ओबामा की मीडिया रणनीति है सभी विचारधारा के लोग मानसिक तौर पर समर्पण करें। ओबामा जिस रूप में समाज की भूमिका निर्धारित करें उसे नतमस्तक होकर स्वीकार करें। ओबामा का 'आशा' और 'परिवर्तन' का यूटोपिया सारी दुनिया को अमरीकी नीति का कल-पुर्जा बनाना चाहता है। ओबामा चाहते हैं कि जिस तरह वे कृत्रिम अस्मिता को धारण किए हैं वैसे ही बाकी समाज कृत्रिम अस्मिता धारण करे। कृत्रिम अस्मिता के रूप में ही ओबामा ने अपने भाषण्ा में अमरीका में जिन अस्मिताओं की मौजूदगी का बखान किया है निर्मित अस्मिताएं हैं। धार्मिक अस्मिताएं हैं। इस तरह ओबामा अमरीकी समाज को धार्मिक अस्मिताओं में वर्गीकृत करके देख रहे थे। अमरीका के वर्गीय और जातीय वैविध्य से भरे समाज को ईसाई,मुसलमान,हिन्दू आदि धार्मिक अस्मिताओं में वर्गीकृत करके देखना , इस बात का संकेत है कि अमरीकी राष्ट्रपति आधुनिकता के धार्मिक पैराडाइम के तत्ववादी नजरिए सोचते है।
ओबामा के भाषण में संदेश था कि 'राष्ट्र' की महज दर्शक की भूमिका नहीं होगी। सभी किस्म की गतिविधियों के नियमन में 'राष्ट्र' की केन्द्रीय भूमिका होगी। इसी भूमिका का निर्वहन करते हुए अमरीकी राष्ट्र अपने विश्व वर्चस्व को बनाए रखेगा। अमरीका की वर्चस्वशाली भूमिका के लिए जो व्यक्ति,विचार,तथ्य, मूल्य, नीति आदि जरूरी हैं उन्हीं का ओबामा की प्रशासनिक टीम आौ कार्यभार वाले दस्तावेज में चयन किया गया है। ये मौजूदा संरचनाओं के समर्थक हैं। ओबामा ने किसी भी भाषण में अमरीकी संरचनाओं में किसी भी किस्म के बुनियादी परिवर्तन का संकेत नहीं दिया है। खतरे का प्रधान बिंदु यही है। बुश प्रशासन की संरचनाओं को बदले बगैर अमरीकी प्रशासन की छवि नहीं सुधारी जा सकती।
ओबामा ने 'आशा' और 'परिवर्तन' की ओट में अपनी विचारधारा को छिपा लिया है। इन दोनों धारणाओं के बहाने ओबामा और अमरीकी प्रशासन अपनी साम्राज्यवादी आकांक्षाओं को साकार करना चाहता है। 'आशा' और 'परिवर्तन' के नाम पर स्वयं और अमरीका को प्रच्छन्न बनाकर ओबामा ने अपने प्रशासन को ज्यादा प्रभावी बनाने की कोशिश की है। ठीक यही रणनीति पिछले राष्ट्रपति जार्ज बुश ने भी अपनायी थी। उन्होंने 'आतंक के खिलाफ जंग' और 'इराक के जनसंहारक अस्त्रों' का हौव्वा खड़ा करके सारी दुनिया में वर्चस्व के नए मानक का निर्माण किया।
विखंडनवादी नजरिए से पढ़ें तो ओबामा ने संदेश दिया है अमरीकी महान् है ! अपराजेय है ! दुनिया पर शासन के लिए बना है ! अमरीका का प्रतिवाद सहन नहीं होगा। यदि कोई प्रतिवाद होगा तो व्यक्तिगत होगा। सामूहिक नहीं । 'आशा' के नाम पर 'मुनाफा' और 'परिवर्तन' के नाम पर 'पावर' (सत्ता) पर पर्दादारी की है। 'आशा' के नाम पर ओबामा आम लोगों की सामान्य अनुभूतियों का दोहन कर रहे हैं और सामान्यजनों के बीच में विचारधारात्मक अंतराल को कम करने की कोशिश कर रहे हैं।
'आशा' (होप) के बहाने व्यक्ति,राजनीति,नीति और इनके पीछे सक्रिय अन्तर्विरोधों को नष्ट कर देना चाहते हैं। बीस लाख लोगों का संगम यह संदेश देता है कि अमरीका में विचारधारारहित राजनीति का तूफान आया हुआ है। इसका सबको स्वागत करना चाहिए। राजनीति वही अच्छी है जो विचारधाररहित हो। ओबामा यदि 'आशा' का संचार नहीं करते तो यह संभव है कि आम अमरीकी प्रतिवाद करते हुए सड़कों पर उतर आए। आज आम अमरीकी नागरिक आर्थिकमंदी और युध्दजनित आर्थिक तबाही के बावजूद व्यापक प्रतिवाद नहीं कर रहे हैं। तो उसमें ओबामा के विचारधारारहित 'आशा' और 'परिवर्तन' के नारे की बड़ी प्रभावी भूमिका है। यह नारा प्रतिवाद को नष्ट करता है। यह आलसियों और पराश्रितों का नारा है।
ओबामा का संदेश है मेरे साथ एकजुट हो। एकजुट होगे तो फल मिलेगा। आंतरिक मतभेदों को भूल जाओ। अमरीका महान् है। अन्य किसी के भी निष्कर्षों और विचारों पर ध्यान मत दो। अन्य लोग अमरीका के बारे में क्या कहते हैं उसकी अनदेखी करो। ओबामा के शब्दों में 'अमरीकी जीवनशैली' गर्व की चीज है। जो इसकी आलोचना करते हैं उनकी उपेक्षा करो। हम श्रेष्ठतम हैं,सर्वोपरि हैं।
ओबामा के भाषण को विखंडनवादी नजरिए से पढ़ा जाए तो इसमें एक भी सारवान नीति की घोषणा नहीं है। उत्तर आधुनिक सर्वजनप्रियता और पापुलिज्म को ध्यान में रखकर यह भाषण लिखा गया है। पापुलिज्म और अमरीकी राष्ट्रवाद के भावबोध को सर्वप्रिय भाषा और सर्वजन सुखाय के मलाई में लपेट के प्रस्तुत किया गया। 'सर्वजन सुखाय और सर्वप्रियता ' का अर्थ है बोलो किंतु प्रतिवाद मत करो। सारवान बातें मत कहो। 'सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय' अर्थहीन नारा है। यह नारा समूचे शपथग्रहण समारोह को निस्सार बनाता है।
ओबामा का 'आशा' और 'परिवर्तन' का नारा तर्क के अस्वीकार पर टिका है। ओबामा के भाषण में व्यक्त किए गए विचारों को यदि तर्क की कसौटी पर कसने की कोशिश की जाएगी तो तर्कहीनता निकलेगी। ओबामा जो कह रहे हैं और जो करते रहे हैं उसके साथ उनके भाषण का मेल नहीं है। ओबामा उन नीतियों को चुनौती नहीं दे रहे जिनके कारण आज सारी दुनिया भयानक आर्थिकमंदी में फंसी है। इराक-अफगानिस्तान युध्द को ओबामा का घोषित समर्थन रहा है। ओबामा को तालिबान की चिन्ता है किंतु यह चिन्ता कितनी वास्तविक है यह तो इस तथ्य से ही साफ है कि अफगानिस्तान में होने वाली अफीम की खेती से आज बहुराष्ट्रीय कंपनियां लाभ उठा रही हैं और सीआईए के संरक्षण में सारा आपरेशन चल रहा है। यह स्थिति तब है जब अफगानिस्तान में अमरीकी नेतृत्व में नाटो सेना जमी हुई है। तालिबान समर्थकों से अफीम का व्यापार करके अमरीका और सीआईए इस पूरे क्षेत्र में स्थायी तौर पर अस्थिरता और असुरक्षा का वातावरण बनाए रखना चाहता है।
अमरीका यदि अफगानिस्तान और इराक को लेकर गंभीर है तो उसे अबिलम्ब इस इलाके से अपनी सेनाएं वापस बुला लेनी चाहिए। साथ ही समूचे विश्व से इराक और अफगानिस्तान पर हमले के लिए माफी मांगनी चाहिए। जिन लोगों के हाथ युध्दापराधों से सने हैं उन्हें विश्व अदालत के हवाले किया जाना चाहिए। जो कंपनियां इराक के भ्रष्टाचार और अफगानिस्तान में अफीम की तस्करी में शामिल हैं उन्हें दण्डित किया जाना चाहिए। यदि इस नजरिए से देखें तो ओबामा का भाषण अर्थहीन है।
अर्थहीन इस अर्थ में भी है कि वह संदर्भरहित था। ओबामा जो बोल रहे थे उसका संदर्भ गायब था। अर्थहीनता हमेशा सार्वभौम भाव में अभिव्यक्त होती है। ओबामा जिस आर्थिक मंदी,युध्द आदि की बातें कर रहे हैं उसे उसके सही संदर्भ से काटकर सार्वभौमत्व का रूप दे रहे थे। उल्लेखनीय अर्थहीन के लिए संदर्भ बेमानी होता है। ओबामा के लिए भी संदर्भ बेमानी है। वह जो कह रहे हैं वह तर्क की दृष्टि से असंभव है। इस अर्थ में ओबामा का भाषण अर्थहीन या एब्सर्ड था।
ओबामा का खर्चीला शपथग्रहण समारोह आर्थिकमंदी की व्यापक तबाही के संदर्भ में अर्थहीन लगता है। अमरीकी साम्राज्य की अर्थहीनता तब और भी प्रखर रूप में सामने आती है जब ओबामा मार्टिन लूथर किंग को अपना आदर्श प्रतीक बनाकर पेश करते हैं। अमरीकी सभ्यता के आदर्श प्रतीक के बहाने वे जो रूपक बनाना चाहते हैं वह एब्सर्डिटी का चरम है।
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