बुधवार, 29 सितंबर 2010

सन् 1857 का प्रथम स्वाधीनता संग्राम कार्ल मार्क्स के नजरिए से देखें- भारतीय विद्रोह की स्थिति

      भारत से आने वाली पिछली डाक के साथ-साथ जो भारी-भरकम रिपोर्ट लंदन पहुंची थी, उससे दिल्ली पर कब्जा किए जाने की अफवाह इतनी तेजी से फैल गई थी और उसने इतनी अधिक मान्यता प्राप्त कर ली थी कि सट्टा बाजार के कारोबार पर भी उसका असर पड़ा था। इस खबरों की हलकी-फुलकी सूचना तारों के जरिए पहले ही प्राप्त हो चुकी थी। सेवास्तोपोल पर कब्जा करने के झांसे का, छोटे पैमाने पर, यह दूसरा संस्करण था! अगर मद्रास से आने वाले उन अखबारों की, जिनमें अनुकूल खबर आई बताई गई थी, तारीखों और उनके मजमूनों की जरा भी जांच कर ली जाती, तो यह भ्रम दूर हो जाता। कहा जाता है कि मद्रास संबंधी सूचना आगरा से 17 जून को भेजे गए निजी पत्रों के ऊपर आधारित है, लेकिन 17 जून को ही लाहौर से जारी की गई एक आधिकारिक विज्ञप्ति बताती है कि 16 तारीख के तीसरे पहर के चार बजे तक दिल्ली के आसपास सब कुछ शांत था। और 1 जुलाई की तारीख को बंबई टाइम्स लिखता है कि 'कई हमलों को रोक देने के बाद, 17 तारीख की सुबह को जनरल बरनार्ड सहायता के लिए आने वाले और सैनिकों का इंतजार कर रहे थे।' मद्रास से आई सूचना की तारीख के बारे में इतना ही काफी है। जहां तक इस सूचना के मजमून का ताल्लुक है, तो स्पष्ट है कि दिल्ली की कुछ ऊंची जगहों पर बलपूर्वक अधिकार कर लेने के संबंध में 8 जून को जारी की गई जनरल बरनार्ड की विज्ञप्ति और घेरेबंदी में पड़े लोगों द्वारा 12 और 14 जून को किए गए अचानक हमलों के संबंध में प्राप्त कुछ निजी रिपोर्टें ही उसका आधार हैं।
आखिरकार, ईस्ट इंडिया कंपनी की अप्रकाशित योजनाओं के आधार पर दिल्ली और उसकी छावनियों का एक फौजी नक्शा कैप्टन लॉरेंस ने तैयार कर दिया है। इससे हम देख सकते हैं कि दिल्ली की मोर्चेबंदी इतनी कमजोर नहीं है जितनी वह पहले बताई गई थी, और न वह इतनी मजबूत ही है जितनी इस समय जतलाई जा रही है। उसके अंदर एक किला है जिस पर यह तो अचानक धावे के जरिए फांदकर या सीधे रास्तों से अंदर जाकर कब्जा किया जा सकता है। उसकी दीवारें, जो सात मील से भी अधिक लंबी हैं, पक्के ईंट-चूने की बनी हुई हैं; लेकिन उसकी ऊंचाई बहुत नहीं है। खाई संकरी है और बहुत गहरी नहीं है, और बाजू की मोर्चेबंदियां फसील से कायदे से नहीं जुड़ी हुई हैं। बीच-बीच में कोटे (ऊंचे रक्षा-स्तंभ) हैं। वे अर्ध-गोलाकार हैं और बंदूकें रखने के लिए उनमें जगह-जगह छेद बने हुए हैं। फसील के ऊपर से कोटों के अंदर होती हुई, नीचे के उन कमरों तक चक्करदार सीढ़ियां जाती हैं जो खाई के धरातल पर बनी हुई हैं और इनमें पैदल सैनिकों के लिए गोली चलाने के छेद बने हुए हैं। इनमें से की जाने वाली गोली-वर्षा खंदक को पार कर फसील कर चढ़ने वाली टुकड़ी के लिए बहुत परेशानी का कारण बन सकती है। फसील की रक्षा करने वाले बुर्जों के अंदर राइफलमैनों के बैठने के लिए सुरक्षित स्थान भी बने हुए हैं, लेकिन इनके इस्तेमाल को तोपों के जरिए रोका जा सकता है। विप्लव जिस समय शुरू हुआ था, उस समय शहर के अंदर के शस्त्रागार में 9,00,000 कारतूस, घेरा डालने की तोपखाने वाली दो पूरी ट्रेनें, बहुत सी तोपें और 10,000 देशी बंदूकें थीं। बारूदखाने को, वहां के बाशिंदों की इच्छा के अनुसार, दिल्ली से बाहर की छावनियों में पहुंचा दिया गया था। उसमें बारूद के 10,000 से कम पीपे नहीं थे। फौजी महत्व की जिन ऊंचाइयों पर 8 जून को जनरल बरनार्ड ने कब्जा किया था, वे दिल्ली से उत्तर-पश्चिम की दिशा में उसी स्थान पर स्थित हैं जहां दीवारों के बाहर की छावनियां भी कायम की गई थीं।
प्रामाणिक योजनाओं पर आधारित जो ब्योरा प्राप्त हुआ है, उससे यह बात अच्छी तरह समझ में आ जाएगी कि जो ब्रिटिश सेना आज दिल्ली के सामने पड़ी हुई है, यदि वह 26 मई को वहां पर होती तो उसके एक ही जोरदार हमले से विद्रोह का गढ़ धराशाई हो जाताऔर यह सेना उस वक्त वहां पहुंच सकती थी यदि वहां जाने के लिए पर्याप्त साधन उसे मुहैया कर दिए जाते। जून के अंत तक विद्रोह करने वाली रेजीमेंटों की संख्या बंबई टाइम्स में छपी और लंदन के अखबारों में पुनर्मुद्रित सूची और उनके विद्रोह की तारीखों को देखने से स्पष्ट रूप में यह सिध्द हो जाता है कि 26 मई को दिल्ली पर केवल 4 से 5 हजार सैनिकों का कब्जा था। इतनी सेना सात मील लंबी फसील की हिफाजत करने की बात क्षण भर के लिए भी नहीं सोच सकती थी। दिल्ली से मेरठ केवल चालीस मील के फासले पर स्थित है। 1853 के आरंभ से ही, हमेशा उसने बंगाल के तोपखाने के सदर मुकाम की तरह काम किया है, इसलिए वहां फौजी वैज्ञानिक कामों की प्रमुख प्रयोगशाला मौजूद थी और  मोर्चे पर लड़ने और घेरा डालने के पैंतरों का अभ्यास करने के लिए वहां परेड का भी एक मैदान था। इस वजह से इस बात को समझना और भी मुश्किल हो जाता है कि वहां के ब्रिटिश कमांडर के पास उन साधनों की कमी क्योंकर हो गई थी जिनके जरिए एक जोरदार अचानक हमला करके नगर पर वह कब्जा कर लेताउसी तरह का अचानक हमला जिस तरह के हमलों से भारत की अंगरेजी फौजें देशी लोगों के ऊपर अपना प्रभुत्व कायम कर लेने में हमेशा सफल हो जाती हैं। पहले हमें सूचित किया गया था कि घेरा डालने की तोपखाने वाली ट्रेन का* इंतजार था; फिर कहा गया कि सहायता के लिए और सैनिकों की जरूरत थी; अब दि प्रेस, लंदन के सबसे अधिक जानकार पत्रों में से है, वह हमें बताता है कि हमारी सरकार को इस तथ्य का पता है कि जनरल बरनार्ड के पास सामानों और गोले-बारूद की कमी है, कि उनके पास गोला-बारूद की सप्लाई केवल 24 राउंड फी सैनिक के हिसाब से है।
दिल्ली की ऊंची जगहों पर कब्जा करने के बाद जनरल बरनार्ड ने 8 जून को जो विज्ञप्ति निकाली थी, उससे हम देखते हैं कि शुरू में खुद उसका इरादा दिल्ली पर अगले दिन हमला करने का था। इस योजना पर वह अमल नहीं कर सका और इसके बजाए, किसी न किसी दुर्घटना के कारण, घिरे हुए लोगों के साथ वह केवल सुरक्षात्मक लड़ाई ही लड़ता रहा।
दोनों तरफ कितनी शक्तियां हैं, इसका हिसाब लगाना इस समय बहुत कठिन है। भारतीय अखबारों के वक्तव्य एकदम परस्पर-विरोधी हैं: लेकिन, हमारा खयाल है कि बोनापार्टवादी पेज के एक भारतीय संवाददाता द्वारा भेजी गई खबरों पर कुछ भरोसा किया जा सकता है जो कलकत्ता स्थित फ्रांसीसी कौंसल से प्रसारित मालूम होती हैं। उक्त संवाददाता के बयान के अनुसार 14 जून को जनरल बरनार्ड की सेना में लगभग 5,700 सैनिक थे, जिनकी संख्या उसी महीने की 20 तारीख को अपेक्षित सैनिक कुमुक पहुंचने के कारण दुगुनी हो जाने की आशा थी। उसकी ट्रेन में घेरा डालने की 30 भारी तोपें थीं। इसके विपरीत, विप्लवकारियों की फौज में लगभग 40,000 सैनिक होने का अनुमान था, जिनका संगठन तो काफी बुरा था पर वे आक्रमण और बचाव के सभी साधनों से अच्छी तरह लैस थे।
चलते-चलते हम यहां इस बात का भी उल्लेख कर दें कि अजमेरी गेट के बाहर, शायद गाजी खां के मकबरे में, जो 3,000 विद्रोही सैनिक कैंपों में थे, वे अंगरेजी फौज के आमने-सामने नहीं थे जैसा कि लंदन के कुछ अखबार कल्पना करते हैं; बल्कि इसके विपरीत उन दोनों के बीच दिल्ली की पूरी चौड़ाई जितनी दूरी थी, क्योंकि अजमेरी गेट आधुनिक दिल्ली के दक्षिण-पश्चिमी भाग के एक छोर पर, प्राचीन दिल्ली के खंडहरों के उत्तर में स्थित है। नगर के उस भाग में विद्रोहियों के इसी तरह के कुछ और कैंप कायम किए जाने में कोई चीज बाधक नहीं बन सकती है। नगर के उत्तर-पूरब या नदी की दिशा में नावों का पुल उनके अधिकार में है जिससे अपने देशवासियों के साथ उनका संपर्क निरंतर बना हुआ है और वे बिना किसी रोक-टोक के सैनिकों और सामानों की सप्लाई प्राप्त करते रहते हैं। छोटे पैमाने पर दिल्ली एक किला जैसा प्रतीत होती है जिसका अपने देश के अंदरूनी भाग के साथ संचार का मार्ग (सेवास्तोपोल की भांति ही) खुला हुआ है।
अंगरेजी फौज की कार्रवाइयों में हुई देरी की वजह से न केवल घेरे में बंद लोगों को अपनी रक्षा के लिए बड़ी संख्या में सैनिकों को जुटाने का अवसर मिल गया है, बल्कि कई हफ्तों तक दिल्ली पर कब्जा किए रहने और बार-बार हमले करके यूरोपियन फौजों को परेशान करते रहने की अनुभूति ने और इसी के साथ-साथ पूरी सेना में हो रहे नए विद्रोहों की रोजाना आने वाली खबरों ने सिपाहियों के मनोबल को निस्संदेह मजबूत कर दिया है। अंगरेज अपनी छोटी फौजों से शहर को घेरने की बात हर्गिज नहीं सोच सकते, वे तो अचानक हल्ला बोल कर ही उस पर कब्जा कर सकते हैं। लेकिन, अगली साधारण डाक से दिल्ली पर अधिकार कर लिए जाने की खबर यदि नहीं आती है, तो इस बात को हम लगभग पक्का मान सकते हैं कि अंगरेजों की तरफ से की जाने वाली तमाम गंभीर कार्रवाइयों को कुछ महीनों के लिए स्थगित कर देना पड़ेगा। वर्षा ऋतु जोरों से शुरू हो जाएगी और 'जमुना की गहरी और तेज धार' नगर के उत्तर-पूर्वी भाग को सुरक्षित बना देगी। दूसरी तरफ, 75 डिग्री से लेकर 102 डिग्री तक की गर्मी पड़ेगी और उसके साथ औसतन नौ इंच तक की बारिश जुड़ी रहेगीइससे यूरोपियनों को असली एशियाई हैजे का शिकार बनना पड़ेगा। तब फिर लार्ड एलेनबरो के ये शब्द सच चरितार्थ हो जाएंगे :
मेरी राय है कि सर एच. बरनार्ड जहां पर हैं, वहीं बने नहीं रह सकतेजलवायु ऐसा नहीं होने देगी। वर्षा जब जोरों से शुरू हो जाएगी, तब मेरठ, अंबाला और पंजाब से उनका संबंध कट जाएगा; भूमि की एक बहुत संकरी पट्टी में वे कैद हो जाएंगे, और, तब खतरे की तो मैं नहीं कहूंगा, लेकिन ऐसी स्थिति में वह जरूर पहुंच जाएंगे जिसका अंत केवल विनाश और विध्वंस में ही हो सकता है। मेरा विश्वास है कि वह समय रहते ही वहां से हट जाएंगे।
तब फिर, जहां तक दिल्ली का संबंध है, हर चीज इस प्रश्न पर निर्भर करती है कि जनरल बरनार्ड के पास इतनी काफी सेना और गोला-बारूद इकट्ठे हो जाते हैं कि नहीं कि जून के अंतिम सप्ताह में वह दिल्ली पर हमला कर सकें। दूसरी तरफ, उनके वहां से पीछे हट जाने से विद्रोह की नैतिक शक्ति अत्यधिक मजबूत हो जाएगी और, इससे संभवत:, बंबई और मद्रास की फौजों के भी खुले तौर से विद्रोह में शामिल होने का फैसला हो जाएगा।
(18 अगस्त 1857 के न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून, अंक 5094, में प्रकाशित )




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