रविवार, 1 अगस्त 2010

मनमोहन के डिजिटल विभ्रम में चमकती गरीबी

       मनमोहन सिंह का दावा है कि वह विकास पुरूष हैं। विकासपुरूष का उनका विभ्रम सबको आकर्षित कर रहा है। विकास के नाम पर उन्होंने भौतिक आकांक्षाओं का विभ्रम पैदा किया है। कारपोरेट मीडिया को विकास के विभ्रम में कहीं कोई खोट नजर नहीं आ रहा। यदि कोई खोट दिखाने की कोशिश करता है तो उसे कारपोरेट मीडिया हूट करता है, हास्य-व्यंग्य का पात्र बना देता है। विकासविरोधी कहता है। विकास के विभ्रम का ऐसा विराट वायवीय तानाबाना तैयार किया गया है कि उसके अलावा कुछ भी सोचना संभव नहीं है।
     मनमोहन  कोड ने विकास के विभ्रम को मूलगामी परिवर्तन के साथ गड्डमड्ड कर दिया है। वह ऐसा विभम पैदा कर रहे हैं जो अनुभूतियां विकास की पैदा कर रहा है किंतु वास्तविकता सामाजिक पिछड़ेपन की निर्मित कर रहा है। मसलन ग्लोबलाइजेशन की आत्मगत अनुभूतियों ने ठोस वास्तविकता के साथ व्यापक अलगाव पैदा कर दिया है। इस क्रम में विभ्रम चमक रहा है और यथार्थ धुंधला पड़ गया है अथवा आम बातचीत से गायब हो गया है।
    मनमोहन कोड ने कु-यथार्थ की सृष्टि की है। कु-यथार्थ को ही हम यथार्थ समझने की भूल कर रहे हैं। यथार्थ को कु-यथार्थ में उलझा देना, विभ्रमों में व्यस्त रखना,विभ्रम को वास्तव के रूप में प्रचारित करना,एक ऐसी सच्चाई है जिसे हम डिजिटल परिप्रेक्ष्य के बिना समझ नहीं सकते।
    विकास विभ्रम को वास्तविकता नहीं बनाया जा सकता । विभ्रम कभी यथार्थ में तब्दील नहीं होता। वह विभ्रम ही रहता है। विभ्रम आत्मगत होता है और आत्मगत ही रहता है। लेकिन अब मनमोहन कोड के बहाने उलटा शास्त्र पढ़ाया जा रहा है आत्मगत को वस्तुगत बताया जा रहा है। लेकिन आत्मगत को वस्तुगत नहीं बनाया नहीं जा सकता। आत्मगत विभ्रम को वस्तुगत विभ्रम में रूपान्तरित नहीं किया जा सकता।
     वस्तुगत विभ्रम की कायिक उपस्थिति होती है। लेकिन मौजूदा डिजिटल जगत में किसी भी चीज की कायिक उपस्थिति नहीं होती। यहां कोई भी चीज मसलन औरत, सेक्स. कुर्सी,मेज कोई भी चीज कायिक तौर पर मौजूद नहीं रहती, ऐसे में विकास को हम कैसे कायिक तौर पर देख सकते हैं। अब कोई भी चीज वास्तव शक्ल में नहीं नजर आती। चीजें हमसे दूर रहती हैं। वे साथ ही साथ पास हैं,रीयलटाइम में हैं और साथ ही अति दूर भी हैं।
   विभ्रम के आंकड़ों का खेल देखिए टाहम्स ऑफ इण्डिया ( 1.8.10) में एक रिपोर्ट छपी है जिसमें नेशनल कौंसिल ऑफ एप्लाइड इकोनोमिक रिसर्च की एक रिपोर्ट के हवाले से कहा गया है कि भारत में पहलीबार समृद्धों की संख्या गरीबों की संख्या से ज्यादा हो गयी है। रिपोर्ट के अनुसार मार्च 2010 तक उच्च आयवर्ग के परिवारों की संख्या 46.7 मिलियन हो जाएगी। जबकि कम आय वाले परिवारों की संख्या 41 मिलियन आंकी गयी है। सन् 2001-02 में उच्च आयवर्ग के लोगों की आय सालाना 1.8 लाख रूपये थी। उस समय 65.2 मिलियन परिवार कम आयवर्ग की केटेगरी में आते थे। यानी उनकी सालाना आमदनी 45,000 रूपये प्रतिवर्ष थी। जबकि मध्यवर्ती आयवर्ग (45,000 हजार से 1.8लाख रूपये के बीच में ) में आने वाले परिवारों की संख्या एक दशक में 109.2 मिलियन से बढ़कर 140.7 मिलियन हो गई है। इसके विपरीत आर्थिक मंदी के कारण मध्य वर्ग के परिवारों की संख्या में गिरावट दर्ज की गई है।
     सन् 2007-08 में मध्यवर्ग की संख्या मध्यवर्गीय परिवारों की संख्या 135.9मिलियन थी जो सन् 2009-10 में बढ़कर 140.7 मिलियन हो गई। लेकिन समग्रता में मध्यवर्ग की संख्या में गिरावट दर्ज की गई है। इसी अवधि में मध्यवर्ग की संख्या 62 प्रतिशत से घटकर 61.6 प्रतिशत हो गई है। सर्वे बताता है कि निम्न और उच्च आयवर्ग के लोगों की आय पर मंदी का कोई असर नहीं हुआ है। इसका सबसे ज्यादा असर उच्च आयवर्ग के लोगों पर हुआ है, उनकी संख्या 16.8 प्रतिशत से बढ़कर 20.5 प्रतिशत हो गई। कम आय वाले परिवारों की संख्या में तेजी से गिरावट आई है।
    मंदी के विगत तीन सालों में कम आय वाले परिवारों की संख्या 21.1 प्रतिशत से घटकर 17.9प्रतिशत हो गई है। विश्व बैंक के अनुसार 2से10 लाख रूपये की आय वाले को मध्यवर्ग में रखा जा सकता है। ऐसे मध्यवर्ग की तादाद सन् 2009-10 में 28.4 मिलियन थी। जबकि 1995-96 में इस कोटि में 4.5 मिलियन लोग आते थे। सन् 2001-02 में यह संख्या बढ़कर 10.7 मिलियन हो गयी। भारत का दो-तिहाई  मध्यवर्ग शहरों में रहता है। भारत को दुनिया में सबसे ज्यादा बचत करने वाले देश के रूप में जाना जाता है। भारत का सकल घरेलू उत्पाद का 36 प्रतिशत बचत खाते में जाता है।
   इस आंकड़े की बाजीगरी से असली भारत नजर नहीं आएगा। सवाल यह है कि एक लाख अस्सी हजार सालाना कमाने वाला परिवार कहां रहता है ? क्या खाता है ? किस तरह के कपड़े पहनता है ? किस तरह की चीजें खरीदता है ? क्या उसके पास स्वाश्थ्य और शिक्षा पर खर्चा करने लायक कुछ बचता है ? क्या वह अपने लिए कभी भी कोई छोटा सा घर खरीद सकता है ? आदि सवाल हैं जिनके उत्तर खोजते ही भयावह यथार्थ सामने आएगा। वास्तविकता यह है कि ये वे लोग हैं जो ज्यादातर कच्ची गंदी बस्तियों या भाड़े के घरों में रहते हैं। इनमें से ज्यादातर की क्रय-शक्ति में लगातार गिरावट आई है। आय बढ़ी है यह बात मान भी लें तो यह बात विचार करनी चाहिए कि क्या उनकी क्रय-शक्ति बढ़ी है ? सच यह है कि मंहगाई और अन्य कारणों से उच्च और निम्न आयवर्ग के लोगों की क्रय-शक्ति घटी है। उनमें दरिद्रता बढ़ी है। इनमें से अधिकांश के पास पीने के साफ पानी और शौचालय की भी व्यवस्था नहीं है। ये लोग अपने बच्चों को पढ़ा नहीं पाते हैं। समुचित इलाज नहीं करा पाते हैं। ऐसे में यह दावा करना कि भारत में उच्च-आयवर्ग के लोगों की संख्या बढ़ी है,आमदनी बढ़ी है का दावा खोखला है। आमदनी बढ़ी है तो देखना होगा कि क्या क्रय क्षमता भी बढ़ी है या नहीं वरना तो यह आमदनी के बढ़ने का विभ्रम है। सच क्या है यह अपने आसपास के परिवेश को देखकर सहज ही समझ में आ सकता है।      
   






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