सोमवार, 13 सितंबर 2010

ब्रह्मवादिनी अरूंधती राय का माओवादी ब्रह्म

       इन दिनों फंड़ामेंटलिस्टों के बयानों की मीडिया में बयार बह रही है। हर दल के पास एक या एकाधिक फंडामेंटलिस्ट हैं। वे विचारों के वाहक और प्रचारक होते हैं। उसी तरह भारत के स्वयंसेवी संगठनों और माओवादियों की फंड़ामेंटलिस्ट हैं अरूंधती राय । नामी हस्ती हैं। उन्हें विश्व स्तर पर ख्याति प्राप्त है। अरूंधती राय की बुनियादी मुश्किल यह है कि वे रहती हिन्दुस्तान में हैं लेकिन अभी तक इस देश को जानती नहीं हैं। उनके लिखे और बोले पर कुर्बान होने वाले मरजीवड़ों की भारत में कमी नहीं है। वे भारत के बुद्धिजीवियों की पेज थ्री संस्कृति की नायिका हैं। सैलीबरेटी हैं। उनके बयान पर मीडिया ठुमकता है। तथाकथित स्वतंत्रचेता वाम बुद्धिजीवी बलिहारी रहते हैं और भक्तों की तरह वाह-वाह करते रहते हैं।
    हाल ही में अरूंधती राय ने करन थापर को सीएनएन-आईबीएन के लिए दिए साक्षात्कार में कई विलक्षण बातें कही हैं जिससे इस बात का अंदाजा लगता है कि आखिर स्वतंत्रचेता बुद्धिजीवी भारत के बारे में क्या सोच रहे हैं।
राय ने कहा- I don't think there is anything revolutionary about killing a person that is in custody. I have made a statement where I said it was as bad as the police killing Azad, as they did, in a fake encounter in Andhra. But, I actually shy away from this atrocity-based analysis that's coming out of our TV screens these days because a part of it is meant for you to lose the big picture about what is this war about, who wants the war? Who needs the war?
सवाल यह है कि माओवादी हिंसा की इतने ठंड़े शब्दों में चर्चा क्यों ? वे माओवादियों के निरंतर हिंसा करने के बावजूद उनसे जुड़ी हुई क्यों हैं ? दूसरी बात यह कि माओवादियों के खिलाफ वे सशस्त्रबलों की कार्रवाई को ‘युद्ध’ कह रही हैं। इससे वे ‘युद्ध’ की परिभाषा ही बदले दे रही हैं। माओवादियों के खिलाफ देश में कोई ‘युद्ध’ नहीं चल रहा सिर्फ आधे-अधूरे मन से केन्द्रीय सशस्त्रबलों का ऑपरेशन चल रहा है।
     अरूंधती राय की वाक-कला की खूबी है वह माओवादी हिंसा को समर्थन दे रही हैं लेकिन शब्दों का जाल फैलाकर। मूल सामयिक प्रसंग से ध्यान हटाकर। अरूंधती राय का तर्कशास्त्र पुराने पंडितों जैसा है वे किसी भी व्यक्ति की वर्तमान दशा को व्याख्यायित करने के लिए हमेशा पुनर्जन्म और भाग्य या ग्रहदशा का बहाने रूप में इस्तेमाल करते थे अरूंधती राय भी यही करती हैं। वे बार-बार माओवादी हिंसा को सरकार के कर्मों का फल बताती हैं। चूंकि सरकार ने आदिवासियों के साथ अन्याय किया है फलतः  इन इलाकों में हिंसा भड़क उठी है। केन्द्र सरकार अन्याय नहीं करती तो आदिवासी इलाकों में माओवादी हिंसा नहीं भड़कती। अरूंधती के तर्कों का तरीका टिपिकल मध्यकालीन गीता के तर्कों से मिलता-जुलता है। जिसमें सब कुछ कर्मों के फल का भोग बताया गया है। सरकार ने आदिवासियों को सताया है,उत्पीडित किया है ,विस्थापित किया है अतः माओवादियों की प्रतिवाद में हिंसा जायज है। सरकार जैसे कर्म करेगी उसे वैसा ही फल भोगना होगा। अरूंधती राय ने समूचे तर्कशास्त्र में कर्मफल के सिद्धांत को बड़े ही सलीके से लपेटकर पेश किया है और यही वह विचारधारात्मक प्रस्थान बिंदु है जहां पर अरूंधती राय माओवाद के नाम पर मध्यकालीन विचारधारात्मक दार्शनिक नजरिए का प्रतिपादन कर रही हैं। यह बुनियादी तौर पर फंडामेंटलिज्म है। इसका वैज्ञानिक चिंतन पद्धति से कोई लेना-देना नहीं है।
   अरूंधती राय का मानना है कि भारतीय राज्य आक्रामक है । अरूंधती राय जानती हैं कि राज्य हमेशा आक्रामक रहा है। समाजवाद से लेकर पूंजीवाद तक सभी में राज्य आक्रामक है। सवाल उठता है क्या माओवादी शासन में राज्य नहीं होगा ? यदि राज्य नहीं होगा तो देश चलाएगा कौन ? यदि राज्य होगा तो कृपया माओवादियों से पूछकर बताएं कि माओवादी शासन में राज्य कैसा होगा ? क्या राज्य के पास दंड का अधिकार नहीं होगा ? क्या राज्य अपना वर्चस्व त्याग देगा ? जी नहीं,माओवादी शासन में राज्य होगा और फासिस्ट राज्य होगा। वहां स्वाधीनता,धर्मनिरपेक्षता,लोकतंत्र का का बुर्जुआ वातावरण भी नहीं होगा। उस राज्य में अरूंधती-मेधा पाटेकर को भी बोलने की आजादी नहीं होगी। कम से कम बुर्जुआ राज्य में आम आदमी को इतना स्पेस तो अभी मिला हुआ है कि वह संघर्ष कर सके। सरेआम रो सके। प्रतिवाद कर सके। मन हो तो माओवादियों की तरह अंधाधुंध हत्याएं कर सके और बाद में सरकार से बातचीत के बहाने अपने सभी हत्याकाण्डों में शामिल हत्यारों को दण्डित होने से बचा ले और उन्हें वीरपुंगव का खिताब दे।
      जिस तरह आदिवासियों के प्रति अन्याय करने के लिए राज्य दोषी है उसी तरह हिंसा करने,हत्याएं करने, ससार्वजनिक संपत्ति नष्ट करने, आम लोगों की सामान्य जिंदगी को अस्त-व्यस्त करने के लिए माओवादियों को दण्डित किया जाना चाहिए। यह कैसे हो सकता है कि राज्य को हिंसा के जिम्मेदार ठहराएं और माओवादियों को निर्दोष। यह तो वैसे ही हुआ कि जैसे पंडित करते हैं आम आदमी से कहते हैं तुम फलां दिन बैगन मत खाना दोष होता है और घर में आकर वही पण्डित उसी दिन बैगन बनाकर खाता है।
    तर्क का अरूंधतीशास्त्र फंड़ामेंटलिस्टों के दार्शनिक पैराडाइम में चल रहा है। इससे आधुनिक समाज और आधुनिक नजरिए का जन्म नहीं होगा बल्कि इससे फंडामेंटलिस्ट नजरिए को बल मिलता है। मजेदार बात यह है कि अरूंधती राय कह रही हैं कि भारत के सभी प्रतिवादी समूह संविधान के असली रखवाले हैं। उल्लेखनीय है माओवादियों का संविधान में कोई विश्वास ही नहीं है तो वे रखवाले कैसे हो सकते हैं ? आप ही देखें करन थापर ने क्या पूछा था और अरूंधती राय ने क्या था।
Arundhati Roy: I see the government absolutely, as the major aggressor. As far as the Maoists are concerned, of course, their ideology is an ideology of overthrowing the Indian state with violence. However, I don't believe that if the Indian state was a just state, if ordinary people had some minor hope for justice, the Maoists would just be a marginal group of militants with no popular appeal.
Karan Thapar: So the Maoists get support and strength from the fact that you don't believe that the Indian state is just.
Arundhati Roy: Let me tell you, forget the Maoists. Every resistance movement, armed or unarmed, and the Maoists today are fighting to implement the Constitution, and the government is vandalising it.
Karan Thapar: So the real constitutionalists are the Maoists and the real breakers of the Constitution is the government?
Arundhati Roy: Not only the Maoists, all resistance groups.
इससे बड़ा झूठ क्या हो सकता है कि माओवादी संगठन भारत के संविधान को लागू कराना चाहते हैं। माओवादी भारत के संविधान को लागू कराना चाहते हैं तो वे क्या राजनीतिक बहुलतावाद को समाप्त करके यह काम करना चाहते हैं ? जो माओवादी इन दिनों हिंसा में मगन हैं वे भारत के संविधान में कोई आस्खा नहीं रखते। यह बात उनके पार्टी कार्यक्रम और एक्शन में दिखती है। अरूंधती राय बताएं कि माओवादियों ने भारत के संविधान के प्रति,उसकी रक्षा और उसे सटीक रूप में लागू करने के बारे में कहां लिखा है ?
   अरूंधती राय की तर्कप्रणाली पुराने ब्रह्मवादियों जैसी है वे माओवादियों को ब्रह्मवादियों की तरह देख रही हैं,मान रही हैं और प्रचारित कर रही हैं। पुराने ब्रह्मवादी मानते थे ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या उसी तर्ज पर अरूंधती कह रही हैं माओवादी सत्य हैं और जगत मिथ्या है। इसे कहते हैं बहुराष्ट्रीय फंडिंग से उपजे ज्ञान में फंडामेंटलिज्म।
   अरूंधती राय और उनके जैसे विचारकों का तर्क यह है कि वे माओवादियों के प्रतिवाद के साथ हैं लेकिन भारतीय राज्य को उखाड़ फेंकने और उसकी जगह सर्वहारा के अधिनायकवाद के लक्ष्य के साथ नहीं हैं। यह तो वैसे ही हुआ गुड़ खाएं और गुलगुलों से बैर करें। माओवादी कत्लेआम करके जो तथाकथित क्रांतिकारी जंग लड़ रहे हैं उसका मूल लक्ष्य किंतु आदिवासी-किसान नहीं हैं बल्कि सर्वहारा का अधिनायकत्व स्थापित करना है और भारत का संविधान इस समझ को खारिज करता है। ऐसे में अरूंधती राय ही बताएं कि माओवादी किस तरह भारत के संविधान के असली रखवाले हैं ?
    अरूंधती राय जैसे लोग जब ब्रह्मवादियों की तरह सोचेंगे और देखेंगे तो उन्हें उलटी चीजें नजर आएंगी। वे सीधी चीज को उलटा और उलटी चीज को सीधा देखती रही हैं। यह विचारधारात्मक विभ्रम है। वे वास्तव को अवास्तव और अवास्तव को वास्तव बनाने की विचारधारात्मक कला में माहिर हैं। यही वजह है उन्हें भारत का राज्य उन्हें  ‘‘corporate, Hindu, satellite state’’ नजर आता है। ब्रह्मवादियों की तरह कहती हैं - If I say that I support the Maoists' desire to overthrow the Indian State, I would be saying that I am a Maoist. But I am not a Maoist. यानी ब्रह्मवादियों की तरह ‘है भी और नहीं भी।’ की तर्ज पर उन्होंने कहा माओवादी हूँ भी नहीं भी हूँ।   
   

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