शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

बाबरी मस्जिद विवाद- मुसोलिनी से साम्य है ‘हिन्दू आस्था ’ का


       बाबरी मस्जिद प्रकरण के दौरान आस्था पर सांप्रदायिक विचारधारा ने ज्यादा जोर दिया है तथा तर्क, कानून, वाद-विवाद इन सबसे परे माना है। पहली बात तो यह है कि अगर यह 'आस्था' एवं 'भावना' का मसला है तो इसे इतिहास से नहीं जोड़ा जाए। न 'स्थापत्य' से जोड़ा जाए, न हिंदू से जोड़ा जाए, न ही इसे धर्मनिरपेक्षता से जोड़ा जाना चाहिए। 'आस्था' सिर्फ 'आस्था' है, वह न धर्म है, न इतिहास है, न ईश्वर है, न संस्कृति है। न वह मात्र राम ही है वह सिर्फ आस्था है। 'आस्था' एवं 'विश्वास' के आधार पर आधुनिक युग की किसी भी समस्या का समाधान संभव नहीं है और अगर 'आस्था' तर्कातीत है तो फिर मिल-बैठकर समाधान की संभावना कैसी ? तथा कोशिशें क्यों ?
जब 'आस्था' सर्वोपरि है तो प्रत्येक व्यक्ति की 'आस्था' सर्वोपरि है। किसी एक व्यक्ति की या संगठन या विचारधारा की 'आस्था' सर्वोपरि नहीं हो सकती जो कोई यह माने कि उसी की 'आस्था' सर्वश्रेष्ठ एवं सर्वोपरि है, अगर ऐसा होता है तो वह मुसोलिनी एवं हिटलर के शब्दों में ही 'आस्था' दोहरा रहा होता है। हिंदू सांप्रदायिक संगठनों ने अपनी 'आस्था' को सबसे बड़ी 'निर्णायक' वस्तु माना है, तथा रेखांकित किया है। इसकी तुलना मुसोलिनी की सबसे निर्णायक वस्तु आस्था से ही की जा सकती है।

हिंदुत्ववादी संगठन भी आस्था के सहारे रामराज्य रूपी आध्यात्मिक राज्य का प्रत्येक नागरिक को सदस्य बनाना चाहते हैं। मुसोलिनी भी 'आस्था' के सहारे 'आध्यात्मिक समाज का जागरूक सदस्य' बनाना चाहता था।

हिंदुत्ववादी संगठनों जिनमें आरएसएस की केंद्रीय भूमिका है इसके सांप्रदायिक प्रचार अभियान की दिशा फासिस्ट संगठनों के नक्शेकदम पर तैयार की गई है जिसका बाबरी मस्जिद प्रकरण के दौरान जमकर प्रचार किया गया।
हिटलर की तर्ज पर ही आर्य श्रेष्ठता के सिद्धांत की तर्ज पर हिंदू श्रेष्ठता का नारा उछाला गया। यहूदी हनन की तरह मुस्लिम हनन एवं मुस्लिमों के प्रति घृणा को लक्ष्य रखा गया। विचारधारात्मक श्रेष्ठता के लिए धर्म में ही गहनतम अभिव्यक्ति देखी गई। हिटलर भी ऐसा ही सोचता था। हिटलर की ही तरह धर्म को सबसे ऊपर स्थान दिया गया।

अभिजनवाद की धारणा के आधार पर हिटलर ने एक नस्ल को दूसरी से घृणा करना सिखाया। हमारे यहां सांप्रदायिक संगठनों ने भी ऐसा ही प्रचार किया हिंदू सांप्रदायिक संगठनों ने इस दौरान भाषावार राज्यों के गठन का विरोध किया और नारी के प्रति फासिस्ट नजरिया होने के कारण उसे वर्ण व्यवस्था के तहत ही रहने-जीने की वकालत की। सांप्रदायिकता को इसी मायने में फासिस्ट विचारधारा के परिप्रेक्ष्य में रखा जाना चाहिए। राममंदिर निर्माण की योजना एवं आरएसएस के अभीप्सित लक्ष्य में अंतस्संबंध है, उसे भूलना नहीं चाहिए। मंदिर बनाना उसका अंतिम लक्ष्य नहीं है बल्कि अंतिम लक्ष्य हिंदू राष्ट्र के लिए राजसत्ता हासिल करना है।
इस समूची प्रक्रिया में कांग्रेस की भूमिका सबसे ज्यादा खतरनाक रही है। उसने निहित स्वार्थी नजरिए के कारण सबसे पहले शाहबानो प्रकरण में मुस्लिम सांप्रदायिकता के आगे घुटने टेके। बाद में हिंदू सांप्रदायिक शक्तियों के आगे शिलान्यास के प्रश्न पर आत्मसमर्पण किया। कांग्रेस के ढुलमुल नेतृत्व के कारण ही पिछले कई दशकों में सांप्रदायिक शक्तियों का एक नया उभार आया है जिसमें भाजपा एक उभरती आक्रामक हिंदू सांप्रदायिक विचारधारा को अभिव्यक्ति दे रही है तो महाराष्ट्र में शिवसेना, उत्तर-पूर्वी राज्यों एवं जम्मू-कश्मीर में भी सांप्रदायिक तथा पृथकतावादी ताकतें शक्तिशाली होकर उभरी हैं।

बाबरी मस्जिद प्रकरण पर उन तमाम संगठनों का यकायक सक्रिय एवं जिंदा संगठन के रूप में रूपांतरित हो जाना, इस बात का ही द्योतक है कि कांग्रेस ने सन् 80 के बाद से नई रणनीति के तहत पिछड़ी सामाजिक शक्तियों को अपने साथ जोड़ने एवं प्रोत्साहित करने की जो प्रक्रिया शुरू की थी उसका तात्कालिक लाभ उसे जरूर मिला पर मूलत: सांप्रदायिक एवं पिछड़ी शक्तियां ही मजबूत हुई हैं।
कांग्रेस नेतृत्व ने सन 1977 में जो जनाधार खोया था, उसे पुन: पाने के लिए ऐसा किया गया था। इसका तात्कालिक तौर पर सन् 1980 एवं 1984 के चुनावों में उसे लाभ मिला, पर इस प्रक्रिया में सांप्रदायिक शक्तियां ज्यादा मजबूत हुईं और सांप्रदायिक विचारधारा का व्यापक विस्तार हुआ।

कांग्रेस का शाहबानो प्रकरण एवं शिलान्यास के समय यही लक्ष्य था कि वह इन दोनों मसलों पर हिंदू और मुस्लिम सांप्रदायिक तत्वों को संतुष्ट करके लोकसभा चुनाव में सफलता हासिल करना चाहती थी पर ऐसा हो नहीं पाया, अपितु इस प्रक्रिया में भाजपा सबसे ज्यादा सफलता हासिल करने में सफल रही।
  भाजपा ने सन 1977-79 के संक्षिप्त जनता पार्टी शासन के दौरान राम जन्मस्थान के मुद्दे को नहीं उठाया, यहां तक कि 1986 में शाहबानो विवाद पर कांग्रेस के समर्पण से पूर्व उसने कभी इस सवाल को नहीं उठाया। पर, जब भाजपा ने देखा कि राष्ट्रीय मोर्चा सरकार का अनिश्चित समर्थन उसे उसके सामाजिक आधार से काट सकता है तो भाजपा विरोध में सक्रिय हो उठी। सामाजिक आधार खोने का खतरा प्रमुख कारण था, वरना अपने जनसंघ के दौर में कभी भाजपा ने यह मसला क्यों नहीं उठाया ?
एक बार तो वह उ.प्र. की संयुक्त सरकार की सदस्य भी थी। असल बात है कांग्रेस की रणनीति की, भाजपा उसका विकल्प बनकर उभरना चाहती थी। कांग्रेस का सांप्रदायिक शक्तियों के प्रति समर्पण भाव भाजपा को ज्यादा से ज्यादा आक्रामक बनाने में सक्रिय भूमिका अदा करता रहा है।
बाबरी मस्जिद प्रकरण का एक अन्य सिरा भी है वह है लालकृष्ण आडवाणी की भूमिका, चंद्रशेखर-राजीव गांधी की वी.पी.सिंह सरकार के पतन के बाद की भूमिका एवं 30अक्टूबर एवं 2 नवंबर 1990 की घटनाएं। इन सबकी संक्षेप में पड़ताल जरूरी है। भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने 12 सितंबर 1990 को नई दिल्ली में प्रेस कान्फ्रेंस में 'रथयात्रा' के कार्यक्रम की घोषणा की थी और 'रथयात्रा' को देश में 25 सितंबर से 30 अक्टूबर तक अयोध्या पहुंचना था। कान्फ्रेंस में आडवाणी ने कहा 'रथयात्रा' का उद्देश्य राम जन्मभूमि के सवाल पर भाजपा की नीति बताने एवं जन समर्थन जुटाना है। इसी में उन्होंने विश्व हिंदू परिषद् के द्वारा की जाने वाली कारसेवा का भी पूरा समर्थन किया। उन्होंने यह भी कहा कि अगर कारसेवा की इजाजत नहीं दी गई तो वहां 'शांतिपूर्ण सत्याग्रह' किया जाएगा।

2 टिप्‍पणियां:

  1. इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं
  2. इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं

विशिष्ट पोस्ट

मेरा बचपन- माँ के दुख और हम

         माँ के सुख से ज्यादा मूल्यवान हैं माँ के दुख।मैंने अपनी आँखों से उन दुखों को देखा है,दुखों में उसे तिल-तिलकर गलते हुए देखा है।वे क...