सार्वजनिक स्थानों पर लगे कम्प्यूटरों से पोर्नोग्राफी देखना अपराध है। उसी तरह हमारे बीच में कुछ ऐसे भी लोग हैं जो पोर्न के बारे में यह तर्क देते हैं कि .यह तो महज फोटोग्राफी है। पोर्नोग्राफी महज फोटोग्राफी नहीं है। फोटोग्राफर सभ्यता को संरक्षित करता है,मनुष्य और उसके अनुभव संसार को इतिहास का अविस्मरणीय क्षण बनाता है। पोर्नोग्राफर किंतु ऐसा कुछ भी नहीं करता, बल्कि उलटे मनुष्य की असभ्यता का प्रदर्शन करके सामाजिक अपराध करता है। स्वयं तो अपराध करता ही है अन्य को भी पोर्नोग्राफी पेश करके अपराध के लिए प्रेरित करता है।
पोर्नोग्राफर और फोटोग्राफर में वही फ़र्क है जो सभ्यता और असभ्यता में फ़र्क है। पोर्नोग्राफर व्यक्ति को नष्ट करता है। उसे महज भोग की वस्तु,संवेदनाहीन वस्तु बना देता है। आंद्रिया द्रोकिन ने 'भाषा, समानता और अपकार: पोर्नोग्राफी का स्त्रीवादी कानूनी परिप्रेक्ष्य और घृणा का प्रचार'(1993) में लिखा-
‘‘पोर्नोग्राफर स्त्री की हर विशेषता का इस्तेमाल करते है, उसे कामुक रूप देते है। उसे अमानवीय बनाने का नया रास्ता ढूँढ़ लेते हैं। यह काफी व्यवस्थित तरीके से किया जाता है। जैसे पोर्नोग्राफी में काली औरतों की त्वचा को उनका जननांग मानकर उन्हें तिरस्कृत किया जाता है, कष्ट दिया जाता है। यहाँ काली त्वचा ही असामान्य यौन उत्तेजना का कारण है जो वाचिक (अपषब्दों) और लिंगीय हमले (मार-पिटाई, कोड़ा मारना,काटना, थूकना, बाँधना, दाँतों से काटना, उत्तेजना, वीर्यपतन) का शिकार होती है।’’
पोर्नोग्राफी की जो लोग हिमायत कर रहे हैं उनका कहना है कि पोर्न एक कला है। पोर्न एक कला नहीं है बल्कि पोर्न एक व्यवसाय है,सरप्लस कमाने का जरिया है। इसमें कल्पना और सृजनशीलता खोजना गलत है। पोर्नोग्राफी का मास प्रोडक्शन होता है और मास सर्कुलेशन के लिए ही उसका निर्माण किया जाता है। जिससे ज्यादा से ज्यादा धन कमाया जा सके। मुनाफा कमाना इसका प्रधान लक्ष्य है।
पोर्नोग्राफी को कला कहना सही नहीं होगा। कला के लिए स्वतःस्फूर्त्त अभिव्यक्ति और पुनर्सृजन का होना अनिवार्य शर्त्त है। पोर्नोग्राफी में ये दोनों ही तत्व गायब हैं। आंद्रिया ने लिखा है-
‘‘पोर्नोग्राफी में नारी शरीर असामान्य सेक्स के केन्द्र में होता है, जिसे विशिष्ट और ठोस रूप से अमानवीय और कामुक बनाया जाता है। यह प्रस्तुतिकरण किसी भी प्रकार की भावना व विचार से दूर होता है। यही कारण है कि पोर्नोग्राफी से जुड़े सभी विषयों के वाद-विवाद में अस्वाभाविकता मूलत: बनी रहती है। हममें से वे जो जानते हैं कि पोर्नोग्राफी महिलाओं का शोषण है, वे वास्तविक स्त्री के वास्तविक जीवन के बारे में, उनके अपमान और अवमानना के बारे में बात करते है। इस प्रसंग में दोनों प्रकार की स्त्रियाँ आती है- एक, जिनका पोर्नोग्राफी में इस्तेमाल होता है, दूसरी, जिनपर पोर्नोग्राफी का इस्तेमाल होता है। पोर्नोग्राफी के पक्षधर इसे भाषा की स्वतंत्रता मानते है। उनके अनुसार पोर्नोग्राफी उपभोक्ता के मस्तिष्क के भीतर के विचार, भाव, सोच तथा कल्पना से संबद्ध है।’’
‘‘हमें बार-बार यह कहा जाता है कि पोर्नोग्राफी वैविध्यपूर्ण कल्पना पर आधारित होती है। गौरतलब है कि नारी का मलद्वार, जननांग, मुख कोई कल्पना नहीं हैं। जैसा कि डीप थ्रोट फिल्म, स्त्री के गले में गहरे तक पुरुष लिंग का प्रवेश दिखाया गया है, में भी यह गला किसी कल्पनाशील मनुष्य का नही लगता। मैं यहाँ बिना किसी दृश्य या स्पष्ट हिंसा के पोर्नोग्राफी की बात कर रही हूँ। मैं उस क्रूरता की बात कर रही हूँ जो किसी के मानवीय अधिकारों को छीनकर उसे मनुष्य भी नही रहने देती।’’
पोर्नोग्राफी अर्थहीन नहीं होती। बल्कि उसकी प्रत्येक इमेज और प्रस्तुति के पीछे कोई न कोई अर्थ सक्रिय रहता है। पोर्न इमेजों की अपनी विचारधारा होती है। आंद्रिया द्रोकिन ने इसी संदर्भ में लिखा-
‘‘पोर्नोग्राफी में सब कुछ का कोई न कोई अर्थ होता है। उदाहरणत: काली त्वचा की स्त्री। इसी तरह गोरी त्वचा की नारी का अलग अर्थ होता है। गोरों के समाज में गोरी स्त्री को विशिष्ट माना जाता है। यदि गोरा होना विशेषाधिकार है तो पोर्नोग्राफी में ऐसी महिलाओं का बड़ी तादाद में आने का क्या अर्थ है? समाज में उच्च आसन पर बैठी श्वेत नारी जिसके पास कुछ अधिकार, अवसर एवं स्वाधीनता है, से जब पूछा जाता है कि वह क्या चाहती है? वह कहती है कि वह इस्तेमाल होना चाहती है, शोषित होना चाहती है। तब पुंसवादी समाज हमें बताता है कि यही श्वेतवर्णी स्त्री ही मानक है सौंदर्य की, स्त्रीत्व की। पर सचाई यह है कि वह आज्ञाकारिता, समर्पण और दमन की प्रतीक है। वह बचे और बने रहने के लिए वही करती है जो पुरुष चाहता है, जो उसकी श्वेत त्वचा पर स्खलित होना चाहता है। वह बिकने के लिए है। ऐसे में उसे गोरी चमड़ी का मूल्य थोड़ा अधिक मिलता है। ’’
अनेक पोर्न हिमायती हैं जो पोर्नोग्राफी को महज आनंद, मनोरंजन और कामोत्तेजना के प्रेरक तत्व की तरह देखते हैं। जबकि वस्तुतः मामला कुछ और है। पोर्नोग्राफी हिंसा है, इमेजों के जरिए की गई हिंसा है। इस हिंसा के केन्द्र में स्त्री है,पूरा समाज है,बच्चे हैं।आंद्रिया ने लिखा-
‘‘जब हम पोर्नोग्राफी की बात करते है जहाँ औरतें केवल माल है, तब हम अपमान, दमन, शोषण से जुड़ी कामुकता की बात करते हैं। मैं बलपूर्वक कहना चाहूँगी कि हम यहाँ क्रूरता से संबद्ध कामुकता की भी बात कर रहे होते हैं। यही मैं बताना चाहती हूँ कि क्रूरता भले हिंसा की तरह दृश्य न हो पर होती है। मानव रूप में आपका कोई मूल्य नहीं है, यह कहना ही क्रूरता है। आपका अस्तित्व पुरुष के लिंग के घर्षण व वीर्यपतन के लिए है यह कहना क्रूरता है। आप कामुक वस्तु हैं और यही आपका काम है-कहना क्रूरता है। मैं कहना चाहती हूँ कि किसी को अमानव बनाना क्रूरता है जिसके लिए किसी प्रत्यक्ष हिंसा की जरूरत नही होती।
दैनंदिन जीवन में औरतें पुरुषों के हिंसात्मक अत्याचार को झेलती हैं। उनको धक्का दिया जाता है, गालियाँ दी जाती है, सड़क, कार्यक्षेत्र में मार्ग अवरूद्ध किया जाता है। फिर भी वे आगे बढ़ती हैं। इससे त्रस्त पितृसत्ताक व्यवस्था वास्तविक हिंसा पर उतर जाती है। उदाहरणस्वरूप हत्या, अनजान लोगों द्वारा क्रूरतापूर्ण बलात्कार या सामूहिक बलात्कार, क्रमिक हत्याएँ। महिलाओं को छूना, धक्का देना, शारीरिक अवरोध खड़ा करना पुंस हमला ही है। लेकिन औरतों पर होने के कारण इसे गलत मानकर भी बहुत अनुचित नहीं माना जाता। यहीं पितृसत्ताक व्यवस्था का दोहरापन उजागर होता है। वास्तव में घृणित क्या है? उचित-अनुचित का मानक क्या है?’’
( इस लेख में आंद्रिया के उद्धृत अंश , उनके निबंध 'भाषा, समानता और अपकार: पोर्नोग्राफी का स्त्रीवादी कानूनी परिप्रेक्ष्य और घृणा का प्रचार'(1993) से लिए गए हैं,इस निबंध का अनुवाद विजया सिंह के सौजन्य से प्राप्त हुआ है )
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