(हिन्दी के तीन प्रमुख आलोचक रामविलास शर्मा,नामवर सिंह,मैनेजर पांडेय)
आलोचना जब एकांगी हो जाती तो आलोचना में गतिरोध पैदा होता है,गतिरोध को तोड़ने अथवा आलोचनात्मक विकास की बुनियादी शर्त है आलोचना के सकारात्मक तत्वों की मींमासा पर जोर। मौजूदा आलोचनात्मक गतिरोध का एक अन्य कारण है अकादमिक स्तर पर आलोचना की सैध्दान्तिकी और पध्दति के पठन-पाठन,अनुसंधान की संरचनाओं और परंपरा का अभाव। इसी के गर्भ से यह भाव भी पैदा हुआ है कि कम लिखो और ज्यादा कमाओ, कम लिखो और ज्यादा कॉमनसेंस से सोचो और बोलो, हिन्दी में ज्यादा लिखने वाले को खराब और कम लिखने वाले को ज्यादा बेहतर माना जाता है।गोया ज्यादा लिखना पतन की निशानी हो !
आलोचना में गतिरोध का एक अन्य महत्वपूर्ण कारण है आलोचना का वाचिक परंपरा तक सीमित रहना।अकादमिक अनुशासन,लिखित रूप में आलोचना के कम से कम प्रयास हुए हैं। आलोचना में ढर्रे पर सोचने की आदत है। आलोचना के ठहराव का एक अन्य कारण यह भी है उसमें सामान्यत: हीनताबोध है ,कुछ लोग यह मानकर चलते हैं कि गंभीर आलोचना तो फलां-फंला आलोचक ही कर सकता है, हम तो बेहतर सोच ही नहीं सकते।वहीं दूसरी ओर सोचने वाले आलोचकों की हालत इस कदर पतली है कि वे सोचते और पढ़ते कम बोलते ज्यादा हैं। अथवा दोहराते ज्यादा हैं। दोहराने वालों अथवा वाचाल किस्म के आलोचकों में आलोचनात्मक विनम्रता नहीं है,वे अन्य को कम पढ़ते हैं,जिसे पढ़ते हैं उसका नाम ,संदर्भ छिपाते हैं, अन्य की बातों को अपने नाम से,मौलिक समीक्षा के नाम से चलाते हैं । अपने लेखन में हिन्दी के अनुसंधान कार्य को उल्लेख योग्य नहीं समझते। इस सबका परिणाम है आलोचना में पैदा हुआ मौजूदा गतिरोध।
संभवत: हमारे स्वनाम धन्य आलोचकों को आलोचना में गतिरोध नजर ही न आए। यदि वे स्वाभाविक रूप में सोच रहे हैं कि गतिरोध नहीं है तो वे गलत हैं।
सवाल किया जाना चाहिए हिन्दी में 'कविता के नए प्रतिमान' के बाद आलोचना की कोई भी उल्लेखनीय कृति क्यों नहीं आयी ?यानी चालीस साल से ज्यादा समय गुजर चुका है और आलोचना में किसी कृति का न आना उल्लेखनीय दुर्घटना ही कही जाएगी। यह बात दीगर है कि इस दौर में नामवरजी के हजारों व्याख्यान हुए हैं,आलोचना में अनेक संपादकीय लेख आए हैं, किंतु उनके द्वारा आलोचना की किसी किताब का न आना,महज संयोग नहीं है। इसी तरह रामविलास शर्मा 'निराला की साहित्य साधना' के बाद आलोचना की कोई महत्वपूर्ण किताब नहीं दे पाए। जबकि इस बीच उनकी डेढ़ दर्जन किताबें आयीं।
मै यहां आलोचना की मुकम्मल किताब के संदर्भ में ध्यान खींच रहा हूँ। इस तथ्य की ओर ध्यान खीचने का अर्थ यह नहीं है कि इस बीच आलोचना में कुछ भी लिखा ही नहीं गया। लिखा गया है ढ़ेरों किताब आई हैं , हजारों लेख छपे हैं, हमने शब्दों और तर्कों के मैदान में परास्त करने का शास्त्र रचा है,आलोचना नहीं रची है। आलोचना जब परास्त करने, एक-दूसरे को ओछा दिखाने, मीन-मेख निकालने,छिद्रान्वेषण करने और बदनाम करने के लिए लिखी जाती है तो उसे आलोचना नहीं कहते। नामवर सिंह के द्वारा दिए गए असंख्य साक्षात्कार और लेख धीरे-धीरे किताबी शक्ल में आने शुरू हो गए हैं।उनका संवाद और साक्षात्कार विधा के रूप में मूल्यांकन होना अभी बाकी है। क्या यह सुनियोजित आलोचना है ? आलोचना के अनुशासन को केन्द्र में रखकर लिखी गयी आलोचना है। इस बीच में यह प्रश्न भी विचारणीय है कि आलोचना किसे कहते हैं ?
आलोचना का कोई एक रूप,प्रकार,स्कूल आदि तय करना मुश्किल है,आलोचना अनेकरूपा है। आलोचना को किसी एक स्थान,एक विचारधारा आदि में सीमित करके देखना सही नहीं होगा। हम जब आलोचना का वर्गीकरण करते हैं तो यह एक स्वाभाविक कार्य है,क्योंकि प्रत्येक किस्म की आलोचना स्वयं की संरचनाओं की भी आलोचना होती है। अच्छी आलोचना वह है जो आत्म-चेतस हो। चूंकि हिन्दी में आलोचना की आकांक्षा अभी भी बची है,बिखरे हुए रूप में आलोचना लिखी जा रही है अत: वह मौजूदा ठहराव से भी मुक्त होगी। आलोचना का स्वरूप बदलेगा। आलोचना का नया बदला हुआ रूप बहुत कुछ सम-सामयिक विचार,संचार तकनीक,पध्दति और इण्टरडिसिपिलनरी एप्रोच पर निर्भर है।आलोचना जितना एकांगी दायरों की कैद से मुक्त होगी वह ज्यादा जनतांत्रिक होगी। मसलन् नए दौर में आलोचना भी अपने को वर्चुअल बना चुकी है। आलोचना के वर्चुअल होने का अर्थ है आलोचना का अकेलापन। पहले आलोचना साहित्य से जुड़ी थी,साहित्य के पाठक से जुड़ी थी,आलोचक,लेखक और कृति के बीच प्रत्यक्ष संबंध था,किंतु लंबे समय से यह संबंध टूट चुका है। लेखक और आलोचक के बीच अंतराल पैदा हो गया है।
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