सोमवार, 16 अगस्त 2010

लोकप्रिय संगीत का बदला हुआ रूप



     आज परंपरागत संगीत के विरुद्ध लोकप्रिय संगीत का औपचारिक रूप अपनी उत्पादक भूमिका त्याग चुका है। पुराने संगीत का मिथकीय रूप वस्तुत: स्वतंत्रता को बाधित करता है। भौतिक तौर पर यह संगीत पराया हो चुका है। पुराने संगीत की अप्रासंगिकता का प्रत्यक्ष प्रमाण है लोकप्रिय संगीत की व्यावसायिक सफलता। लोकप्रिय संगीत का श्रोता ऐसा श्रोता है जिसका संगीत के समग्र विचार से अलगाव हो चुका है। इसमें कम-से-कम प्रतिरोध भाव है। यह अच्छा खरीदार है जिसने संगीत के आलोचक की भूमिका त्याग दी है।
लोकप्रिय संगीत या फिल्मी संगीत में निहित आनंद का कला में निहित आनंद से कोई संबंध नहीं है। कलारूपों और लोकप्रिय कलारूपों में अंतर होता है। इनकी निर्माण प्रक्रिया भिन्न होती है। इनके श्रोतावर्ग में भी अंतर होता है। यही वजह है कि लोकप्रिय संगीत के आनंद को कला आनंद के साथ एकमेक नहीं करना चाहिए। आज संगीत के लिए त्याग भाव का पूरी तरह लोप हो चुका है। लोकप्रिय संगीत 'सबऑर्डिनेट' चरित्रा को अस्वीकार करता है। वह योजना बनाता है कि प्रत्येक चीज पृथक्कृत क्षणों के साथ जुड़ सके। इसी क्रम में वह एकाकी व्यक्ति से जुड़ता है। अब श्रोता सिर्फ सुनता है, उत्तर नहीं देता। अब सिर्फ ध्वनि विस्तारक एवं प्रसार यंत्रों की आवाज होती है, कोई प्रतिक्रिया नहीं होती। वह उत्पादक मनुष्य को ज्यादा से ज्यादा निष्क्रिय अंग के रूप में सक्रिय करता है। परिणामत: संगीत के एप्रिसियेशन की क्षमता का क्षय हुआ है। जो लोग सारी जिंदगी रेडियो सुनते हैं उनके अंदर वायलिन, सरोद, पियानो आदि के जादू के प्रति आकर्षण खत्म हो गया है। इसी अर्थ में आनेवाली पीढ़ियां जीवितों में ज्यादा संगीतहीन हैं।
यह ऐसे युग का संगीत है जिसे रेडियो ने सबसे ज्यादा लोकप्रिय बनाया और ऑडियो उद्योग एवं टेलीविजन ने नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया। रेडियो के कारण संगीत के प्रति समग्र रवैया ही बदल गया। अब संगीत का संगीतकार की मौजूदगी के बगैर अनुभव किया जाने लगा। यह शून्य से पैदा हुआ संगीत है। जब उपकरण तैयार हुए थे तब सामने कोई बैठा नहीं था। रेडियो संगीत के उदय के साथ ही, जो कुछ भी जड़ था वह गायब हो चुका था। जो वाद्य बजा नहीं सकते थे वे पूरी तरह गायब हो गए। इसकी प्रस्तुति के दौरान उठने, बैठने या व्यवधान पैदा करनेवाला कोई नहीं था। अब जितने ऐक्शन थे वह सब मूवमेंट के ऐक्शन थे। यह सब शून्य में पैदा हो रहा था। इस प्रक्रिया में ध्वनि तरंगों की स्पष्टता बढ़ गई। जड़ीभूत प्रवृत्तिायां क्षतिग्रस्त हुईं। इससे चीजों की ऊर्ध्वगामी गति की शुरुआत हुई। गायक की भाव-भंगिमाओं का उच्च-मंद, आरोह-अवरोह पर कोई प्रभाव ही नहीं पड़ता था। इनमें कोई संवाद नहीं था बल्कि द्वंद्व था। रेडियो संगीत की पूरी क्षमता तब उभरी जब गायक का पूरी तरह लोप हो गया। स्वर के आरोह-अवरोह में भी वैपरीत्य पैदा हो गया। अब आरोह-अवरोह की गति की जगह को ध्वनि तरंगों के माध्यम से भरा जा सकता था। अगले ही क्षण शून्य की अनुभूति पैदा होती थी। इसी प्रक्रिया में 'साउंड स्पेस' और 'रीयल स्पेस' के बीच अंतर्विरोध पैदा हुआ।
रेडियो और ऑडियो ने संगीत को सांस्कृतिक एकरूपता पैदा करनेवाले उपकरण के तौर पर विकसित किया। प्रसिध्द जर्मन सिध्दांतकार अर्नहाइम ने इसे सांस्कृतिक पतन का सूचक माना। सांस्कृतिक पतन इस अर्थ में कि इसने नियोजित ढंग से एकरूपता पैदा करने के बजाय विविधता में एकता पैदा करने की कोशिश की। अब एक ही समस्या रह गई कि इस विविधता को कैसे सुरक्षित रख जाए। परिणामत: सांस्कृतिक क्षय हुआ। रेडियो या ऑडियो से उपजी संस्कृति ऐसी संस्कृति है जिसका सृजन श्रोता या उपभोक्ता ने नहीं किया अपितु वह दर्शक या श्रोता मात्रा होकर रह गया। 'खाली समय' को कैसे भरा जाए इसके बारे में सोचने का मौका ही नहीं देता। त्राासदी यह है कि 'खाली समय' को लोकप्रिय संगीत से भरने की कोशिश में श्रोता 'प्लेजर' समझने लगा। हकीकत में लोकप्रिय संगीत में प्लेजर देने की क्षमता नहीं है। 'प्लेजर' ने प्रसन्नता का जो वायदा किया था उसका स्वरूप आज उजागर हो चुका है। आज खुशी संभव नहीं है। जनता को नई संगीत चेतना नाखुशी के आनंद को सामने लाती है।
नई समाज व्यवस्था के उदय के साथ शास्त्रीय संगीत और लोकप्रिय संगीत के बीच सामंजस्य बिठाने की कोशिश करते हुए अंतर्विरोधों को अनसुलझा छोड़ा जा रहा है। आज घटिया (फिल्म) संगीत श्रेष्ठ संगीत (शास्त्रीय संगीत) को हजम कर रहा है। इसका कारण यह है कि श्रेष्ठ संगीत जिस सामाजिक ऊर्जा के गर्भ से पैदा हुआ था आज वह खत्म हो चुकी है। अत: श्रेष्ठ संगीत को घटिया-संगीत से ऊर्जा ग्रहण करनी पड़ी। श्रेष्ठ संगीत को संगीत के घटिया स्तर पर उतरना पड़ता। संगीत का स्टेंडराइजेशन हुआ। ्रूकतु घटिया या निम्नस्तरीय संगीत की यह सफलता पुरानी संगीत शैली के बगैर संभव नहीं, पुरानी शैली का यह अनुकरण है। यह सुसंगतता और अक्षमता के बीच का
संबंध है। ये दो छोर पर स्थित परिस्थितियां हैं जो एक-दूसरे से मुकाबला करती हैं। यहां व्यक्तिगत का कोई स्थान नहीं है। व्यक्ति का बहिष्कार इस नए संगीत का वास्तविक संकेत है। मौजूदा दौर में प्रगतिशीलों का एक तबका ऐसा भी है जो शास्त्राीय संगीत एवं लोकप्रिय संगीत में अंतर करने की कोशिश करता है। जबकि ये दोनों रूप वस्तुत: सांस्कृतिक माल हैं। माल से ज्यादा इनका कोई महत्व नहीं है। जो सबसे ज्यादा लोकप्रिय गीत होता है वह उत्साहित करता है साथ ही, रेखांकित करता है यह 'इडियम' अभी जनता से कटा नहीं है।
आज संगीत के श्रोता के पास मात्र संदर्भ सूचनाएं होती हैं। उसकी प्रतिक्रिया का संगीत के खेल से कोई संबंध नहीं होता। वह संगीत से स्वत:स्फूर्त ढंग से जुड़ता है। पुराने शास्त्रीय संगीत में से वह गुणवत्ता के आधार पर चयन नहीं करता। जो रचना ज्यादा परिचित या लोकप्रिय होती है उसके आधार पर चयन करता है, उसे प्रस्तुत करता है। इसमें मुख्य गायक की भूमिका महत्वपूर्ण होती है।


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