हाइपर टेक्स्ट का सबसे अच्छा रूप है ई-मेल।कम्प्यूटर खोलो और आउटलुक एक्सप्रेस में जाकर अपना लेटर बॉक्स खोलते ही आपको अनचाहे अनेक पत्र मिलेंगे। संदेश मिलेंगे।आप चाहें तो इन्हें पढ़ें ,चाहे कूड़ादान में फेंक दें। इनकी उपेक्षा करें। अथवा मिटा दें। वास्तव जीवन में आप अपने अनुभवों को लिखते हैं।किंतु कम्प्यूटर संदेश व्यवस्था में लिखते समय अनुभव कर सकते हैं,संपर्क कर सकते हैं,तुरंत जबाव प्राप्त कर सकते हैं,उपेक्षा भी कर सकते हैं।असल में कम्प्यूटर में लेखन ही अनुभव है।ई-मेल बिना संदर्भ का अनुभव है।ई-मेल का कोई संदर्भ सूत्र नहीं होता।जो संदेश आप प्राप्त कर रहे हैं जरूरी नहीं है कि वह संदेश किसी परिचित का हो।ये संदेश आत्म संदर्भ में बोलते हैं।निजी भावों को व्यक्त करते हैं।पत्र लिखने में अनुभव पहले आता है उसे हम लिपिबध्द करते हैं।किंतु कम्प्यूटर में लेखन ही अनुभव है।इसके कारण लेखन का आधार ही बदल गया है।यह तब ही बदलेगा जब आपके पास कम्प्यूटर हो और उसका आप इस्तेमाल करते हों। लेखन के सामने संपर्क लिखा रहता है।यह अनुभव है।साझा अनुभव है।यहां हम शब्दों को नहीं व्यक्ति को छोड़ते हैं।ई-मेल पाने और ई-मेल देने में आप पाएंगे कि आपके पास सिर्फ टेक्स्ट होता है। व्यक्ति तो कहीं दूर छूट गया।इसमें भाषा बदल जाती है।इसमें जो भाषा व्यक्त होती है उसमें अनुभव होता है किंतु संवेदनाएं नहीं होतीं।अनुभवों का विस्तार होता है।किंतु संवेदनाओं का लोप हो जाता है।यहां भाषा में सिर्फ अनुभव होता है।संवेदना गायब हो जाती है। संवेदना के अभाव के कारण इसमें जिम्मेदारी का भाव भी नहीं आता।यही वजह है कि ई-मेल की वैधता नहीं है।उसे आप तुरंत नष्ट कर देते हैं।यहां तो लेखन ही अनुभव है। ई-मेल की दुनिया में विचरण करते हुए पाएंगे कि आप अपनी आवाज खोते जा रहे हैं।आप सूचनाओं के साझीदार होते हैं,संवेदनाओं और जिम्मेदारी के भाव के साझीदार नहीं हैं। यहां 'पथ' हैं।ये ऐसे 'पथ' हैं जिनके नीचे जमीन नहीं है।यह सीमाहीन मैदान है।फलत: हम सब जगह हैं और कहीं भी नहीं हैं।यहां आपकी आवाज ठंडी हो चुकी है।संवेदनाएं ठंडी हो चुकी हैं। आपके असामान्य क्षणों को शब्दों में रूपान्तरित कर दिया गया है।इनमें संवेदना नहीं है।कम्प्यूटर की संकेत भाषा में परवर्ती पूंजीवाद के विकास के अर्थ छिपे हैं।जैसे- कनेक्शन, लिंक,नोडस के बीच रिलेशनशिप,नरेटिव का पुनरोदय,मेमोरी,एक्सपीरिएंस आदि इन सबको पाने या इनमें से किसी एक पर जाने का अर्थ है 'इसे तुरंत लागू करो।'इस तरह विचारों की आंधी चलती रहती है।इसकी गति तेज है।यहां समूह,अर्थ का साझीदार है। शब्दों के अर्थ बदल रहे हैं।संकेतभाषा का प्रयोग खूब होने लगा है।
हाइपर टेक्स्ट का पाठक सिर्फ पाठक ही नहीं है बल्कि सर्जक है।लेखक भी है।वह अपने काम को जैसा चाहे अंजाम दे सकता है।यह मूलत: उत्तर आधुनिक समझ है।हाइपर टेक्स्ट की जटिलताओं का इस समझ के आधार पर उद्धाटन संभव नहीं है।यदि पाठक ने कोई रचना लिखी है अथवा वह हाइपर टेक्स्ट में पाठक की बजाए लेखक बन जाता है तो हमें उसकी रचना की गुणवत्ता देखकर फैसला करना चाहिए कि क्या वह सृजन की कोटि में आती है ? असल में हमें अच्छी और बुरी रचना की केटेगरी से बचना होगा।असल में हाइपर टेक्स्ट के संदर्भ में हमें कला के उन नियमों की खोज करनी चाहिए जिनके आधार पर हम साहित्य के स्थापित मानकों,मान्यताओं,धारणाओं आदि को चुनौती देते हैं।हाइपर टेक्स्ट के आने से आलोचना और लेखक का अंत नहीं होगा।बल्कि ये दोनों समृध्द होंगे। यदि हम चाहते हैं कि हाइपर टेक्स्ट की परीक्षा अपनीर् शत्तों पर करें तो हमें कम से कम वेर् शत्तें बतानी होंगी।हमें अच्छे हाइपर टेक्स्ट को रेखांकित करना होगा।अच्छा हाइपर टेक्स्ट वह है जो मुद्रण से बेहतर रीडिंग अनुभव दे।हाइपर टेक्स्चुएलिटी को सिर्फ शोभा की चीज नहीं समझना चाहिए।जरूरी नहीं है कि हाइपर टेक्स्ट में साहित्य हो तो वह उच्चकोटि का ही हो।बल्कि इसकी संभावना ज्यादा है कि श्रेष्ठ या उच्च कोटि का साहित्य मुद्रित रूप में हो।
हाइपर टेक्स्ट की दो विशेषताएं हैं।पहली विशेषता है पाठ से पाठक संपर्क कर सकता है।दूसरी विशेषता है पाठ गैर -रेखीयता या बहुरेखीय संरचना है।ये दोनों विशेषताएं हम सबका हाइपर टेक्स्ट की ओर ध्यान खींचती हैं।संपर्क को परिभाषित करने के लिए तीन बिन्दुओं को परिभाषित करने की जरूरत है। 1.एजेंसी,जिसमें पाठक को यह हक होता है कि वह पाठ को अपनी सुविधा से बदल सके। 2.दिशा,वह गतिशील मार्ग जिसकी ओर पाठक उन्मुख होता है। 3. निकटता ,जिसमें संतोषजनक रीडिंग की अनुभूति प्राप्त हो।
सन् 1991 में बोल्टर ने लिखा कि हाइपर टेक्स्ट की उत्पत्ति का यह बड़ा कारण है कि मुद्रित पाठ चुक गया था। सन् 1992 में लनदोव ने लिखा कि मुद्रित साहित्य लेखक हाइपर टेक्स्ट को अपने लिए खतरा मान रहे हैं।वे लोग वैसे ही खतरा महसूस कर रहे हैं जैसे उपन्यास के आने के बाद महाकाव्य और रोमांस ने महसूस किया था।
इसी क्रम में कुछ अर्सा पहले एक लेखक ने लिखा कि 'पुस्तक का अंत' हो गया है।इस तरह की आशंकाओं के पीछे यह समझ थी कि हाइपर टेक्स्ट मुद्रित पाठ को बेकार बना देगा।अप्रासंगिक बना देगा। किंतु ये सारी धारणाएं गलत साबित हुई हैं। पुस्तक आज और भी सुंदर हो गई है। पुस्तक का सौन्दर्य बढ़ा है।पुस्तक का गुणगत मान बढ़ा है।टेक्स्ट और हाइपर टेक्स्ट में अंतर्विरोध अथवा कम्प्यूटर और प्रेस में अंतर्विरोध की बातें बेमानी साबित हुई हैं।बल्कि वे दोनों एक-दूसरे के पूरक बनकर उभरकर आए हैं।
हाइपर टेक्स्ट आने के बाद रेखीय लेखन खत्म नहीं हुआ है।बल्कि जो लेखक बहुरेखीय लेखन करना चाहते हैं उन्हें कम्प्यूटर के पास आना होगा।कम्प्यूटर और हाइपर टेक्स्ट के इतने बड़े धूमधड़ाके के बावजूद आज भी पुस्तक सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाला माध्यम है।उल्लेखनीय है कि पुस्तक या मुद्रित सामग्री की महत्ता निकट भविष्य में कम होने की संभावनाएं एकदम नहीं हैं।मुद्रित साहित्य को ही सामाजिक स्वीकृति प्राप्त है।किसी भी पुरस्कार का फैसला मुद्रित रचना के आधार पर ही होता है।किसी भी अकादमिक पद पर नियुक्ति में मुद्रित सामग्री को ही आधार के रूप में स्वीकार किया जाता है।
असल में मुद्रित साहित्य की समय से मुठभेड़ है।वह समय से बदला लेता रहता है।यह मुठभेड़ जब तक जारी है मुद्रित साहित्य की प्रासंगिकता बनी रहेगी। मुद्रण के रेखीय लेखन के प्रति आकर्षित होने के कलात्मक कारण हैं साथ ही इसकी सीमाएं भी हैं।हाइपर टेक्स्ट पर महारत हासिल करने के बाद लेखक इसे छोड़ नहीं देगा। यह वैसे ही है जैसे कोई कवि यदि कहानी लिखने लगता है तो कविता को अस्वीकार नहीं करता।
हाइपर टेक्स्ट के खुलेपन से सभी को प्यार करने की इच्छा होगी।यह सही मायने में अंत की खोज भी है। यह यथार्थ और लेखन का सेतु है।यह पृष्ठ से वर्ल्ड की ओर रूपान्तरण है। कायदे से मुद्रण और हाइपर टेक्स्ट दोनों में अभ्यास जारी रखना चाहिए।दोनों में सद्भावना बनाकर रखी जा सकती है।
इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएं