मनमोहन सिंह जब से प्रधानमंत्री बने हैं। वे मीडिया और विशेषज्ञों की आलोचना में नहीं आते। उन्हें प्रधानमंत्री बने 6 साल से ज्यादा समय हो गया है। मीडिया में ममता बनर्जी,शरद पवार ,प्रफुल्ल पटेल ,डी.राजा ,कांग्रेस के क्षेत्रीय नेताओं ,कांग्रेस के मुख्यमंत्रियों आदि की आलोचना दिखेगी लेकिन मनमोहन सिंह की आलोचना नहीं मिलेगी। ऐसा क्यों हो रहा है कि आलोचना के केन्द्र से मनमोहन सिंह गायब हैं। आकाश छूती मंहगाई है लेकिन प्रधानमंत्री पर न तो मीडिया हमला कर रहा है और न विपक्ष। असल में मनमोहन सिंह डिजिटल हो गए हैं। उनका डिजिटल इमेज में रूपान्तरण कर दिया गया है। डिजिटल इमेज और राजनीतिक व्यक्तित्व की इमेज में यही अंतर होता है। राजनीतिक इमेज को पकड़ सकते हैं लेकिन डिजिटल इमेज को पकड़ नहीं सकते।
मनमोहन सिंह ने जब पहलीबार ‘यूपीए -1’ के प्रधानमंत्री का दायित्व संभाला तो उस समय दो महत्वपूर्ण बातें घटित हुईं, पहली, सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री बनने से इंकार किया और मनमोहन सिंह का नाम प्रधानमंत्री पद के लिए प्रस्तावित किया।
दूसरी बड़ी घटना यह हुई कि मनमोहन सिंह सिख थे, नव्य-उदारतावादी नीतियों के निर्माता थे। इनमें उनका सिख होना बेहद महत्वपूर्ण माना गया। यह भी कहा गया कि कांग्रेस कितनी महान पार्टी है कि उसने एक औरत को पार्टी का अध्यक्ष बनाया और एक सिख को प्रधानमंत्री बनाया। ये दोनों ही बातें तथ्य के रूप में सही हैं लेकिन सिख और औरत के नाते सही नहीं हैं। सोनिया को औरत के नाते अध्यक्ष नहीं बनाया गया। मनमोहन सिंह सिख के नाते प्रधानमंत्री नहीं बने। इन दोनों का औरत और सिख वाला रूप सिर्फ प्रतीकात्मक है। असल तो राजनीति है और राजनीतिक इमेज है जिसने इन्हें अध्यक्ष और प्रधानमंत्री बनाया। राजनीति में एक ही अस्मिता होती है वह है राजनीतिज्ञ की। समस्त अस्मिताएं इसमें समा जाती हैं या फिर अप्रासंगिक हो जाती हैं।
मनमोहन सिंह का व्यक्तित्व अनेक गुणों से परिपूर्ण है। वे बेहद विनम्र हैं, सुसंस्कृत है,शिक्षित हैं। नव्य -उदार नीतियों का उन्हें विश्व में बेहतरीन विशेषज्ञ माना जाता है। उन्होंने अपनी नीतियों के कुफल और सुफल दोनों से प्रभावित किया है। मीडिया में मनमोहन सिंह के बारे में न्यूनतम बातें छपती हैं। संभवतः मीडिया में उन्हें सबसे कम कवरेज वाले प्रधानमंत्री के रूप में याद किया जाएगा।
सवाल यह है कि डिजिटल युग में मनमोहन का कोड क्या है ? मनमोहन कोड को खोले बिना उनकी डिजिटल युग की छायाओं की सही भाषा को समझने में मदद नहीं मिलेगी। पहली समस्या है कि क्या मनमोहन कोड जैसी कोई चीज है ? हमारे देश में विद्वानों की कमी नहीं है जो इस तरह के किसी भी कोड की उपस्थिति को अस्वीकार करें।
भारत में सन् 1980 के दौर में पंजाब में जिस तरह का आतंकी दौर था और ब्लू स्टार ऑपरेशन हुआ,श्रीमती गांधी की एक सिख के हाथों हत्या हुई और बाद में संगठित सिख जनसंहार हुआ, उसे देखते हुए मनमोहन सिंह का क्रमशः सत्ता के शिखर पर पहुँचना निश्चित ही बड़ी बात है। लेकिन इस प्रक्रिया में कहीं से भी उनका सिख होना कारक या समस्या नहीं था।
भारत की बहुलतावादी संरचनाएं इतनी ताकतवर हैं कि उन्होंने जाति और धर्म के आधार को कमजोर कर दिया है। धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक संस्कृति का तानाबाना जिस तरह विकसित हुआ है उसने आधुनिक सोच और आधुनिक व्यवहार की मजबूत नींव रखी है। भारत में धार्मिक और साम्प्रदायिक पहचान का वर्चस्व खत्म हुआ है। अब मनमोहन सिंह के पास सिख के नाम पर दाढ़ी और पगड़ी ही चिह्न के रूप में बची है।
सवाल उठता है क्या मनमोहन सिंह को सिख अस्मिता के रूप में देखें ? या फिर उनकी शिक्षा-दीक्षा, उनके जीवनानुभवों की कहानियों, माइथोलॉजी,इमेज,संवेदना,वैज्ञानिक विमर्श आदि को भी देखें। क्या इतनी चीजों को मिलाकर देखने से मनमोहन सिंह का सिखभाव बचा रहेगा ?
क्या मनमोहन के दृश्य और अदृश्य जीवन की इमेजों के आधार पर उनके सिख को परिभाषित कर सकते हैं ?क्या उससे सिख निकलेगा ?मूल समस्या यह है कि क्या मनमोहन सिंह सिख हैं ? इसबार के लोकसभा चुनाव में पंजाब के सिखों ने कांग्रेस को ज्यादा संसदीय सीटें जीताकर दीं। क्या इस तरह की जीत को सिख मनमोहन के व्यक्तित्व से जोड़कर देख सकते हैं ?
कांग्रेस ने अपने प्रचार में सोनिया-मनमोहन और राहुल गांधी के त्रिगुट की इमेज का इस्तेमाल किया था। इस त्रिमूर्ति की विजुअल इमेज किसी भी तरह के नस्ल संबंधी संकेत का प्रचार नहीं करती। लेकिन इस त्रिमूर्ति की इमेज का डिजिटल रूपों में जिस तरह प्रचार किया गया उसमें एक नए किस्म का स्पेस -टाइम संबंध उभकर आया है। नई डिजिटल इमेज एक ही साथ मिथकीय और ऐतिहासिक होती है। अतीतपंथी और भविष्योन्मुखी होती है। तकनीकीपरक और धार्मिक होती है।
मनमोहन सिंह ने अपने प्रचार में बार-बार समृद्ध भारत और समर्थ भारत की बात की है। बार-बार विकासदर को उछाला है। अपने को समृद्धि के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया है। खासकर पूंजीपति,ह्वाइट कॉलर और मध्यवर्ग के साथ जोड़ा है। इस क्रम में उन्होंने मजदूरों-किसानों की राजनीति को हाशिए पर ड़ालने में सफलता अर्जित की है।
मनमोहन सिंह भारत के अकेले प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने कभी मजदूरों-किसानों को सम्बोधित नहीं किया है। मनमोहन की इमेज से मजदूरों-किसानों का दूर रहना जितना दृश्य है उससे भी ज्यादा दृश्यगत है उनका किसानों का ऋण माफ करना। यह ऐसा पैसा था जो डूब गया था,जिसकी वसूली संभव नहीं थी, अतः उसे माफ करके उन्होंने पूंजीवाद के हित में बड़ा कदम उठाया। इस फैसले से किसानों को कम और बैंकों को ज्यादा लाभ पहुँचा है।
मनमोहन कोड की विशेषता है कि उसने गरीबी के यथार्थ विमर्श को वायवीय बना दिया है। गरीबी और अभाव को एकसिरे से अपदस्थ कर दिया है। मनमोहन कोड ने गरीबी और अभाव को अप्रत्यक्ष दानव में रूपान्तरित कर दिया है। जिसके बारे में आप सिर्फ कभी-कभार सुन सकते हैं। मनमोहन कोड के लिए गरीबी और अभाव कभी महान समस्या नहीं रहे। उनके लिए वे ठोस सामाजिक वर्ग भी समस्या नहीं रहे जिनके कारण गरीबी और अभाव कम होने की बजाय बढ़ रहे हैं। मनमोहन कोड ने देश की एकता और अखंडता के लिए सबसे खतरनाक शत्रु के रूप में माओवाद को प्रतिष्ठित किया है। जबकि माओवाद भारत विभाजन या सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा नहीं है।
मनमोहन कोड की काल्पनिक सृष्टि है माओवाद और आतंकी हिन्दू। यह जादुई-मिथकीय शत्रु है। मनमोहन कोड के अनुयायी और प्रचारक माओवाद के बारे में तरह-तरह की दंतकथाएं, किंवदन्तियां आदि प्रचारित कर रहे हैं। मीडिया में माओवाद एक मिथकीय महामानव है। इसी तर्ज पर आरएसएस के नाम पर बहुत सारे आतंकी हिन्दू महामानव पैदा कर दिए गए हैं। ये सारे मनमोहन कोड से सृजित वर्चुअल सामाजिक शत्रु हैं। ये आधे मानव और आधे दानव हैं।
माओवाद और हिन्दू आतंकवाद की रोचक डिजिटल कहानियां आए दिन सम्प्रेषित की जा रही हैं। इन्हें सामाजिक विभाजन के लिए जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। आप जरा गौर से माओवादी नेता किशनजी की कपड़ा मुँह पर ढ़ंके इमेज और हिन्दू आतंकी के रूप में पकड़े गए संतों को ध्यान से देखें तो इनमें आप आधे मनुष्य और आधे प्राचीन मनुष्य की इमेज के दर्शन पाएंगे।
कारपोरेट मीडिया माओवादी और हिन्दू आतंकी की ऐसी इमेज पेश कर रहा है गोया कोई फोरेंसिक रिपोर्ट पेश कर रहा हो। वे इनके शरीर की ऐसी इमेज पेश कर रहे हैं जिससे ये आधे मनुष्य और आधे शैतान लगें। इससे वे खतरे और भय का विचारधारात्मक प्रभाव पैदा कर रहे हैं।
मनमोहन सिंह मीडिया में उतने नजर नहीं आते जितना इन दिनों डिजिटल दानवों (माओवाद और हिन्दू आतंकी) को पेश किया जा रहा है। हमें इस कोड को खोलना चाहिए। यह तकरीबन वैसे ही है जैसे अमेरिका ने तालिबान और विन लादेन की इमेजों के प्रचार-प्रसार के जरिए सारी दुनिया को तथाकथित आतंकवाद विरोधी मुहिम में झोंक दिया और तबाही पैदा की गयी। सामाजिक अस्थिरता पैदा की गयी। घृणा का वातावरण पैदा किया गया। ठीक यही काम मनमोहन कोड अपने डिजिटल शत्रुओं के प्रचार-प्रसार के नाम पर कर रहा है। हमें जागरूक रहने की जरूरत है।
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