विभूति नारायण राय और रवींद्र कालिया के कलुषित गठबंधन के विरुद्ध हिंदी में जो कार्रवाई हुई, उसने हिंदी लेखक-लेखिकाओं की ताकतों, कमजोरियों और विरोधाभासों को भी उजागर करने में ‘मदद’ की। लेखिकाएं कपिल सिब्बल से मिलीं लेकिन कोई लिखित ज्ञापन नहीं ले गयीं जिसमें विभूति नारायण के इस्तीफे या बर्खास्तगी की मांग की गयी होती। वे राष्ट्रपति से नहीं मिलीं जिन्होंने कुलपति-पद के उम्मीदवारों की सूची से राय के नाम का अनुमोदन किया था। वे प्रधानमंत्री, उनकी पत्नी और उनकी बेटी से नहीं मिलीं। उन्होंने सोनिया गांधी से मिलने का प्रयास नहीं किया। जो धरना ज्ञानपीठ के सामने दिया गया वह रेस कोर्स रोड, जनपथ और राष्ट्रपति-भवन के सिंहद्वार पर भी दिया जा सकता था।
हम ‘जसम’ की विडंबना की बात कर चुके हैं, लेकिन प्रगतिशील लेखक संघ, जिसके राष्ट्राध्यक्ष नामवर सिंह वर्धा गांधी विश्वविद्यालय में राष्ट्रपति के नामजद कुलाधिपति हैं, की चुप्पी शर्मनाक और निंदनीय है। यदि कुलपति लेखिकाओं को ‘‘छिनाल’’ कह सकता है तो ‘विजिटर्स नॉमिनी’ उसकी सार्वजनिक भर्त्सना अपना नैतिक कर्तव्य समझकर क्यों नहीं कर सकता? उधर हिंदी के कुछ लेखक-लेखिकाएं एक रहस्यमय विवशता में इस पूरे मसले पर या तो चुप हैं, या, जो और भी लज्जास्पद है, राय-कालिया का बचाव या समर्थन कर रहे हैं। इस लेखक ने विभूति राय और रवींद्र कालिया की बर्खास्तगी की मांग करने वाले एक सार्वजनिक पत्र पर दस्तखत किए हैं जिस पर करीब दो सौ हस्ताक्षर और हैं। इनमें शायद हिंदी की सभी विचारधाराओं के प्रतिनिधि होंगे। लेकिन यह कहना कठिन है कि उन सब ने सदिच्छा, ईमानदारी और क्षोभ के साथ इस अभियान में हिस्सा लिया होगा।
वर्तमान हिंदी परिदृश्य ने इतने व्यामोह और मनोविदलता को जन्म दिया है कि हर पार्टनर से उसकी पॉलिटिक्स पूछना अनिवार्य हो गया है। जब मैं इन हस्ताक्षरों को देखता हूं तो कुछ की कोई साहित्यिक पहचान नजर नहीं आती, कुछ कुप्रेरक या दोमुंहे प्रतीत होते हैं और कम-से-कम एक के बारे में मैं ही नहीं, सारा सुधी हिंदी संसार जानता होगा कि वह एक ऐसा ‘बहादुर’ है जो स्त्रियों को छिनाल से भी बदतर समझने में अपनी सिंह-विजय समझता है और मूलत: राय-कालिया बिरादरी का है।
किसी सोद्देश्य हस्ताक्षर-अभियान का अर्थ यह नहीं होता कि उसमें घुसपैठ कर कुछ धूर्त भी सुर्खरू हो लें- उसमें हमेशा एक जानकार, जागरूक ‘मॉडरेटर’ चाहिए। खुशी की बात है कि राय-कालिया टीम का भी एक हस्ताक्षर अभयान सामने आया है, और दुर्भाग्यवश उसमें कुछेक ऐसे समझदार दस्तखत भी हैं जो शायद पुरानी दोस्तियों को निबाह रहे हैं। लेकिन महज कुछेक। इन दोनों अभियानों की सूचियों ने हिंदी साहित्य के इतिहास में पहली बार एक आधारभूत गुणात्मक और नैतिक विभाजन को रेखांकित किया है। कुछ विवेक से काम लेते हुए यदि इन दोनों सूचियों को थोड़ा-सा संशोधित किया जाए तो यह पांडवों-कौरवों या द्वितीय विश्व-युद्ध के ‘एलाइड’ और ‘एक्सिस’ वाले पक्ष बन जाते हैं और इन दोनों पर अगले वर्षों तक एक सख्त नजर रखी जानी चाहिए।
इस मामले के कुछ और पहलू भी जागरूकता की मांग करते हैं। क्या वजह है कि कपिल सिब्बल से मिलने वाली किन्हीं भी लेखिकाओं ने उस मुलाकात का अपना ब्योरा और आकलन नहीं दिया है? कुछ दूसरी लेखिकाओं ने क्यों राय-कालिया का पक्ष लिया है या चुप्पी अख्तियार कर रखी है – हालांकि स्त्री-पुरुष दोनों लेखकों को यह अधिकार भी है कि वे इस मसले को इतना घिनौना समझें कि हलधर बलराम की तरह युद्ध से विरक्त हो जाएं। कुछ लेखक तो इसलिए गूंगे हैं कि वे आगामी वर्षों में स्वयं को ज्ञानपीठ पुरस्कार की ‘शॉर्ट-लिस्ट’ में देख रहे हैं लिहाजा उसकी ‘ब्लैक-लिस्ट’ से बच रहे हैं। यह भी है कि लेखिकाओं का एक बहुत छोटा प्रतिशत अपने ‘कैरिअर’ को गतिशील बनाने के लिए संपादकों, आलोचकों, सहधर्माओं, प्रकाशकों, प्राध्यापकों और निजी तथा सार्वजनिक साहित्यिक-सांस्कृतिक प्रतिष्ठानों के बीच कुछ ज्यादा-ही सक्रिय है – यद्यपि यदि पुरुष लेखक वैसा करते हैं तो स्त्रियां क्यों न करें, लेकिन दक्षिण एशिया में औरत होने की ही ‘ऐसी ट्रेजिडी है नीच’ – और मैं समझता हूं कि नारी-गरिमा के लिए कहीं भी अशोभनीय है और नैतिक रूप से संदिग्ध है। महिला-लेखक कम-से-कम पुरुष-लेखकों के पतन का अनुकरण तो न करें। इस प्रकरण में कुछ ब्लॉगों ने सक्रिय, जोशीली, पक्षधर भूमिका निबाही है लेकिन हिंदी का ब्लॉग-विश्व भी अत्यंत संदिग्ध प्रतिक्रियावादियों, कुंठित ‘लेखकों’, ‘पत्रकारों’, ‘पाठकों’, खुदाईखिद मतगारों, प्रगतिविरोधी तत्त्वों और देश के चतुर्दिक पतन से खलसुख प्राप्त करने वालों से बजबजा रहा है।
निस्संदेह कुछ अच्छे, सार्थक, विचारों के उत्तेजक टकराव वाले ब्लॉग भी हैं। लेकिन शेष अधिकांश हिंदी-समाज की गिरावट के प्रतिबिंब ही हैं। एक ही व्यक्ति अनेक नामों या अनामता से स्वयं अपने और दूसरों के ब्लॉगों पर आॅरवेलीय ‘डबलथिंक’ और ‘डबलस्पीक’ का लॅकैरीय ‘मोल’ या ‘डबल एजेंट’ बना हुआ है। कुछ महिलाओं के जाली नामों से लिख रहे हैं। कुल मिलाकर राय-कालिया जैसी उठाईगीर, बाजारू मानसिकता ने ब्लॉग जैसे सशक्त, कारगर माध्यम को कुछ ही समय में बर्बादी के कगार पर ला दिया है। वहां ‘छिनाल’ से भी ज्यादा अश्लीलता और चरित्र-हनन ‘माउस’ की एक ‘क्लिक’ पर कभी-भी, किसी के भी बारे में अवतरित हो सकते हैं। विडंबना यह भी है कि कंप्यूटर दुनिया हिंदी में आज भी बहुत सीमित है। लेकिन ठीक राय-कालिया और उनकी बिरादरी की तरह कई ब्लॉग-टिटहरियां यह समझ रहीं कि हिंदी भाषा, साहित्य और पत्रकारिता का आकाश जैसा भी है उन्हीं की डेढ़ टांग पर टिका हुआ है। एक अजाचारी, समलैंगिक सुखभ्रांति चतुर्दिक व्याप्त है जिसमें आत्म-रति, अपना और अपने निरीह परिवार का विज्ञापन, गिरोहधर्मा अहोरूपम् अहोध्वनि, रूमानी भावनिकता, भेड़ियाधसान, पर्वतमूषकत्व आदि संचारी भाव हैं। कई ब्लॉग राय-कालिया मामले पर एक मौसेरे भाईचारे में चुप्पी साधे हुए हैं, क्योंकि उनके संचालकों को वृहत्तर अकादमिक और ज्ञानोदय-ज्ञानपीठ परिवार से अनेक आशाएं हैं।
हिंदी में और अखिल भारतीय तंत्र में एक भयावह तत्त्व और है। यदि आप किसी भी क्षेत्र में मनसा-वाचा-कर्मणा वास्तविक नैतिक और विचारधारागत मतभेद रखते हैं तो आप न सिर्फ उस हलके में अवांछित (पर्सोना नॉन-ग्राटा) हो जाते हैं बल्कि आपका एक मौन-अलिखित बहिष्कार कुष्ठ या एड्सग्रस्त या अछूत दलित की तरह शेष हर क्षेत्र में होता जाता है। इसका आतंक अधिकांश भारतीयों को कायर, मौकाशनास, धूर्त और दोमुंहा बना देता है। दुर्भाग्यवश, आज के कठिन-सरल जीवन संघर्ष को देखते हुए अधिकांश युवा उसी की पनाह ले रहे हैं। इसलिए भी कि उनके अधिकांश वरिष्ठों ने उनके सामने कोई बेहतर उदाहरण नहीं रखा।
हिंदी संसार, वह जैसा-जितना है, एक और त्रासद विडंबना से ग्रस्त है कि हिंदी पत्रिकाएं और पुस्तकें ही नहीं, मानीखेज हलचलें भी कोलकाता-मुंबई की हिंदी बिरादरी तक कम या देर से पहुंचती हैं और तब भी उसे विशेष उद्वेलित नहीं कर पातीं। यह भी है कि भोपाल, इंदौर, पटना, इलाहाबाद, बनारस, जयपुर, कानपुर, लखनऊ, शिमला आदि नगरों-कस्बों के हिंदी लेखक, जिनमें खांटी वामपंथी भी शामिल हैं, राय-कालिया से भी कहीं गये-बीते सरकारी-गैरसरकारी सत्ताधारियों के साथ डेली बेसिस पर समझौते करते रहते हैं; महानगरों के शैतानों पर कभी-कभार प्रतीकात्मक पथराव कर देते हैं और छिनाल-जैसे मामलों पर या तो शिशुवत् भोलेपन का अभिनय करते हैं या कह देते हैं कि भैया ये तुम ‘दिल्लीवाले मठाधीशों’ का सत्ता-संघर्ष है, हमें इस कीचड़ में काहे को घसीटते हो, फिर माफी भी तो मांग ली गयी है – और उसके बाद ‘ज्ञानोदय’ में रचना भेज कर ‘वर्धा’ का टिकट कटवा लेते हैं। जहां तक आम लुंपेन हिंदीभाषी का प्रश्न है, राय-कालिया का मानसिक सहोदर होने के कारण वह सार्वजनिक क्षेत्रों में सक्रिय हर महिला को संदिग्ध ही समझता आया है।
यह कल्पना रोमांचक है कि यदि विभूति नारायण ने कार्पोरेट या राजनीतिक विश्व में निम्नोच्च स्तरों पर काम करने वाली महिलाओं को अपने प्रिय विशेषण ‘छिनाल’ से नवाजा होता तो शास्त्री भवन, 7 रेसकोर्स रोड, 10 जनपथ, राष्ट्रपति भवन, तथा सरदार पटेल, बहादुर शाह जफर और कस्तूरबा गांधी के नामों पर रखे गये मार्गों पर क्या प्रतिक्रिया होती, फिक्की और एसोचैम उसके बारे में क्या कहते। यदि विभूति नारायण ने अंग्रेजी, मराठी, बांग्ला, उर्दू, मलयालम आदि भाषाओं की लेखिकाओं की शान में वह कसीदा पढ़ा होता, तो नतीजों का तसव्वुर आसानी से किया जा सकता था। महात्मा गांधी हिंदी विश्वविद्यालय का कुलपति उस मराठीभाषी क्षेत्र में बैठकर हिंदी लेखिकाओं को छिनाल कह रहा है जहां हिंदी साहित्य को लेकर अब भी बहुत स्नेह और सम्मान है, जहां चंद्रकांत पाटील सरीखा कवि-आलोचक-अनुवादक हाल ही में दस हिंदी कवयित्रियों को ‘संगिनी’ शीर्षक संग्रह के रूप में अनूदित कर चुका है। यदि विभूति नारायण को मालूम हो जाता तो मराठीभाषियों की चरित्र-रक्षा करने के लिए वे यह संग्रह ही रुकवा देते या उन्हें चेतावनी देने के लिए ‘संगिनी’ की जगह अपना पसंदीदा शब्द ‘बहुवचन’ में रखवा देते।
राय-कालिया जोड़ी ने ऐसा कारनामा अंजाम दिया है कि तीनों के लिए सिर्फ असंसदीय, अमुद्रणीय, घोर अपमानजनक शब्द ही जेहन और कलम की नोक पर आ-आकर लौट रहे हैं। दुर्भाग्यवश ‘ज्ञानोदय’ और ‘ज्ञानपीठ’ का प्रबंधन भी उन्हीं शब्दों को अर्जित करता लग रहा है – पाखंडी शालीनता में यकीन करना ऐसे मामलों को प्रोत्साहित करना ही होगा।
एक और अजीब कैफियत मुझ पर तारी हुई है। वेश्या-गमन से मुझे कोई आपत्ति नहीं है, बल्कि मैं उसे कानूनी वैधता प्रदान करने के पक्ष में हूं ताकि वेश्याओं का अपमान न हो। मुझे स्वयं कभी उन अभागी औरतों की दरकार नहीं हुई। बहरहाल, जो ‘‘बाजारीकरण’’ हमारे आसानीपरस्त, महदूद कहानीकार-कवियों का पिटा हुआ चहेता विषय हो चुका है उसी का विकराल स्वरूप इस शब्द के निर्लज्ज उपयोग और उसके बचाव के पीछे सक्रिय है। हमारे समाज और संस्कृति में बहुत कम गैरत और गुणवत्ता बची थी, बाजारीकरण उनका वेश्याकरण कर रहा है और ठीक इसी तरह साहित्यिक बाजारवाद बचे-खुचे सार्थक, श्रेष्ठ, प्रतिबद्ध लेखन के वेश्याकरण में जुटा हुआ है। जब ज्ञानपीठ का प्रबंधन यह कह रहा है कि रवींद्र कालिया ने ‘ज्ञानोदय’ और अन्य प्रकाशनों की बिक्री बढ़ा दी है, क्षमा मांग ली गयी है, इसलिए उनके विरुद्ध और कोई कार्रवाई नहीं की जाएगी। चालीस वर्ष पहले ज्ञानोदय-ज्ञानपीठ की निरामिष आत्मपावनता का यह आलम था कि किसी कहानी आदि में ‘शराब’, ‘अंडा’ और ‘गोश्त’ जैसे शब्द ‘जूस’, ‘आलू’ और ‘पराठा’ में बदल दिये जाते थे। आज पेंडुलम दूसरे आत्यंतिक छोर पर है जब ग्राहक बढ़ाने के लिए छिनाल चलायी जा रही है।
विभूति नारायण और रवींद्र कालिया से इस्तीफा लेना अब इसलिए बेमानी लगता है कि, जहां तक मेरा आकलन है, हिंदी साहित्य में उनकी प्रतिष्ठा यदि कभी थी भी तो आज फूटी कौड़ी की नहीं रह गयी है। लेकिन अधिकांश ऐसे प्राणी, उनके सरपरस्त और समर्थक गंडक-चर्म में वाराहावतार होते हैं। उन्हें न व्यापै जगत-गति। फिर जिस समाज में हत्यारे, बलात्कारी, डकैत, स्मग्लर, करोड़ों का गबन करने वाले संसद तक पहुंच रहे हों वहां हिंदी, जो खुद गरीब की जोरू की तरह सबकी भौजाई या साली है, भले ही उसका एक गांधी विश्वविद्यालय हो, उसकी लेखिकाओं को छिनाल कह देना तो एक होली की ठिठोली से ज्यादा कुछ नहीं। हिंदी साहित्य को अब ज्ञानोदय-ज्ञानपीठ से कुलटा, रखैल, समलिंगी, हिजड़ा, ‘निंफोमैनिएक’ सुपर-विशेषांकों और ग्रंथों की विकल प्रतीक्षा रहेगी। पोर्नोग्राफी के जिस दैत्याकार मार्केट के लिए विदेशी कंपनियां लालायित हैं, ज्ञानपीठ-ज्ञानोदय उसे भारतमाता को कलुषित नहीं करने देंगे। इस तरह वे विदेशी मुद्रा बचाएंगे और खुद कमाएंगे। किसे मालूम कि उससे कभी ज्ञानपीठ पुरस्कार एक करोड़ या उससे भी अधिक का किया जा सके!
क्या हिंदी लेखकों में वह नैतिक बल और संकल्प है कि वे विभूति नारायण और रवींद्र कालिया के रहते हिंदी विश्वविद्यालय और ज्ञानपीठ का बहिष्कार कर सकें? क्या हिंदी के अधिकांश सक्रिय लेखक-लेखिकाएं राय-कालिया जैसी हरकतों के विरुद्ध कोई दृढ़, दीर्घावधि स्टैंड ले सकते हैं? क्या हम हर संभव दरवाजा पीट सकते हैं?
राय और रवींद्र कालिया के सम्मिलित छिनाल कांड ने जिस तरह बेहतर हिंदी लेखकों को जागृत और एकजुट किया है वह एक विडंबनात्मक वरदान है। प्रश्न यही है कि हिंदी के ये सभी स्वाभिमानी और जिम्मेदार लेखक अपमानित मुचकुंद की तरह इस कालयवनद्वय को भस्म कर पाएंगे या वही बने रहेंगे जिसे ‘छिनाल’ की तरह परिभाषित किया जाता रहे – जबकि वेश्या भी रंडी कहे जाने पर एक तमाचा तो मार ही देती है?
(जनसत्ता से साभार, 11अगस्त 2010 )
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