संचार क्रांति के संस्कृति और साहित्य को व्यापक रूप में प्रभावित किया है। संचार क्रांति की धुरी है हाइपरटेक्स्ट। इसका साहित्यालोचना और आलोचकों पर गहरा प्रभाव पड़ा है। हाइपर टेक्स्ट के स्वभाव की अनेक विशेषताएं क्रिटिकल थ्योरी में देख सकते हैं।ये नेटवर्क के मॉडल का उपयोग करते हैं।
इसी तरह नेटवर्क संपूर्ण अर्थ में लिटरेचर','इंफोवर्ड', 'डाकूवर्स' अथवा यह भी कह सकते हैं कि सभी किस्म का लेखन,जिसका हाइपर टेक्स्ट के साथ संबंध हो, साहित्य की कोटि में आता है।
एकरेखीयता और एक ही व्याख्या को हाइपर टेक्स्ट अस्वीकार करता है।हाइपर टेक्स्ट का ही यह प्रभाव है कि आज सारी दुनिया में एकरेखीयता की जगह गैर-रेखीयता केन्द्र में आ गई है।गैर-रेखीयता एक नियम बन गयी है। अब विमर्श एक ही दिशा और एक ही दृष्टिकोण की बजाय विभिन्न दृष्टियों से किए जा रहे हैं। सभी दृष्टियां समान हैं।आज यह सब फैशन की तरह चल रहा है।
गैर-रेखीय चिंतन के कारण ही रोलां बार्थ ने लिंक,नेटवर्क,वेब और पाथ पदबंधों का आलोचना में उपयोग किया।इसी तरह देरिदा नेलिंक,वेब, नेटवर्क, मेट्रिक्स और इंटरवीविंग पदबंध का हाइपर टेक्स्चुएलिटी के संदर्भ में प्रयोग किया। मिखाइल बाख्तिन ने लिंक्स,लिंकेज,इंटरकनेक्टेडनेस, इंटरवोवेन पदबंध का प्रयोग किया है।
रोलां बार्थ ने 'एस/ जेड' कृति में जिस आदर्श पाठ की परिकल्पना दी है वह 'हाईपर टेक्स्ट' ही है। जिसमें शब्दों के ब्लॉक या इमेजों का इलैक्ट्रोनिकली अनेक मार्गों और श्रृंखलाओं में खुला प्रस्तुतिकरण मिलता है।बार्थ का मानना है कि यह वस्तुत: अपूर्ण पाठात्मकता है। इस पाठात्मकता को लिंक,नॉड,नेटवर्क,वेब और पाथ पदबंधों के जरिए वर्णित किया गया है। इस आदर्श पाठ में बार्थ के मुताबिक अनेक नेटवर्क अन्तर्क्रिया करते हैं। वे किसी का भी अतिक्रमण नहीं करते।यह संकेतकों की आकाशगंगा है। यह संकेतित की संरचना नहीं है।क्योंकि इसका कोई आरंभ बिन्दु नहीं है।इसे पलटा जा सकता है।हम इसमें अनेक रास्तों से प्रवेश कर सकते हैं।इनमें से किसी को भी प्रामाणिक लिंक का मुख्य द्वार नहीं कहा जा सकता। 'कोड्स' के जरिए आप इसके पीछे अपनी आंखों को दौड़ाते हैं, और इसमें जो पाठ की व्यवस्था है वह मूलत: बहुलतामूलक है। इसे अनेक नंबरों में पेश किया जा सकता है। या यों कहें कि उसके नंबर कभी बंद नहीं होते।इसका पाठ कभी बंद नहीं होता। पाठ की कोई सीमा नहीं है।इसकी भाषा अनंत है।
रोलां बार्थ का मानना है 'पाठ की बहुलार्थकता' रही है। वह अर्थ के एकत्व को अस्वीकार करता है। उसने रेखांकित किया कि पाठ के एक अर्थ की बजाय अनेक अर्थ भी हो सकते हैं। पाठ में अर्थ की नहीं प्रक्रिया की खोज की जानी चाहिए।'संकेतक' को 'संकेतित' का सहभागी समझना चाहिए,ताकि उसकी सहायता से निरवरोध अर्थ उत्पन्न हो सके।
बार्थ का मानना था कि मानव का एकत्व एक प्रकार की भ्रान्ति है। यदि ध्यान से देखा जाए तो हममें से प्रत्येक वस्तुत: 'अनेक' है।वह उस प्रत्येक वस्तु का समर्थक था जो बहुल और केन्द्रापसारी हो,और प्रत्येक उस वस्तु का विरोधी था,जो केन्द्राभिसारी हो अथवा एकाकी हो।
हाईपर टेक्स्ट के मसलों को बार्थ ने ‘ एस/ जेड ’में नई बुलंदियों पर पहुँचाया।यह कृति यथार्थवादी साहित्यालोचना के मानकों को पूरी तरह खंडित करती है। यह यथार्थ के प्रचलित मानकों के आदर्श लेखक बालजाक की गंभीर समीक्षा भी पेश करती है। यह कृति उत्तर संरचनावाद की आदर्श कृति मानी जाती है।
बार्थ ने कथा साहित्य के उन आलोचकों की तीखी आलोचना की है,जो संसार भर की कहानियों को एक आंतरिक संरचना के अंतर्गत लाकर देखते हैं। बार्थ ने रेखांकित किया है कि प्रत्येक कृति भिन्न होती है। विभेद कलाकृति के अद्वितीय होने में नहीं,अपितु प्राय:कलाकृति की पाठात्मकता का हिस्सा होता है।प्रत्येक कलाकृति पूर्व-लिखित साहित्य के नि:सीम तरंगायित उदधि से अपना नम संबंध सुदृढ़ बनाती है।कतिपय कलाकृतियाँ पाठ को स्वतंत्र्या पढ़ने के प्रति निरूत्साहित करती हैं,और केवल विशेष अर्थों एवं संदर्भों पर आग्रह करती हैं।
एक यथार्थवादी उपन्यास एक प्रकार का 'बंद पाठ'प्रस्तुत करता है।'बंद पाठ' की धारणा पर प्रहार करते हुए बार्थ ने लिखा कि इसके समर्थक, पाठक को पाठ का उपभोक्ता समझते हैं,जबकि पाठ और पाठक का संबंध मात्र 'उपभोक्ता का नहीं वरंच अर्थोत्पादन करने वाले उत्पादक का है।
पहले वाले पाठ को बार्थ 'पढ़ा जानेवाला' और दूसरे प्रकार के पाठ को 'लिखा जानेवाला',यानी सृजन किया जाने वाला कहता है।पहले प्रकार का पाठ केवल पढ़ने के लिए है,जबकि दूसरे प्रकार का पाठ मानों लिखने का औचित्य प्रस्तुत करता है।वह सृजन-धर्म निभाता है और प्रहर्षता एवं आनंद को जागृत करता है,यानी दूसरे प्रकार का पाठ आदर्श पाठ है। इस आदर्श पाठ में 'संकेतक' आकाशगंगा की तरह आविर्भूत होते हैंऔर अर्थ का नूतन संसार उभरता है।उसका कोई निश्चित द्वार नहीं,उसमें एकाधिक दरवाजों से प्रविष्ट हो सकते हैं।कोई अधिनायक यह निर्णय नहीं दे सकता कि केवल यही द्वार विशेष द्वार है,पाठ जिन 'कोडों' से कार्य लेता है वे दृष्टि की अंतिम सीमा तक फैल जाते हैं।
बार्थ के यहां 'कोड' का अर्थ डिक्शनरी के प्रचलित अर्थ से भिन्न है।ये संरचनावादी कोड नहीं है। बल्कि यह हाइपर टेक्स्ट का कोड है।यह कोड पाठ से असंख्य स्वर पैदा करता है।बार्थ का मानना है कि पाठक जब भिन्न दृष्टिकोण से अध्ययन करता है तो भिन्न अर्थ पैदा होता है और अर्थ का तथाकथित अद्वितीयत्व विलीन हो जाता है,अर्थात् अर्थ का एकत्व कपोल कल्पना है।एस/जेड नामक कृति में बार्थ ने क्रमागत पाँच कोड रेखांकित किए हैं-व्याख्यात्मक,अर्थगत,प्रतीकात्मक,क्रियात्मक,और सांस्कृतिक।सुधीश पचौरी ने 'उत्तर -आधुनिकता और उत्तर संरचनावाद'(1994) में लिखा कि ''बार्थ 'पाठ' के अर्थनिर्माण के लिए 'पाठ' को 'सघन' नहीं करते बल्कि फैलाते -बिखेरते हैं।पढ़ने के दौरान पाठक द्वारा चुने गए किसी पद,वाक्य,मुहावरे से पाठ की संरचना संभव है।इसी से अर्थ की बहुलता मिलती है। बार्थ बताते हैं कि साहित्य के निर्माण में पाँच संहिता(कोड) काम करती हैं। पहली संहिता'व्याख्यावादी' होती है और 'पाठ' में संभव होती है। दूसरी है,चिह्न -संहिता ,जो मूल विचार को तै करती है।तीसरी है प्रतीकात्मक संहिता जिसमें अर्थ बहुमुखी होता है। चौथी संहिता कार्य-व्यवहार की होती है।पांचवीं संहिता सांस्कृतिक वातावरण की होती है।इन संहिताओं के भीतर ही 'पाठ' अपने 'अर्थ' का निर्माण करता है।ये संहिताएँ लेखक और पाठक दोनों की समान थाती होती हैं। रोलां बार्थ कहते हैं कि ये पाँचों संहिताएँ एक ऐसा संजाल बनाती हैं,जिसमें से होकर सारा पाठ गुजरता है।इस संहिता में यथार्थ स्वयं एक पाठ बन जाता है।इस तरह यथार्थ के बारे में लिखना किसी शब्द को किसी चीज से जोड़ना नहीं है,एक पाठ को दूसरे पाठ(शब्द को शब्द) से जोड़ना भर है।''
''यहीं से बार्थ 'अंतर्पाठीयता'पैदा करते हैं।यथार्थ,सत्य,लेखक,पाठक में कौन कब पाठ बन रहा है,यह दुविधा साहित्य से उसका प्रातिनिधिकता का अधिकार छीन लेती है।बार्थ के लिए यथार्थवाद यथार्थ की नकल नहीं है,बल्कि 'नकल की नकल' है। साहित्य का सत्य एक छलना भर है।वह संहिताओं के द्वारा दिया गया धोखा है।चरित्र इन संहिताओं में आकर सच्चे मनुष्य नहीं रहते।वे चिह्नों द्वारा पैदा किए जाने वाले प्राव के औजार होते हैं।ये यथार्थ नहीं होते।न लेखक लेखक रहता है।वह संहिताओं का संग्रह भर होता है।पुराने क्लासिक साहित्य में झाँकती ,एक निश्चित संदेश का वहन करती लेखक की तस्वीर,बहुलतावादी पाठ में खत्म हो जाती है।पाठ जितना बहुवाची है,उतना ही पाठक को वह अपने स्रोतों तक पहुँचने से रोकता है।''
रोलां बार्थ ने 'डेथ ऑफ़ दि ऑथर' लेख में उस धारणा का खंडन किया कि कृतिकार पाठ का उत्स है।इसके विपरीत उसने कहा कि पाठक ही वह इकाई है जो पाठ के बहुमुखी अर्थ के केन्द्रों को स्थिर करता है।पाठक जिस ओर से भी चाहे,पाठ में प्रवेश कर सकता है,कोई एक मार्ग,कोई एक द्वार या विशेष द्वार नहीं है।
बार्थ का मानना था कि पाठक,पाठ की अर्थोत्पत्ति की प्रक्रिया में बराबर की भागीदारी के लिए स्वतंत्र है,बिना 'संकेतक' का निरंकुश प्रतिबन्ध अनुभव किए।पाठक,भाषा के साम्राज्य-स्थलों का व्यंजक है और वह अर्थ के किसी भी तंत्र से पाठ को संबध्द करने और कृतिकार के अभिप्राय की उपेक्षा करने में पूर्णत: स्वतंत्र है।
रोलां बार्थ ने 'फ्रॉम वर्क टु टेक्स्ट' में लिखा कि ''पाठ नि:संदेह शब्दों का समुच्चय है।किंतु यह उस प्रकार अर्थ नहीं रखता,जिस प्रकार शब्द से अर्थगत अभिप्राय लिए जाते हैं।सामान्यतया पाठ अर्थ को अनन्ततया स्थगन में रखता है।इसका अर्थ यह नहीं कि पाठ जो कुछ कहना चाहता है,वह अनिवर्चनीय है,अपितु यह कि पाठ 'संकेतक' की फुलझड़ी है।यह भाषा का वह टुकड़ा है,जो संरचना रखता है,किन्तु बिना केन्द्र के जिसका कोई अंत नहीं है।''
बार्थ कहता है कि पाठ का 'अर्थ-बाहुल्य' अलघुकरणीय है और इसका कारण उसकी संदर्भपरकता,लाक्षणिक प्रयोग एवं पदमैत्रियाँ हैं,जो एक पाठ में दूसरे पाठों के साथ पाई जाती हैं।बार्थ इस संबध को अंतर्पाठ कहते हैं।जिसमें कोई भी पाठ स्थित होता है।यह संदर्भों से गुंथा हुआ होता है बिना उध्दरण चिह्नों के जिनकी प्रतिध्वनि पंक्तियों में गूंजती रहती है।यही कारण है कि पाठ कोई दंग एक जैसी नहीं होतीं,क्योंकि पाठ कई दूसरे पाटों के साथ घुला-मिला रहता है।बार्थ यह भी कहता है कि कृतिकार अथवा उसके अभिप्राय का अर्थोत्पत्ति की प्रक्रिया में कोई हस्तक्षेप नहीं।बार्थ की प्रसिद्ध उक्ति है कि 'पाठ अपने पिता के हस्ताक्षर के बिना पढ़ा जाता है।
इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएं