सर्वविदित है कि सहनशीलता एक अत्यंत महत्वपूर्ण मानवोचित गुण है। इसका अर्थ है कि हर व्यक्ति को अन्य लोगों के साथ विचार-विभिन्नता के बावजूद सहिष्णु होना चाहिए। अगर हम मानते हैं कि उनके दृष्टिकोणों और विचारों में खामियां हैं तो शालीनता के साथ बतलाएं और बदलाव लाने का विनम्र आग्रह करें। यहां जोर-जबरदस्ती के लिए कोई जगह नहीं हो सकती। धौंस दिखाकर लाया गया बदलाव टिकाऊ नहीं होता और न ही हम दूसरों का हृदय जीत सकते हैं।
यदि शास्त्रार्थ द्वारा हम अपने प्रतिपक्षी को अपने विचारों का कायल बनाने में असमर्थ हैं तो इस बात के लिए तैयार हों कि हम अपने-अपने विचारों पर कायम रहें मगर भविष्य में शास्त्रार्थ का द्वार खुला रखें।
असहनशीलता प्राय: सबसे अधिक धार्मिक मामलों में देखी जाती है क्योंकि वहां तर्क और खुलापन का अभाव होता है। प्रचलित विचारों और मान्यताओं को ईश्वर प्रदत्त कहकर तार्किक कसौटी से परे रखा जाता है। बर्ट्रेड रसेल ने अपनी पुस्तक 'व्हाई आई एम नॉट ए क्रिश्चियन?' में बतलाया है कि हर धर्मावलंबी ईश्वर की सत्ता को स्वीकारने के साथ ही यह मानता है कि उसका धर्म अन्य से श्रेष्ठतर है तभी तो वह अपना धर्म नहीं छोडता और दूसरों को धर्मांतरण करा अपनी जमात में लाना चाहता है।
कमोबेश यही बात गीता में मिलती है जहां श्रीकृष्ण अर्जुन को बतलाते हैं: 'श्रेयान सर्वधर्मो विगुण: परधर्मा त्स्वनुष्ठितात्। सर्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह:॥' अपना धर्म बेहतर है और उसी में जीना-मरना चाहिए क्योंकि दूसरों का धर्म भयावह होता है। इस मान्यता से धर्मों के बीच टकराव की संभावना पैदा होती है।
अगर ईश्वर में विश्वास और उसे जगत्-नियंता मानकर चलें तो तर्कशास्त्र, विज्ञान और डार्विन का क्रमिक विकास का सिध्दांत कूडेदान में चले जाएंगे। अगर कोई इस धार्मिक रुढिवादिता को नकारता है तो धर्मांध लोगों के गुस्से का शिकार बनता है क्योंकि उनके लिए तथाकथित आस्था सर्वोपरि है।
इसी प्रकार यदि आप सामाजिक भेदभाव को चुनौती देते हैं तो आप पर ईश्वर और धर्मविरोधी होने का इल्जाम लग सकता है क्योंकि आप इस मान्यता को नकारते हैं कि वर्ण-व्यवस्था ईश्वर-सृजित है और इसे गीता में रेखांकित किया गया है। श्री कृष्ण कहते हैं : 'चातुरर््वण्यं मया सृज्या गुण कर्म विभागश:। तस्य कतरिमपि मां विध्दयकर्तारम व्ययम्॥'
तथाकथित धर्मनिष्ठ यह मानकर चलते हैं
कि गीता सहित अन्य धर्मग्रंथों में व्यक्त
विचार शाश्वत सत्य हैं और वे
कालनिरपेक्ष हैं। उनको चुनौती देने वाला ईश्वरद्रोही होने के कारण दंड का अधिकारी है। यहां प्रश्न उठता है कि क्या तर्कबुध्दि निरर्थक है। कहना न होगा कि यह मान्यता गलत है कि धर्मग्रंथ कालनिरपेक्ष हैं और उनमें वयक्त विचार हर समय समाज की परिस्थितियों को नजरअंदाज कर लागू किए जाने चाहिए। यह मान्यता सही नहीं है। उदाहरण के लिए गीता को लें। उसकी रचना एक युग विशेष में हुई थी जब उत्पादकता का स्तर बहुत निम्न था। अधिशेष उत्पादन नाम मात्र का था जिस कारण युध्दबंदी की अवधारणा नहीं थी तभी तो श्रीकृष्ण गीता के दूसरे अध्याय के श्लोक 37 में अर्जुन से कहते हैं कि यदि तुम जीत गए तो राज्य पाओगे और युध्द में मर गए तो स्वर्ग जाओगे। इस प्रकार लडाई घाटे का सौदा नही है। अगर हम बांग्लादेश की मुक्ति की लडाई को देखें तो पाएंगे कि पाकिस्तानी जनरल नियाजी उसमें न जीते, न मरे बल्कि युध्दबंदी होकर झारखंड के जंगलों में रहने को मजबूर हुए। गीता का काल होता तो उन्हें पकडे ज़ाने पर मार दिया जाता क्योंकि तब पर्याप्त अधिशेष उत्पादन के अभाव में युध्दबंदियों को खिलाना-पिलाना कठिन था और उत्पादन की प्रौद्योगिकी इतनी विकसित न थी कि उनसे गुलाम बतौर काम लिया जाता।
उपर्युक्त बातों को देखते हुए अगर कोई गीता की चिरंतता पर प्रश्न उठाता है तो उसे आस्था के ठेकेदारों का शिकार बनना होगा। क्या एक विवेकशील व्यक्ति को चुप रहना चाहिए? अगर नहीं तो उसे तय करना होगा कि वह सत्य और छद्म सत्य के बीच किसका साथ दे।
छद्म सत्य की बिना पर सांप्रदायिकता का जहर फैलाया जाता है, दंगे कराए जाते हैं, मंदिर-मस्जिद और गिरजाघर ढहाए जाते हैं। अगडी-पिछडी ज़ातियों और सवर्णों एवं दलितों को परस्पर लडाया जाता है।
इस संदर्भ में विवेक का क्या तकाजा है? चुपचाप सहिष्णुता दिखाएं या प्रतिरोध करें? वर्षों पहले अयोध्या में बाबरी मस्जिद का विध्वंस हुआ क्योंकि एक गुट के लोगों ने वोट बटोरने के लिए आस्था की दुहाई देते हुए कहा कि राम का जन्म वहीं हुआ था जहां बाबरी मस्जिद खडी थी। किसी ने भी तथ्यों और प्रमाणों की फिक्र नहीं की। यह नहीं जांचा कि क्या राम पौराणिक पुरुष नहीं बल्कि वास्तविक व्यक्ति थे। अगर राम सचमुच हुए थे तो क्या वर्तमान अयोध्या उनकी जन्मस्थली थी जबकि कपितय विद्वान मानते हैं कि पौराणिक अयोध्या अफगानिस्तान में थी वहां की हरयू नदी ही सरयू थी। हमारी बहुत सारी पौराणिक गाथाएं यूनानी गाथाओं से मिलती हैं जिससे कई प्रश्न पैदा होते हैं।
कुछ लोगों का मानना है कि आर्य हमारी पवित्र भारत भूमि की पैदावार हैं जबकि ताजातरीन वैज्ञानिक शोध इसे नहीं मानता। नयन चंदा की पुस्तक 'बाउंड टूगेदर' में इसी के हवाले से मनुष्य की उत्पति अफ्रीका में बतलाई गई है जहां से लाखों वर्षों के क्रम में उसकी संतति झुंडों में जीविका की खोज में सारे विश्व में फैली। इस तरह मानव-मानव में फर्क करना गलत है और अवमानव की अवधारणा मिथ्या। हिटलर ने यहुदियों को अवमानव माना था जैसे हमारे संप्रदायवादी इतर धर्मावलंबियों को अवमानव मानकर प्रताडित करने में कोई संकोच नहीं दिखलाते।
इस स्थिति में कोई विवेकशील व्यक्ति प्रतिरोध करे या मूक बनकर रहे? जहां तक धर्मांधों का प्रश्न है वे सहनशीलता नहीं दिखाते। गुजरात की घटनाएं हों या कंधमाल की या फिर पादरी ग्राहम स्टेंस को बच्चों सहित जलाने की, संकेत इसी ओर है। मध्यकाल में रोमन कैथोलिक चर्च ने गैलीलियो, कोपरनिकस आदि अनेक वैज्ञानिकों को इसलिए सताया कि जिन धारणाओं को वह सत्य कहकर प्रचारित कर रहा था उन्हें उन्होंने गलत बतलाया। हमारे यहां इसका उदाहरण याज्ञवलक्य-गार्गी संवाद के क्रम में मिलता है। जब ऋषि शास्त्रार्थ के क्रम में गार्गी के प्रश्नों के उत्तर देने में लाचार हो गए तब उन्होंने उसे यह कहकर चुप करा दिया कि अगर वह प्रश्नों का क्रम जारी रखेगी तो उसका सिर धड से अलग होकर जमीन पर गिर जाएगा।
एक बडे चिंतक ला रोशे फुको के शब्दों में कहें तो : 'सत्य से दुनिया का उतना भला नहीं होता जितना छद्म सत्य से उसका नुकसान होता है।' अत: छद्म सत्य या झूठे सच के प्रति कोई सहिष्णुता नहीं दिखाते हुए उसका डटकर मुकाबला करना चाहिए। हो सकता है कि इस प्रतिरोध के क्रम में उत्पीडन और यंत्रणा का शिकार होना पडे। रास्ता कठिन मगर विकल्पहीन है।
वर्ष 1994 में छपी लिज नोवेल की पुस्तक 'इंटोलेरेंस : ए जनरल सर्वे' में रेखांकित किया गया है कि सोलहवीं सदी से ही जब मानवतावादियों ने विचार और कर्म की स्वतंत्रता को बढावा देना शुरू किया जिससे वे अपनी धार्मिक सहिष्णुता की भावना की रक्षा कर सकें, असहिष्णुता को मूलत: किसी मत या आचरण की अनुचित भर्त्सना के रूप में परिभाषित किया गया है। पुस्तक में स्पष्ट किया गया है कि उत्पीडित लोगों की वर्तमान अवस्था में कोई भी परिवर्तन नहीं आने देने के उद्देश्य से उत्पीडक़ की हर कोशिश उसकी याददास्त को धुंधला बनाने की होती है। उसको इतना निर्जीव बनाया जाता है कि वह अपनी पहचान और अपनी जडों को भूल जाए। उत्पीडित को इतिहास से निर्वासित कर दिया जाता है। ऐसी स्थिति में अगर वह सहिष्णु बन सब कुछ झेलता जाए तो उसकी स्थिति में कोई सुधार नहीं हो सकता। प्रसिध्द राजनीतिक शास्त्री हरबर्ट मार्क्यूस ने एक लेख में यह निष्कर्ष प्रस्तुत किया है कि सहिष्णुता के उद्देश्य को पाने के लिए अधिकतर प्रचलित नीतियों, रूझानों, दृष्टिकोणों और विचारों तथा कार्य-व्यापारों के प्रति असहनशीलता दिखानी होगी। इसी तरह सहनशीलता और असहनशीलता साथ-साथ चलती है। जो सब तर्कशास्त्र के नियमों और विवेकबुध्दि की कसौटी पर खरा नहीं उतरता उसको नकारना चाहिए और उसके प्रति सहिष्णुता नहीं दिखाई जा सकती। मगर उसकी अभिव्यक्ति तर्कों द्वारा ही होनी चाहिए, हिंसा के रास्ते से नहीं। निरंतर प्रयास से लोगों को तर्क संगत विचारों का कायल निश्चित रूप से बनाया जा सकता है।
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