सोमवार, 30 अगस्त 2010

मीडिया अठखेलियों के आर-पार

     वर्चुअल मीडिया प्रस्तुतियां तकनीकी कौशल की देन हैं। इनमें बेचैनी, प्रेरणा और परिवर्तन की क्षमता नहीं होती। ये महज प्रस्तुतियां हैं। जितना जल्दी संप्रेषित होती हैं उतनी ही जल्दी गायब हो जाती हैं। प्रस्तुतियां आनंद देती हैं,मनोरंजन करती हैं और खाली समय भरती हैं। इनके जरिए राजनीतिक यथार्थ देखना समझ में नहीं आता। राजनीतिक यथार्थ तो टीवी प्रस्तुतियों के बाहर होता है।
      एक जमाना था सोचते थे कि वोट के क्या परिणाम होंगे। इन दिनों ऐसा नहीं सोचते। इनदिनों वोट देते समय तात्कालिकता का दबाव सबसे ज्यादा रहता है। 'वोट के सामाजिक परिणाम' की जगह अब 'हार-जीत' और 'राजनीतिक उन्माद' ने लेली है। मीडिया प्रस्तुतियों में परिणाम के पीछे निहित 'जोखिम' को छिपाया जाता है। 'जीत' को जोखिमरहित बनाकर पेश करने के कारण ही विगत चुनाव में बुश को व्यापक सफलता मिली। वर्चुअल वातावरण का नारा है 'जीत में जोखिम नहीं होता।'
        एक ही वाक्य में कहें तो 'जीत' में यथार्थ दांव पर लगा होता है। हम यथार्थ की बजाय मीडिया प्रस्तुतियों में मगन रहते हैं। यह विज्ञापनकला का प्रभाव है। मीडिया प्रस्तुतियों में अतिरंजना, छिपाना, सेंसरशिप, बड़बोलापन प्रमुखता अर्जित कर लेता है। इस प्रक्रिया में चुनाव प्रचार में जो वायदा किया जा रहा है उसकी पड़ताल नहीं करते। प्रौपेगैण्डा और सत्य में अंतर नहीं करते। 'न्यूज' और 'प्रचार' में अंतर नहीं करते। बल्कि होता यह है कि 'न्यूज' के नाम पर 'प्रचार' का आनंद लेते हैं। मीडिया में चुनाव की खबरों में यही होता है। अब 'खबर' कम और 'प्रौपेगैण्डा' ज्यादा संप्रेषित हो रहा है। प्रचार ने 'प्रामाणिक' और ' नकली' का भेद खत्म कर दिया है। उसकी जगह 'प्रामाणिक नकली' (ऑथेंटिक फेक) ने ले ली।
      उम्ब्रेतो इको के शब्दों में हम अब 'प्रामाणिक नकली' को देखते है। 'सामान्यबोध' और 'पापुलिज्म' के वैचारिक तानेबाने में बुनकर बातें रखी जाती हैं। 'सामान्यबोध' और 'पापुलिज्म' के फ्रेम में रखकर जब भी प्रचार किया जाता है तो वह अतीत को भुला देता है। इसका लक्ष्य होता है 'अतीत को भूलो ,आगे की ओर देखो।' सारे संकट के समाधान और जटिलताओं को भविष्य के हवाले कर देता है। 'सामान्यबोध' और 'पापुलिज्म' को नीति की तुलना में नया,युवा और बड़बोलापन अपील करता है। महायथार्थ का अलभ्य भविष्य से संबंध है। इसे कभी प्राप्त नहीं कर सकते। प्रभाव खत्म होते ही जहां के तहां नजर आते है।
     फैंटेसी में परिवर्तन की क्षमता नहीं होती। फैंटेसी आनंद और मनोरंजन देती है किंतु 'परिवर्तन' नहीं करती। महायथार्थ की धुरी है विवरण,ब्यौरे और सुनियोजित फैंटेसीमय प्रस्तुति । इस तरह की प्रस्तुतियां संवाद नहीं करती बल्कि इकतरफा प्रचार चलता है। दर्शक के पास ग्रहण करने के अलावा कोई चारा नहीं होता। वह इसमें हस्तक्षेप नहीं कर पाता। महायथार्थ की आंतरिक संरचना में नागरिक की आकांक्षाओं को समाहित कर लिया जाता है। आकांक्षाओं को समाहित कर लेने के कारण नागरिक को बोलने,हस्तक्षेप, प्रतिवाद और सवाल पूछने की भी जरूरत नहीं होती।नागरिक को निष्क्रिय बनाकर महायथार्थ के फ्रेम में प्रचार चलता है । चर्चा का नकली वातावरण बनता है । सामाजिक जीवन में बहस एकसिरे से गायब हो जाती है। महायथार्थ नागरिक स्वायत्तता का अस्वीकार है। इसके सामने नागरिक कठपुतली है।इस दौर में एक तथ्य साफ उभरा है कि तकनीक का जीवन पर नियंत्रण है। तकनीक जैसा चाहती है वैसा ही नागरिक सोचते हैं।
      मीडिया आमतौर पर सरकारी तंत्र भाषा ,व्याकरण में बोलता है। मीडिया कभी भी सरकारी शब्दावली और अवधारणाओं के बाहर जाकर कोई चीज पेश नहीं करता। हम जिस भाषा के अभ्यस्त हैं वह जनता की भाषा नहीं है बल्कि सरकार की भाषा है। जब सारे विमर्श सरकारी शब्दावली में चलेंगे तो यह संभव नहीं है कि इससे भिन्न भाषा में आप सोचें। जब सरकारी भाषा में सोचेंगे तो सरकारी परिप्रेक्ष्य के दायरे के बाहर जाना संभव नहीं होगा। मीडिया के द्वारा जो भी राजनीतिक विमर्श चलता है वह जनता की भाषा में नहीं होता। जनता की अवधारणाओं में नहीं होता।
      सूचना आज चंचल और छूमंतर है। स्वचालित संचार तकनीक की उपज है। सूचना पर व्यक्ति का नहीं सूचनातंत्र का नियंत्रण है। सूचना का व्यक्ति के नियंत्रण के परे चले जाना सूचना को एक ही साथ उपलब्ध और दुर्लभ कर देता है। आज किसी भी संदेश को फार्वर्ड कर सकते हैं, एक-दूसरे को ही नहीं सारे संसार को भेज सकते हैं, सूचना सर्वर का मालिक चाहे तो रोक भी सकता है। सूचना की स्वत:स्फूर्तता ने उसकी असंख्य प्रतियों में संभावना पैदा की है। इससे सूचना की प्राणशक्ति कम हुई है। प्रभावक्षमता और प्रसार बढ़ा।
      हमारे पास अधिकांश मीडिया सूचनाएं निर्मित और फेक होती हैं। ये ही छद्म यथार्थ का वातावरण बनाती है। मीडिया इमेजों के जरिए उसके वायदे के पक्ष में हवा बनायी जाती है और हवा में जो कुछ भी अनुकूलन के लिए जरूरी होता है उन तर्कों, तथ्यों, भावनाओं और संवेदनाओं का मीडिया प्रस्तुतियों के समग्र 'फ्लो' के परिप्रेक्ष्य में विकास किया जाता है। यही राजनीति के छद्म यथार्थ का स्रोत है।
        

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