अमरीकी समाज विगत चालीस सालों में क्रमश: हाइपररीयल हुआ है। हाइपररीयल अवस्था में कोई इमेज टिकाऊ नहीं होती। बल्कि प्रत्येक इमेज में 'छूमंतर' वाला गुण होता है। इमेज की हम सतह देखते हैं , मर्म से अनभिज्ञ और अछूते रहते हैं। आप जिस क्षण इमेज देखते हैं उसी क्षण भूल जाते हैं। हम जानते ही नहीं हैं कि इन्दिरागांधी की फोटोग्राफिक इमेज कहां गायब हो गयी, एनटीआर कहां लुप्त हो गए? ज्योतिबाबू कहां छूमंतर हो गए ? बुश कहां अन्तर्ध्यान हो गए ? ओबामा को चुनते समय बिल क्लिंटन की इमेज कहां गायब हो गयी ? अब ओबामा की इमेज भी कहां गायब हो जाएगी कोई नहीं जानता।
फोटोग्राफिक इमेज का होना जितना महत्वपूर्ण है उससे ज्यादा महत्व अन्तर्ध्यान हो जाना है। यही हाल हाइपररीयल दौर में राजनीतिक वायदों का है। इस दौर में इमेज विसंदर्भीकृत रूप में आती है। इसके कारण इमेज के साथ जुड़ी अन्तर्वस्तु को सही संदर्भ में पकड़ना या समझना बेहद मुश्किल होता है।
राजनीतिक इमेज वास्तव इमेज नहीं होती आदर्श इमेज होती है। निर्मित इमेज होती है। कृत्रिम इमेज होती है। राजनेता जो कार्य करते हैं वह उनकी जिंदगी की वास्तविक समझ का परिचय नहीं देते। बल्कि वे जो कार्य करते हैं वह उनकी राजनीतिक मंशाओं और आकांक्षाओं को व्यक्त करते हैं। राजनीतिक इमेज में नेता का व्यक्ति मन राजनीतिक मंशा और आदर्श इमेज का गुलाम होता है। आदर्श का गुलाम होने के कारण उसमें सौम्यता और सामंजस्य का भाव नहीं होता इसके विपरीत वह आदर्श के अनुरूप कार्य करते हुए अपने व्यक्ति मन के साथ बदले लेता रहता है।
विभिन्न किस्म के माध्यमों के द्वारा राजनेता के जो फोटोग्राफ हम तक पहुँचते हैं वे उसकी अतिरंजित इमेज बनाते हैं। विभ्रम की सृष्टि करते हैं। इमेज के इर्दगिर्द जो कुछ भी होता है वह गायब हो जाता है और महज उसकी इमेज रह जाती है जो स्वयं 'छूमंतर' है।
इमेजों ,चिन्हों और विचारों के जिस प्रबल प्रवाह को हम चुनाव में देखते हैं उसका नेता की इमेज के साथ संबंध स्थापित करना मुश्किल होता है। इमेज,चिन्ह और विचार को हाइपररीयल परिप्रेक्ष्य और वातावरण टिकने नहीं देता और ये भी जल्दी ही छूमंतर हो जाते हैं।
फोटो में आदमी सिर्फ फोटो होता है और कुछ नहीं। फोटो के साथ उसकी अंतर्वस्तु कभी भी नजर नहीं आती। फोटो में दिखने वाला व्यक्ति हमेशा अंतर्वस्तुरहित होता है। खोखला होता है। राजनीतिक व्यक्ति की फोटो जब देखते हैं तो उसकी व्यक्तिगत पहचान गायब हो जाती है और राजनीतिक पहचान सामने आ जाती है। मसलन् ओबामा की यही दशा है वह न काला है न गोरा है,अफ्रीकी है न विदेशी बल्कि डेमोक्रेटिक पार्टी का प्रतीक है डेमोक्रेटिक पार्टी के प्रतीक को ही हम देखते और राय बनाते हैं। व्यक्ति ओबामा के गुणों की इस राय बनाने में कोई भूमिका नहीं है। ओबामा की इमेज में एक फैंटेसी है। यह फैंटेसी उनकी जनसभाओं और भाषणशैली में नजर आती है।
ओबामा ने प्रचार करते समय अपने को समस्त अमरीकी जनता के प्रतिनिधि के रूप में पेश किया और इस बात पर जोर दिया कि वह व्यवहारिक हैं और उनकी 'कथनी और करनी'' में अंतर नहीं है। इसके विपरीत मेककेन को यह बात आम लोगों के गले उतारने में सफलता नहीं मिली कि उनकी ''कथनी और करनी'' में अंतर नहीं है। इसका साफ कारण था बुश की '' कथनी और करनी में अंतर।''
अमरीकी संस्कृति की विशेषता है '' रहस्यमयता। '' अमरीका को जितना जानते हैं उतना ही कम जानते हैं। वह सबके लिए रहस्य है। रहस्य और वर्चुअल का अन्तस्संबंध अमरीका की फैंटेसीमय इमेज सम्प्रेषित करता है। सामाजिक रहस्य यथावत् बने रहते हैं। अमरीकी इमेज 'अति आधुनिक' और 'अति सक्रिय' है। फलत: चीजों की बाहरी परतों को देखते हैं। उसके शुद्ध 'ऑपरेशन' और शुद्ध 'सर्कुलेशन' को देखते हैं। इससे सामाजिक सारवस्तु में परिवर्तन नहीं आता।
अमरीकी पूंजीवाद ने सारी दुनिया में 'प्रतिस्पर्धा' और 'अमरीकी संदर्भ' को आधारभूत तत्व बनाया है। अमरीकी प्रतिस्पर्धा और अमरीकी संदर्भ के बिना पूंजीवाद पर कोई बात करना संभव नहीं है। प्रतिस्पर्धा संदर्भ के रूप में आज जितने भी प्रतीक हमारे बीच प्रचलन में हैं उनका स्रोत अमरीका है। अमरीका से निकले प्रतीक महज प्रतीक नहीं होते बल्कि विश्व शक्ति और विश्व व्यवस्था के सुनिश्चित भावबोध को संप्रेषित करते हैं। वे हमेशा ग्लोबल पूंजीवाद के रूप में सामने आते हैं। ओबामा का प्रतीक भी उनमें से एक है।
अमरीकी प्रतीकों को सुपर पावर की भूमिका से अलग करके नहीं देखा जा सकता। ओबामा की भी यही स्थिति है वह भी सुपर पावर का प्रतीक है और जब चीजें,व्यक्ति,विचार ,स्थापत्य आदि ग्लोबल पावर के साथ अन्तर्ग्रथित होकर आते हैं तो उनका काम है जगत को नियंत्रण में रखना।
सुपर पावर का काम है जगत को नियंत्रण में रखना। सुपर पावर की धारणा किसी एक वस्तु,पार्टी, सांस्कृतिक माल, स्थापत्य आदि में सीमित करके देखने से स्थिति के कभी भी अनियंत्रित हो जाने अथवा ध्वस्त हो जाने का खतरा होता है। जैसा कि नाइन इलेवन की घटना के बाद देखा गया था। लोग सोच रहे थे कि अमरीका ध्वस्त हो गया ? अथवा हाल की आर्थिकमंदी के समय सोचते थे अमरीका तबाह हो जाएगा। लेकिन ऐसा हुआनहीं ।
अमरीका सुपर पावर है और सुपर पावर वह इसलिए है कि जगत को नियंत्रित करने की क्षमता रखता है। इसका अर्थ यह है कि अमरीका कभी ध्वस्त नहीं हो सकता। उसके यहां से निकली प्रत्येक चीज सुवर पावर का काम करती है। ग्लोबल नियंत्रण का काम करती है।
आज सभी लोग एकमत हैं अमरीका में जो संकट नजर आ रहा है, आर्थिक तबाही नजर आ रही है उसके लिए अमरीका के नीति निर्माता जिम्मेदार हैं। उन्होंने ऐसी नीतियां लागू कीं जिनके कारण यह तबाही आयी। यानी अमरीका ने अपनी मौत को स्वयं बुलाया है। दूसरे शब्दों में कहें कि विश्व पूंजीवाद ने अपनी नीतियों के चलते ही विषपान किया है। इसके लिए कोई और जिम्मेदार नहीं है। इसे दार्शनिक शब्दों में कहें कि जब कोई व्यक्ति विषपान करता है तो एक तरह से समाज की आलोचना कर रहा होता है।
अमरीका का मौजूदा आर्थिक संकट स्वयं में अमरीका की सामाजिक आलोचना है। यह सामाजिक आलोचना वह अपनी शर्तों पर कर रहा है। अपने नीतिगत फैसलों को बदल रहा है और आधिकारिक भाव को प्रदर्शित कर रहा है। कुछ लोग सोच रहे हैं कि अमरीका का आर्थिक संकट अमरीका की विश्व अर्थ व्यवस्था पर पकड़ ढीली करेगा। यह भ्रम है। इस संकट के बाद अमरीका की विश्व व्यवस्था पर पकड़ पहले से भी ज्यादा मजबूत बनेगी।
पूंजीवाद के मौजूदा संकट में उन तमाम नीतियों और प्रतीकों का विनिमय होगा )अमेरिका और सारी दुनिया के बीच) जिनके जरिए सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक वर्चस्व को बनाए रखने में मदद मिलती है। अमेरिका ने सारी दुनिया के साथ अपना संबंध और अपनी पहचान प्रतीकात्मक बनाया है ,यह संकट भी प्रतीकात्मक विनिमय के रूप में आया है। किंतु प्रतीकात्मक विनिमय के दौरान यह संकट की शक्ल में नहीं रह जाएगा बल्कि बड़े पैमाने पर अलगाव,असमाजीकरण और संकीर्णतावाद को छोड़ जाएगा। इससे उसकी ग्लोबल इजारेदारी दिखाई देती है। इस प्रक्रिया में अमरीका हमेशा सही,पारदर्शी,सकारात्मक नजर आता है।
अमरीकी पूंजीवाद की सबसे बड़ी खूबी है कि उसने प्रतीकों के विनिमय के द्वारा सारी दुनिया में यह चेतना निर्मित की है कि अब आप व्यवस्था पर हमला नहीं कर सकते। व्यवस्था को नष्ट नहीं कर सकते। पूंजीवादी व्यवस्था को नष्ट नहीं कर सकते। व्यवस्था हमारे ऊपर हावी है। जमीनी स्तर पर जो लोग व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष के नाम पर जो संघर्ष करते रहते हैं ये संघर्ष उनके स्वयं के यथार्थ के खिलाफ की गयी लड़ाईयां हैं, इन्हें व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष नहीं कहा जा सकता है।
आज व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष जटिल हो गया है। व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष के नाम पर अपने यथार्थ से ही लड़ते रहते हैं। आज आप व्यवस्था को नष्ट नहीं कर सकते। व्यवस्था की राजनीतिक संरचनाओं को नष्ट नहीं कर सकते। यह काम प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष किसी भी रूप में नहीं कर सकते। राजनीतिक और आर्थिक तौर पर भी नहीं कर सकते। पूंजीवाद को यथार्थ में परास्त करना संभव नहीं है। क्योंकि पूंजीवाद ने अपने को यथार्थव्यवस्था के रूप में रूपान्तरित कर लिया है। व्यवस्था पर हमले के नाम पर हम प्रतीकों को बदलते हैं, निशाना बनाते हैं। किंतु प्रतीक तो व्यवस्था की सतह हैं ये व्यवस्था की अंतर्वस्तु नहीं हैं। व्यवस्था को तब ही पलट सकते हैं जब व्यवस्था की नीतियों को पलटने और लागू करने की क्षमता हो। जब तक ऐसा नहीं होता व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष व्यवस्था को कमजोर नहीं बनाता। बल्कि व्यवस्था को मजबूत बनाता है।