणाम है कि अन्य देखने के लिए आएं।
रियलिटी शो में हम अपनी सुविधाओं ,सत्य और आराम का महिमामंडन करते हैं। रियलिटी शो या खबरों में अन्य के कष्टों को देखकर परपीडक आनंद लेते हैं। टेलीविजन इमेज यथार्थ से भी बेहतर नजर आती है। बौद्रिलार्द के शब्दों में अब हम टेलीविजन नहीं देखते बल्कि टेलीविजन हमें देखता है। रियलिटी टेलीविजन की सफलता के बाद बौद्रिलार्द का उपरोक्त कथन ज्यादा प्रामाणिक नजर आने लगा है। रियलिटी टेलीविजन हमें अच्छा इसलिए लगता है क्योंकि इसमें ”जीवंत” (लाइव) प्रस्तुतियां होती हैं। ये टेली प्रस्तुतियां हैं।
देरिदा के शब्दों में घटनाओं के आगमन का ‘स्पेस’ तैयार किया जा रहा है। उम्मीदों को गैर-उम्मीद बनाया जा रहा है। खास किस्म के वैविध्य,भिन्नता और स्वर्त:स्फूर्त्तता को टेली स्क्रिप्ट के माध्यम से बनाए रखा जाता है। रियलिटी टेलीविजन की स्क्रिप्ट स्वर्त:स्फूर्त्तता का आभास देती है। यह अ-निर्देशित है । जिसके कारण ”प्रामाणिक” को कैद करना,चरित्रों के छिपे हुए आयामों को कैमरे में कैद करना इसका लक्ष्य होता है। इसके कारण यह स्वर्त:स्फूर्त्त लगती है। देरिदा ने इस प्रक्रिया को messianism नाम दिया है। देरिदा ने Echographies of Television में लिखा है कि messianism के द्वारा घटना को निर्देशित किया जाता है। भविष्य का वायदा किया जाता है। इसका खुलापन इस बात की संभावनाओं के द्वार खोलता है कि हम आनंद ले सकें। लाइव टेलीविजन में पुष्टि और सत्य का तत्व रहता है। जिससे इसे लिखित स्क्रिप्ट वाले कार्यक्रमों जैसे-टॉक शो आदि से अलग करने में मदद मिलती है। यह सारा लाइव रीयल टाइम में सम्पन्न होता है। इस तरह के कार्यक्रम में एकल विलक्षणता होती है। इसमें जिस आकार के क्षणों को बांधने की कोशिश की जाती है वे वर्तमान का अपरिवर्तनीय रूप हैं। इसमें यह तथ्य छिपा है कि ” यह चीज तो वहां थी। ” यह भी तर्क दिया जा सकता है कि जिसे सम्बोधित किया जा रहा है वह खुश होता है कि उसे रियलिटी टेलीविजन के द्वारा सम्बोधित किया जा रहा है। किंतु ग्रहणकर्त्ता इसके अर्थनिर्माण में हिस्सा नहीं लेता। आत्मस्वीकारोक्ति के दृश्य ही यथार्थ होते हैं। वैसे ही जैसे प्रसारित कार्यक्रमों की रिपोर्टिंग का प्रधान लक्ष्य होता है दर्शकों को कार्यक्रम में व्यस्त रखना, बांधे रखना। कार्यक्रम में दर्शकों की ‘शिरकत’ को सुनिश्चित बनाने का तरीका है एसएमएस के जरिए इण्डियन आइडल जैसे कार्यक्रमों में दर्शकों को भागीदारी के लिए उद्बुध्द करना। दर्शक जिसके पक्ष में एसएमएस करते हैं उस पसंदीदा कलाकार की प्रस्तुतियां देखते हैं, उत्तेजित होते हैं, अपनी राय का इजहार करते हैं,संवाद करते हैं। इसी को देरिदा ने ‘यथार्थ प्रभाव” कहा है।
रियलिटी टेलीविजन देखते समय आमलोग पारदर्शी रूप में देखते हैं। इसकी पोर्नोग्राफी और अश्लीलता के साथ तुलना की जा सकती है। यह बर्बरता के नाटक का एकदम विलोम है। यह हिंसा जैसी बर्बरता नहीं है, किंतु यह बर्बरता है जब अभिनेता समस्त कपड़े उतार देता है,अपने मुखौटे उतार देता है और सत्य को दर्शक के सामने पेश करता है। यह ऐसा सत्य है जिसे दर्शक देखना नहीं चाहते। इसका पाठ ,अर्थ पर हावी रहता है।
रियलिटी शो में नाटकीयता के जरिए विलक्षण और विशिष्ट भाषा निर्मित की जाती है। विचार,भावभंगिमा को अवधारणा की शक्ल प्रदान की जाती है। इस प्रक्रिया में रियलिटी टीवी जब हस्तक्षेप करता है तब बर्बररूप में ही हस्तक्षेप करता है। चाहे वर्चुअल रूप में ही सही। हाल ही में ‘सच का सामना’ की पद्धति का अनुसरण करके स्त्री पर हमले घटना सिर्फ प्रमाण मात्र है।
खबरों और अन्य कार्यक्रमों अपराध की घटनाओं को ‘परफेक्ट क्राइम’ के रूप में पेश किया जा रहा है। ‘परफेक्ट क्राइम’ की घटना बनाते समय उसे महज सूचना में तब्दील कर दिया जाता है। ‘परफेक्ट क्राइम’ लोगों को आकर्षित करता है,यह ऐसा अपराध है जो उन्हें जिंदगी में अपराध से पार्थक्य रखना सिखाता है। अपराध को परफेक्ट अपराध बनाते समय टीवी अपराध को तुच्छ,साधारण अपराध,उपेक्षणीय अपराध बनाता है। अपराध की तुच्छता इनदिनों भवितव्यता अथवा नियति के रूप में आ रही है। जाहिर है जब भाग्य ही खराब है तो मनुष्य कुछ भी नहीं कर सकता। उसे भाग्य को मान लेना होगा। समर्पण कर देना चाहिए। मनुष्य से बड़ा है उसका भाग्य या नियति। ऐसी अवस्था में मनुष्य कुछ भी नहीं कर सकता।
वास्तविकता एक नियति के रूप में आ रही है,हमारी इच्छा इस नियति को देखने की होती है। हम ज्योंही इसके दृश्यों को देखना शुरू करते हैं,हम स्वयं को मीडिया ऑब्जेक्ट के रूप में देखना शुरू कर देते हैं।
( mohalla Live में मज्क़ूर आलम के लेख 'मेरा ज़ख़्मी जमीर अभी जिंदा है उर्फ एक करोड़ का झूठा सच' पर व्यक्त विचार )
लालगढ़ के असली अपराधी हैं माओवादी
संतोष राणा के आलेख में बड़े ही विस्तार और पारदर्शिता के साथ लालगढ़ आन्दोलन के बारे में विश्लेषण किया गया है ।यह विश्लेषण जिस चीज पर रोशनी डालता है वह है लालगढ़ आन्दोलन की असफलता। क्या लालगढ़ में कोई आंदोलन चल रहा था ? लालगढ़ में कोई आंदोलन नहीं चल रहा था,सालबनी की बारूदी सुरंग विस्फोट की घटना के बाद जिस तरह का बर्बर व्यवहार पुलिस ने किया था उसके लिए राज्य प्रशासन ने यदि स्थानीय लोगों की मांगों को मान लिया होता तो यह समस्या उसी दिन खत्म हो जाती। राज्य सरकार ने अपनी दीर्घकालिक योजना के तहत पुलिस कैंप हटाने का फैसला लिया था, जनता का यदि इलाके में कोई आंदोलन रहा होता तो विगत बीस सालों से निकम्मे लोग पंचायतों से लेकर लोकसभा तक चुनाव नहीं जीत पाते,इस इलाके में माकपा का विगत बीस सालों से राजनीतिक वर्चस्व नहीं है बल्कि अन्य दलों का है। लालगढ़ में माओवादियों ने जो हिंसाचार किया है,जनता को उत्पीड़ित किया है,सजाएं दी हैं,माकपा और अन्य दलों के कार्यकर्त्ताओं की हत्याएं की हैं, उन्हें लेकर क्या कानूनी और राजनीतिक कदम उठाए जाने चाहिए ? दूसरी बात, आन्दोलन और संगठन के दम पर ‘इलाका दखल’ की राजनीति मूलत: फासीवादी राजनीति है, दुर्भाग्य यह है कि माकपा से लेकर माओवादियों तक,तृणमूल कांग्रेस से लेकर कांग्रेस तक सभी दल अपने- अपने तरीके से समय-समय पर इसका दुरूपयोग करते रहे हैं। माओवादी संगठनों के पूर्वज ‘इलाका दखल’ के जनक हैं ,बाकी तो उनके अनुयायी मात्र हैं। समस्या यह है क्या भारत में लोकतंत्र और लोकतांत्रिक संस्थाओं को बंद करा दें अथवा उन्हें सुचारू रूप से काम करने दें ? माओवादियों के जो गिरोह ‘इलाका दखल’ अभियान में लगे हैं उनके बयान कितने ही क्रांतिकारी हों, वे मूलत: लोकतंत्र विरोधी हैं और राजनीतिक और सामाजिक अपराधी की कोटि में रखे जाने योग्य हैं। नागरिकों के जीवन , संपत्ति, वातावरण,रहन-सहन, स्वतंत्रताओं के हनन को ‘जनउभार’ कहना सही नहीं है। माओवादियों की कार्यशैली मूलत: माफिया सरदारों से जैसी होती है,उसमें ‘क्रांति’ ‘जनउभार’ और ‘सामाजिक परिवर्तन’ के तर्क खोजना एकसिरे से गलत है। ‘क्रांतिकारी’ भय पैदा करके,दमन करके,दंडित करके यदि वर्चस्व स्थापित करना चाहेंगे तो बुर्जुआ राज्य उन्हें चैन की नींद सोने नहीं देगा चाहे उसके लिए जो भी कीमत अदा करनी पड़े। हमें यह मानना पडे़गा कि भारत में लोकतंत्र की पुख्ता बुनियाद है और उसमें सबके लिए जगह है आप राजनीति करें,संगठित करें,जनता के लिए संघर्ष करें और लोकतंत्र बनाए रखें, भारतीय लोकतंत्र में प्रतिवाद और विकल्प राजनीति के लिए पर्याप्त जगह है।माओवाद के भारतीय संस्करण स्वभावत: भारतीय मनोदशा के विपरीत हैं।
( उपरोक्त विचार प्रसिद्ध नक्सलनेता संतोष राणा के 'काफिला' वेबसाइट पर प्रकाशित लेख के संदर्भ में व्यक्त किए गए हैं,उस लेख को देखने के लिए kafila पर जाएं। )
( उपरोक्त विचार प्रसिद्ध नक्सलनेता संतोष राणा के 'काफिला' वेबसाइट पर प्रकाशित लेख के संदर्भ में व्यक्त किए गए हैं,उस लेख को देखने के लिए kafila पर जाएं। )
ब्लॉग लेखन के दस साल और हिन्दी का भविष्य
'ब्लाग' लेखन के दस साल पूरे हो गए हैं। वर्ष 1999 में पीटर महोर्ल्ज ने इस नाम को जन्म दिया था। इसी साल सन फ्रांसिस्को की पियारा लैब ने 'वी ब्लॉग'से आगे बढकर लोगों को संवाद की सुविधा मुहैयया करायी थी,ब्लॉग की दुनिया ने आज सारी दुनिया में संवाद की प्रकृति को बदल दिया है। मार्च, 1999 में ब्रैड फिजपेट्रिक ने 'लाइव जर्नल' नामक वेब पत्रिका बनायी और लेखकों यानी ब्लागरों को इस पर लिखने की सुविधा प्रदान की। जो ब्लॉगरों को होस्टिंग की सुविधा देती थी। सन् 2003 में ओपेन सोर्स ब्लॉगिग प्लेटफार्म वर्डप्रेस का जन्म हुआ और पियारा लैब्स के ब्लॉगर को गूगल ने खरीद लिया। इसके बाद से ब्लॉगिंग की सुविधा सारी दुनिया में आम हो गयी।
'टेक्नोरॉटी' द्वारा 2008 में जारी आंकड़ों के हिसाब से पूरी दुनिया में ब्लॉगरों की संख्या 13.3 करोड़ पहुंच गई है। भारत में लगभग 32 लाख लोग ब्लॉगिंग कर रहे हैं।हिन्दी में भी ब्लॉगिंग लेखन जनप्रियता अर्जित कर रहा है। हिन्दी में ब्लॉगिंग लेखन में बड़ी संख्या में युवा लेखक,पत्रकार और बुद्धिजीवी आ रहे हैं,पुराने और वरिष्ठ लेखक भी ब्लॉग पर पढ़ना सीख रहे हैं,हो सकता है वे भी कुछ समय के बाद आने लगें। अनेक साहित्यिक पत्रिकाएं भी इन दिनों उपलब्ध है, कुछ ब्लॉग हैं जहां जमकर बहसें हो रही हैं। अभिव्यक्ित के वैविध्य के साथ हिन्दी ब्लॉग जगत समृद्ध हो रहा है।
मजेदार बात यह है कि हिन्दी का ब्लागर महज आत्मालाप और आत्मकष्टों का बखान नहीं कर रहा बल्कि बहुत कुछ सर्जनात्मक लिख रहा है। मसलन् क्रांतिकारी लोग क्रांति की बातों और क्रांति के साहित्य के वितरण में लगे हैं,कवि लोग कविता में व्यस्त हैं,टोपी उछालने वाले टोपी उछालने के धंधे में लगे हैं, कुछ युवा ब्लागर भी हैं जो बड़ी ही बेबाकी के साथ जो मन में आ रहा है लिख रहे हैं, हिन्दी में औरतें कम लिख रही हैं।
हिन्दी में विदेशों में रहने वाले ब्लॉगर भी हैं जो काफी रोचक ढ़ंग से लिख रहे हैं,फिल्म समीक्षा के ब्लाग सबसे ज्यादा जनप्रिय हैं,उसके बाद तीखे वाद-विवाद वाले ब्लॉग जनप्रियता के दायरे में आते हैं,व्यक्तिगत तौर पर लिखे जा रहे साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों के ब्लॉगों पर परिचित अपरिचित सभी किस्म के यूजर आ रहे हैं, लेकिन इनकी संख्या कम है।
हिन्दी लेखन में जिस तरह का सामंती माहौल है और बड़े लेखक,संपादक और प्रकाशक जिस तरह की गैर पेशेवर हरकतें कर रहे हैं उसे नष्ट करने में ब्लॉग संस्कृति सबसे कारगर हथियार है। भविष्य में हिन्दी को गैर पेशेवर धंधेखोरों के हाथों मुक्ति दिलाने में ब्लाग लेखन सबसे प्रभावी मंच होगा,इसका प्रकाशन,शिक्षण और भाषणकला पर भी गहरा असर होगा,ब्लॉगरों की बढ़ती संख्या हिन्दी के लिए शुभ संकेत है।
हरामखोर और कूपमंडक लेखकों,आलोचकों का भविष्य में कोई नाम लेने वाला भी नहीं मिलेगा। लेखन और भाषण में पेशेवर रवैयया और भी पुख्ता होगा। हिन्दी ब्लॉग लेखन को अपने को ज्यादा प्रभावशाली बनाने के लिए समाज के ज्वलंत राजनीतिक,आर्थिक,सांस्कृतिक सवालों पर निरंतर सक्रिय करना होगा। हिन्दी के अधिकांश बुद्धिजीवी ,लेखक और ब्लागर जब तक इस दिशा में सक्रिय नहीं होते तब तक ब्लाग जगत को परिवर्तन का उपकरण नहीं बनाया जा सकता।
हिन्दी का ब्लागर जब तक सत्ता की नीतियों पर मुखर नहीं होता तब तक सामाजिक जीवन और सत्ता के गलियारों में ब्लाग का असर दिखाई नहीं देगा। ब्लाग को सत्ता की नीतियों की आलोचना और वैकल्पिक नीतियों का मंच बनाया जाना चाहिए। ब्लाग संस्कृति को राजनीतिक अभिव्यक्ति का प्रभावी माध्यम बनाया जाना चाहिए,इस मामले में ब्लाग जगत में नक्सलवादी अभी भी बाकी विचारधारा के लोगों से आगे हैं।
'टेक्नोरॉटी' द्वारा 2008 में जारी आंकड़ों के हिसाब से पूरी दुनिया में ब्लॉगरों की संख्या 13.3 करोड़ पहुंच गई है। भारत में लगभग 32 लाख लोग ब्लॉगिंग कर रहे हैं।हिन्दी में भी ब्लॉगिंग लेखन जनप्रियता अर्जित कर रहा है। हिन्दी में ब्लॉगिंग लेखन में बड़ी संख्या में युवा लेखक,पत्रकार और बुद्धिजीवी आ रहे हैं,पुराने और वरिष्ठ लेखक भी ब्लॉग पर पढ़ना सीख रहे हैं,हो सकता है वे भी कुछ समय के बाद आने लगें। अनेक साहित्यिक पत्रिकाएं भी इन दिनों उपलब्ध है, कुछ ब्लॉग हैं जहां जमकर बहसें हो रही हैं। अभिव्यक्ित के वैविध्य के साथ हिन्दी ब्लॉग जगत समृद्ध हो रहा है।
मजेदार बात यह है कि हिन्दी का ब्लागर महज आत्मालाप और आत्मकष्टों का बखान नहीं कर रहा बल्कि बहुत कुछ सर्जनात्मक लिख रहा है। मसलन् क्रांतिकारी लोग क्रांति की बातों और क्रांति के साहित्य के वितरण में लगे हैं,कवि लोग कविता में व्यस्त हैं,टोपी उछालने वाले टोपी उछालने के धंधे में लगे हैं, कुछ युवा ब्लागर भी हैं जो बड़ी ही बेबाकी के साथ जो मन में आ रहा है लिख रहे हैं, हिन्दी में औरतें कम लिख रही हैं।
हिन्दी में विदेशों में रहने वाले ब्लॉगर भी हैं जो काफी रोचक ढ़ंग से लिख रहे हैं,फिल्म समीक्षा के ब्लाग सबसे ज्यादा जनप्रिय हैं,उसके बाद तीखे वाद-विवाद वाले ब्लॉग जनप्रियता के दायरे में आते हैं,व्यक्तिगत तौर पर लिखे जा रहे साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों के ब्लॉगों पर परिचित अपरिचित सभी किस्म के यूजर आ रहे हैं, लेकिन इनकी संख्या कम है।
हिन्दी लेखन में जिस तरह का सामंती माहौल है और बड़े लेखक,संपादक और प्रकाशक जिस तरह की गैर पेशेवर हरकतें कर रहे हैं उसे नष्ट करने में ब्लॉग संस्कृति सबसे कारगर हथियार है। भविष्य में हिन्दी को गैर पेशेवर धंधेखोरों के हाथों मुक्ति दिलाने में ब्लाग लेखन सबसे प्रभावी मंच होगा,इसका प्रकाशन,शिक्षण और भाषणकला पर भी गहरा असर होगा,ब्लॉगरों की बढ़ती संख्या हिन्दी के लिए शुभ संकेत है।
हरामखोर और कूपमंडक लेखकों,आलोचकों का भविष्य में कोई नाम लेने वाला भी नहीं मिलेगा। लेखन और भाषण में पेशेवर रवैयया और भी पुख्ता होगा। हिन्दी ब्लॉग लेखन को अपने को ज्यादा प्रभावशाली बनाने के लिए समाज के ज्वलंत राजनीतिक,आर्थिक,सांस्कृतिक सवालों पर निरंतर सक्रिय करना होगा। हिन्दी के अधिकांश बुद्धिजीवी ,लेखक और ब्लागर जब तक इस दिशा में सक्रिय नहीं होते तब तक ब्लाग जगत को परिवर्तन का उपकरण नहीं बनाया जा सकता।
हिन्दी का ब्लागर जब तक सत्ता की नीतियों पर मुखर नहीं होता तब तक सामाजिक जीवन और सत्ता के गलियारों में ब्लाग का असर दिखाई नहीं देगा। ब्लाग को सत्ता की नीतियों की आलोचना और वैकल्पिक नीतियों का मंच बनाया जाना चाहिए। ब्लाग संस्कृति को राजनीतिक अभिव्यक्ति का प्रभावी माध्यम बनाया जाना चाहिए,इस मामले में ब्लाग जगत में नक्सलवादी अभी भी बाकी विचारधारा के लोगों से आगे हैं।
शनिवार, 22 अगस्त 2009
संचार क्रांति,संस्कृति और समाज
संचार क्रान्ति की विश्व में लम्बी परंपरा है। यह कोई यकायक घटित परिघटना नहीं है। 19वीं शताब्दी के अंत और 20वीं शताब्दी के आरंभ में प्रकृति विज्ञान की खोजों ने तकनीकी क्रांति का आधार तैयार किया था। पहला भाप का इंजन 1708 में आया और सुधार के बाद जेम्सवाट ने 1775 में बनाया। पहला रेलमार्ग 1829 में लीवरपूल से मैनचैस्टर के बीच बना।पहली कार 1909 में बाजार में आई।पहला जेट विमान 1937 में आया।यानी भाप के इंजन से जेट के इंजन तक की तकनीकी यात्रा में 229 वर्षों का समय लगा।
जबकि पहली पीढ़ी का कंप्यूटर 1946 में आया।दूसरी ,तीसरी और चौथी पीढ़ी का कम्प्यूटर क्रमश:सन् 1956,1965और 1988 में आया।यानी कम्प्यूटर क्रांति पांचवीं पीढ़ी के परिवर्तनों तक मात्र 36 वर्षों में पहुंच गई। सतह पर देखें तो कम्प्यूटर क्रांति की गति औद्योगिक क्रांति से तीव्र नजर आएगी। यानी 6.4 गुना ज्यादा तीव्र गति से सूचना तकनीकी का विकास हुआ।गति की तीव्रता का कारण है तकनीकी, ,ज्ञान,विज्ञान,एवं सैध्दान्तिकी के पूर्वाधार की मौजूदगी। इसके विपरीत औद्योगिक क्रांति के समय आधुनिक ज्ञान-विज्ञान का पूर्वाधार मौजूद नहीं था।
औद्योगिक क्रांति के साथ समाज में जन-उत्पादन,जन-सेवा,जनसंचार,जन-परिवहन और बाजार के नए रुपों का जन्म हुआ।उत्पादन का क्षेत्र फैक्ट्ी थी।उसमें अवस्थित मशीन और उपकरण ही सामाजिक उत्पादन के केन्द्र बिन्दु थे। औद्योगिक क्रांति से उपजी आकांक्षाओं ने उपनिवेशों को जन्म दिया।नए महाद्वीपों की खोज को संभव बनाया।श्रम- विभाजन का विस्तार किया।विशेषीकरण को जन्म दिया।सार्वभौम उत्पादन पर बल दिया।सार्वभौमत्व को अनिवार्य फिनोमिना बना दिया।निजी व्यापार,निजी पूंजी और निजी संपत्ति पर बल दिया।
'कम्युनिस्ट घोषणापत्र'(1848) में कार्ल मार्क्स एवं फ्रेड़रिक एंगेल्स ने लिखा ''पूंजीपति वर्ग ने , जहां पर भी उसका पलड़ा भारी हुआ,वहॉ सभी सामन्ती,पितृसत्तात्मक और काव्यात्मक संबंधों को नष्ट कर दिया।उसने मनुष्यों को अपने ''स्वाभाविक बड़ों'' के साथ बांध रखने वाले नाना प्रकार के सामंती संबंधों को निर्ममता से तोड़ डाला;और नग्न स्वार्थ के,''नकद पैसे- कौड़ी'' के हृदय-शून्य व्यवहार के सिवा मनुष्यों के बीच दूसरा संबंध बाकी नहीं रहने दिया।धार्मिक श्रध्दा के स्वर्गोपम आनंदातिरेक को ,वीरोचित उत्साह और कूपमंडूकतापूर्ण भावुकता को उसने आना-पाई के स्वार्थी हिसाब-किताब के बर्फ़ीले पानी में डुबो दिया है।मनुष्य के वैयक्तिक मूल्य को उसने विनिमय मूल्य बना दिया है,और पहले के अनगिनत अनपहरणीय अधिकार पत्र द्वारा प्रदत्त स्वातंत्र्यों की जगह अब उसने एक ऐसे अंत:करणशून्य स्वातंत्र्य की स्थापना की है जिसे मुक्त व्यापार कहते हैं।संक्षेप में, धार्मिक और राजनीतिक भ्रमजाल के पीछे छिपे शोषण के स्थान पर उसने नग्न,निर्लज्ज, प्रत्यक्ष और पाशविक शोषण की स्थापना की है।'' यही वह परिप्रेक्ष्य है जब जीवन में आधुनिक संचार ,परिवहन और उत्पादन के रुपों के निर्माण का सिलसिला शुरु हुआ। इसी अर्थ में आधुनिक युग पूर्व के युगों से बुनियादी तौर से अलग है।
लेखकद्वय की राय है ''उत्पादन के औजारों में क्रांतिकारी परिवर्तन और उसके फलस्वरुप उत्पादन के संबंधों में,और साथ-साथ समाज के सारे संबंधों में क्रातिकारी परिवर्तन के बिना पूंजीपति वर्ग जीवित नहीं रह सकता।इसके विपरीत,उत्पादन के पुराने तरीकों को ज्यों का त्यों बनाए रखना पहले के सभी औद्योगिक वर्गों के जीवित रहने की पहली शर्त्त थी। उत्पादन में निरंतर क्रांतिकारी परिवर्तन ,सभी सामाजिक व्यवस्थाओं में लगातार उथल-पुथल,शाश्वत अनिश्चितता और हलचल -ये चीजें पूंजीवादी युग को पहले के सभी युगों से अलग करती हैं। सभी स्थिर और जड़ीभूत संबंध,जिनके साथ प्राचीन और पूज्य पूर्वाग्रहों तथा मतों की एक पूरी श्रृंखला जुड़ी होती है,मिटा दिए जाते हैं,और सभी नए बनने वाले संबंध जड़ीभूत होने के पहले ही पुराने पड़ जाते हैं। जो कुछ भी ठोस है वह हवा में उड़ जाता है,जो कुछ भी पावन है वह भ्रष्ट हो जाता है,और आखिरकार मनुष्य संजीदा नज़र से जीवन के वास्तविक हालतों को, मानव-मानव के आपसी संबंधों को देखने के लिए मजबूर हो जाता है।'' यही वह प्रस्थान बिन्दु है जिसके कारण साहित्य के केन्द्र में मनुष्य आया। साहित्य में जीवन के सामयिक प्रश्नों को अभिव्यक्ति मिली। उत्पादन की तकनीकी के बदल जाने से जीवन बदला वहीं दूसरी ओर साहित्य की अवधारणा बदली। उत्पादन और विनिमय के उपकरण बदलते हैं तो संचार के उपकरण भी बदलते हैं। जिनको सूचना शास्त्रियों ने संचार-क्रांति के विभिन्न चरणों के रुप में व्याख्यायित किया है। 'संचार क्रांति' पदबंध बुनियादी तौर पर बुर्ज़ुआ संचारविदों का चलाया हुआ है।संचार क्रांति के प्रति बुर्ज़ुआ और क्रांतिकारी सूचनाशास्त्रियों का रुख अलग - अलग है। यहां तक कि बुर्जुआ विचारकों में संचार क्रांति से जुड़े सवालों पर गहरे मतभेद हैं।
संचार क्रांति और साहित्य के अन्त:संबंध पर विचार करते समय यह बात ध्यान रखें कि संचार का आदिमरुप स्वयं साहित्य है।संचार क्रांति का अर्थ मात्र सूचनाओं का संचार करना नहीं है। संचार का अर्थ मानवीय हाव-भाव का संचार करना भी नहीं है। संचार का मतलब है मनुष्य के भावों,विचारों, संवेदनाओं और मानवीय क्रियाओं का व्यक्ति से व्यक्ति की तरफ संचार,यही संचार संबंध है। संचार क्रांति का साहित्य पर क्या प्रभाव पड़ा यह जानने के लिए मुख्य संचार उपकरणों से किस तरह की संवृतियों का उदय हुआ ?किस तरह साहित्य की धारणा बदली ?और मौजूदा संचार क्रांति के कारण किस तरह का साहित्य और साहित्य रुपों का जन्म हुआ ?यह जानना समीचीन होगा।
मुद्रण तकनीक- भारत में सन् 1550 में सबसे पहले दो मुद्रण की मशीनें इंग्लैंड़ से लाई गईं। किन्तु छपाई सन् 1557 से ही शुरु हो पाई। सबसे पहले सेंट फ्रांसिस जेवियर ने धार्मिक प्रश्नोत्तरी छापी। वह प्रथम प्रकाशक था।मुद्रण की मशीन लगाने का मूल उद्देश्य ईसाइयत का प्रचार करना था। तिन्नेलवल्ली जिले के पुन्नीकेल नामक स्थान पर सन् 1578 में पहला प्रेस स्थापित किया गया।
दूसरा प्रेस सौ वर्ष बाद 1679 में त्रिचुर के दक्षिण में अंबलकाद नामक स्थान पर स्थापित किया। हिन्दी में मुद्रित ग्रंथों की परंपरा 1802 से शुरु होती है। डा.कृष्ष्णाचार्य ने अपने शोध ग्रंथ ''हिन्दी के आदि मुद्रित ग्रंथ''में 1802 से पहले किसी मुद्रित ग्रंथ का जिक्र नहीं किया है।
प्रेस के आने के बाद पांडुलिपि का लोप हुआ और उसकी जगह पुस्तक आई।कृति दीर्घायु हुई। पुस्तक का लौकिकीकरण हुआ।चूंकि प्रेस ने सबसे पहले धार्मिक साहित्य छापा। अत:धर्म का लौकिकीकरण सबसे पहले हुआ।अब पुस्तक पूजा की वस्तु न होकर स्वयं में एक वस्तु और माल बन गई।उसके अंदर निहित देवत्व भाव नष्ट हुआ।भाषा के क्षेत्र में व्याप्त अराजकता का खात्मा हुआ। मानक भाषा का जन्म हुआ।इससे साहित्यिक भाषा का निर्माण हुआ।गीत और कविता में अंतर पैदा हुआ।गीत और कविता की भाषिक संरचना में अंतर आया।शैली की विविधताओं का जन्म हुआ। गद्य का जन्म हुआ।
ई.एम. फोर्स्टर ने लिखा मुद्रणकला के गर्भ से ही चिरस्मरणीयता का जन्म हुआ।लेखन की नई संरचना,वाक्य-विन्यास,नई भाषा के साथ-साथ देशज भाषाओं का विकास हुआ।समाज में निर्वैयक्तिकता और विशेषीकरण की चल रही पूंजीवादी प्रक्रिया ने रचनाकर्म को प्रभावित किया। इसने विचारों की दुनिया मे भी विभाजन पैदा किया।समाज में प्रतिस्पर्धा एवं निरंतरता की गति को तेज किया।अब किताब एक वस्तु थी,लेखक से स्वतंत्र उसकी सत्ता थी।मुद्रण की मशीन ने पुस्तक की पुरानी छबि को तोड़ा।उसे स्वायत्त बनाया।चिरस्थायी बनाया।
उल्लेखनीय है कि प्रेस का जन्म औद्योगिक क्रांति के साथ हुआ।प्रेस क्रांति को संभव बनाने में लंकाशायर की मिलों की महत्वपूर्ण भूमिका थी।यूरोपीय जनता में विदेशी कपड़ों की बढ़ती हुई मांग को इन मिलों ने पूरा किया।सन् 1790के बाद यूरोप में कपड़े की कमी खत्म हो गई।बने-बनाए कपड़े मिलने लगे। साथ ही कपड़े का गुदड़ा जो कि कागज के लिए कच्चा माल था ,उसका एकमात्र स्रोत था, वह बड़े पैमाने पर उपलब्ध हुआ। इससे कागज के मामले में इंग्लैंड आत्मनिर्भर बन गया। पहले कागज हाथ से बनाया जाता था,बाद में मशीन से बनने लगा।ये मशीनें पानी और भाप से चलती थीं।इससे कागज सस्ता और ज्यादा मात्रा में तैयार होता था। लेखक की स्वायत्त सत्ता का निर्माण हुआ। लेखकीय स्वतंत्रता का जन्म हुआ।पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन शुरु हुआ। यही वह संदर्भ है जब साहित्य , विश्व साहित्य और जातीय साहित्य की एकदम नई अवधारणा का जन्म हुआ। प्रेस के कारण लेखक ,पाठक, पाठ और समाज के बीच में नए रिश्ते की शुरुआत हुई।राष्ट्वाद और स्वतंत्रता की भावना पैदा हुई।यहां इन धारणाओं पर विचार करना सही होगा।
विश्व साहित्य- 'विश्व साहित्य' पदबंध का सबसे पहले प्रयोग गोयते ने किया था।यह'वेल्ट लिटरेचर' का अनुवाद है। सन् 1827 में उसने इसी शीर्षक से उसने एक कविता भी लिखी।गोयते ने विश्व साहित्य की धारणा उस युग को ध्यान में रखकर दी थी जब समूचे संसार का साहित्य एक हो जाएगा।बाद में ''कम्युनिस्ट घोषणापत्र'' में कार्ल मार्क्स एवं फ्रेडरिक एंगेल्स ने 'विश्व साहित्य' की अवधारणा पर विचार करते हुए लिखा ''भौतिक उत्पादन की ही तरह,बौध्दिक उत्पादन जगत में भी यही परिवर्तन घटित हुआ है।अलग- अलग राष्ट्रों की बौध्दिक कृतियां सार्वभौमिक संपत्ति बन गयी हैं। राष्ट्रीय एकांगीपन और संकुचित दृष्ष्टिकोण-दोनों ही असंभव होते जा रहे हैं, और अनेक राष्ट्रीय और स्थानीय साहित्यों से एक विश्व साहित्य उत्पन्न हो रहा है।''
जातीय साहित्य- जातीय साहित्य की धारणा के निर्माण के लिए जातीय साहित्य जरुरी है। जातीय साहित्य के लिए जातीय भाषा का निर्माण और जातीय भाषा के लिए जातीय गठन की आर्थिक - सामाजिक प्रक्रिया आवश्यक है।जाति,जातीय भाषा ,और जातीय साहित्य के वगैर जातीय साहित्य की अवधारणा असंभव है।रामविलास शर्मा के अनुसार '' जाति वह मानव समुदाय है जो व्यापार द्वारा पूंजीवादी संबंधों के प्रसार में गठित होती है। सामाजिक विकास क्रम में मानव समाज पहले जन या गण के रुप में गठित होता है।सामूहिक श्रम और सामूहिक वितरण गण-समाज की विशेषता है और उसके सदस्य आपस में एक-दूसरे से रक्त संबंध के आधार पर सम्बध्द माने जाते हैं।इन गण समाजों के टूटने पर लघुजातियाँ बनती हैं जिनमें उत्पादन छोटे पैमाने पर होता है और नए श्रम विभाजन के आधार पर भारतीय वर्ण-व्यवस्था जैसी समाज व्यवस्था का चलन होता है। पूंजीवादी युग में इन्हीं लघु जातियों से आधुनिक जातियों का निर्माण होता है।''
इसी तरह जातीय भाषा का स्थान उसे मिलता है जो प्रमुख व्यापारिक केन्द्र की भाषा होती है।वही भाषा प्रमुख संपर्क भाषा बन जाती है। जातीयता का विकास साझा भाषा,साझा संस्कृति, और साझा बाजार के आधार पर होता है।भारत में जिस भाषा ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद ,कृषि दासता,जाति-प्रथा,मध्यकालीन बोध और सामंतवाद के खिलाफ संघर्ष किया उसने जातीय भाषा के रुप में स्वीकृति प्राप्त की। वहां जातीय चेतना और जातीय साहित्य का विकास हुआ। इसी तरह साहित्य की धारणा बदली।
बालकृष्ण भट्ट ने जुलाई 1881 के 'हिन्दी प्रदीप' में लिखा ''साहित्य जन समूह के हृदय का विकास है।''बाद में महावीर प्रसाद द्विवेदी ने माना ''ज्ञान राशि के संचित कोश का नाम साहित्य है।''आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा ''साहित्य जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब है।''इस तरह साहित्य की सामयिक साहित्यांदोलनों के कारण धारणा बदलती रही। टेलीग्राफ- भारत में 'दूरसंचार' का श्री गणेश सन् 1813 में हुआ।उस समय कलकत्ता और गंगासागर द्वीप के बीच 'सिगनल' के रुप में इस तकनीक का प्रयोग शुरु हुआ।जबकि पहली इलैक्ट्रिक टेलीग्राफ लाइन का निर्माण सन्1839 में हुआ। इसे कलकत्ता और डायमंडहारबर के बीच शुरु किया गया।आम जनता के लिए टेलीग्राफ सेवाएं सन् 1855 में शुरु हुईं।जबकि 'इंडो-यूरोपियन' टेलीग्राफ लाइन का निर्माण सन् 1867-1870 के बीच एक जर्मन फर्म ने किया। इसके जरिए लंदन, बर्लिन, वारसा,उडीसा,तेहरान, बुशहर, कराची,आगरा,और कलकत्ता को जोड़ा गया।सन् 1860 में लंदन और भारतीय उपमहाद्वीप को जोड़ा गया। यह कार्य स्वेज नहर के माध्यम से किया गया।सन् 1870 में लंदन-बंबई के बीच समुद्री जहाज के जरिए दूरसंचार संपर्क की शुरुआत हुई।भारत में टेलीप्रिण्टर का प्रयोग 1929 के करीब कलकत्ता में शुरु हुआ।निजी टेलीफोन लाइन सन्1875 में बिछाई गई। सन् 1881 में निजी कंपनियों को टेलीफोन व्यवस्था चलाने के लाइसेंस दिए गए।सन् 1890 में रेलवे को टेलीग्राफ और टेलीफोन से जोड़ा गया।
टेलीग्राफ के उदय के बाद ही 'संप्रेषण' और 'परिवहन' में अंतर आया।वस्तु की 'शारीरिक गति' से 'संदेश' अलग हुआ।साथ ही संप्रेषण के माध्यम से शारीरिक प्रक्रिया को सक्रिय रुप से नियंत्रित करने में मदद मिली।आरंभ में रेलमार्गों का इससे नियंत्रण आदर्श उदाहरण है।इससे संप्रेषण ज्यादा प्रभावी ,बहुआयामी और गुणात्मक तौर पर बदल गया। टेलीग्राफ ने 'संप्रेषण' और 'परिवहन' की 'तथ्य' और 'प्रतीक' के रुप में अवधारणा ही बदल दी।पूर्व टेलीग्राफ युग की निर्भरता को टेलीग्राफ ने पूरी तरह खत्म कर दिया। उसी क्रम में संप्रेषण की पुरानी धारणा का लोप हो गया। इससे संचार की स्वायत्त स्थिति पैदा हुई।'संचार' के नए माध्यम के जरिए किसी भी संदेश को परिवहन से भी तीव्र गति से भेजा जा सकता था।अब संप्रेषण भौगोलिक बंधनों से मुक्त था।धार्मिक आवरण से मुक्त था। इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो टेलीग्राफ मात्र व्यापार विस्तार के उपकरण में ही विकसित होकर नहीं आया अपितु उसने सोचने,समझने,संप्रेषित करने और विकास की धारणा ही बदल दी।ध्यान रहे टेलीग्राफ और बिजली के बीच गहरा संबंध है।यह संबंध विध्वंसक और पुनर्निर्माण दोनों का है।
टेलीग्राफ ने लिखित शब्द की प्रकृति और ज्ञान की प्रक्रिया को ही बदल दिया।उसने मानक भाषा को अभिव्यक्ति का आधार बनाया।फलत: पत्रकारिता से बोलचाल या आंचलिक भाषा की विदाई हो गई।भाषा में चकमा देने,व्यंग्योक्तिपूर्ण और हास्यमय अभिव्यक्ति के पुराने रुपों का खात्मा हो गया।साथ ही कहानीपरक शैली का खात्मा हो गया।भाषा जिन संबंधों को जोड़ती है टेलीग्राफ उन संबंधों को बदल देता है।वह प्रत्यक्ष निजी संपर्क,प्रत्यक्ष संवाद,प्रत्यक्ष पत्र-व्यवहार आदि को यांत्रिक शक्ति के अधीन कर देता है।वह सामाजिक संबंधों के मानवीय सारतत्व को खत्म करके उनकी जगह 'बिक्रेता' और 'खरीददार' के नए संबंध बनाता है।लेखक और पाठक के बीच नए संबंध बनाता है।
कहानी में उसने आदिम सरल-सपाट एवं कठोर भाषा का निर्माण किया।यह कृत्रिम भाषा है। टेलीग्राफ की भाषा का कहानी पर प्रभाव देखना हो तो हेमिंग्वे की कहानी की भाषा देखें। नामवर सिंह के शब्दों में वाक्य जैसे सिले हुए होठों से निकलते हैं।भाषा का प्रवाह क्या है कि 'स्टापवाच'। 'क्लिक' और घड़ी चालू।'क्लिक'और घड़ी बंद। एक-एक वाक्य जैसे किसी मशीन से बराबर- बराबर काटा हुआ।किसी तरह भावावेग प्रकट न हो।शब्द किसी सूखी नदी में बिछे हुए छोटे-छोटे चमकते पत्थर। यह भाषा दृश्य चित्र प्रस्तुत करने के लिए है,न वर्णन करने के लिए और न कथा कहने के लिए।यह भाषा में अमानवीयता है। टेलीग्राफ से संप्रेषित करने के लिए लेखक को अपनी सामग्री को टेलीग्राफिक भाषा में लिखना होता है।लेखक ने प्रत्यक्षदर्शी के तौर पर जो देखा होता है उसे वह उस भाषा में लिख नहीं पाता। टेलीग्राफ के उदय के बाद 'टाइम' और 'स्पेस' की धारणा में परिवर्तन हो जाता है। अटकलबाजी या अनुमान को 'स्पेस'से निकालकर 'टाइम' में ले जाता है।'टेलीफोन' के आविष्कार के बाद उसने 'स्पेस' को और भी पीछे धकेल दिया।उसने मध्यस्थ और भावी बाजार के बीच संबंध बनाया।अब 'टाइम' महत्वपूर्ण हो उठा।
टेलीविजन - टेलीविजन का साहित्य पर व्यापक प्रभाव पड़ा है। टेलीविजन के कारण धारावाहिक या सीरियल जैसी विधा का जन्म हुआ। साथ ही टेलीविजन कहानी जैसी स्वतंत्र विधा का जन्म हुआ। टेलीविजन कहानी में कहानी न होकर 'प्लाट' होता है। अथवा 'घटना' होती है। अथवा छोटे-छोटे घटना प्रसंग होते हैं। इसमें प्रसंग पर कम और घटना पर ज्यादा जोर होता है। अब हम 'घटना' को ही 'कथानक' मान लेते हैं।बातचीत के रुप को ही कहानी समझने लगे हैं।इस सबके कारण कहानी से कहानीपन का लोप हुआ है। कहानीपन के लोप को कैमरे की चालाकियों से भरने की कोशिश की जाती है।इससे कहानीपन का भ्रम पैदा होता है।टेलीविजन कहानी अंतर्विरोधों को छिपाने का काम करती है।वहां विरोधी तत्वों को कभी-कभी बाहर रखकर द्वन्द्व का तीव्र गति से समाधान कर दिया जाता है।अथवा खंड़-खंड़ में इतना लम्बा खींच दिया जाता है कि कथानक सपाट हो जाता है।वस्तु पर उद्देश्य का आरोप होने लगता है।इससे वह अपनी सार्थकता खो देता है।टेलीविजन कहानी का सत्य 'वस्तु' का सत्य होता है।यह दष्ष्टा का सत्य नहीं है बल्कि भोक्ता का सच है।यह टेलीविजन स्फीति का परिणाम है।टेलीविजन कहानी विराटता,व्यापकता और खंड़-खंड़ में महीनों,वर्षों तक चलती है। धारावाहिक का दर्शक एक देखता है तो दूसरा मांगता है और यह सिलसिला कभी खत्म नहीं होता।
संचार क्रांति का साहित्य - संचार क्रान्ति के चौथे चरण में साहित्य कैसा होगा ?साहित्य में किस तरह के प्रश्न उठेंगे?संचार क्रांति के प्रथम से लेकर तीसरे चरण तक के दौर में रचे गए साहित्य के प्रति किस तरह का रवैय्या होगा ?इत्यादि सवालों के समाधान खोजने की जरुरत है।
जैसा कि सर्वविदित है कि हम यांत्रिक पुनरुत्पादन के युग में रह रहे हैं। बाल्टर बेंजामिन ने यांत्रिक पुनरुत्पादन के युग में कलाओं की अवस्था पर विचार करते हुए लिखा था कि ''यांत्रिक पुनरुत्पादन के इस युग में जो ऋण नष्ट होता है,वह कलाकष्ति का प्रभामंडल है।एक अन्य बात यह कि पुनरुत्पादन की तकनीक पुनरुत्पादित वस्तु को परंपरा के दायरे से बाहर कर देती है। अनेक कलाकृतियां बना कर किसी कलाकृति के अनूठे अस्तित्व को बहुसंख्यक नकलों में बदल दिया जाता है। दर्शक या श्रोता इस तरह पुनरुत्पादित कलाकृति को जैसे चाहे इस्तेमाल कर सकता है ,इसलिए अनुकृति में भी एक तरह की क्रियाशीलता पैदा हो जाती है।ये दो प्रक्रियाएं परंपरा को जबर्दस्त झटका देती हैं जो समकालीन संकट और मानव मात्र के पुनर्जागरण का ही दूसरा पहलू है। ये दोनों ही प्रक्रियाएं समकालीन जन-आन्दोलनों से घनिष्ठ रुप से जुड़ी हुई हैं।''
संचार क्रांति के वर्तमान दौर में कम्प्यूटर ,स्वचालितीकरण,सूचना प्रौद्योगिकी,उपग्रह प्रौद्योगिकी और संस्कृति उद्योग का वर्चस्व है।साथ ही साहित्य में उत्तर-आधुनिकतावाद इस युग का प्रमुख फिनोमिना है। इसमें समग्रता,रैनेसां,यथार्थवाद,मार्क्सवाद, और राजनीतिक अर्थशास्त्र का विरोध व्यक्त हुआ है। यहां हम सिर्फ कुछ उत्तर-आधुनिक धारणाओं तक सीमित रखेंगे।
उत्तर-आधुनिक समाज में श्रेष्ठ और निम्न कलाओं का अंतर खत्म हो जाता है। उसी तरह साहित्य और बाजारु साहित्य का फ़र्क भी मिट जाता है।उच्च संस्कृति और निम्न संस्कृति का भेद भी मिट जाता है।संस्कृति का पूरी तरह वस्तुकरण हो जाता है।यह वस्तुकरण व्यक्तिगत,सांस्कृतिक और सामाजिक क्षेत्र में प्रवेश कर जाता है।यहां तक कि ज्ञान,सूचना और अवचेतन को वस्तुकरण प्रभावित करता है। फ्रेडरिक जैम्सन के अनुसार पूंजीवाद के तीन चरण हैं।1.बाजार पूंजीवाद,2.इजारेदार पूंजीवाद और 3.बहुराष्ट्रीय पूंजीवाद।इन तीन अवस्थाओं में क्रमश:यथार्थवाद, आधुनिकतावाद और उत्तर- आधुनिकतावाद की अभिव्यक्ति हुई।यह वर्गीकरण फ्रेड़रिक जैम्सन ने ''उत्तर-आधुनिता और उपभोक्ता समाज''(1885)शीर्षक निबंध में किया है।
जैम्सन का मानना है युगों के बीच में पूरी तरह विभाजन का यह अर्थ नहीं है कि उनकी अंतर्वस्तु में भी पूरी तरह परिवर्तन हो जाता है।किन्तु एक अंतर जरुर आया है,मसलन् जो प्रवृति पहले हाशिए पर थी वह मुख्य हो गई और जो मुख्य थी वह गौण हो गई। जैम्सन के मुताबिक उत्तर-आधुनिकतावाद का उदय ऐसे समय में हुआ जब आधुनिकतावाद की प्रौद्योगिकी और नायकों की प्रतिमाएं संस्थागत रुप में रुपान्तरित हो गई।अथवा संग्रहालयों और विश्वविद्यालयों में स्थापित हो गईं। उत्तर-आधुनिकतावादी संस्कृति की यह खूबी है कि इसमें भय अंतर्निहित है,साथ ही मनुष्य को इतिहासबोध से रहित बनाती है।हमारी समसामयिक संरचना अपने अतीत को जानने की क्षमता खो चुकी है।वर्तमान में निरंतर जीने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। आधुनिकता के रुपों में महत्वपूर्ण परिवर्तन घट रहे हैं।अतीत के रुपों और शैलियों से विच्छिन्नता पर इस युग में जोर दिया जा रहा है।
उत्तर- आधुनिक युग में राजनीतिक संवादों का मनोरंजन एवं विज्ञापन की आचार-संहिता में समर्पण दिखाई देता है। उत्तर-आधुनिकता ने सत्य,व्यक्तिनिष्ठता,तर्क आदि की पुरानी धारणा को चुनौती दी।उसने संस्कृति के कुछ रुपों को बढ़ाबा देकर समग्रता को नियमित करने की कोशिश की। आभासी यथार्थवाद और सिजोफ्रेनिया पर जोर दिया। उत्तर-आधुनिक संस्कृति सांस्कृतिक प्रभुत्व की संस्कृति है।इसमें गांभीर्य का अभाव है।इस दौर में आम सांस्कृतिक व्याख्याएं सतही दृष्ष्टिकोण को सामने लाती हैं और ऐतिहासिक दष्ष्टिकोण को कमजोर बनाती हैं।विषय को विकेन्द्रित करती हैं।भावात्मक शैली पर जोर देती हैं।अब 'काल' सबसे प्रमुख हो जाता है। क्षणभंगुरता और विखंड़न प्रमुख हो उठते हैं।इमेज का दर्जा वास्तव से बड़ा हो जाता है।वैज्ञानिक और नैतिक फैसलों के प्रति विश्वास घटने लगता है। जॉन मेकगोवान के शब्दों में ''उत्तर-आधुनिकतावाद एक ऐसी फिसलनदार पदावली है कि हम उसे आसानी से स्थिर नहीं कर सकते।'' जबकि रिचर्ड रोर्ती के शब्दों में यह ''बिडम्बनात्मक सैध्दान्तिकी'' है,जो हर शाश्वत सत्य और अनिवार्यताओं की खोज के विरुध्द है।जो किसी एक व्याख्या या निष्कर्ष की योजना को चुनौती है।
उत्तर-आधुकितावाद के विद्वान् एहाव हसन के अनुसार यह ऐसा साहित्य है जिसमें साहित्य के सभी केन्द्रीय सिध्दान्तों का लोप हो जाता है।उत्तर-आधुनिक साहित्य गंभीर साहित्य के प्रति अविश्वास पैदा करता है। उत्तर-आधुकितावाद को विश्व प्रसिध्दि दिलाने में ज़ीन फ्रांसुआ ल्योतार का नाम सबसे आगे है। उनकी विश्व प्रसिध्द कृति ''पोस्ट मॉडर्न कण्डीशंस'' ने इस आंदोलन को जनप्रिय बनाया। ल्योतार ने बुनियादी तौर पर''ग्रहण करो या छोड़ो'' की पध्दति का प्रयोग करते हुए लिखा है।ल्योतार ने उत्तर-आधुनिकतावाद को आधुनिकता के विकास के रुप में ही देखा है। आधुनिकतावाद के बारे में ल्योतार ने कहा जब कोई लेखक निश्चित पाठकों को ध्यान में रखकर लिखता है।तब साथ ही साथ पाठक भी होता है।क्यों कि वह पाठक के नजरिए से चीजों को देखने की कोशिश करता है।साथ ही लेखक के रुप में उत्तर देता है।यह शास्त्रीयतावाद है।किन्तु हम जिसे आधुनिकता कहते हैं उसमें लेखक जानता नहीं है कि वह किसके लिए लिख रहा है।क्योंकि उसके सामने कोई अभिरुचि नहीं होती।उसके पास ऐसे आंतरिक मूल्य नहीं होते जिनके आधार पर वह चयन कर सके।वह कुछ चुनता है और कुछ का त्याग करता है।उसका सब कुछ लेखन के सामने तथ्य रुप में खुला होता है।वह अपनी पुस्तक को वितरण के नैटवर्क तक ले जाता है किन्तु यह ग्रहण्ा का नैटवर्क नहीं है।बल्कि आर्थिक नैटवर्क है,बिक्री का नैटवर्क है, अब पुस्तक के साथ क्या होगा कोई नहीं जानता। कौन पुस्तक कब पढ़ी जाएगी और किसके द्वारा पढ़ी जाएगी इसका कोई मूल्यगत आधार नहीं है।बल्कि उसका मनमाना आधार है।और उसकी उम्र बहुत कम होतीहै।बतर्ज ल्योतार जिस कला रुप की निश्चित ऑड़िएंस का पता हो उसे शास्त्रीयतावाद कहेंगे। ल्योतार का मानना है व्यंग्य आधुनिकता की सारवान अभिव्यक्ति है।ल्योतार ने न्याय के सवाल पर विस्तार से विचार किया है। कुछ लोगों के लिए न्याय का प्रश्न प्लेटोनिक प्रश्न है। प्लेटो मानता था किसी समाज में जो कुछ उपलब्ध है उसे सब में बांट दो। न्याय के बारे में भी कुछ लोग ऐसा ही सोचते हैं।न्याय के प्लेटोनिक नजरिए को ल्योतार अस्वीकार करते हैं।ल्योतार के लिए न्याय का मतलब है कि जो अनुपस्थित है,जिसका उदय लोग भूल गए हैं,उसे समाज में दुबारा स्थापित किया जाय।यह तभी संभव है जब उसके बारे में गंभीरता से सोच लिया जाय,व्याख्यायित कर लिया जाय।
ल्योतार ने उत्तर-आधुनिक दृष्ष्टि से इस सवाल पर विचार किया कि लेखक क्यों लिखता है ?जब भी किसी लेखक से यह सवाल किया जाता है कि वह क्यों लिखता है तो उसका जबाब होता है कि राजनीतिक कारणों से लिखता है। ल्योतार ने भाषा के खेल को अपनी सैध्दान्तिकी में सर्वोच्च स्थान दिया है।भाषा के खेल से साहित्य में मतलब है प्रयोगों का व्यापार।भाषा के नियम तभी बदलते हैं जब उन्हें खेलने वाला बदले।भाषा का खेल यथार्थ के विवरण पर निर्भर करता है।इस खेल का कोई सामान्य नियम नहीं है।यह तो इस पर निर्भर है कि यथार्थ का कैसे समाधान करते हैं। भाषा के खेल में बने बनाए संदेश,एकतरफा संदेश व्यर्थ होने लगते हैं।भाषा की अनेकार्थता पैदा हो जाती है।भाषा के वे अर्थ ग्रहण योग्य होते हैं जो अनुभव से निर्मित होते हैं।शब्दकोशीय अर्थ अप्रासंगिक होने लगते हैं।
इसी क्रम में स्त्री साहित्य और दलित साहित्य पर ध्यान गया,क्यों कि साहित्य में दलितों और स्त्रियों का लेखन एकसिरे से गायब था।भाषा के पुंसवादी सारतत्व के खिलाफ संघर्ष करते स्त्रीभाषा के निर्माण और पितृसत्तात्मकता पर्यावरण, मानवाधिकार, बच्चों के अधिकार,बौध्दिक संपदा के अधिकारों और भूमंलीकरण के प्रश्नों को प्रमुखता मिली।
जबकि पहली पीढ़ी का कंप्यूटर 1946 में आया।दूसरी ,तीसरी और चौथी पीढ़ी का कम्प्यूटर क्रमश:सन् 1956,1965और 1988 में आया।यानी कम्प्यूटर क्रांति पांचवीं पीढ़ी के परिवर्तनों तक मात्र 36 वर्षों में पहुंच गई। सतह पर देखें तो कम्प्यूटर क्रांति की गति औद्योगिक क्रांति से तीव्र नजर आएगी। यानी 6.4 गुना ज्यादा तीव्र गति से सूचना तकनीकी का विकास हुआ।गति की तीव्रता का कारण है तकनीकी, ,ज्ञान,विज्ञान,एवं सैध्दान्तिकी के पूर्वाधार की मौजूदगी। इसके विपरीत औद्योगिक क्रांति के समय आधुनिक ज्ञान-विज्ञान का पूर्वाधार मौजूद नहीं था।
औद्योगिक क्रांति के साथ समाज में जन-उत्पादन,जन-सेवा,जनसंचार,जन-परिवहन और बाजार के नए रुपों का जन्म हुआ।उत्पादन का क्षेत्र फैक्ट्ी थी।उसमें अवस्थित मशीन और उपकरण ही सामाजिक उत्पादन के केन्द्र बिन्दु थे। औद्योगिक क्रांति से उपजी आकांक्षाओं ने उपनिवेशों को जन्म दिया।नए महाद्वीपों की खोज को संभव बनाया।श्रम- विभाजन का विस्तार किया।विशेषीकरण को जन्म दिया।सार्वभौम उत्पादन पर बल दिया।सार्वभौमत्व को अनिवार्य फिनोमिना बना दिया।निजी व्यापार,निजी पूंजी और निजी संपत्ति पर बल दिया।
'कम्युनिस्ट घोषणापत्र'(1848) में कार्ल मार्क्स एवं फ्रेड़रिक एंगेल्स ने लिखा ''पूंजीपति वर्ग ने , जहां पर भी उसका पलड़ा भारी हुआ,वहॉ सभी सामन्ती,पितृसत्तात्मक और काव्यात्मक संबंधों को नष्ट कर दिया।उसने मनुष्यों को अपने ''स्वाभाविक बड़ों'' के साथ बांध रखने वाले नाना प्रकार के सामंती संबंधों को निर्ममता से तोड़ डाला;और नग्न स्वार्थ के,''नकद पैसे- कौड़ी'' के हृदय-शून्य व्यवहार के सिवा मनुष्यों के बीच दूसरा संबंध बाकी नहीं रहने दिया।धार्मिक श्रध्दा के स्वर्गोपम आनंदातिरेक को ,वीरोचित उत्साह और कूपमंडूकतापूर्ण भावुकता को उसने आना-पाई के स्वार्थी हिसाब-किताब के बर्फ़ीले पानी में डुबो दिया है।मनुष्य के वैयक्तिक मूल्य को उसने विनिमय मूल्य बना दिया है,और पहले के अनगिनत अनपहरणीय अधिकार पत्र द्वारा प्रदत्त स्वातंत्र्यों की जगह अब उसने एक ऐसे अंत:करणशून्य स्वातंत्र्य की स्थापना की है जिसे मुक्त व्यापार कहते हैं।संक्षेप में, धार्मिक और राजनीतिक भ्रमजाल के पीछे छिपे शोषण के स्थान पर उसने नग्न,निर्लज्ज, प्रत्यक्ष और पाशविक शोषण की स्थापना की है।'' यही वह परिप्रेक्ष्य है जब जीवन में आधुनिक संचार ,परिवहन और उत्पादन के रुपों के निर्माण का सिलसिला शुरु हुआ। इसी अर्थ में आधुनिक युग पूर्व के युगों से बुनियादी तौर से अलग है।
लेखकद्वय की राय है ''उत्पादन के औजारों में क्रांतिकारी परिवर्तन और उसके फलस्वरुप उत्पादन के संबंधों में,और साथ-साथ समाज के सारे संबंधों में क्रातिकारी परिवर्तन के बिना पूंजीपति वर्ग जीवित नहीं रह सकता।इसके विपरीत,उत्पादन के पुराने तरीकों को ज्यों का त्यों बनाए रखना पहले के सभी औद्योगिक वर्गों के जीवित रहने की पहली शर्त्त थी। उत्पादन में निरंतर क्रांतिकारी परिवर्तन ,सभी सामाजिक व्यवस्थाओं में लगातार उथल-पुथल,शाश्वत अनिश्चितता और हलचल -ये चीजें पूंजीवादी युग को पहले के सभी युगों से अलग करती हैं। सभी स्थिर और जड़ीभूत संबंध,जिनके साथ प्राचीन और पूज्य पूर्वाग्रहों तथा मतों की एक पूरी श्रृंखला जुड़ी होती है,मिटा दिए जाते हैं,और सभी नए बनने वाले संबंध जड़ीभूत होने के पहले ही पुराने पड़ जाते हैं। जो कुछ भी ठोस है वह हवा में उड़ जाता है,जो कुछ भी पावन है वह भ्रष्ट हो जाता है,और आखिरकार मनुष्य संजीदा नज़र से जीवन के वास्तविक हालतों को, मानव-मानव के आपसी संबंधों को देखने के लिए मजबूर हो जाता है।'' यही वह प्रस्थान बिन्दु है जिसके कारण साहित्य के केन्द्र में मनुष्य आया। साहित्य में जीवन के सामयिक प्रश्नों को अभिव्यक्ति मिली। उत्पादन की तकनीकी के बदल जाने से जीवन बदला वहीं दूसरी ओर साहित्य की अवधारणा बदली। उत्पादन और विनिमय के उपकरण बदलते हैं तो संचार के उपकरण भी बदलते हैं। जिनको सूचना शास्त्रियों ने संचार-क्रांति के विभिन्न चरणों के रुप में व्याख्यायित किया है। 'संचार क्रांति' पदबंध बुनियादी तौर पर बुर्ज़ुआ संचारविदों का चलाया हुआ है।संचार क्रांति के प्रति बुर्ज़ुआ और क्रांतिकारी सूचनाशास्त्रियों का रुख अलग - अलग है। यहां तक कि बुर्जुआ विचारकों में संचार क्रांति से जुड़े सवालों पर गहरे मतभेद हैं।
संचार क्रांति और साहित्य के अन्त:संबंध पर विचार करते समय यह बात ध्यान रखें कि संचार का आदिमरुप स्वयं साहित्य है।संचार क्रांति का अर्थ मात्र सूचनाओं का संचार करना नहीं है। संचार का अर्थ मानवीय हाव-भाव का संचार करना भी नहीं है। संचार का मतलब है मनुष्य के भावों,विचारों, संवेदनाओं और मानवीय क्रियाओं का व्यक्ति से व्यक्ति की तरफ संचार,यही संचार संबंध है। संचार क्रांति का साहित्य पर क्या प्रभाव पड़ा यह जानने के लिए मुख्य संचार उपकरणों से किस तरह की संवृतियों का उदय हुआ ?किस तरह साहित्य की धारणा बदली ?और मौजूदा संचार क्रांति के कारण किस तरह का साहित्य और साहित्य रुपों का जन्म हुआ ?यह जानना समीचीन होगा।
मुद्रण तकनीक- भारत में सन् 1550 में सबसे पहले दो मुद्रण की मशीनें इंग्लैंड़ से लाई गईं। किन्तु छपाई सन् 1557 से ही शुरु हो पाई। सबसे पहले सेंट फ्रांसिस जेवियर ने धार्मिक प्रश्नोत्तरी छापी। वह प्रथम प्रकाशक था।मुद्रण की मशीन लगाने का मूल उद्देश्य ईसाइयत का प्रचार करना था। तिन्नेलवल्ली जिले के पुन्नीकेल नामक स्थान पर सन् 1578 में पहला प्रेस स्थापित किया गया।
दूसरा प्रेस सौ वर्ष बाद 1679 में त्रिचुर के दक्षिण में अंबलकाद नामक स्थान पर स्थापित किया। हिन्दी में मुद्रित ग्रंथों की परंपरा 1802 से शुरु होती है। डा.कृष्ष्णाचार्य ने अपने शोध ग्रंथ ''हिन्दी के आदि मुद्रित ग्रंथ''में 1802 से पहले किसी मुद्रित ग्रंथ का जिक्र नहीं किया है।
प्रेस के आने के बाद पांडुलिपि का लोप हुआ और उसकी जगह पुस्तक आई।कृति दीर्घायु हुई। पुस्तक का लौकिकीकरण हुआ।चूंकि प्रेस ने सबसे पहले धार्मिक साहित्य छापा। अत:धर्म का लौकिकीकरण सबसे पहले हुआ।अब पुस्तक पूजा की वस्तु न होकर स्वयं में एक वस्तु और माल बन गई।उसके अंदर निहित देवत्व भाव नष्ट हुआ।भाषा के क्षेत्र में व्याप्त अराजकता का खात्मा हुआ। मानक भाषा का जन्म हुआ।इससे साहित्यिक भाषा का निर्माण हुआ।गीत और कविता में अंतर पैदा हुआ।गीत और कविता की भाषिक संरचना में अंतर आया।शैली की विविधताओं का जन्म हुआ। गद्य का जन्म हुआ।
ई.एम. फोर्स्टर ने लिखा मुद्रणकला के गर्भ से ही चिरस्मरणीयता का जन्म हुआ।लेखन की नई संरचना,वाक्य-विन्यास,नई भाषा के साथ-साथ देशज भाषाओं का विकास हुआ।समाज में निर्वैयक्तिकता और विशेषीकरण की चल रही पूंजीवादी प्रक्रिया ने रचनाकर्म को प्रभावित किया। इसने विचारों की दुनिया मे भी विभाजन पैदा किया।समाज में प्रतिस्पर्धा एवं निरंतरता की गति को तेज किया।अब किताब एक वस्तु थी,लेखक से स्वतंत्र उसकी सत्ता थी।मुद्रण की मशीन ने पुस्तक की पुरानी छबि को तोड़ा।उसे स्वायत्त बनाया।चिरस्थायी बनाया।
उल्लेखनीय है कि प्रेस का जन्म औद्योगिक क्रांति के साथ हुआ।प्रेस क्रांति को संभव बनाने में लंकाशायर की मिलों की महत्वपूर्ण भूमिका थी।यूरोपीय जनता में विदेशी कपड़ों की बढ़ती हुई मांग को इन मिलों ने पूरा किया।सन् 1790के बाद यूरोप में कपड़े की कमी खत्म हो गई।बने-बनाए कपड़े मिलने लगे। साथ ही कपड़े का गुदड़ा जो कि कागज के लिए कच्चा माल था ,उसका एकमात्र स्रोत था, वह बड़े पैमाने पर उपलब्ध हुआ। इससे कागज के मामले में इंग्लैंड आत्मनिर्भर बन गया। पहले कागज हाथ से बनाया जाता था,बाद में मशीन से बनने लगा।ये मशीनें पानी और भाप से चलती थीं।इससे कागज सस्ता और ज्यादा मात्रा में तैयार होता था। लेखक की स्वायत्त सत्ता का निर्माण हुआ। लेखकीय स्वतंत्रता का जन्म हुआ।पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन शुरु हुआ। यही वह संदर्भ है जब साहित्य , विश्व साहित्य और जातीय साहित्य की एकदम नई अवधारणा का जन्म हुआ। प्रेस के कारण लेखक ,पाठक, पाठ और समाज के बीच में नए रिश्ते की शुरुआत हुई।राष्ट्वाद और स्वतंत्रता की भावना पैदा हुई।यहां इन धारणाओं पर विचार करना सही होगा।
विश्व साहित्य- 'विश्व साहित्य' पदबंध का सबसे पहले प्रयोग गोयते ने किया था।यह'वेल्ट लिटरेचर' का अनुवाद है। सन् 1827 में उसने इसी शीर्षक से उसने एक कविता भी लिखी।गोयते ने विश्व साहित्य की धारणा उस युग को ध्यान में रखकर दी थी जब समूचे संसार का साहित्य एक हो जाएगा।बाद में ''कम्युनिस्ट घोषणापत्र'' में कार्ल मार्क्स एवं फ्रेडरिक एंगेल्स ने 'विश्व साहित्य' की अवधारणा पर विचार करते हुए लिखा ''भौतिक उत्पादन की ही तरह,बौध्दिक उत्पादन जगत में भी यही परिवर्तन घटित हुआ है।अलग- अलग राष्ट्रों की बौध्दिक कृतियां सार्वभौमिक संपत्ति बन गयी हैं। राष्ट्रीय एकांगीपन और संकुचित दृष्ष्टिकोण-दोनों ही असंभव होते जा रहे हैं, और अनेक राष्ट्रीय और स्थानीय साहित्यों से एक विश्व साहित्य उत्पन्न हो रहा है।''
जातीय साहित्य- जातीय साहित्य की धारणा के निर्माण के लिए जातीय साहित्य जरुरी है। जातीय साहित्य के लिए जातीय भाषा का निर्माण और जातीय भाषा के लिए जातीय गठन की आर्थिक - सामाजिक प्रक्रिया आवश्यक है।जाति,जातीय भाषा ,और जातीय साहित्य के वगैर जातीय साहित्य की अवधारणा असंभव है।रामविलास शर्मा के अनुसार '' जाति वह मानव समुदाय है जो व्यापार द्वारा पूंजीवादी संबंधों के प्रसार में गठित होती है। सामाजिक विकास क्रम में मानव समाज पहले जन या गण के रुप में गठित होता है।सामूहिक श्रम और सामूहिक वितरण गण-समाज की विशेषता है और उसके सदस्य आपस में एक-दूसरे से रक्त संबंध के आधार पर सम्बध्द माने जाते हैं।इन गण समाजों के टूटने पर लघुजातियाँ बनती हैं जिनमें उत्पादन छोटे पैमाने पर होता है और नए श्रम विभाजन के आधार पर भारतीय वर्ण-व्यवस्था जैसी समाज व्यवस्था का चलन होता है। पूंजीवादी युग में इन्हीं लघु जातियों से आधुनिक जातियों का निर्माण होता है।''
इसी तरह जातीय भाषा का स्थान उसे मिलता है जो प्रमुख व्यापारिक केन्द्र की भाषा होती है।वही भाषा प्रमुख संपर्क भाषा बन जाती है। जातीयता का विकास साझा भाषा,साझा संस्कृति, और साझा बाजार के आधार पर होता है।भारत में जिस भाषा ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद ,कृषि दासता,जाति-प्रथा,मध्यकालीन बोध और सामंतवाद के खिलाफ संघर्ष किया उसने जातीय भाषा के रुप में स्वीकृति प्राप्त की। वहां जातीय चेतना और जातीय साहित्य का विकास हुआ। इसी तरह साहित्य की धारणा बदली।
बालकृष्ण भट्ट ने जुलाई 1881 के 'हिन्दी प्रदीप' में लिखा ''साहित्य जन समूह के हृदय का विकास है।''बाद में महावीर प्रसाद द्विवेदी ने माना ''ज्ञान राशि के संचित कोश का नाम साहित्य है।''आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा ''साहित्य जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब है।''इस तरह साहित्य की सामयिक साहित्यांदोलनों के कारण धारणा बदलती रही। टेलीग्राफ- भारत में 'दूरसंचार' का श्री गणेश सन् 1813 में हुआ।उस समय कलकत्ता और गंगासागर द्वीप के बीच 'सिगनल' के रुप में इस तकनीक का प्रयोग शुरु हुआ।जबकि पहली इलैक्ट्रिक टेलीग्राफ लाइन का निर्माण सन्1839 में हुआ। इसे कलकत्ता और डायमंडहारबर के बीच शुरु किया गया।आम जनता के लिए टेलीग्राफ सेवाएं सन् 1855 में शुरु हुईं।जबकि 'इंडो-यूरोपियन' टेलीग्राफ लाइन का निर्माण सन् 1867-1870 के बीच एक जर्मन फर्म ने किया। इसके जरिए लंदन, बर्लिन, वारसा,उडीसा,तेहरान, बुशहर, कराची,आगरा,और कलकत्ता को जोड़ा गया।सन् 1860 में लंदन और भारतीय उपमहाद्वीप को जोड़ा गया। यह कार्य स्वेज नहर के माध्यम से किया गया।सन् 1870 में लंदन-बंबई के बीच समुद्री जहाज के जरिए दूरसंचार संपर्क की शुरुआत हुई।भारत में टेलीप्रिण्टर का प्रयोग 1929 के करीब कलकत्ता में शुरु हुआ।निजी टेलीफोन लाइन सन्1875 में बिछाई गई। सन् 1881 में निजी कंपनियों को टेलीफोन व्यवस्था चलाने के लाइसेंस दिए गए।सन् 1890 में रेलवे को टेलीग्राफ और टेलीफोन से जोड़ा गया।
टेलीग्राफ के उदय के बाद ही 'संप्रेषण' और 'परिवहन' में अंतर आया।वस्तु की 'शारीरिक गति' से 'संदेश' अलग हुआ।साथ ही संप्रेषण के माध्यम से शारीरिक प्रक्रिया को सक्रिय रुप से नियंत्रित करने में मदद मिली।आरंभ में रेलमार्गों का इससे नियंत्रण आदर्श उदाहरण है।इससे संप्रेषण ज्यादा प्रभावी ,बहुआयामी और गुणात्मक तौर पर बदल गया। टेलीग्राफ ने 'संप्रेषण' और 'परिवहन' की 'तथ्य' और 'प्रतीक' के रुप में अवधारणा ही बदल दी।पूर्व टेलीग्राफ युग की निर्भरता को टेलीग्राफ ने पूरी तरह खत्म कर दिया। उसी क्रम में संप्रेषण की पुरानी धारणा का लोप हो गया। इससे संचार की स्वायत्त स्थिति पैदा हुई।'संचार' के नए माध्यम के जरिए किसी भी संदेश को परिवहन से भी तीव्र गति से भेजा जा सकता था।अब संप्रेषण भौगोलिक बंधनों से मुक्त था।धार्मिक आवरण से मुक्त था। इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो टेलीग्राफ मात्र व्यापार विस्तार के उपकरण में ही विकसित होकर नहीं आया अपितु उसने सोचने,समझने,संप्रेषित करने और विकास की धारणा ही बदल दी।ध्यान रहे टेलीग्राफ और बिजली के बीच गहरा संबंध है।यह संबंध विध्वंसक और पुनर्निर्माण दोनों का है।
टेलीग्राफ ने लिखित शब्द की प्रकृति और ज्ञान की प्रक्रिया को ही बदल दिया।उसने मानक भाषा को अभिव्यक्ति का आधार बनाया।फलत: पत्रकारिता से बोलचाल या आंचलिक भाषा की विदाई हो गई।भाषा में चकमा देने,व्यंग्योक्तिपूर्ण और हास्यमय अभिव्यक्ति के पुराने रुपों का खात्मा हो गया।साथ ही कहानीपरक शैली का खात्मा हो गया।भाषा जिन संबंधों को जोड़ती है टेलीग्राफ उन संबंधों को बदल देता है।वह प्रत्यक्ष निजी संपर्क,प्रत्यक्ष संवाद,प्रत्यक्ष पत्र-व्यवहार आदि को यांत्रिक शक्ति के अधीन कर देता है।वह सामाजिक संबंधों के मानवीय सारतत्व को खत्म करके उनकी जगह 'बिक्रेता' और 'खरीददार' के नए संबंध बनाता है।लेखक और पाठक के बीच नए संबंध बनाता है।
कहानी में उसने आदिम सरल-सपाट एवं कठोर भाषा का निर्माण किया।यह कृत्रिम भाषा है। टेलीग्राफ की भाषा का कहानी पर प्रभाव देखना हो तो हेमिंग्वे की कहानी की भाषा देखें। नामवर सिंह के शब्दों में वाक्य जैसे सिले हुए होठों से निकलते हैं।भाषा का प्रवाह क्या है कि 'स्टापवाच'। 'क्लिक' और घड़ी चालू।'क्लिक'और घड़ी बंद। एक-एक वाक्य जैसे किसी मशीन से बराबर- बराबर काटा हुआ।किसी तरह भावावेग प्रकट न हो।शब्द किसी सूखी नदी में बिछे हुए छोटे-छोटे चमकते पत्थर। यह भाषा दृश्य चित्र प्रस्तुत करने के लिए है,न वर्णन करने के लिए और न कथा कहने के लिए।यह भाषा में अमानवीयता है। टेलीग्राफ से संप्रेषित करने के लिए लेखक को अपनी सामग्री को टेलीग्राफिक भाषा में लिखना होता है।लेखक ने प्रत्यक्षदर्शी के तौर पर जो देखा होता है उसे वह उस भाषा में लिख नहीं पाता। टेलीग्राफ के उदय के बाद 'टाइम' और 'स्पेस' की धारणा में परिवर्तन हो जाता है। अटकलबाजी या अनुमान को 'स्पेस'से निकालकर 'टाइम' में ले जाता है।'टेलीफोन' के आविष्कार के बाद उसने 'स्पेस' को और भी पीछे धकेल दिया।उसने मध्यस्थ और भावी बाजार के बीच संबंध बनाया।अब 'टाइम' महत्वपूर्ण हो उठा।
टेलीविजन - टेलीविजन का साहित्य पर व्यापक प्रभाव पड़ा है। टेलीविजन के कारण धारावाहिक या सीरियल जैसी विधा का जन्म हुआ। साथ ही टेलीविजन कहानी जैसी स्वतंत्र विधा का जन्म हुआ। टेलीविजन कहानी में कहानी न होकर 'प्लाट' होता है। अथवा 'घटना' होती है। अथवा छोटे-छोटे घटना प्रसंग होते हैं। इसमें प्रसंग पर कम और घटना पर ज्यादा जोर होता है। अब हम 'घटना' को ही 'कथानक' मान लेते हैं।बातचीत के रुप को ही कहानी समझने लगे हैं।इस सबके कारण कहानी से कहानीपन का लोप हुआ है। कहानीपन के लोप को कैमरे की चालाकियों से भरने की कोशिश की जाती है।इससे कहानीपन का भ्रम पैदा होता है।टेलीविजन कहानी अंतर्विरोधों को छिपाने का काम करती है।वहां विरोधी तत्वों को कभी-कभी बाहर रखकर द्वन्द्व का तीव्र गति से समाधान कर दिया जाता है।अथवा खंड़-खंड़ में इतना लम्बा खींच दिया जाता है कि कथानक सपाट हो जाता है।वस्तु पर उद्देश्य का आरोप होने लगता है।इससे वह अपनी सार्थकता खो देता है।टेलीविजन कहानी का सत्य 'वस्तु' का सत्य होता है।यह दष्ष्टा का सत्य नहीं है बल्कि भोक्ता का सच है।यह टेलीविजन स्फीति का परिणाम है।टेलीविजन कहानी विराटता,व्यापकता और खंड़-खंड़ में महीनों,वर्षों तक चलती है। धारावाहिक का दर्शक एक देखता है तो दूसरा मांगता है और यह सिलसिला कभी खत्म नहीं होता।
संचार क्रांति का साहित्य - संचार क्रान्ति के चौथे चरण में साहित्य कैसा होगा ?साहित्य में किस तरह के प्रश्न उठेंगे?संचार क्रांति के प्रथम से लेकर तीसरे चरण तक के दौर में रचे गए साहित्य के प्रति किस तरह का रवैय्या होगा ?इत्यादि सवालों के समाधान खोजने की जरुरत है।
जैसा कि सर्वविदित है कि हम यांत्रिक पुनरुत्पादन के युग में रह रहे हैं। बाल्टर बेंजामिन ने यांत्रिक पुनरुत्पादन के युग में कलाओं की अवस्था पर विचार करते हुए लिखा था कि ''यांत्रिक पुनरुत्पादन के इस युग में जो ऋण नष्ट होता है,वह कलाकष्ति का प्रभामंडल है।एक अन्य बात यह कि पुनरुत्पादन की तकनीक पुनरुत्पादित वस्तु को परंपरा के दायरे से बाहर कर देती है। अनेक कलाकृतियां बना कर किसी कलाकृति के अनूठे अस्तित्व को बहुसंख्यक नकलों में बदल दिया जाता है। दर्शक या श्रोता इस तरह पुनरुत्पादित कलाकृति को जैसे चाहे इस्तेमाल कर सकता है ,इसलिए अनुकृति में भी एक तरह की क्रियाशीलता पैदा हो जाती है।ये दो प्रक्रियाएं परंपरा को जबर्दस्त झटका देती हैं जो समकालीन संकट और मानव मात्र के पुनर्जागरण का ही दूसरा पहलू है। ये दोनों ही प्रक्रियाएं समकालीन जन-आन्दोलनों से घनिष्ठ रुप से जुड़ी हुई हैं।''
संचार क्रांति के वर्तमान दौर में कम्प्यूटर ,स्वचालितीकरण,सूचना प्रौद्योगिकी,उपग्रह प्रौद्योगिकी और संस्कृति उद्योग का वर्चस्व है।साथ ही साहित्य में उत्तर-आधुनिकतावाद इस युग का प्रमुख फिनोमिना है। इसमें समग्रता,रैनेसां,यथार्थवाद,मार्क्सवाद, और राजनीतिक अर्थशास्त्र का विरोध व्यक्त हुआ है। यहां हम सिर्फ कुछ उत्तर-आधुनिक धारणाओं तक सीमित रखेंगे।
उत्तर-आधुनिक समाज में श्रेष्ठ और निम्न कलाओं का अंतर खत्म हो जाता है। उसी तरह साहित्य और बाजारु साहित्य का फ़र्क भी मिट जाता है।उच्च संस्कृति और निम्न संस्कृति का भेद भी मिट जाता है।संस्कृति का पूरी तरह वस्तुकरण हो जाता है।यह वस्तुकरण व्यक्तिगत,सांस्कृतिक और सामाजिक क्षेत्र में प्रवेश कर जाता है।यहां तक कि ज्ञान,सूचना और अवचेतन को वस्तुकरण प्रभावित करता है। फ्रेडरिक जैम्सन के अनुसार पूंजीवाद के तीन चरण हैं।1.बाजार पूंजीवाद,2.इजारेदार पूंजीवाद और 3.बहुराष्ट्रीय पूंजीवाद।इन तीन अवस्थाओं में क्रमश:यथार्थवाद, आधुनिकतावाद और उत्तर- आधुनिकतावाद की अभिव्यक्ति हुई।यह वर्गीकरण फ्रेड़रिक जैम्सन ने ''उत्तर-आधुनिता और उपभोक्ता समाज''(1885)शीर्षक निबंध में किया है।
जैम्सन का मानना है युगों के बीच में पूरी तरह विभाजन का यह अर्थ नहीं है कि उनकी अंतर्वस्तु में भी पूरी तरह परिवर्तन हो जाता है।किन्तु एक अंतर जरुर आया है,मसलन् जो प्रवृति पहले हाशिए पर थी वह मुख्य हो गई और जो मुख्य थी वह गौण हो गई। जैम्सन के मुताबिक उत्तर-आधुनिकतावाद का उदय ऐसे समय में हुआ जब आधुनिकतावाद की प्रौद्योगिकी और नायकों की प्रतिमाएं संस्थागत रुप में रुपान्तरित हो गई।अथवा संग्रहालयों और विश्वविद्यालयों में स्थापित हो गईं। उत्तर-आधुनिकतावादी संस्कृति की यह खूबी है कि इसमें भय अंतर्निहित है,साथ ही मनुष्य को इतिहासबोध से रहित बनाती है।हमारी समसामयिक संरचना अपने अतीत को जानने की क्षमता खो चुकी है।वर्तमान में निरंतर जीने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। आधुनिकता के रुपों में महत्वपूर्ण परिवर्तन घट रहे हैं।अतीत के रुपों और शैलियों से विच्छिन्नता पर इस युग में जोर दिया जा रहा है।
उत्तर- आधुनिक युग में राजनीतिक संवादों का मनोरंजन एवं विज्ञापन की आचार-संहिता में समर्पण दिखाई देता है। उत्तर-आधुनिकता ने सत्य,व्यक्तिनिष्ठता,तर्क आदि की पुरानी धारणा को चुनौती दी।उसने संस्कृति के कुछ रुपों को बढ़ाबा देकर समग्रता को नियमित करने की कोशिश की। आभासी यथार्थवाद और सिजोफ्रेनिया पर जोर दिया। उत्तर-आधुनिक संस्कृति सांस्कृतिक प्रभुत्व की संस्कृति है।इसमें गांभीर्य का अभाव है।इस दौर में आम सांस्कृतिक व्याख्याएं सतही दृष्ष्टिकोण को सामने लाती हैं और ऐतिहासिक दष्ष्टिकोण को कमजोर बनाती हैं।विषय को विकेन्द्रित करती हैं।भावात्मक शैली पर जोर देती हैं।अब 'काल' सबसे प्रमुख हो जाता है। क्षणभंगुरता और विखंड़न प्रमुख हो उठते हैं।इमेज का दर्जा वास्तव से बड़ा हो जाता है।वैज्ञानिक और नैतिक फैसलों के प्रति विश्वास घटने लगता है। जॉन मेकगोवान के शब्दों में ''उत्तर-आधुनिकतावाद एक ऐसी फिसलनदार पदावली है कि हम उसे आसानी से स्थिर नहीं कर सकते।'' जबकि रिचर्ड रोर्ती के शब्दों में यह ''बिडम्बनात्मक सैध्दान्तिकी'' है,जो हर शाश्वत सत्य और अनिवार्यताओं की खोज के विरुध्द है।जो किसी एक व्याख्या या निष्कर्ष की योजना को चुनौती है।
उत्तर-आधुकितावाद के विद्वान् एहाव हसन के अनुसार यह ऐसा साहित्य है जिसमें साहित्य के सभी केन्द्रीय सिध्दान्तों का लोप हो जाता है।उत्तर-आधुनिक साहित्य गंभीर साहित्य के प्रति अविश्वास पैदा करता है। उत्तर-आधुकितावाद को विश्व प्रसिध्दि दिलाने में ज़ीन फ्रांसुआ ल्योतार का नाम सबसे आगे है। उनकी विश्व प्रसिध्द कृति ''पोस्ट मॉडर्न कण्डीशंस'' ने इस आंदोलन को जनप्रिय बनाया। ल्योतार ने बुनियादी तौर पर''ग्रहण करो या छोड़ो'' की पध्दति का प्रयोग करते हुए लिखा है।ल्योतार ने उत्तर-आधुनिकतावाद को आधुनिकता के विकास के रुप में ही देखा है। आधुनिकतावाद के बारे में ल्योतार ने कहा जब कोई लेखक निश्चित पाठकों को ध्यान में रखकर लिखता है।तब साथ ही साथ पाठक भी होता है।क्यों कि वह पाठक के नजरिए से चीजों को देखने की कोशिश करता है।साथ ही लेखक के रुप में उत्तर देता है।यह शास्त्रीयतावाद है।किन्तु हम जिसे आधुनिकता कहते हैं उसमें लेखक जानता नहीं है कि वह किसके लिए लिख रहा है।क्योंकि उसके सामने कोई अभिरुचि नहीं होती।उसके पास ऐसे आंतरिक मूल्य नहीं होते जिनके आधार पर वह चयन कर सके।वह कुछ चुनता है और कुछ का त्याग करता है।उसका सब कुछ लेखन के सामने तथ्य रुप में खुला होता है।वह अपनी पुस्तक को वितरण के नैटवर्क तक ले जाता है किन्तु यह ग्रहण्ा का नैटवर्क नहीं है।बल्कि आर्थिक नैटवर्क है,बिक्री का नैटवर्क है, अब पुस्तक के साथ क्या होगा कोई नहीं जानता। कौन पुस्तक कब पढ़ी जाएगी और किसके द्वारा पढ़ी जाएगी इसका कोई मूल्यगत आधार नहीं है।बल्कि उसका मनमाना आधार है।और उसकी उम्र बहुत कम होतीहै।बतर्ज ल्योतार जिस कला रुप की निश्चित ऑड़िएंस का पता हो उसे शास्त्रीयतावाद कहेंगे। ल्योतार का मानना है व्यंग्य आधुनिकता की सारवान अभिव्यक्ति है।ल्योतार ने न्याय के सवाल पर विस्तार से विचार किया है। कुछ लोगों के लिए न्याय का प्रश्न प्लेटोनिक प्रश्न है। प्लेटो मानता था किसी समाज में जो कुछ उपलब्ध है उसे सब में बांट दो। न्याय के बारे में भी कुछ लोग ऐसा ही सोचते हैं।न्याय के प्लेटोनिक नजरिए को ल्योतार अस्वीकार करते हैं।ल्योतार के लिए न्याय का मतलब है कि जो अनुपस्थित है,जिसका उदय लोग भूल गए हैं,उसे समाज में दुबारा स्थापित किया जाय।यह तभी संभव है जब उसके बारे में गंभीरता से सोच लिया जाय,व्याख्यायित कर लिया जाय।
ल्योतार ने उत्तर-आधुनिक दृष्ष्टि से इस सवाल पर विचार किया कि लेखक क्यों लिखता है ?जब भी किसी लेखक से यह सवाल किया जाता है कि वह क्यों लिखता है तो उसका जबाब होता है कि राजनीतिक कारणों से लिखता है। ल्योतार ने भाषा के खेल को अपनी सैध्दान्तिकी में सर्वोच्च स्थान दिया है।भाषा के खेल से साहित्य में मतलब है प्रयोगों का व्यापार।भाषा के नियम तभी बदलते हैं जब उन्हें खेलने वाला बदले।भाषा का खेल यथार्थ के विवरण पर निर्भर करता है।इस खेल का कोई सामान्य नियम नहीं है।यह तो इस पर निर्भर है कि यथार्थ का कैसे समाधान करते हैं। भाषा के खेल में बने बनाए संदेश,एकतरफा संदेश व्यर्थ होने लगते हैं।भाषा की अनेकार्थता पैदा हो जाती है।भाषा के वे अर्थ ग्रहण योग्य होते हैं जो अनुभव से निर्मित होते हैं।शब्दकोशीय अर्थ अप्रासंगिक होने लगते हैं।
इसी क्रम में स्त्री साहित्य और दलित साहित्य पर ध्यान गया,क्यों कि साहित्य में दलितों और स्त्रियों का लेखन एकसिरे से गायब था।भाषा के पुंसवादी सारतत्व के खिलाफ संघर्ष करते स्त्रीभाषा के निर्माण और पितृसत्तात्मकता पर्यावरण, मानवाधिकार, बच्चों के अधिकार,बौध्दिक संपदा के अधिकारों और भूमंलीकरण के प्रश्नों को प्रमुखता मिली।
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