मंगलवार, 13 जुलाई 2010

भूमंडलीकरण में उत्पीडन का आनंद

     ग्लोबलाईजेशन के दौर में हम जिन छवियों को पसंद करते हैं और आनंद लेते हैं,ये वे छवियां जिन्हें उत्पीड़न की छवियां हैं।  दर्द के आनंद के बारे में मारक्विज दे सादी का यह कथन ध्यान रहे कि दर्द का शेंसेसन ज्यादा गंभीर और सक्रिय करने वाला होता है। इसके असर के बारे में कोई भूल नहीं हो सकती, हमें उन वस्तुओं पर हिंसाचार जरुर करते हैं जिन्हें हमारी पाने की इच्छा होती है ,जब वे समर्पण कर देते हैं तो उस समय आनंद चरम पर होता है। न्व्य-उदारतावाद ऐसे सौंदर्यबोध को ज्यादा परोसता है जो थकाने वाला और ऊबाऊ होता है।साम्प्रदायिक,नस्लवादी,युध्दीय हिंसा की छवियों के साथ व्यक्तिगत उत्पीडन की छवियां भी भरपूर मनोरंजन देने लगी हैं। हमारे चैनलों की रेटिंग इस अवसर पर सबसे ज्यादा होता है। इसी तरह नए मीडिया की सामग्री थकाने और उबाने वाली साबित हो रही है। असल में मनोरंजन के नाम जो हमारे सामने परोसा जा रहा है वह ऐसे समाज और दर्शकों को तैयार कर रहा है जो थके लोगों का समाज है। नस्लवादी आनंद में हमें यूरोपीय नस्लवाद ज्यादा आनंद देता है हम उसे चैनलों पर ज्यादा समय देखते हैं। शिल्पाशेट्टी के सा बिग ब्रदर रियलिटी शो में जो हुआ वह सारी दुनिया में आनंद के चरम मानकों में गिना जाएगा।इसी तरह हम जब नस्लीय संभोग या प्रेम को ऐसी अवस्था में देखते हैं जब विवाह टूट जाए ओर वैवाहिक संभोग से उसकी तुलना की जाए तो ज्यादा आनंद देता है,अंग्रेजी चैनलों से लेकर पोर्न वेबसाइटों तक ऐसे आनंदजीवी लोगों का तांता लगा हुआ है।
    चैनलों में यूरोपीय मर्दानगी जो अहर्निश प्रदर्शन और मनोरंजन चल रहा है यह असल में यूरोपीय सेक्स की मार्केटिंग भी है। यूरोपियन कामुक गतिविधियों का अहर्निश प्रसारण मूलत: उत्तार-औपनिवेशिक सृजन और विमर्श का हिस्सा है।यूरोपीय कामुकता सिर्फ नस्लवाद को ही नहीं परोस रही है साथ ही यूरोपीय सपनों और भविष्य को भी पेश किया जा रहा है। आमतौर अंग्रेजी चैनलों से लेकर केबल चैनलों और सिनेमाघरों में ऐसी फिल्में और धारावाहिक ज्यादा आ रहे हैं जो यूरोपीय पुंस श्रेष्ठत्व,लिंग श्रेष्ठत्व से भरे होते हैं। किंतु योरोपीय इतिहास बताता है कि यूरोप में पितृसत्ताा एक नॉस्टेल्जिया है और कामुकता आर्थिक अर्थ में ही सामने आती है। मीडिया में परोसे जा रहे यूरोपीय कामुक संसार देखने में कितना ही काव्यात्मक लगे किंतु इसकी भी राजनीति है,सौंदर्यबोधीय अपील है।पहले यूरोपीय लोग राजनीतिक वर्चस्व स्थापित करके रहते थे, उस जमाने में नस्लीय संभोग कठिन काम माना जाता था,किंतु आज यह कठिन काम न होकर 'फन' हो गया है। आज इस 'फन' को सुंदरता के नाम पर नस्ल और सेक्स ने अपने कब्जे में ले लिया है। आज नस्ल और सेक्स का उपभोग सुंदरता के लिए किया जा रहा है। सेक्स जब नस्लीय रुप में आता है तो उसके अन्य किसी चीज की जरुरत नहीं होती,यह बड़े पैमाने पर औपनिवेशिक पावर को समो देता है। यह हमारे बीच में कामुक संबंधों को लेकर वैषम्यपूर्ण,आपराधिक अथवा बेमेल और अवैध संबंधों को  पेश करता है,इसमें जहां सौंदर्य की शर्तों हावी रहती हैं, साथ ही भेदभाव,अभिरुचि, खासकर पूंजीवादी अभिरुचियां हावी रहती हैं। यूरोपीय कामुकबोध के लिए नस्ल,रंग,धर्म आदि महत्वपूर्ण नहीं है यदि कोई चीज महत्वपूर्ण है तो वह है 'प्लेजर' यानी आनंद।मसलन् सेक्स किसी से भी किया जा सकता है शर्त यही है कि आनंद मिले।यही संदेश बार-बार चैनलों से विभिन्ना कार्यक्रमों के जरिए सम्प्रेषित किया जा रहा है।
विभिन्न संगीत चैनलों और विभिन्न किस्म के डीजे केटेगरी के गायक और जगह-जगह खुल रहे नृत्यघरों में इन दिनों जो तेज संगीत बजता रहता है ,वह मूलत: टेक्नो संगीत है,इसकी धुनें पॉपसंगीत की हुआ करती हैं किंतु इसमें किसी भाषा विशेष को खोजना संभव नहीं है। संगीत का यह नया रुप 'टेक्नो ट्रांसनेशनलिज्म' का हिस्सा है। इसकी अपनी कोई भाषा नहीं है, बल्कि इसमें किसी भी भाषा का गीत जब भी गाया जाता है तो वहां गीत का कम संगीत का ज्यादा जोर रहता है।टेक्नो संगीत के आधार पर गली-मुहल्लों,नाचघरों और संगीत चैनलों पर यह संगीत ग्लोबल माल की तरह आस्वाद का हिस्सा बन गया है। यह ऐसा संगीत है जिसके सामने राष्ट्र-राज्य की सीमाएं बौनी हैं,टेक्नो-संगीत और टेक्नो नृत्य ने एक नया संसार रचा है।यह संसार संगीत और समाज के अनालोचनात्मक परिवेश के गर्भ से पैदा हुआ है,यह ऐसा संसार है जिसमें व्यक्ति और समूह दोनों ही नव्य-उदारतावाद के दबाव में हैं। इस तरह के संगीत में खास किस्म का बागी भाव भी है। यह आनंद,अवसाद और सहिष्णुता की एक ही साथ अभिव्यक्ति है।
     

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