मंगलवार, 27 जुलाई 2010

अन्या के बिना अधूरा संसार


       दर्शन, भाषा और रूपकों के जंजाल में हम इस कदर फंस गए कि हम स्त्री और पुरूष का मूल अर्थ ही भूल गए। रूपक,भाषा और दर्शन एक हद तक ही व्याख्या करने में मदद करते हैं। किन्तु एक हद के बाद जब आप देखते हैं कि यथार्थ का वह रूप सामने आता है जो अभी तक अज्ञात था। वहीं पर यह अनुभूति पैदा होती है कि भाषा,रूपक या दर्शनशास्त्र ने हमारे साथ धोखा किया है। उनका सब कुछ ज्ञात है,सब कुछ जाना जा सकता है, यह दावा खोखला नजर आता है।
      इसी प्रसंग में इरीगरी ने लिखा हमें अन्य के साथ संवाद करना चाहिए। उसको जानने का हमारा दावा खोखला है। हम उसे कभी पूरी तरह जान नहीं पाए। इसी अर्थ में हमें अन्य को अपना सच बताने देना चाहिए। उसे बोलने दें। आमने-सामने संवाद करें। यह कार्य अहिंसक रूप में करें। इसके गर्भ से जो विचार निकलेंगे वे भी अहिंसक होंगे। हमारी मुश्किल यह है कि हम अन्य को भाषा के दायरे में बांधकर बात करना चाहते हैं। अन्य को भाषा के दायरे में बांधकर बातें नहीं की जा सकती। 
     अन्य के लिए भाषा के परे जाना होगा। भाषा के दायरे में बांधकर विचार करेंगे तो अन्य अप्रासंगिक और महत्वहीन नजर आएगा। ऐसे में आप अन्य के प्रति होने वाली हिंसा से भी नहीं बच सकते। ऐसी स्थिति में रणनीतिक सारतत्ववाद या एसेंशलिज्म से भटक सकते हैं,उसे भूल सकते हैं। गायत्री चक्रवर्ती स्पीवाक के शब्दों में रणनीतिक सारतत्ववाद में हम देखें कि '' ग्रुप कहां हैं -व्यक्ति,व्यक्तियों का समूह अथवा आन्दोलन - वे वहां अवस्थित होते हैं जब हम सारतत्व के पक्ष या विपक्ष में दावे पेश कर रहे होते हैं। रणनीति परिस्थिति के अनुकूल होती है।रणनीति ,सैद्धान्तिकी नहीं है।''
    हम जब भी दमनात्मक परिस्थितियों से पलायन करने की कोशिश करते हैं हमें स्त्री के सारतत्ववाद में उलझा दिया जाता है अथवा स्वयं ही उलझे होते हैं। इस प्रसंग में हमें यह हमेशा ध्यान रखना होगा कि स्त्री के साधन है,साध्य नहीं है। लक्ष्य नहीं है। क्योंकि उसकी रूढिबध्दता,कट्टरता सीमा की द्योतक है। इसका विलोम रणनीतिक सारतत्ववाद विरोधी नजरिए को अभिव्यक्त करता है।यह स्वयं में सैद्धांतिकी है,पद्धति नहीं है।कायदे से हमें सारतत्ववादी अथवा सारतत्वविरोधी इन दोनों दृष्टियों से हटकर सोचना चाहिए।
     लूस इरीगरी के दृष्टिकोण की विशेषता है कि उसने भारतीय तांत्रिक परंपरा के तत्वों का अपने नजरिए के विकास के लिए इस्तेमाल किया है। यह सामग्री अभी अनुदित होकर अंग्रेजी में नहीं आई है। खासकर तंत्र-साधना में शक्ति और ईश्वर के बीच जो संबंध है, योग और तांत्रिक साधना में कामुकता की जिस तरह अभिव्यक्ति हुई है,उसे अपनी सैद्धान्तिकी का आधार बनाया है। जिसके कारण इरीगरी को ओरिएण्टलिस्ट भी कहते हैं।
लूस इरीगरी मूलत: उत्तर संरचनावादी सिद्धान्तकार है। वह अपने लेखन में बार-बार शरीर और भाषा के संबंध में सवाल उठाती है।खासकर स्त्री और पुरूष के शरीर के बारे में सवाल उठाती है। स्त्रीत्व और मर्दवादी भाषा के बारे में सवाल उठाती है।
    फ्रॉयड की धारणा की रोशनी में इरीगरी ने लिखा ''स्त्री की कामुकता की धारणा पुंसवादी मानकों से तय होती रही है।'' फ्रॉयड यह मानता था कि सक्रिय कामुक व्यवहार मर्दानगी से जुड़ा है। जबकि सभी किस्म का पेसिव कामुक व्यवहार स्त्रीत्व से जुडा है। वह कामुक आनंद को गुप्तांग से जोड़ता है और गुप्तांगजनित आनंद को मर्द से जोड़ता है। यही वह बिन्दु है जहां से इरीगरी  अपने तर्क खड़े करती है और बताती है कि कामुक आनंद की अब तक की सभी व्याख्याएं मर्द के नजरिए से की गई हैं।
   फ्रॉयड ने स्त्री की कामुकता और शारीरिक आनंद के बारे में कुछ भी नहीं लिखा। फ्रायड के यहां पुरूष का लिंग सब कुछ है,स्त्री की योनि कुछ भी नहीं है। इसी क्रम में इरीगरी ने लिखा है कि स्त्री का कामुक आनंद ,उसके शारीरिक आनंद का अर्थशास्त्र एकदम भिन्न किस्म का होता है। पुरूष अपने आनंद के लिए लिंग का इस्तेमाल कता है,भाषा का इस्तेमाल करता है,जबकि स्त्री अपने आनंद के लिए अपने शरीर का सब समय स्पर्श करती है,उसी में आनंद लेती है।
    स्त्री की योनि की संरचना इस तरह की है कि वह हमेशा अपने आप कामुक आनंद देती है। योनि के दोनों होंठ जब अपने आप बंद होते हैं तो आनंद देते हैं। इरीगरी ने इसे स्वचालित कामुक आनंद की संज्ञा दी है। इसी धारणा की रोशनी में इरीगरी ने हेट्रोसेक्सुअल संभोग की आलोचना की है। इसे स्त्री के स्वचालित कामुक आनंद का विरोधी करार दिया है।
    इरीगरी का मानना है कि हेट्रोसेक्सुअल संभोग आनंद का पुंसवादी रूप है।यह स्त्री के लिए पराया है। विदेशी है। यह स्त्री के आनंद को लिंगाधारित व्यवस्था में ले जाता है। इरीगरी का मानना है कि स्त्री की इच्छाओं को मर्द के नजरिए से नहीं देखना चाहिए। बल्कि स्त्री के नजरिए से देखना चाहिए। स्त्री की इच्छाओं को स्त्री की शर्तों पर ही परखा जाना चाहिए।इसके लिए हमें भिन्न भाषा की जरूरत होगी। यह हमारी खोई हुई सभ्यता है।
      खोई हुई सभ्यता को पाने के लिए खोए हुए शब्दों को पाना होगा,खोई भाषा को पाना होगा। स्त्री की इच्छा को इरीगरी खोई हुई सभ्यता कहा है।इसी क्रम में इरीगरी कहती है कि स्त्री का आनंद स्पर्श पर टिका है।वह किसी जगह पर टिका हुआ नहीं है। स्त्री कुछ नहीं देखती क्योंकि उसके लिंग नहीं है।फ्रॉयड और लाकां के मुताबिक पहला मानवीय कामुक और शारीरिक आनंद स्पर्श से आता है। स्पर्श के बाद ही देखना हमें आनंद देता है। लाकां के शब्दों में अन्यत्व तभी आता है जब आप देखते हैं। यह ऐसी अवस्था में ही पैदा होता है जब आप स्पर्श नहीं कर पाते। स्त्री के शरीर के प्रत्येक हिस्से से कामुक आनंद मिलता है,स्त्री अपने प्रत्येक अंग से आनंद लेती है और देती है। यह स्थिति मर्द की नहीं है। स्त्री का सारा शरीर बोलता है। इसी तरह स्त्री की भाषा तरल होती है। उसमें फिसलन होती है। अनिश्चित होती है।

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