शनिवार, 31 जुलाई 2010

पेंग्विन के 75 साल और ई-बुक की चुनौतियां

 पेंग्विन प्रकाशन के 75 साल हो गए हैं। यह अपने आपमें बड़ी घटना है। पेंग्विन ने इन 75 सालों में पुस्तक की दुनिया में मूलगामी परिवर्तनों को जन्म दिया है। एक जमाना था किताब मंहगी आती थी, पहलीबार पेंग्विन ने छह पेंस में ब्रिटेन में पेपरबैक निकाला था ,उस समय इतने पैसे में एक सिगरेट आती थी । उसके बाद पेपरबैक पुस्तक की आंधी ने अज्ञान के दरवाजों पर जिस गति से दस्तक दी है उसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है। पेंग्विन ने पढ़ने और किताब खरीदने के रवैय्ये में बुनियादी बदलाव पैदा किया। पेंग्विन ने पन्द्रह हजार से ज्यादा टाइटिल छापे हैं और एक लाख से ज्यादा संस्करण प्रकाशित किए है।
     अब पुस्तक की दुनिया नए संचार संसार में दाखिल हो गयी है। यह ई-बुक का युग है। पेंग्विन के सामने ई-बुक का बड़ा उदीयमान बाजार है जिसको अभी सस्ता होना है। ई-बुक को सस्ता बनाने में पेंग्विन जैसे प्रकाशन की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। अभी ई-बुक के बाजार में पेंग्विन की हिस्सेदारी मात्र एक प्रतिशत है। अमेरिका और दुनिया के दूसरे शहरों में छह प्रतिशत डिजिटल बुक के ग्राहक है।
     पेंग्विन ने 75 वर्ष पूरे होने पर आईपेड के लिए डिजिटल बुक जारी की है। यह पुस्तक पोर्चगीज़ भाषा के महान लेखक जॉन ली केरी की रचना का अंग्रेजी अनुवाद है। कुछ किताबों के टीवी रूपान्तरण भी बाजार में उतारे हैं।
     इस साल की पहली छमाही में पेंग्विन का मुनाफा दुगुना हो गया है और उसने 44 मिलियन पॉण्ड की आय दर्ज की है। मुनाफे में आए इस उछाल का बडा कारण है भारत के डिजायनर और प्रेस वाले। उनके कारण पेंग्विन का मुनाफा दुगुना हो गया है। पेंग्विन ने प्रकाशन में आउटसोर्सिंग की और इसका उसे लाभ मिला है। भारत में प्रकाशन अभी बहुत सस्ता है। अकेले दिल्ली में ही 100 डिजायनर पेंग्विन के लिए काम कर रहे हैं।
    पेंग्विन ने सस्ती किताबें छापी हैं,विभिन्न विचारधारा और विषयों की किताबें छापी हैं इससे उसकी लोकतांत्रिक कारपोरेट प्रकाशक की इमेज बनी है। इस समय पेंग्विन के पास 3458 ई-बुक उपलब्ध हैं। इनमें ज्यादातर उपन्यास और गंभीर किस्म की कथेतर किताबें हैं।                             


संस्कृत ,उर्दू और हिन्दी काव्य के तुलनात्मक अध्ययन की समस्याएं-4-समापन किश्त

    तुलनात्मक साहित्य के क्षेत्र में अध्ययन की कई पद्धतियां प्रचलन में हैं। फ्रांसीसी तुलनाशास्त्री ‘प्रभाव’के अध्ययन पर जोर देते हैं। रेने वैलेक ने ‘कारण-प्रभाव’ को महत्ता दी है। हंगरी के तुलनाशास्त्री ‘स्रोत’ और ‘मौलिकता’ को महत्वपूर्ण मानते हैं। इस प्रक्रिया में उन्होंने राष्ट्रीय चरित्रों की पहचान स्थापित की है।
     उल्लेखनीय है कि ‘प्रभाव’ का ‘ग्रहण’ के साथ संबंध है। फलतः ग्रहणकर्ता मूल्यांकन के केन्द्र में रहेगा। वेन तेघम और अन्य विचारकों ने ‘ग्रहण’ के सिद्धांत के अनुरूप ही अपने तुलनात्मक नजरिए का विकास किया।
     साहित्य संप्रेषण और ग्रहण के सवालों पर सामयिक तुलनाशास्त्री विभिन्न दृष्टियों से विचार करते रहे हैं। हंगरी के तुलनाशास्त्रियों ने ‘स्रोत’ और ‘मौलिकता’ पर जब जोर दिया था तो उस समय हंगरी में 19वीं शताब्दी का समय था और संस्थानों के निर्माण की प्रक्रिया चल रही थी।
    तुलनात्मक साहित्य के मूल्यांकन और सिद्धान्त की किताबों को गौर से देखें तो पाएंगे कि कुछ महत्वपूर्ण पदबंधों का प्रयोग मिलता है। जैसे, फार्चून,डिफ्यूजन,रेडिएशन आदि इन पदबंधों का पाठक पर पड़ने वाले प्रभाव के संदर्भ में धडल्ले से प्रयोग चल रहा है। जबकि ग्रहणकर्त्ता के संदर्भ में प्रतिक्रिया, क्रिटिक,ओपिनियन,रीडिंग,ओरिएण्टेशन आदि का खूब प्रयोग हो रहा है। पुनर्रूत्पादन के संदर्भ में फेस,रिफ्लेक्शन, मिरर, इमेज, रिजोनेंस,इको,म्यूटेशन आदि का प्रयोग मिलता है।
      फ्रांस में ग्रहण सिद्धांत का विरोध करने वालों का भी एक गुट है जो विषयवस्तु केन्द्रित अध्ययन पर जोर देता है। इस क्षेत्र में मनोवैज्ञानिक और शैलीवैज्ञानिक आलोचना दृष्टियों का जमकर प्रयोग हुआ है। इसके दायरे में मिखाइल बाख्तिन के ‘इंटरटेक्चुअलिटी’ से लेकर वाक्य-विन्यास, रूपकों,वाक्य की बहुअर्थी संरचना और रूपवाद आदि सब कुछ शामिल हैं।
   फ्रांसीसी तुलनाशास्त्रियों ने इमेज और इमेनोलॉजी में अंतर किया है और इमेज के अध्ययन पर जोर दिया है। इन विचारकों ने विचारों के इतिहास,मनोदशा, संवेदनशीलता और मूल्यों का भी अध्ययन किया है। ये लोग वैविध्य और उदारता के आधार पर मूल्यांकन करते हैं।
   फ्रांसीसी तुलनाशास्त्रियों ने रूपवादी दृष्टिकोण का विरोध करते हुए अनेक महत्वपूर्ण कार्य किए हैं। उनके द्वारा किए गए अध्ययनों को चार भागों में बांट सकते हैं। 1.काल्पनिकता का अध्ययन, 2. किसी महान् विषयवस्तु का अध्ययन, 3. प्रतीकों का अध्ययन, 4. विषयवस्तु का अध्ययन।
    फ्रांसीसी तुलनाशास्त्रियों के यहां सामान्य साहित्य और तुलनात्मक साहित्य का अंतर साफ दिखाई देता है। इन लोगों ने रिप्सेशन थ्योरी को सामान्य साहित्य के क्षेत्र के बाहर रखा है। इसके अलावा पद्धति की समस्याओं को भी उठाया है। तुलनात्मक साहित्य की जटिलता और समृद्धि को रेखांकित किया है। उनके मूल्यांकन के केन्द्र में पाठ है। किंतु यह काम उन्होंने रूपवादी और संरचनावादियों से भिन्न रूप में किया है। वे हमेशा इमेजरी और ओपिनियन पर केन्द्रित होकर काम करते रहे हैं। विधाओं के इतिहास का पुनर्लेखन,काव्य की व्याख्या के लिए इंटरटेक्चुअलिटी या अन्तर्पाठीयता की धारणा , इतिहास और अंतर्वस्तु का प्रयोग करते रहे हैं। इस क्रम में उन्होंने पाठ का विकेन्द्रीकरण किया है।
    उल्लेखनीय है फ्रांस में ‘लिटरेचर’ पदबध का अर्थ ‘साहित्यिक अध्ययन’ है। वाल्तेयर ने अपने अधूरे लेख ‘लिटरेचर’ में, जो उन्होंने दर्शनकोश के लिए लिखा था, उसमें उन्होंने साहित्य को ‘अभिरूचि का ज्ञान’ कहा था। 19वीं सदी में फ्रांस में ‘तुलनात्मक साहित्य’ पदबंध का प्रयोग मिलता है। खासकर ए.एफ.विल्हमैन की पत्रिकाओं के इतिहास संबंधी पुस्तक में इस पदबंध का सुसंगत प्रयोग मिलता है। यह पुस्तक 1828 में छपी थी। इस पुस्तक में तुलनात्मक साहित्य की पद्धति का इस्तेमाल करते हुए आधुनिककाल के अनेक साहित्यरूपों का विश्लेषण किया गया है।
     सामान्य साहित्य का आंदोलनों और साहित्यिक फैशनों के साथ संबंध है। जबकि तुलनात्मक साहित्य दो भाषाओं के साहित्य के आपसी संबंध से बंधा है।  मसलन् संस्कृत की कविता और हिन्दी की कविता के किसी कालखण्ड को लेकर या दो लेखकों का अध्ययन किया जा सकता है। तुलनात्मक स्रोतों और प्रभावों का अध्ययन किया जा सकता है. तुलनात्मक कारणों और परिणामों का अध्ययन किया जा सकता है।
  तुलनात्मक अध्ययन के दौरान किसी कृति को पूरी तरह अन्य भाषा के प्रभावों में घटाया नहीं जा सकता। या अन्य भाषा के प्रभाव को आलोकित करने वाले प्रधान बिंदु के रूप में नहीं देखा जा सकता।
     तुलनात्मक सहित्य और सामान्य साहित्य के बीच में बनाबटी जंगल खड़े करने से बचना चाहिए। साहित्यिक वैदुष्य और साहित्येतिहास का एक ही लक्ष्य है साहित्य का मूल्यांकन करना। हमें तुलनात्मक साहित्य और सामान्य साहित्य के वर्गीकरण से बचना चाहिए। यदि इस वर्गीकरण को लागू करते हैं तो हम तुलनात्मक साहित्य को केवल दूसरी श्रेणी के लेखकों ,अनुवादों, यात्रा-पुस्तकों,मध्यस्थ के संबंधों तक सीमित कर देंगे। तुलनात्मक साहित्य को एक छोटे अनुशासन में सीमित कर देंगे।
     वेन तेघम के अनुसार तुलनात्मक साहित्य को राष्ट्रीय साहित्यों से अलगाने की जरूरत है। तुलनात्मक साहित्य का संबंध उन मिथकों और गाथाओं से है जो कवियों के चारों ओर हैं और इनका गौण और लघु लेखकों से संबध है। वेन तेघम और उनके अनुयायी साहित्यिक अध्ययन के बारे में 19वीं सदी के प्रत्यक्षवादी तथ्यवाद की शब्दावली में सोचते थे। ये लोग स्रोतों और प्रभावों का अध्ययन करते थे। साहित्य की सरसरी व्याख्या करते थे। सरसरी व्याख्या के लिए मूलभाव,विषयवस्तु, चरित्र, स्थितियां, कथानक ,कालक्रम आदि का इस्तेमाल करते थे। इन्होंने अपने यहां समानान्तरों, समानताओं और अस्मिताओं के अम्बार को एकत्रित कर रखा है।        
       तुलनात्मक साहित्य या सामान्य साहित्य पर विचार करते हुए ध्यान रहे कि कोई भी रचना,स्रोतों और प्रभावों का जोड़ नहीं होती।वह पूर्ण होती है। उसमें कच्ची सामग्री कहीं से भी ली जा सकती है। कच्ची सामग्री निर्जीव नहीं होती। वह नई संरचनाओं में आसानी से रूपान्तरित हो जाती है।
    सरसरी व्याख्या कहीं नहीं ले जाती और साहित्य में कार्य-कारण संबंध स्थापित करने में सफल नहीं होती। यदि कृति और कृतिकार को तुलनात्मक मूल्यांकन करने के चक्कर में स्रोतों और प्रभावों में रिड्यूज कर दिया जाता है तो इससे कृति और कृतिकार की समग्र अर्थवत्ता को ठेस लगती है। जो कृतियां पूर्ण होती हैं उनके अलगाव के कारण कृति में नहीं होते।
      तुलनात्मक साहित्य के उदय का प्रधान कारण था राष्ट्रवाद का निषेध करना। साहित्य की आधुनिक धारणा के उदय के साथ साहित्य में राष्ट्रवाद का जयघोष होने लगा। जातीय साहित्य की धारणा पर जोर देने के बहाने साहित्य में राष्ट्रवाद के एजेण्डे को प्रतिष्ठित किया गया।
     हिन्दी में जातीय साहित्य की बहस के केन्द्र में मूलतः राष्ट्रवाद को ही प्रतिष्ठित करने का लक्ष्य है। साहित्य का आधुनिक धारणा के आलोक में मूल्यांकन करने के बजाय जातीय साहित्य की धारणा के आलोक में रामविलास शर्मा और अन्य के द्वारा जो गट्ठर भरकर लेखन हुआ है उसने राष्ट्रवाद को साहित्य में पुख्ता किया है। साहित्य में राष्ट्रवाद की प्रतिष्ठा का हिन्दी में खास अर्थ है प्रतिक्रियावादी राजनीतिक चेतना की हिन्दी विभागों में प्रतिष्ठा। इससे हिन्दी साहित्य की अपूरणीय क्षति हुई है।
     राष्ट्रवाद एक तरह का अलगाव भी है। यह समूचे समाज और साहित्य से अलगाव है। अलगाव और राष्ट्रवाद को तुलनासाहित्य शास्त्रियों ने फ्रेंच,जर्मन,अंग्रेजी साहित्य में चुनौती दी। तुलनाशास्त्रियों ने साहित्य में प्रचलित विषयवस्तु और पद्धति विज्ञान के बनावटी विभाजन को अस्वीकार किया। स्रोतों और प्रभावों की यांत्रिक धारणा का निषेध किया। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद या राष्ट्रवाद का विरोध किया। मेरे कहने का यह आशय नहीं है कि तुलनाशास्त्री देशभक्त नहीं थे। वे देशभक्त थे लेकिन साहित्य को राष्ट्रवाद के साथ नत्थी करना नहीं चाहते थे।
      तुलनाशास्त्री विलक्षण किस्म के हिसाबी लोग हैं। तुलना करते हुए और अपनी देशभक्ति का प्रदर्शन करते हुए तुलनात्मक साहित्य को सांस्कृतिक बही-खाते के रूप में इस्तेमाल करते हैं। वे मूल्यांकन के जरिए बताते हैं कि कैसे उनके देश ने दूसरे देश पर प्रभाव ड़ाला या उनकी भाषा ने अन्य भाषा के साहित्य को प्रभावित किया,इस तरह वे अपने देश के सांस्कृतिक बही-खाते को बढ़ाने का काम करते हैं। इसके जरिए वे यह सिद्ध करना चाहते हैं कि उनके देश ने दूसरे देशों पर यथासंभव प्रभाव ड़ाला। वे बारीकी से यह सिद्ध करना चाहते हैं कि उनके देश ने किसी विदेशी साहित्यकार को किसी अन्य देश की तुलना में अधिक आत्मसात किया और समझा है। हिन्दी में यह बीमारी सहज ही छायावादी कवियों के साथ रवीन्द्ननाथ टैगौर के साथ तुलना के संदर्भ में देख सकते हैं।
      तुलनात्मक साहित्य और सामान्य साहित्य के बीच विभाजन करने की पद्धति से हमें बचना चाहिए। यह विभाजन बनावटी है। आज तुलनात्मक साहित्य एक स्वतंत्र अनुशासन है। इसका लक्ष्य है राष्ट्रीय सीमाओं के परे जाकर साहित्य का अध्ययन करना।
     सच्चा साहित्यिक आलोचक वह है साहित्य को मृत तथ्यों का जखीरा होने से बचाता है। मृत तथ्यों की स्थापना करना पाण्डित्य नहीं है। आलोचक वह है जो साहित्य के मूल्यों और गुणों का उद्घाटन करता है।
     साहित्यिक इतिहास और आलोचना में कोई अंतर नहीं है। साहित्यिक इतिहास की सरलतम समस्या को बताने के लिए मूल्यांकन आवश्यक है। किसी लेखक ने किसी अन्य लेखक को प्रभावित किया इसके लिए लेखक की विशिष्टताओं का ज्ञान आवश्यक है। इसलिए उनकी परंपराओं के संदर्भ का ज्ञान और निरंतर तोलने,तुलना करने,विश्लेषण करने और अलगाने की क्रिया आवश्यक है। यह सारा कार्य-व्यापार आलोचनात्मक है।
      आलोचना के बिना इतिहास नहीं लिखा जा सकता। इतिहास लिखते समय चयन, चरित्र- चित्रण और मूल्यांकन की जरूरत पड़ती है। इन तीनों तत्वों के बिना कोई भी इतिहास नहीं लिखा जा सकता। जो साहित्यिक इतिहासकार आलोचना की महत्ता को अस्वीकार करते हैं उन्हें अचेत आलोचक कहना समीचीन होगा।
     तुलनात्मक साहित्य ने इतिहास और आलोचना को अस्वीकार किया है। अपने को तथ्यात्मक संबंधों, स्रोतों,प्रभावों,मध्यस्थों और ख्यातियों तक सीमित रखा है। हमें इस तरह के नजरिए से बचना चाहिए।
    साहित्य में विधाओं का एक-दूसरे से बैर नहीं है। हमें एक-दूसरे को अपदस्थ करने की कोशिशों से बचना चाहिए। बहुत सारे काम हैं जो इतिहास करता है, अनेक ऐसे काम हैं जो इतिहास से संभव नहीं हैं उन्हें आलोचना करती है, आलोचना और इतिहास से जो काम नहीं हो पाते उन्हें तुलनात्मक साहित्य के जरिए किया जा सकता है।
    अभिव्यक्ति और मूल्यांकन के अभावों की पूर्ति नयी विधाएं और संचार रूप करते हैं। एक रूप जब जन्म ले लेता है तो वह जाता नहीं है। अभी तक इतिहासकार और आलोचक की दिलचस्पी जिन बातों में थी,तुलनात्मक साहित्य उसके परे जाता है। इतिहासकार की दिलचस्पी इतिहास और साहित्य की सामाजिकता में थी। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने यह कार्य बेहतर ढ़ंग से किया। आलोचना की दिलचस्पी मूल्य की खोज में रही है। इन दोनों से भिन्न तुलनात्मक साहित्य की दिलचस्पी सामान्य सांस्कृतिक इतिहास में होती है। इसे वह समस्त मानवता के इतिहास के रूप में पेश करता है।
           
     
    
            

     

शुक्रवार, 30 जुलाई 2010

नेट के कल्पनाजगत में बदलते हम

           नेट का वर्चुअल जगत यूटोपिया के लिए आदर्श जगत है। यूटोपिया में जीने वालों के लिए इससे सुंदर जगह कहीं नहीं है। इसीलिए कुछ लोग इसे न्यूटोपिया भी कहते हैं। साइबरस्पेस हमारे पाठ की प्रकृति को बदल रहा है। इलैक्ट्रोनिक टेक्स्ट हमें गैर-टेक्स्ट के युग में ले जा रहा है। इसका अर्थ यह है कि अब हमें लिखने के लिए कागज की जरूरत नहीं होगी।अब लेखन पूरी तरह इलैक्ट्रोनिक अनुभव होकर रह जाएगा। साइबरस्पेस में मुद्रित सामग्री की आवश्यकता नहीं होगी। साइबर स्पेस स्वायत्त व्यक्ति का संसार बनकर रह जाएगा। इसका अर्थ है स्वयं की ईमानदारी ही सामाजिक प्रतिष्ठा का एकमात्र निर्धारक तत्व बन जाएगी। मुद्रित शब्द की सत्ता के लोप के बाद और ईमेल के विकेन्द्रीकृत रूप के आने के बाद लेखक और पाठक के नए संबंधों की शुरूआत हुई है। एक जमाना था मुद्रित सामग्री का मालिक संपादक हुआ करता था,यह सिलसिला अभी भी जारी है किन्तु भविष्य में ऐसा नहीं होगा। अब मुद्रित शब्द का मालिक लेखक ही होगा। वही उसका नियन्ता होगा।अब किसी भी बड़े लेखक के साथ कोई भी गुमनाम लेखक / लेखिका यूजनेट के खुले मंच पर अपनी रचना प्रकाशित कर सकता है। इसके कारण उसकी सामाजिक हैसियत भी बदल सकती है। लेखकों में छोटे-बड़े का भेदभाव ,महान् लेखक का बोध,रचना के चौकीदार के रूप में संपादक की भूमिका आदि में भी परिवर्तन गया है। लेखकों के बीच में नए किस्म का सामुदायिक भावबोध पैदा हो रहा है। यही स्थिति स्त्रीवाद की भी है। आज स्त्रीवाद के बारे में जितनी जानकारियां नेट पर उपलब्ध हैं उतनी जानकारियां पहले कभी नहीं थीं।महिला आन्दोलन और स्त्री के उत्पीडन का जितने व्यापक स्तर पर नेट ने उद्धाटन किया है वैसा पहले कभी नहीं हुआ। आज महिला आन्दोलन और स्त्री विमर्श सारी दुनिया के साथ संवाद और विमर्श कर रहा है। दूसरी ओर स्त्री विरोधी ताकतों के हमले भी तेज हुए हैं। पितृसत्ता के खिलाफ हमला करने वालों के खिलाफ एक तरह का जेहाद छेड़ दिया गया है।
लड़कियों के साथ खासकर कॉलेज / विश्वविद्यालय मे पढ़ने वाली लड़कियों के साथ उनके सहपाठियों के द्वारा की गई छेड़खानी अथवा गंदे चुटकुले सुनाने की प्रवृत्ति का भी मीडिया में अध्ययन किया गया है। इस संदर्भ में सबसे महत्वपूर्ण है परिभाषा। लड़की के साथ छेडखानी किसे कहा जाए ? यह छेड़खानी ऐसे सहपाठियों के द्वारा होती है जो साथ ही पढ़ते हैं। इन्हें प्रत्यक्षत: कोई विशेष अधिकार हासिल नहीं हैं। ये अपने साथ पढ़ने वाली लड़की को गंदे-गंदे चुटकुले ,कामुक आक्रामक टिप्पणियां या फब्तियां ,आवाजकशी , चिढ़ाना, कामुक ढ़ंग से निहारना,गंदे हावभाव का प्रदर्शन करना,अवांछित स्पर्श और चुम्बन के जरिए परेशान करते हैं,उत्पीडित करते हैं।
         मीडिया पंडितों में पोर्न के प्रभाव को गंभीर बहस चल रही है। पोर्न का दर्शकों के एटीटयूट्स और व्यवहार पर किस तरह का प्रभाव होता है ? सामान्य तौर पर यह माना जाता है कि मीडिया में प्रसारित पोर्न सामग्री दर्शक के अन्दर कामुक झगड़ा और बलात्कार को जन्म देती है। हिंसक कामुकता का प्रदर्शन हिंसक प्रभाव पैदा करता है। प्रत्यक्ष नग्न सामग्री का आस्वाद औरतों के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण पैदा करता है।ऐसी सामग्री के दर्शकों में औरतों के प्रति हिंसाभाव ज्यादा पाया जाता है। हिंसक पोर्न के दर्शकों पर किए एक बड़े अनुसंधान से यह तथ्य सामने आया कि दर्शक यह मानते थे कि कामुक औरत के प्रति जो हिंसा दर्शायी गयी ,वह सही थी, क्योंकि वह औरत इसी के लायक थी। हिंसक वीडियो,फिल्म आदि के दर्शकों पर किए गए अनुसंधान बताते हैं कि इनका दर्शकों में हिंसाबोध पैदा करने में महत्वपूर्ण अवदान रहा है। कुछ ऐसे भी अनुसंधान हुए हैं जो यह मानते हैं प्रत्यक्ष कामुकता वाली मीडिया सामग्री का दर्शकों पर नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ता।
       

विशिष्ट पोस्ट

मेरा बचपन- माँ के दुख और हम

         माँ के सुख से ज्यादा मूल्यवान हैं माँ के दुख।मैंने अपनी आँखों से उन दुखों को देखा है,दुखों में उसे तिल-तिलकर गलते हुए देखा है।वे क...