भारत के हिन्दी टीवी समाचार चैनलों ने जो रास्ता पकड़ा है वह इस बात का संकेत है कि टीवी चैनलों में समाचार और संपादन के मानकों की विदाई हो गयी है। संपादन और समाचार प्रस्तुति के नाम पर बेईमानी हो रही है। ऐसी अनैतिक संपादनकला का प्रदर्शन हो रहा है जिसे देखकर किसी की भी आंखें शर्म से झुक जाएं। मसलन् आजतक टीवी चैनल को ही लें, उसने तो टीवी संपादनकला के नए मानक ही गढ़ लिए हैं।
यह चैनल कहीं से किसी भी स्रोत से खबर ले लेता है और अपने ब्यूरो के नाम से प्रसारित कर देता है। यह खेल प्रतिदिन हो रहा है। उदाहरण के लिए ऑक्टोपस नामक समुद्री जंतु पर उसने आधा घंटे की दो दिन पहले खबर दिखाई और शेष तक नहीं बताया कि आखिर उसे यह खबर कैसे मिली ? समाचार का कायदे से स्रोत बताया जाना चाहिए। यह चैनल कहीं से भी फोटोग्राफ लेकर दिखा देता है फोटोग्राफर का नाम नहीं बताता। खबर के स्रोत,फोटोग्राफर का नाम आदि बातें ऐसी हैं जो साफ दिखती हैं। लेकिन समस्या इससे भी गंभीर है ,इस चैनल को सर्वश्रेष्ठ समाचार चैनल का कई सालों से इनाम भी मिलता रहा है। हमें इस कारपोरेट मेनीपुलेशन पर शर्म क्यों नहीं आती ? हमारे प्रबुद्ध संपादक अखबारों में इस संपादकीय पतन पर कुछ क्यों नहीं बोलते ? अब एक अन्य प्रसंग पर सोचें कि आखिरकार टीवी में समाचार का अंत क्यों हुआ ?समाचार के नाम पर क्या गुलगपाड़ा मचा हुआ है ?इसे थोड़ा बड़े परिप्रेक्ष्य में देखें।
नव्य-उदारतावाद के मौजूदा दौर में समाचार की बजाय जंक समाचार ज्यादा आ रहे हैं। ये वे समाचार हैं जो देखने में चटपटे किंतु सारहीन होते है। इनका सामाजिक मूल्य बहुत कम होता है, इस तरह के समाचारों का टीवी कवरेज से लेकर प्रिंट मीडिया तक फैल जाना इस बात का संकेत है कि मौजूदा दौर समाचार का नहीं जंक समाचार का युग है। इसके अलावा जो सारवान समाचार दिखाए जा रहे हैं उनमें खास किस्म का मनमानापन झलकता है। मसलन् हमेशा आधी-अधूरी कहानी बतायी जाती है। भ्रमित करने वाली शीर्ष पंक्तियां बनायी जाती हैं। तथ्यों में सुधार चुनिंदा ढ़ंग से किया जाता है। जिस कहानी में किसी तरह का तथ्य अपुष्ट प्रमाणों को समाचार कहानी बनाकर पेश किया जा रहा है। अंतर्राष्ट्रीय खबरों में ऐसी स्टोरियों और तथ्यों से बचा जाता है जो अमेरिकी राष्ट्रपति बुश के लिए ठीक न हों। अथवा उनके बारे में नकारात्मक प्रभाव पैदा करने वाली हों। आज समाचार के नाम सिर्फ मनोरंजन की खबर होती है,आकर्षक चेहरे की खबर होती हैं। 'चेहरा' आज टीवी खबरों में बड़ा कारक तत्व बनकर सामने आया है खासकर महिला समाचारवाचिका अथवा एंकर के रुप में सुंदर चेहरे की लड़की ज्यादा पसंद की जा रही है। स्थिति यह हो गई है कि एंकर के रुप में अमिताभ बच्चन से लेकर जॉनी लीवर तक को सहज ही देखा जा सकता है। यह आकर्षक चेहरे,सैलीब्रेटी चेहरे और सुंदरता की परेड है। इससे टीकी एंकर की परंपरा ही बदल गयी है। यही स्थिति खेलों की है। अब खेल के कार्यक्रमों में खेल संवाददाता नहीं बल्कि स्वयं खिलाडी ही अपना मूल्यांकन करते रहते हैं,खिलाड़ी खिलाडी के बारे में बताता रहता है,इससे खेल पत्रकारिता का भी चरित्र बदला है। सवाल उठता है कि जब खिलाडी ही व्याख्याकार हो जाएगा,जब फिल्म के बारे में निर्देशक और अभिनेता ही मूल्यांकन करने लगेंगे तो ऐसा मूल्यांकन विश्लेषण और वस्तुगतता से रहित होगा। इस तरह की प्रस्तुतियों में आत्मगत तत्व हावी रहेगा। बल्कि यह भी कह सकते हैं कि समाचारों में सुंदरता और आत्मगत भाव की परेड हो रही है।
टीवी वाचक के चेहरे हाव-भाव ज्यादा महत्वपूर्ण हो उठे हैं। साथ समाचार का गप्प, सनसनी और निर्मित विवादों में रुपान्तरण कर दिया गया है। इस तरह की खबरें जनता की बुध्दि पर हमला हैं,उसका अपमान है,ये यथार्थ जीवन के संदर्भ की उपेक्षा करती हैं, बर्नस्टीन के शब्दों में '' अच्छी पत्रकारिता जनता को चुनौती देती है,वह उसका विवेकहीन ढ़ंग से शोषण नहीं करती।'' आज स्थिति इतनी खराब हो गयी है कि सरकारी सूत्रों से हासिल सूचनाओं और ब्यौरों को बगैर किसी तहकीकात के सीधे पेश कर दिया जाता है। इस संदर्भ में विश्व विख्यात पत्रकार वॉब बुडवर्ड के शब्दों का स्मरण करना प्रासंगिक होगा। बुडवर्ड ने लिखा है कायदे से सरकारी स्रोत से निकली खबर की संवाददाता को अपनी खोज के जरिए पुष्टि करनी चाहिए। इससे जनतंत्र का विकास होता है किंतु जब संवाददाता सिर्फ सरकारी स्रोत के आधार पर ही खबर देने लगे तो इससे सर्वसत्तावादी समाज का निर्माण होता है,इस परिप्रेक्ष्य में यदि खबरों को देखें तो पता चलेगा कि खबरें जनतंत्र का नहीं सर्वसत्ताावादी समाज का निर्माण कर रही हैं। वाटरगेट कांड से लेकर इराक युध्द तक वुडवर्ड ने बड़े पैमाने पर रहस्योद्धाटन किए हैं। वुडवर्ड कहता है हमें उस केन्द्रीय कारक की तलाश करनी चाहिए जिसके कारण सरकार उस तरह की सूचनाएं दे रही है। जनतंत्र में प्रेस दूसरा स्रोत मुहैयया कराता है। उसके आधार पर नागरिक तय कर सकते हैं कि क्या सही है। कौन सी स्टोरी सही है। बॉव वुडवर्ड को इस दौर का सबसे बेहतरीन संवादाता माना जाता है।
आज हमारे शहरी लोग टीवी चैनलों से खबरें प्राप्त करते हैं,ये वे चैनल हैं जिन पर बड़े इजारेदार घरानों का कब्जा है,इनमें से ज्यादातर कंजरवेटिव विचारधारा का अहर्निश प्रचार करते रहते हैं। ये समाचार चैनल अंधानुकरण में अमेरिकी समाचार चैनलों के रास्ते पर चल निकले हैं। इसके कारण खबर का अर्थ अब मनोरंजन हो गया है। इसे पत्रकारिता जगत की पेशेवर कुश्ती भी कह सकते हैं। प्रथम मध्य-पूर्व युध्द के पहले तक टीवी खबरों के जरिए ज्यादा धन की आमदनी नहीं होती थी। किंतु प्रथम मध्य-पूर्व युध्द ने यह साबित किया कि टीवी खबरों में बड़ा धन है। यही वह दौर है जिसमें टीवी खबरों की रेटिंग की ओर सीएनएन जैसा चैनल मुखातिब हुआ और इसके बाद तो टीवी समाचार रेटिंग का सिलसिला ही चल निकला।
रेटिंग के इस नए दौर में देशप्रेम,विज्ञान,दर्शन से ज्यादा सेक्स,स्कैण्डल और सनसनीखेज खबरों की रेटिंग में तेजी से बढ़ोतरी हुई है। अब अमेरिकी राष्ट्रपति की देशभक्ति से ज्यादा महत्वपूर्ण था राष्ट्रपति का अवैध सेक्स स्कैण्डल ,वह ज्यादा लुभावना था। समाचार के पतन या रुपान्तरण का सबसे खतरनाक पक्ष यह है इसमें प्रौपेगैण्डा को खबर बना दिया गया है। प्रथम इराक युध्द से यह सिलसिला चला है और अब यह एक आम नियम बन गया है। टीवी समाचारों का विभिन्ना दल वैचारिक प्रचार अभियान के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं। आज किसी एक कवर स्टोरी को बनाना सस्ता सौदा है क्योंकि उससे अन्य स्टोरी को छिपाना है। अब एक ही टॉपिक पर पूरा कार्यक्रम आने लगा है। प्रथम मध्यपूर्व युध्द से सीएनएन ने यह सिलसिला शुरू किया और बाद में सभी चैनलों ने इसे अपना लिया है। आज सभी समाचार चैनलों में एक ही कवर स्टोरी के आधार पर आधा घंटा,एक घंटा,कभी-कभी पूरा दिन,चौबीस घंटे, साठ घंटे तक एक ही कवर स्टोरी कब्जा जमाए रहती है। इसके कारण अन्य खबरों को प्रसारित ही नहीं किया जाता। इसका अर्थ यह है कि समाचार चैनल एक से अधिक स्टोरी के लिए धन खर्च करने की स्थिति में नहीं हैं। अथवा तयशुदा ढ़ंग से अन्य स्टोरियों को छिपाते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि एक समय में एक ही टॉपिक पर खबरें रहेंगी। कभी-कभार ही एकाधिक स्टोरी रहती है। समाचारों के अलावा चुनाव के समय चुनाव सर्वेक्षण,ओपिनियन पोल आदि भी आते हैं। चुनाव के समय ये खबरों का बड़ा हिस्सा घेर लेते है। चुनाव सर्वेक्षणों में आमतौर पर बेमेल सवाल किए जाते हैं। जैसे ,स्थिर सरकार चाहिए अथवा अस्थिर प्रशासन चाहिए। इस तरह का सवाल करते हुए वे दर्शकों को ज्यादा तथ्य प्रदान नहीं करते। इसके बावजूद यह चाहते हैं कि दर्शक अपना निष्कर्ष बता दे। ओपिनियन के नाम पर दर्शकों से पूछा जाता है कि आपको कौन सा मुद्दा सही लगता है,प्रासंगिक लगता है, समस्या को लेकर आपकी भावनाएं क्या कहती हैं,किंतु नयी प्रवृत्तिा यह है कि वे भविष्य के बारे में क्या सोचते हैं ? यह भी सवाल किया जाता है कि आप फलां -फलां दल को क्यों समर्थन देते हैं, यह एकदम अप्रासंगिक सवाल है। चुनाव सर्वेक्षणों के जरिए मीडिया एब्सर्ड को तार्किक बनाता है और यह आभास देता है कि वह जो कह रहा है उसी पर विश्वास करो।
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