कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में इन दिनों रिफ्रेशर कोर्स चल रहा है और मुझे भी इसमें सहयोग करना करना था लेकिन किन्हीं अपरिहार्य कारणों से जा नहीं पाया हूँ। कई बार इस कार्यक्रम में भाग लेने वालों का अनुरोध भी सुन चुका हूँ। प्रतिभागी चाहते हैं कि मैं इसमें आकर जरूर बोलूं, लेकिन संभव ही नहीं हो पा रहा है।
यह रिफ्रेशर कोर्स ‘‘संस्कृत,उर्दू और हिन्दी काव्यः एक तुलनात्मक अध्ययन ’’ इस विषय पर हो रहा है। यहां मैं इस विषय से जुड़ी कुछ समस्याएं रखना चाहता हूँ।
काव्य या साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन करने ज्यों ही जाते हैं बड़ी समस्या उठ खड़ी होती है। पहली अनुभूति यह पैदा होती है कि हिन्दी की कविता अन्य विदेशी भाषा की कविता से पीछे है। आलोचना का तुलनात्मक अध्ययन करने जाते हैं तो पाते हैं कि हिन्दी की आलोचना कितनी पीछे है। यही दशा अन्य विधाओं की है।
यानी तुलना करते ही बार-बार यह एहसास पैदा होता है कि हिन्दी का साहित्य अन्य भाषाओं के साहित्य से कितना पीछे है। ऐसा नहीं है कि हम हिन्दी वालों को ही ऐसी अनुभूति होती है। अंग्रेजी के साहित्यकारों को भी ऐसी ही अनुभूति होती है कि फ्रेंच या जर्मन साहित्य से उनका साहित्य कितना पीछे है।
मैथ्यू अर्नाल्ड पहले लेखक हैं जिन्होंने पहलीबार एकपत्र में 1848 में ‘तुलनात्मक साहित्य’ पर सुसंगत ढ़ंग से विचार किया था। सन् 1886 में पहलीबार एच.एम.पॉसनेट ने ,जो अंग्रेजी के प्रोफेसर थे, उन्होंने पहलीबार अपनी किताब का नाम इसी पदबंध से ऱखा था।
मैं निजीतौर पर महसूस करता हूँ कि ‘तुलनात्मक साहित्य’ की बजाय ‘ साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन’ कहना ज्यादा संगत होगा। ‘तुलनात्मक साहित्य’ मूलतः खोखला पदबंध है। इस प्रसंग में कॉरनेल विश्वविद्यालय के प्रोफेसर लोन कूपर का उल्लेख करना समीचीन होगा। कूपर ने लिखा तुलनात्मक साहित्य खोखला शब्द है। इससे सही अर्थ की अभिव्यक्ति नहीं होती। मुझे अनुमति दो तो मैं ‘तुलनात्मक आलूओं’ और ‘तुलनात्मक भुसी’ कहना ज्यादा पसंद करूँगा।
जैसाकि आप लोग जानते हैं कि ‘तुलनात्मक साहित्य’ पदबंध में ‘तुलनात्मक’ और ‘साहित्य’ दो पदबंध हैं। दिक्कत यह है कि साहित्य की परिभाषा में तेजी से परिवर्तन आया है जबकि ‘तुलनात्मक’ के उपकरण नहीं बदले हैं या उनमें कम बदलाव आया है। मसलन् साहित्य को अंग्रेजी में सीखना,साहित्य संस्कृति,साहित्यिक उत्पादन,लेखन का ढ़ांचा,लेखन आदि के नाम से विश्लेषित किया जा रहा है। इसी तरह सभी किस्म के ‘साहित्य उत्पादन’ को ‘साहित्य’ माना जाता है। 18वीं शताब्दी में साहित्य ‘राष्ट्रीय’ और ‘स्थानीय’ के साथ नत्थी होकर आया था। आज इस अर्थ की प्रासंगिकता कम हो गयी है। हमें इस संदर्भ को व्यापक फलक पर खोलकर विचार करना चाहिए।
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि ‘तुलनात्मक साहित्य’ पदबंध ‘सार्वभौम साहित्य’, ‘साहित्य’, ‘आम साहित्य’, ‘विश्व साहित्य’ से प्रतिस्पर्धा करते हुए आया है। वेन तिघेम के अनुसार तुलनात्मक साहित्य का लक्ष्य है विभिन्न साहित्यों का एक-दूसरे के संबंध के साथ अध्ययन करना। कुछ विचारक तुलनात्मक साहित्य को अंतर्राष्ट्रीय साहत्य संबंधों के इतिहास के संदर्भ में विश्लेषित करते हैं। इस क्रम में वे तथ्य,संपर्क और आध्यात्मिक संबंधों का अध्ययन करते हैं। इस क्रम में हमें यह भी ध्यान रखना होगा किकि लेखक की जिंदगी और आकांक्षाएं अनेक साहित्यों से जुड़ी होती हैं। एक मुश्किल यह है कि ‘तुलनात्मक साहित्य’ और ‘जनरल साहित्य’ में विभाजक रेखा खींचना मुश्किल है।
आज के लिए इतना ही पाठ काफी है।
इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएं