हिन्दू साम्प्रदायिकता को हिन्दी में फासीवाद के नाम से भी पुकारा जाता है। इसका लक्ष्य है पूंजीवादी उदार लोकतंत्र की जगह हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा को लागू करना। ‘भारत’ को लोकतांत्रिक देश की बजाय ‘हिन्दू राष्ट्र’ बनाना। वे यह भी मिथ फैलाते हैं कि भारत की बहुसंख्यक आबादी हिन्दू है अतः भारत प्राकृतिक तौर पर हिन्दू राष्ट्र है। वे धर्म के आधार पर सिरों की गिनती करके राष्ट्र का बुनियादी चरित्र बदलना चाहते हैं।
मजेदार बात यह है कि भारत में किसी राजा ने हिन्दू राष्ट्र का सपना नहीं देखा था। प्राचीनकाल और मध्यकाल में जब ‘भारत’ में मुगल नहीं आए थे उस समय भी किसी ने ‘हिन्दू राष्ट्र’ की धारणा के आधार पर राज्य की प्रकृति निर्धारित करने की कोशिश नहीं की। उस समय हमारे देश को ‘भारत’ कहते थे ‘हिन्दू राष्ट्र’ नहीं कहते थे। आज भी इस देश का नाम ‘भारत’ है ‘हिन्दू भारत’ नहीं। ‘भारत’ ने कभी बहुमत और अल्पमत की बात नहीं की। ‘हिन्दू’ पदबंध को किसी भी राज्य के नाम के साथ नत्थी नहीं किया।
भारत एक बहुलतावादी राष्ट्र है। इसमें एकाधिक जातियों,धर्मों और संस्कृतियों के मानने वाले सैंकड़ों सालों से निवास कर रहे हैं। इनके बीच सांस्कृतिक ,आर्थिक और सामाजिक आदान-प्रदान की परंपरा रही है।
‘भारत’ पदबंध बहुलतावाद और एकता में अनेकता का प्रतीक है। सामुदायिक,धार्मिक और निजी स्वायत्तता और स्वतंत्रता को प्रत्येक स्तर पर इसने संरक्षित किया है। ‘भारत’ के आधार पर राज्य की धारणा नागरिकों को एकसूत्र में बांधती है। उनका भावनात्मक एकीकरण करती है। नागरिक को राज्य को नैतिकता से अलग करके देखने के लिए बाध्य करती है।
‘भारत’ में किसी एक की आत्मा निवास नहीं करती बल्कि फासीवादियों के तर्कजाल को तोड़ते हुए देखें तो पाएंगे कि ‘भारत’ की आत्मा के साथ फासीवादी जिस हिन्दू को जोड़ते हैं वैसा ‘भारत’ में कभी नहीं हुआ। ‘भारत’ की धारणा में फासीवादियों की हिन्दू आत्मा नहीं आती। किसी भी किस्म का जातीय,नैतिक,धार्मिक श्रेष्ठत्व भी नहीं आता। ‘भारत’ की धारणा बुनियादी तौर पर राष्ट्रवाद और रक्त आधारित अहं से मुक्त है। इसमें देश का बोध है। देश के प्रति प्रेम है। लेकिन देशप्रेम का मतलब किसी धर्म विशेष या जाति विशेष के लोगों से प्रेम नहीं है। बल्कि भारत में रहने वाले प्रत्येक नागरिक,प्रकृति, पशु- पक्षी,शहर-जंगल,गांव-देहात,बच्चे-बूढ़े,नर-नारी सभी के प्रति इसमें प्रेम है और इन सबके प्रति समान भाव है।
हिन्दू फासीवादी कुछ चीजों को ज्यादा पवित्र मानते हैं और कुछ को अपवित्र मानते हैं। ‘भारत’ की धारणा पवित्रता-अपवित्रता के मानदंड को नहीं मानती। मसलन् हिन्दू फासीवादियों को गऊ से बेहद प्रेम है। वास्तव में उनका गऊ प्रेम नकली है। वे गऊ की महानता को प्रदर्शित नहीं करते बल्कि गऊ के बहाने घृणा के एजेण्डे का प्रचार करते हैं।
‘भारत’ की धारणा में सभी पशु बराबर हैं और पशुओं के प्रति हम नैतिक नहीं मानवीय सरोकार व्यक्त करते रहे हैं। मानवीय सरोकारों को किसी समुदाय या व्यक्ति को नीचा दिखाने, उसके प्रति हेयभाव पैदा करने के लिए इस्तेमाल नहीं किया है। पशुओं और प्रकृति को हमने मानवीय जरूरतों और सामाजिक हितों को केन्द्र में रखकर परिभाषित किया है। उसे नैतिक-अनैतिक, पवित्र-अपवित्र,पाप-पुण्य आदि के आधार पर व्याख्यायित नहीं किया है। मानवीय जरूरतों के आधार पर पशु संपदा और प्राकृतिक संपदा को समय-समय पर परिभाषित किया गया है।
‘भारत’ वन संरक्षण और पशु संरक्षण के मामले में मनुष्य सैंकड़ों सालों से प्राकृतिक नियमों का पालन करता रहा है। अतः उसके लिए गाय सिर्फ गाय है। अन्य पशुओं की तरह ही एक पशु है। गाय या किसी भी पशु-पक्षी के प्रति क्या रूख अपनाया जाए यह मनुष्य के निजी विवेक पर छोड़ दिया गया है। मनुष्य के निजी विवेक को सामाजिक विवेक के बरक्स रखकर देखने की कोशिश ‘भारत’ नहीं करता।
हमें यह बात कभी नहीं भूलनी चाहिए ‘भारत’ का विवेक नैतिक-अनैतिक,पाप-पुण्य,म्लेच्छ और हिन्दू आदि भेदमूलक अवधारणाओं को नहीं मानता। ‘भारत’ की धारणा में इस देश में जो कुछ पैदा हुआ है वह हमारा है और हम उसके हैं। चाहे मनुष्य हों,पशु हों, पक्षी हों,पेड़ हों,देवी हों देनता हों,नदी हों,नाले हों सभी हमारे हैं और हम उनके हैं, इनमें कोई छोटा है न बड़ा है।
समानता और बहुलता,निजी और सार्वजनिक का सम्मिश्रण ही ‘भारत’ की धारणा को बनाता है। ‘भारत’ का आधार भेद नहीं अभेद है। ‘भारत’ की अवधारणा में देशी-विदेशी का भेद नहीं है। इसमें घृणा को कोई जगह नहीं है। ‘भारत’ घृणा और भेद से मुक्त होने के कारण अनेकों जातियों और धर्मों का हृदय से स्वागत करता रहा है।
इसके विपरीत ‘हिन्दू राष्ट्र’ का फासीवादी सिद्धान्त भेद और घृणा पर आधारित है। यह मनुष्यों में श्रेष्ठ और निकृष्ट का भेद करता है, जातिभेद करता है,सवर्ण -असवर्ण का भेद करता है, देशी- विदेशी का भेद करता है। पशुओं में भी भेददृष्टि लागू करता है। गऊ रक्षा के नाम पर चलने वाले तमाम आंदोलन उसकी पशु भेद दृष्टि के आदर्श उदाहरण हैं।
‘हिन्दू राष्ट्र’ और ‘भारत’ में बुनियादी अंतर ही नहीं है बल्कि इन दोनों के सामाजिक हितों में बुनियादी अंतर्विरोध है। ‘हिन्दू राष्ट्र’ के मानने वाले फासीवादियों के लिए राष्ट्र मनवाने की चीज है। इसके विपरीत ‘भारत’ में राष्ट्र को मनवाने का भाव नहीं है। ‘भारत’ के लिए देश महसूस करने की चीज है। जीने की चीज है। देश नागरिकों की प्राणवायु है। लाइफ लाइन है। इसके लिए किसी प्रचार और दबाब की जरूरत नहीं है।
‘भारत’ में डंडे के बल पर मनवाने का भाव नहीं है। इसके विपरीत ‘हिन्दू राष्ट्र’ के पक्षधर राष्ट्र की शक्ति को आम नागरिकों से मनवाना चाहते हैं वे चाहते हैं कि नागरिक ‘हिन्दू राष्ट्र’ की शक्ति मानें। उसके बताए रास्ते पर चलें। उसके बताए नैतिक नियमों का पालन करें।
राष्ट्र की शक्ति को मनवाने के लिए फासीवादी शिक्षा के डंडे का सहारा लेते हैं । उन्होंने राज्य को नैतिक शिक्षक में बदल में दिया है। ‘भारत’ के लिए राज्य नैतिक शिक्षक कभी नहीं रहा। हिन्दू की नैतिक शक्ति को उन्होंने राज्य की नैतिक शक्ति में तब्दील किया और अंत में वे सबको मजबूर कर रहे हैं कि उनकी बात मानो,उनके विचार मानो,उनकी नैतिकता मानो,उनकी राजनीति मानो और इसके लिए वे डंडे का सहारा ले रहे हैं। वे डंडे के जरिए ‘हिन्दू राष्ट्र’ की धारणा,मान्यता और मूल्यों को आम जनता पर थोपने का काम कर रहे हैं। वे डंडे के आधार पर सहमति तैयार करना चाहते हैं। ये चीजें ‘भारत’ के लिए परायी हैं। इनका ‘भारत’ की परंपरा और सभ्यता से कोई संबंध नहीं है। डंडे के बल पर सहमति की राजनीति भारत की मूल प्रकृति से मेल नहीं खाती।
इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएं