शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

बाबरी मस्जिद विवाद- धर्म के दायरे के बाहर सोचें

      बाबरी मस्जिद प्रकरण पर उठा सांप्रदायिक उन्माद कोई यकायक पैदा नहीं हुआ है बल्कि सांप्रदायिक विचारधारा की 60 वर्षों की कड़ी मेहनत से उपजा दैत्य है जिसे आसानी से त्म नहीं किया जा सकता। वर्षों के विचारधारात्मक प्रचार के बाद ही आज यह चरमोत्कर्ष पर दिखाई दे रहा है। यह किसी नेता या गुट मात्र का प्रतिफलन नहीं है बल्कि सांप्रदायिक विचार की चौतरफा बह रही धारा का ही सजातीय है। अत: इस प्रकरण को संपूर्ण राष्ट्र में प्रवाहित सांप्रदायिक विचारधारा के परिप्रेक्ष्य में ही देखा जाना चाहिए।
     सांप्रदायिक विचारधारा ने राष्ट्र की लोकतांत्रिक एवं धर्मनिरपेक्ष संरचनाओं को गंभीर चुनौती दी है। अत: इस समस्या के बारे में राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य प्राथमिक जरूरत है। यह कोई स्थानीय या धार्मिक समस्या नहीं है जिसे स्थानीय परिप्रेक्ष्य तथा धार्मिक  परिप्रेक्ष्य के स्तर पर सुलझा लिया जाएगा। इसका जो भी समाधान होगा वह राष्ट्रीय स्तर पर ही संभव है। कांग्रेस (इ) की इस मसले पर शुरू से ही यह नीति रही है कि यह मसला स्थानीय तथा धार्मिक स्तर पर हल कर लिया जाए पर हकीकत में यह संभव नहीं हो पाया बल्कि इसके कारण सांप्रदायिक शक्तियों एवं विचारधारा को अपना जनाधार बढ़ाने का मौका मिल गया।
इस संदर्भ में दो बातें महत्वपूर्ण हैं प्रथम, भारतीय राज्य का धर्मनिरपेक्ष चरित्र; वस्तुत: निष्क्रिय धर्मनिरपेक्ष राज्य का चरित्र है, यह निष्क्रियता ही वह मुख्य तत्व है जिसके कारण सांप्रदायिक विचारधारा आज इतनी आक्रामक दिखाई दे रही है। इसकी यह भी खूबी है कि इसमें विभिन्न विचारों, धर्मों एवं संप्रदायों को अंतर्भुक्त कर लेने की अद्भुत क्षमता है।
भारतीय धर्मनिरपेक्षता का मूल घोषित लक्ष्य है 'सर्वधर्मसमभाव'। यह धारणा उन्नीसवीं सदी में पुनर्जागरण काल के पुरोधाओं राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, विवेकांनन्द, रामकृष्ण परमहंस आदि ने सृजित की थी। इस परंपरा के चिंतकों ने धार्मिक आस्थाओं एवं सामाजिक संस्कारों के खिलाफ संघर्ष चलाया  जिसकी परिणति स्वरूप धर्म एवं सामाजिक संस्थाओं में सुधारवाद की प्रक्रिया शुरू हुई। ये लोग भौतिक यथार्थ की वास्तविकता पर बल देते थे और सभी धर्मों के प्रति समानता के बोध के हिमायती थे। उस समय सभी धर्मों की समानता की हिमायत करने के पीछे मुख्य कारण यह था कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ सभी धर्मों की एकता स्थापित की जाए। सभी धर्मों की एकता का यह बोध औपनिवेशिक संघर्ष में ज्यादा दिन तक टिकाऊ नहीं रह पाया। कालांतर में इसमें प्रतिस्पर्धा का भाव आ घुसा जिसके कारण धर्मों के अंदर एक-दूसरे से स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने की होड़ लग गई और 'सर्वधर्म समभाव' की उपनिवेश विरोधी धार्मिक मतवादों का मोर्चा टूट गया।
       यहां स्मरणीय है कि 'सर्वधर्म समभाव' की अवधारणा बुर्जुआ संरचना में अंतर्ग्रंथित रही है। पर अनुभव यह बताता है कि सर्व धर्म समभाव की अवधारणा के माध्यम से धर्मनिपेक्षता को पुष्ट नहीं रखा जा सकता था या यों कहें कि धर्मनिरपेक्षता के लिए यह नाकाफी है। यह धारणा धर्मनिरपेक्ष बोध पैदा करने के बजाय सामाजिक चेतना को धार्मिक दायरों में कैद रती है, इसी दायरे में रहकर अपने-अपने धर्म को श्रेष्ठ सिद्ध करने वालों से लेकर इसके विरोधी तक इसमें अंतर्निहित रहते हैं, यही भारतीय धर्मनिरपेक्षता की बुनियादी कमजोरी है।
     राज्य की धर्मनिरपेक्षता की दूसरी विशेषता यह है कि वह धर्म से अपने को पूरी तरह पृथक नहीं कर पाया है बल्कि तटस्थ होने का स्वांग करता है। राज्य खुले तौर पर सभी धर्मों के संस्कारों एवं रीति-रिवाजों को स्वीकार करता है। इस क्रम में समाज में पिछड़ी हुई संस्कृति, विचारधारा एवं सामाजिक संस्कार अपना नित-नूतन संस्कार करते रहते हैं और पवित्र बने रहते हैं। राज्य इन सबके खिलाफ एक आधुनिक राज्य की अनिवार्य जरूरतों के मुताबिक न तो हस्तक्षेप करता है और न ही पिछड़ी हुई विचारधारा के खिलाफ संघर्ष चलाता है। यही वह बिंदु है जहां पर सांप्रदायिक विचारधारा अपने को निर्द्वंद्व पाती है तथा समाज में अपनी मनमानी करने का संस्थागत औचित्य भी सिद्ध करती रहती है।  
     इन दिनों सांप्रदायिक विचारधारा आमलोगों को सांप्रदायिक संस्कारों, रहन-सहन, रीति-रिवाज एवं विचारधारा को मानने के लिए मजबूर करने लगी है और एक ठोस भौतिक शक्ति के रूप में उसने दैत्याकार ग्रहण कर लिया है। भारतीय सांप्रदायिक विचारधारा के विकास का यह केंद्रीय कारण है।
     शाहबानो प्रकरण में सांप्रदायिक शक्तियों के आगे राज्य ने समर्पण इसीलिए कर दिया क्योंकि वह तटस्थ था और धर्म के आदेशों का दास था।  हकीकत में राज्य को धर्मनिरपेक्षता को जनता के बीच में ले जाना चाहिए था। पर उसने 'सर्वधर्म समभाव' एवं तटस्थता के नाम पर सांप्रदायिक विचारधारा की निष्क्रिय रहकर मदद की है। इसीलिए भारतीय धर्मनिरपेक्षता न तो छद्म है, जैसा हिंदू एवं मुस्लिम तत्ववादी कहते हैं और न ही वास्तविक है जैसा बुर्जुआ पार्टियां तथा उनके चिंतक कहते हैं बल्कि निष्क्रिय धर्मनिरपेक्षता है। जरूरत है इसे सक्रिय बनाने की। यह कार्य धर्मनिरपेक्षता की 'सर्वधर्म समभाव' एवं 'सभी धर्मों का भगवान तो एक ही है' जैसे दायरे से बाहर निकाल कर उसे सामाजिक-राजनीतिक संघर्ष का अगुआ बनाकर ही किया जा सकता है। इसके लिए इस अवधारणा को जनता में ले जाना होगा। ऊपर से घोषणा करके इसे जीवन में अर्जित नहीं किया जा सकता। जनता के बीच में ठोस रूपों में उन तमाम विचारधाराओं के खिलाफ इसे अगुआ बनाने की जरूरत है जो धर्मनिपेक्षता के शत्रु हैं। इस प्रक्रिया की शुरूआत धार्मिक सुधार से तो हो सकती है। पर यही इसका अभीप्सित लक्ष्य नहीं है बल्कि धर्मनिपेक्षता का आधुनिक अर्थों में जीवन दृष्टिकोण से लेकर सामाजिक संस्कारों तक सृजन एवं प्रसार करना होगा। धर्म सुधार करके धर्मनिरपेक्षता को सक्रिय नहीं बनाया जा सकता बल्कि यह देखा गया है कि ऐसे सुधार कार्यक्रम का, धर्म का पूंजीवाद या साम्राज्यवाद विरोधी दृष्टिकोण बहुत समय तक टिका नहीं रहता।
    धर्मकेंद्रित विचारधारा का सांप्रदायिक विचारधारा में रूपांतरण या पृथकतावाद का सांप्रदायिकता में रूपांतरण महत्वपूर्ण विचारधारात्मक प्रवृत्ति है। यह प्रवृत्ति अकाली संगठनों के आंदोलन के पृथकतावाद में बदल जाने तथा शिवसेना के पृथकतावादी आंदोलन के हिंदू सांप्रदायिकता में बदल जाने का उदाहरण हमारे सामने है।
सक्रिय धर्मनिरपेक्षता के लिए राज्य पर धर्मनिरपेक्ष शक्तियों का बाहर से दबाव बेहद जरूरी है क्योंकि भारतीय बुर्जुआजी की मंशा यही है कि 'हम नहीं सुधरेंगे'। अगर किसी को उससे कुछ हासिल करना है या अपनी दिशा में ले जाना है तो उसे दबाव पैदा करना होगा। अभी तक सांप्रदायिक विचारधारा दबाव पैदा करके राज्य का अपने हित में प्रयोग करती रही है। अगर धर्मनिरपेक्ष ताकतें दबाव पैदा करें जनता को लामबंद करें तो राज्य उनकी तरफ झुक सकता है क्योंकि वह तो 'बेपेंदी का लोटा' है, पता नहीं कब किधर लुढ़क जाए।
बाबरी मस्जिद प्रकरण पर भी यह परिप्रेक्ष्य लागू होता है, यह मसला न तो स्थानीय है और न ही धार्मिक है बल्कि राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में ही इसका हल संभव है। राष्ट्रीय मोर्चा सरकार ने पहली बार यह बात समझी और इस मुद्दे को स्थानीय एवं धार्मिक स्तर से उठाकर राष्ट्रीय स्तर पर इसे 'राष्ट्रीय एकता परिषद्' में रखा था। ज्योंही 'राष्ट्रीय स्तर' पर इसे राष्ट्रीय समस्या के रूप में रखा गया, सबसे तीखी प्रतिक्रिया कांग्रेस (इ) एवं भाजपा में हुई। भाजपा ने 'राष्ट्रीय एकता परिषद' का बहिष्कार किया था। इसका बहाना उन्होंने यह दिया था कि सब-कमेटी का फैसला प्रेस को बता दिया गया। इसलिए वे शामिल नहीं हो रहे हैं पर मामला इससे ज्यादा गहरा था। भाजपा एवं हिंदू संगठन नहीं चाहते कि यह राष्ट्रीय मसला बने। वी.पी. सिंह सरकार ने इसे राष्ट्रीय मसला ही नहीं बनाया बल्कि राज्य की तरफ से एक हल भी सुझाया जो केंद्र सरकार की अब तक की रणनीति में केंद्रीय बदलाव था। भाजपा इसे धार्मिक मसला मानती रही है तथा धार्मिक नेताओं के द्वारा ही यह हल हो, उसकी यही रणनीति रही है। कांग्रेस की भी कमोबेश यही रणनीति है। यही वजह है कि राष्ट्रीय एकता परिषद एवं राष्ट्रीय मोर्चा द्वारा इस विवाद के समाधान पर जारी अध्यादेश का उसने विरोध किया और विरोध करने वालों में सांप्रदायिक संगठन भी थे। उक्त अध्यादेश के पक्ष में वामपंथी दल एवं धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति थे क्योंकि इनकी शुरू से ही यह राय रही है कि यह मसला राष्ट्रीय स्तर पर, राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य एवं राष्ट्रीय समस्या के तौर पर हल किया जाना चाहिए। स्व.चंद्रशेखर जी ने अपने प्रधानमंत्री काल में राष्ट्रीय मोर्चा सरकार की नीति बदलकर उसे धार्मिक नेताओं के द्वारा ही हल किए जाने पर बल दिया । अत: दोनों ही पक्ष आपस में बात करने को तैयार हैं पर सरकार की मौजूदगी में, यानी राज्य निष्क्रिय रहे और वे दोनों सक्रिय रहें, जबकि राष्ट्रीय मोर्चा सरकार इन दोनों के साथ बैठकर सक्रिय ढंग से इसे हल करना चाहती थी। यह रणनीति दोनों ही संबद्ध पक्षों को अस्वीकार थी। उन्हें स्वीकार्य है निष्क्रिय धर्मनिरपेक्ष राज्य, और बातचीत जारी है! यहां पर प्रश्न उठता है कि अगर दोनों संबंधित पक्ष (बाबरी मस्जिद ऐक्शन कमेटी और विश्व हिंदू परिषद्) आपस में बातें करके इस मसले को सुलझाना चाहते हैं तो वे अपनी पहल पर सरकार की अनुपस्थिति में भी बात कर सकते थे या कर सकते हैं! सरकार को बीच में बिठाए रने का मकसद क्या है? मेरे लिने का, मकसद है राज्य द्वारा सांप्रदायिक शक्तियों के लिए स्वीकृति प्राप्त करना। यह स्वीकृति प्राप्त करना कि धर्म अपने मसले हल करेगा, राज्य इसमें कुछ नहीं बोलेगा। यानी धर्म मौजूदा धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक राज्य से बड़ा है। यही धारणा है जिसका वे प्रचार लोगों के जेहन में उतारना चाहते हैं। यही मूल रणनीति है।
      उल्लेनीय है कि राज्य समय-समय पर धर्म की व्याख्याओं का काम भी करता रहा है। यानी धर्म के एक नए व्याख्याकार की भूमिका भी भारतीय राज्य गाहे-बगाहे निभाता रहा है। यह कार्य प्रचार माध्यमों के द्वारा और भी तेजगति से किया जा रहा है जिसका अंतिम परिणाम है कट्टरतावाद एवं सांप्रदायिक विचारधारा का विकास। पंजाब का अनुभव साक्षी है, राज्य ने ज्यों-ज्यों सि धर्म की व्याख्या एवं श्रेष्ठता को प्रधानता दी कट्टरतावाद तथा पृथकतावाद बढ़ता चला गया एक जमाना था वहां पर पृथकतावादी संगठनों की शर्त एवं आदेश चलते थे। बाबरी मस्जिद प्रकरण में भी राज्य यही भूल कर रहा है। वह हिंदू धर्म के नए व्याख्याकार का काम कर रहा है। भविष्य में क्या होगा कोई नहीं जानता। इससे हिंदू धर्म के प्रचारक संगठनों को ही बल प्राप्त होगा यह बात निर्विवाद रूप से कही जा सकती है, जरूरत हैं धर्म की चौहद्दी से बाहर आकर राज्य अपनी भूमिका अदा करे, तब ही वह अपने स्वत्व की रक्षा कर पाएगा। वरना, उसका स्वत्व भी तरे में पड़ सकता है।

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