किसी भी देश की मीडिया नीतियों के सुधारों को उस देश की विशिष्ट ऐतिहासिक परिस्थितियों के संदर्भ में देखना चाहिए,उसी संदर्भ में भूमंडलीकरण के ''दूर से प्रभाव'' को भी देखा जा सकता है। ग्लोबलाईजेशन के संदर्भ में जब मीडिया सुधारों की बात की जाती है तो सबसे पहले विनियमन किया जाता है। प्रचलित मीडिया नीतियों के जरिए प्रसारण,प्रकाशन आदि के क्षेत्र में विदेशी पूंजी निवेश से लेकर प्रसारण के अधिकार के मामले में जो प्रतिबंध लगे होते हैं उन्हें सिलेसिलेवार ढ़ंग से हटा लिया जाता है। हमारे देश में इसके लिए सबसे पहले टीवी प्रसारण की निजी क्षेत्र को अनुमति दी गयी,फिर प्रेस और इलैक्ट्रोनिक मीडिया में विदेशी पूंजी निवेश का फैसला लिया गया।सबसे बाद में रेडियो के क्षेत्र में प्रतिबंध हटाए गए।मीडिया में विनियमन के कारण बहुराष्ट्रीय मीडिया कंपनियों के अलावा बड़े पैमाने पर देशी इजारेदार कंपनियों ने भी मीडिया के क्षेत्र में पैसा निवेश किया है।
मीडिया में निजी पूंजी निवेश और विनियमन का सबसे बड़ा पभाव यह हुआ है कि भारत की अस्मिता,यहां के बाशिंदों की अस्मिता को नये ढ़ंग से नए नजरिए के साथ निर्मित किया जा रहा है। विगत पन्द्रह सालों के मीडिया सुधारों ने भारत की पहचान को बदल दिया है,अब पहचान के पुराने मानक बेकार हो गए हैं।भारत की नयी पहचान ज्ञान समाज के सारथी की है।विकासमान अर्थव्यवस्था की है। एक ऐसे देश की है जिसमें सूचना तकनीकी के विकास की अनंत संभावनाएं हैं। पहले भारत की पहचान गरीब के साथ होती थी,आज संपदा के साथ होती है,टैक्नोक्रेट के साथ होती है,उद्यमियों के साथ होती है।यह भारत की अस्मिता का बदलता पैराडाइम है जिसे नए मीडिया ने रचा है।
भारत की पहचान की धुरी है जनतंत्र,विविधता और विकास। नए मीडिया ने अपने विमर्श और इमेज बिल्डिंग का बहुत बड़ा हिस्सा इन्हीं तीन पक्षों पर खर्च किया है।एक जमाना था कि हमारे यहां विदेशी निवेश आता था,किंतु आज नया पक्ष है कि भारतीय उद्योगपति देश के बाहर बड़े पैमाने पर पूंजी निवेश कर रहे हैं।यहां तक कि मीडिया में भी निवेश कर रहे हैं।
मीडिया सुधार का दूसरा बड़ा प्रभाव पड़ा है प्रसारभारती पर। पहले सरकारी माध्यम व्यवसाय से नफरत करते थे,अब व्यवसाय ही गुरूमंत्र है।टीवी-रेडियो का पूरी तरह कॉमर्शियलाईजेशन कर दिया गया है,यहां तक कि राजनीति का भी व्यवसायीकरण हो चुका है। भारत में निजीकरण से ज्यादा कॉमर्शियलासईजेशन ज्यादा प्रभावशाली होकर सामने आया है।
हमारे देश में निजीकरण और व्यवसायीकरण ये दो केन्द्रीय फिनोमिना के रुप में सामने आए हैं,इनमें व्यसायीकरण ज्यादा प्रभावी दिख रहा है मीडिया के संदर्भ में। इसी प्रक्रिया में समुदाय की चेतना बढ़ी है ,सामुदायिक रेडियो का जन्म हुआ है।यह सामुदायिकतावाद मूलत: मार्शल मैकलुहान के ग्लोबल विलेज की धारणा का ही प्रतिफलन है। इसीलिए 'विकासमूलक मीडिया' की बातें भी इसी संदर्भ में उठ रही हैं।
सामुदायिक रेडियो की धारणा मूलत: वर्ल्ड एसोसिएशन ऑफ ऑफ कम्युनिटी रेडियो ब्रॉडकास्टरस के द्वारा विश्वभर में चलाए गए प्रचार अभियान का प्रतिफलन है। सामुदायिक रेडियो मूलत: सरकारी और व्यवसायिक प्रसारण सेवा से भिन्न है,उन दोनों का विकल्प है। भारत में आगामी दस वर्षों में ऐसे चालीस हजार रेडियो स्टेशन खुलने की संभावनाएं हैं। सामुदायिक रेडियो के खिलाफ दबाव सबसे ज्यादा सरकारों की तरफ से आ रहा है।
मीडिया के क्षेत्र में नीतिगत प्रभाव का सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र है टेक्नोलॉजिकल कनवर्जेंस।बड़े पैमाने पर इस दिशा में पूंजी निवेश और नयी तकनीकी के प्रयोग की दिशा में हम आगे बढ़ चुके हैं।अब नयी मीडियम में सारे मीडियम वास्तविकता बनते जा रहे हैं।
कम्प्यूटर में सब मीडिया सुन,देख और पढ़ सकते हैं,मोबाइल में रेडियो,टीवी ,इंटरनेट आदि आ गया है। यह एक तरह से मीडिया और सूचना तकनीकी के बीच,माध्यम और दूरसंचार के बीच की खाई का खात्मा है।ब्रॉडकास्टिंग और टेलीकम्युनिकेशन को अलग-अलग देखने की परंपरा की विदाई है। इसे ही कहते हैं ग्लोबलाईजेशन की 'दूर से प्रभावित' करने की नीति का परिणाम। इसके अलावा सबसे बड़ा परिवर्तन यह हुआ है कि आज मीडिया में साधारण आदमी को अभिव्यक्ति के लिए पहले से ज्यादा जगह मिली है।
कम्प्यूटर में सब मीडिया सुन,देख और पढ़ सकते हैं,मोबाइल में रेडियो,टीवी ,इंटरनेट आदि आ गया है। यह एक तरह से मीडिया और सूचना तकनीकी के बीच,माध्यम और दूरसंचार के बीच की खाई का खात्मा है।ब्रॉडकास्टिंग और टेलीकम्युनिकेशन को अलग-अलग देखने की परंपरा की विदाई है। इसे ही कहते हैं ग्लोबलाईजेशन की 'दूर से प्रभावित' करने की नीति का परिणाम। इसके अलावा सबसे बड़ा परिवर्तन यह हुआ है कि आज मीडिया में साधारण आदमी को अभिव्यक्ति के लिए पहले से ज्यादा जगह मिली है।
मीडिया वातावरण में साधारण आदमी के लिए जगह बनना एक ऐसी परिघटना है जिसका अभी विस्तार से मूल्यांकन होना बाकी है। सवाल यह है कि क्या मीडिया सुधारों के बिना साधारण आदमी के लिए मीडिया खासकर बड़े मीडिया में जगह मिलना संभव थी ?मीडिया सुधारों के बिना यह संभव नहीं था। मीडिया सुधार हमेशा सत्ता के संरचनात्मक परिवर्तनों में सुधार के साथ ही आते हैं और इनके बिना जिंदा भी नहीं रहते। यह एक तरह से ग्लोबल मीडिया का जनतंत्र का आत्मसातकरण है,जनतंत्र को अपने अंदर समाहित कर लेने की कार्यनीति का हिस्सा है।
मीडिया सुधारों के बाद आयी मीडिया बाढ़ ने संवाद और वैचारिक-सांस्कृतिक आदान-प्रदान की अनंत संभावनाएं पैदा की हैं।इनमें यदि वर्चस्व की विचारधारा है तो वर्चस्व विरोधी विचारधारा के लोगों के लिए भी काम करने की अनंत संभावनाएं हैं,पहले हम वर्चस्व का विरोध करने के लिए वर्चस्ववादी माध्यमों में जगह तलाशते फिरते थे और वे जगह मुश्किल से देते थे,किंतु आज यह स्थिति नहीं है आप वर्चस्व के प्रतिरोध में अपने मीडिया नेटवर्क,चैनल,रेडियो,वेबसाइड आदि का निर्माण कर सकते हैं,कहने का तात्पर्य यह है संवाद और संचार के लिए आत्मनिर्भरता बुनियादी शर्त है। पहले हमारे पास आत्मविश्वास था किंतु आत्मनिर्भर नहीं बने थे,अभिव्यक्ति का वातावरण नहीं था,आज हमारे पास आत्मविश्वास ,आत्मनिर्भरता और अभिव्यक्ति का माहौल ये तीनों चीजें हैं।
कनवर्जेंस के बारे में जब भी चर्चा होती है तो अमूमन प्रसारण,प्रिण्टिंग और अन्य मीडिया रुपों के बारे में चर्चा करते हैं। किंतु कारपोरेट जगत के द्वारा इस क्षेत्र में जो निवेश किया जा रहा है,उसके बारे में समग्र समझ बनाने की जरुरत है। उत्तर-औद्योगिक अवस्था में पूंजीपतिवर्ग विशुद्ध इलैक्ट्रोनिक कम्युनिकेशन पर निवेश कर रहा है। वर्चुअल यथार्थ में दाखिल हो रहा है।इसके लिए ग्लोबल डिजिटल नेटवर्क बना रहा है। भौतिक वस्तुएं और सेवाएं इस दौर के संबंध और संचार का आदर्श आधार हैं।
डिजिटल कम्युनिकेशन नेटवर्क के कारण केरीयर और कंटेंट के बीच का अंतर खत्म हो गया है। व्यक्तिगत संचार और औपचारिक प्रसारण का अंतर खत्म हो गया है। व्यापार की संस्कृति और संस्कृति का व्यापार के बीच का भेद खत्म हो गया है। प्रोडक्शन और उपभोग के बीच का अंतर खत्म हो गया है। सार्वजनिक परिवेश और व्यक्तिगत या निजी परिवेश का अंतर खत्म हो गया है।इसी तरह पहले जिस तरह संसाधन,मैन्यूफैक्चरिंग, वित्तीय,शिक्षा,मनोरंजन आदि के नाम पर जो वर्गीकरण किए हुए थे,क्षेत्र बनाए हुए थे,उन सभी का अंत हो गया है।इसके कारण बुनियादी तौर पर नए सिरे से काल और स्थान बोघ के साथ समाज को पुनर्गठित किया जा रहा है। डिजिटल नेटवर्क मूलत: व्यापार का उपकरण है। इसकर शिलान्यास सन् 1972 में चिप्स के उदय के बाद हुआ है। यह संपदा संचय और केन्द्रीकरण लचीला उपकरण है,यह नयी विश्व अर्थव्यवस्था का हिस्सा है।वर्चुअल रियलिटी का अथ्र है कि आप कायिक तौर पर मौजूद न रहकर भी वर्चुअल उपस्थिति बना सकते हैं। वर्चुअल उपस्थिति सब जगह और सब समय बना सकते हैं।इसके लिए आपके पास सिर्फ एक डिजिटल कनेक्शन चाहिए।
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