सोमवार, 6 सितंबर 2010

राहुल गांधी का माओवादी प्रेम

             (जगन्नाथपुर गांव में राहुल गांधी)
     राहुल गांधी इन दिनों राजनीति नहीं वर्चुअल राजनीति कर रहे हैं। वे ऐसे नेता हैं जो बीच-बीच में गांवों में जाते हैं,आदिवासियों में जाते हैं,किसानों के पास जाते हैं। उनके इस तरह के प्रयासों में ईमानदार राजनीतिज्ञ के दर्शन नहीं होते। उनमें अपने परिवार के सभी राजनीतिक गुण हैं। वे मिलनसार हैं,हमदर्द हैं और जनता के लिए कुछ करना भी चाहते हैं। वे जनता के साथ कामकाजी रिश्ता रखकर बड़े हुए हैं।
   राहुल गांधी ने हाल ही में दो एक्शन किए हैं। पहला एक्शन  पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों के लिए किया। दूसरा एक्शन वेदांत के प्रकल्प को केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय द्वारा स्वीकृति न दिए जाने के बाद किया। इन दोनों एक्शनों की खूबी है कि इन दोनों ही जगहों पर कांग्रेस या युवा कांग्रेस वाले किसी भी किस्म का संघर्ष नहीं कर कर रहे थे। वे संघर्ष के दर्शक थे। लेकिन दोनों ही जगहों पर राहुल गांधी की सक्रियता देखने लायक थी वे तेजी से आंदोलनकारियों के बीच में गए और यह विभ्रम पैदा करने की कोशिश की कि वे किसानों और आदिवासियों के साथ हैं।
     राहुल गांधी स्वभाव से राजनीतिज्ञ नहीं है। वे पेशे से राजनेता हैं। उनकी स्वाभाविक प्रकृति में राजनीति अभी तक दाखिल नहीं हुई है। कहने को वे सांसद हैं, कांग्रेस के महासचिव हैं। राहुल गांधी ऐसे राजनेता हैं जो जनता के संघर्ष और अनुभवों में तपकर बड़ा नहीं हुआ है। बल्कि जनहित से इतर कारणों के कारण राजनीति में आया है।
     वे राजनीति नहीं करते बल्कि राजनीति का रेडीकल विभ्रम पैदा करते हैं। वे यह आभास देते हैं कि वे भिन्न हैं। लेकिन वे भिन्न नहीं हैं। बल्कि जनहित से इतर कारणों से प्रेरित होकर आयी नई राजनीतिज्ञों की पीढ़ी का हिस्सा हैं। वे अपने व्यवहार से बार-बार यह संकेत देने की कोशिश करते हैं कि वे कांग्रेस के मौजूदा नेताओं से भिन्न हैं।  वे अपने एक्शन से जिस ‘सत्य’ की ओर ध्यान खींचना चाहते हैं उसका वास्तविकता से बहुत दूर का संबंध है।
   वास्तविकता यह है कि राहुल गांधी जिस पार्टी के महासचिव हैं उस पार्टी ने नव्य-उदारतावादी आर्थिक नीतियों का मार्ग चुना है । जिसके कारण किसानों और आदिवासियों का बड़े पैमाने पर विस्थापन हुआ है । यह सिलसिला अभी भी चल रहा है। विस्थापन को रोकने की बजाय उसे ज्यादा प्रभावशाली ढ़ंग से लागू किए जाने की कोशिशों की ओर ध्यान दिया जा रहा है। दूसरी बात यह कि राहुल गांधी या कोई भी बड़ा कांग्रेस नेता कभी किसी आदिवासी आंदोलन या किसान आंदोलन में अपनी पहलकदमी करके शामिल नहीं हुआ ? कांग्रेस का आरंभ से मानना रहा है कि किसानों को संगठित मत करो। किसानों के लिए उन्होंने कभी संगठन नहीं बनाया। बल्कि कांग्रेस के नेताओं का अब तक का इतिहास बताता है कि वे किसान आंदोलनों का विरोध करते रहे हैं। महात्मा गांधी से लेकर राहुल गांधी की परंपरा किसानों के प्रति अवसरवादी संबंध-संपर्क की परंपरा रही है।
      सवाल  उठता है कि राहुल गांधी यदि नियमगिरी पर्वतमाला पर स्थित वेदांत प्रकल्प का विरोध कर रहे थे तो आंदोलन के दौरान कभी क्यों नहीं दिखाई दिए ?ध्यान रहे वेदांत का प्रकल्प वापस नहीं हुआ है। सिर्फ पर्यावरण मंत्रालय की उसे स्वीकृति नहीं मिली है। क्या बाद में यदि वेदांत के मालिक पर्यावरण मंत्रालय के अनुसार सारा सिस्टम बनाते हैं ,जैसाकि वे करेंगे,क्योंकि उनके करोड़ों ऱूपये लग चुके हैं।  वे सारे नियमों को धता बताते हुए मौजूदा अवस्था तक प्रकल्प को ले आए हैं। वैसी स्थिति में राहुल गांधी क्या करेंगे ?
    उल्लेखनीय है उत्तरप्रदेश और उड़ीसा में कांग्रेस विपक्ष में है और किसानों और आदिवासियों के नाम पर अवसरवादी राजनीति का नाटक कर रही है और राहुल गांधी इस नाटक के सूत्रधार हैं।
    राहुल गांधी के व्यक्तित्व की विशेषता है नीतिविहीन अवसरवाद। इसके कारण ही वे जब जो इच्छा होती है एक्शन करते हैं। इसका एक ही उदाहरण देना समीचीन होगा। वेदांत प्रकल्प को पर्यावरण मंत्रालय द्वारा हरी झंड़ी न दिखाए जाने के बाद राहुल गांधी उडीसा के जगन्नाथपुर गांव में रैली करने पहुँचे। इस प्रसंग में पहली बात यह कि वेदांत आंदोलन में राज्य कांग्रेस अनुपस्थित थी,इस रैली के पहले कभी भी वेदांत प्रकल्प के खिलाफ चल रहे संघर्ष का राहुल गांधी ने समर्थन नहीं किया था,कोई सार्वजनिक बयान तक नहीं दिया था।
   जगन्नाथपुर में हुई रैली में राहुल गांधी के साथ सभा मंच पर स्थानीय प्रसिद्ध माओवादी नेता लाडो सिकोका भी मौजूद था। सिकोका लंबे समय से इस इलाके में काम कर रहा है और उसने राहुल गांधी के पहुँचने के पहले तक रैली में भाषण दिया था और राहुल गांधी के आने के बाद भी वह मंच पर ही था। सब जानते हैं कि सिकोका को स्थानीय पुलिस ने माओवादी होने के संदेह में 9 अगस्त 2010 को गिरफ्तार किया था लेकिन बड़ी रहस्यमय परिस्थितियों में वह पुलिस की कैद से बाहर आ गया और इलाके में वेदांत प्रकल्प के खिलाफ सक्रिय था। 
    मजेदार बात यह है कि राहुल गांधी ने 26 अगस्त 2010 को माओवादी नेता के साथ रैली को सम्बोधित किया और एक दिन पहले 25 अगस्त 2010 को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह दिल्ली में देश के पुलिस अफसरों को सम्बोधित करके माओवाद को देश के लिए सबसे बड़ा खतरा बता रहे थे। यहां उल्लेखनीय है 9 अगस्त 2010 को तृणमूल कांग्रेस ने लालगढ़ (पश्चिम बंगाल) में माओवादियों के सहयोग से विशाल रैली की थी जिसकी कांग्रेस के केन्द्रीय नेतृत्व ने हिमायत की है। उस रैली में कई केन्द्रीय मंत्री भी मौजूद थे। कांग्रेस के नेताओं का माओवादियों के प्रति इस तरह का अवसरवादी संबंध चिन्ता की बात है।
    राहुल गांधी अकेले नेता नहीं हैं जिन्हें माओवादियों-आतंकवादियों से संपर्क-संबंध बनाए रखने पड़ रहे हैं। बल्कि कांग्रेस में उग्रवादियों-आतंकवादियों से संपर्क-संबंध बनाए रखने की लंबी परंपरा रही है और इस परंपरा का एक ही मकसद है राजनीतिक अवसरवाद और निहित स्वार्थी राजनीतिक लक्ष्यों को हासिल करना। इसके लिए कांग्रेस के नेता किसी भी हद तक जाने को तैयार रहते हैं। त्रिपुरा से लेकर असम तक पंजाब से लेकर उड़ीसा तक कांग्रेस का उग्रवादियों-आतंकवादियों के प्रति सॉफ्ट नजरिया रहा है। स्थिति यहां तक खराब है कि वे हिन्दू और मुस्लिम तत्ववादियों के सामने भी नतमस्तक होते रहे हैं।
    सलमान रूशदी के उपन्यास सैटेनिक वर्शेज पर पाबंदी का सवाल हो या राममंदिर शिलान्यास का सवाल हो,इन सब पर कांग्रेस का शिखर नेतृत्व तत्ववादियों के सामने समर्पण करता रहा है। भिण्डरावाले से लेकर लिट्टे के नेता प्रभाकरन की मदद का सारा काम कांग्रेस का केन्द्रीय नेतृत्व करता रहा है। जाहिर है शैतानों को पालेंगे तो उसकी कीमत भी देनी होगी। लिट्टे को पालने की कीमत राजीव गांधी की हत्या के रूप में दी,भिण्डरावाले को पालने की कीमत इंदिरा गांधी की हत्या के रूप में देनी पड़ी।
    कहने का तात्पर्य यह है कि आतंकवाद-उग्रवाद-साम्प्रदायिकता या पृथकतावाद को अवसरवादी राजनीति का मोहरा बनाकर इस्तेमाल करने की कांग्रेस की परंपरा रही है। उसका खामियाजा आज सारा देश भुगत रहा है। कांग्रेस ने कभी भी उग्रवाद-आतंकवाद -साम्प्रदायिकता या पृथकतावाद के खिलाफ दो टूक रवैय्या नहीं अपनाया है। इन राजनीतिक प्रवृत्तियों के प्रति कांग्रेस का सॉफ्ट रूख देश में सामाजिक विभाजन का काम करता रहा है और इससे इन विभाजनकारी ताकतों को बल मिला है,वैधता मिली है।

        
                                



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