फिलीस्तीन इलाकों में जहां इस्राइली सेनाओं ने अवैध कब्जा जमा लिया है वहां पर फिलीस्तीनी नागरिकों को बेदखल किया जा रहा है और अवैध बस्तियों का निर्माण किया जा रहा है। इस्राइल अधिकृत फिलीस्तीनी इलाकों में बर्बरता का कानून चल रहा है। स्थिति इतनी भयाभय है कि जो स्वयंसेवी संस्थाएं फिलीस्तीनियों के लिए मानवीय सहायता का काम कर रही हैं, उन्हें अंतर्राष्ट्रीय कानूनों की अवहेलना करके प्रवेश परमिट नहीं दिया जा रहा है। इस्राइली प्रशासन काम करने नहीं दे रहा है।
अंतर्राष्ट्रीय स्वयंसेवी संस्थाओं को 16 दिसम्बर 2009 को अचानक ईमेल के जरिए इस्राइली प्रशासन ने सूचित किया कि स्वयंसेवी संस्थाओं को इस्राइल अधिकृत फिलीस्तीन इलाकों में काम करने का परमिट नहीं दिया जाएगा।
पहली बात यह कि फिलीस्तीन इलाकों में परमिट देने का अधिकार फिलीस्तीन प्रशासन को है, यदि इस्राइल ऐसा करता है तो वह फिलीस्तीन प्रशासन को कागजी संगठन मात्र बना रहा है और यह फिलीस्तीन जनता का अपमान है।
उल्लेखनीय है फिलीस्तीन प्रशासन में इन दिनों जो लोग बैठे हैं वे जनता के द्वारा चुने गए लोग हैं। फिलीस्तीन में आम चुनाव जितने पारदर्शी और लोकतांत्रिक ढ़ंग से होते हैं वैसे चुनाव इस्राइल में भी नहीं होते। फिलीस्तीन की संसद में ईमानदार और जनसेवा के लिए कुर्बानी देने वाले लोग ही संसद के लिए चुने जाते हैं।
इसके विपरीत इस्राइल में समूचा राजनीतिक नेतृत्व भ्रष्टाचार में आकंठ डूबा हुआ है। मध्य-पूर्व के सबसे ज्यादा भ्रष्ट और बर्बर फंड़ामेंटलिस्ट इस्राइल में सत्ता पर कब्जा जमाए बैठे हैं। इनमें यहूदी फंडामेंटलिस्टों का वर्चस्व है।
फिलीस्तीन की सामयिक सच्चाई यह है कि अभी तक इस्राइल ने फिलीस्तीन की जमीन से अपने अवैध कब्जे नहीं हटाए है। अवैध रूप से बसायी गयी पुनर्वास बस्तियों को नहीं हटाया गया है । कुछ बस्तियों को कुछ समय पहले प्रतीकात्मक तौर पर खाली कराया गया था किंतु असल में सभी अवैध पुनर्वास बस्तियां ज्यों की त्यों बसी हुई हैं। संकेत मिल रहे हैं कि वेस्ट बैंक में बसायी गयी अवैध 149 बस्तियों को इजरायल नहीं हटाएगा। इसका अर्थ है कि फिलीस्तीनियों को स्थायी तौर पर विभाजन और घृणा में जीना पड़ेगा।
संयुक्त राष्ट्र संघ के मानवीय कार्यकलाप संयोजन दफतर के मुताबिक अभी वेस्ट बैंक में इस समय 651 निगरानी चौकियां हैं। इन निगरानी चौकियों के जरिए फिलीस्तीनियों की चैकिंग होती है। जबकि अवैध बस्तियों के इलाकों में मात्र आठ निगरानी चौकियां हैं।
निगरानी चौकियों के बहाने फिलीस्तीनियों को दैनन्दिन जीवन में अकथनीय तकलीफों का सामना करना पड़ता है। उनकी रोजमर्रा की जिंदगी से लेकर समूची अर्थव्यवस्था पूरी तरह तबाह हो गयी है। आश्चर्य की बात है जो फिलीस्तीनी नागरिक अपने वतन आना चाहते हैं उन्हें इस्राइल आने नहीं देता और इसके बदले में फिलीस्तीनियों की जमीन पर अवैध ढ़ंग से यहूदियों को बाहर से लाकर बसाया जा रहा है। ऐसा करके स्थायी तौर पर वह फिलीस्तीन को पूरी तरह नष्ट करके उसका अंत ही कर देने पर आमादा है।
फिलीस्तीनियों पर एक तरफ हमले हो रहे हैं दूसरी ओर उन्हें बेदखल करके उनकी जमीन हथियाकर अवैध ढंग से यहूदी बस्तियां बसायी जा रही हैं। अवैध यहूदी बस्तियां सिर्फ बस्तियां ही नहीं हैं बल्कि इन्हें फिलीस्तीनी बस्तियों से अलग काटकर बसाया जा रहा है। उनकी बस्तियों से अलग इन्हें दीवार बनाकर किले की तरह बसाया जा रहा है। यह एक तरह का स्थायी विभाजन है जिसे फिलीस्तीन की सरजमीं पर थोपा जा रहा है।
कोई सभ्यता मानवीय है या नहीं यह इस तथ्य से तय होता है कि वह हमलावर है या नहीं। भारतीय सभ्यता का दर्जा इसी अर्थ में पश्चिमी सभ्यता से काफी ऊँचा है। भारतीय सभ्यता हमलावर नहीं है। इसमें मित्रता का भाव है,इसके विपरीत पश्चिमी पूंजीवादी सभ्यता हमलावर सभ्यता है। वह युध्द के बिना जिंदा नहीं रह सकती,बर्बर आक्रमण उसकी दैनन्दिन खुराक है।
बड़े पूंजीवादी राष्ट्र अन्य कमजोर देशों पर बर्बर हमले न करें तो पश्चिमी सभ्यता की सांसें बंद हो जाएं ,कारखाने बंद हो जाएं। पश्चिमी सभ्यता के भक्तों को इस तथ्य पर विचार करना चाहिए कि पश्चिम इतना बर्बर, निष्ठुर, निरंकुश ,असहिष्णु, और आक्रामक क्यों है ?
इस्राइल की बर्बरता और युध्दवादी मानसिकता के पीछे आज समूचा पश्चिमी सत्ता तंत्र खड़ा है। इस्राइल को पश्चिमी समाज आधुनिकता का आदर्श मॉडल बताकर पेश करता रहा है,जबकि इस्राइल सबसे ज्यादा बर्बर और हिंसक देश है। इस्राइली आक्रामकता,हिंसाचार,यहूदीवादी विस्तारवाद की चैनलों से गाथाएं गायब हैं। मरने वालों के बारे में कोई विस्तृत रिपोर्ट नहीं आ रही है। यहां तक कि संयुक्तराष्ट्र संघ भी इस्राइल के सामने असहाय है।
मुसलमानों का प्रतिदिन किसी न किसी बहाने कत्ल या जनसंहार दिखाना आम रिवाज बन गया है, इससे मुसलमानों के बारे में खास किस्म की इमेज बन रही है। मुसलमानों को बर्बर, आतंकवादी,हिंसक आदि रूपों में पेश किया जा रहा है। इसके कारण मुसलमानों के प्रति सही और संतुलित ढ़ंग से आम जीवन में बातें करना भी मुश्किल हो गया है।
मिथकशास्त्री एस.कीन ने मध्यपूर्व युध्द में निर्मित किए गए मिथों का खुलासा करते हुए लिखा है,''हथियारों से हत्या करने से पहले सबसे पहले हम मन में लोगों की हत्या करें।चाहे जिस तरह का युध्द हो।शत्रु हमेशा संहारक होता है और हम अच्छे लोगों की तरफ होते हैं।वे बर्बर होते हैं।हम सभ्य होते हैं।वे शैतान होते हैं।टेलीविजन से निरंतर आग के गोले दर्शक को एक ऐसे स्वप्नलोक में ले जाते हैं जहां उसके दिमाग में किसी भी किस्म के विचार नहीं आते। अब शत्रु को नम्बरों में बदल दिया गया था। "
समाचार चैनलों में मारे गए इस्राइली नागरिकों ,बच्चों के माता-पिता के बयान,फोटो, दुखी चेहरे दिखाई दे जाएंगे ,किन्तु किसी मुसलमान बच्चे के माता-पिता के दुखी चेहरे नजर नहीं आएंगे। गाजा में तो लंबे समय से सिर्फ बच्चों का ही इस्राइल द्वारा कत्ल किया जा रहा है किन्तु किसी भी चैनल ने पीडित माता-पिता के दृश्य नहीं दिखाए, गोया ! मुसलमान बच्चों के माता-पिता नहीं होते !
चैनलों में लेबनान,सीरिया,इण्डोनेशिया, इरान, इराक, सोमालिया, सऊदी अरब, लीबिया, सूडान,अफगानिस्तान,पाकिस्तान आदि के मुसलमानों की कत्लेआम की खबरें आम हो गई हैं। आतंकवाद विरोधी मुहिम के तहत इन देशों के मुस्लिम बाशिंदों को खदेड़ा जा रहा है, हमले ए जा रहे हैं,बदनाम किया जा रहा है,सवाल किया जाना चाहिए कि यदि इन सभी देशों से मुसलमानों को निकाल देगें तो आखिरकार मुसलमान जाएंगे कहां ? क्या सारी दुनिया में मुसलमान सिर्फ शरणार्थी शिविरों में ही रहेंगे ? अथवा मुसलमानों को उनके देश में ही कैद करके रखा जाएगा ?जिससे उन्हें कभी भी कुत्तों की तरह गोलियों से भून दिया जाए,जैसा कि अभी मध्य-पूर्व के देशों में हो रहा है। पश्चिमी सभ्यता के रखवाले अमेरिका-इस्राइल ने मुसलमानों के सामने जनतांत्रिक प्रतिवाद का कोई अवसर ही नहीं छोड़ा है। मुसलमान को प्रतिवाद करना हो तो आतंकवादी बने अथवा अमेरिका के चरणों में पड़ा रहे।
मध्यपूर्व अमेरिका की जो दादागिरी चल रही है उसका गहरा संबंध अमेरिका के सैन्य उद्योग समूह के साथ है।अमेरिका की विदेश नीति का यह उद्योग समूह मूलाधार है। अमेरिका की समूची अर्थव्यवस्था इस समय सैन्य उद्योग,संस्कृति उद्योग और सूचना उद्योग पर टिकी हुई है। ये तीनों उद्योग समूह एक-दूसरे पर निर्भर हैं।एक के बिना दूसरे का विकास संभव नहीं है। हथियार उत्पादन अमेरिकी नीतियों में सबसे प्रमुख क्षेत्र है।हथियार उत्पादन क्षेत्र यदि प्रमुख क्षेत्र होगा तो उसका दूसरा कदम हथियारों का निर्यात करना होगा।अमेरिकी कंपनियों को इसके लिए ग्लोबल रणनीति बनानी होती है।इसका अर्थ यह है कि युध्द का निरंतर बने रहना। युध्द नहीं होंगे तो हथियार नहीं बिकेंगे। हथियार नहीं बिकेंगे तो अमेरिकी अर्थव्यवस्था चौपट हो जाएगी।इसका अर्थ यह हुआ कि निररंतर युध्द का बने रहना।
मजेदार बात यह है कि हमारे शांति आंदोलन की मांगों में युध्द बंद करने या अमेरिका की युध्दवादी नीतियों को नंगा करने वाली मांगें तो रहती हैं किंतु सैन्य उद्योग को शांति और विकास के कार्यों में रूपान्तरित करने की मांग शामिल नहीं रहती।यह स्थिति अमेरिका के शांति आंदोलन की भी है।
कायदे से शांति आन्दोलन को युध्द के साथ -साथ सैन्य उद्योग के शांति एवं विकास कार्यों में रूपान्तरण की मांगों को भी अपना एजेण्डा बनाना चाहिए। शांति आंदोलन की मुश्किल यह है कि युध्द के खत्म होते ही वे शांत हो जाते हैं। जबकि सैन्य उद्योग काम करता रहता है।
युध्द को खत्म करने के लिए जरूरी है कि हथियारों के उत्पादन पर रोक लगायी जाए।हम यह चेतना अभी तक पैदा नहीं कर पाए हैं कि जनसंहारक अस्त्रों के निर्माण कार्य में हमारे वैज्ञानिक,रक्षा विशेषज्ञ आदि भाग न लें। हथियारों को बनाने वाले हाथ नहीं होगे तो हथियार भी नहीं बनेंगे। जनसंहारक अस्त्रों के निर्माण की प्रक्रिया से लेकर युध्द के मैदान और युध्द के बाद की स्थितियों तक शांति आंदोलन का दायरा फैला हुआ है।
हमें इस लचर तर्क से बचना चाहिए वैज्ञानिक अस्त्र नहीं बनाएंगे तो खाएंगे क्या ?सैन्य उद्योग समूह पर जो परिवार निर्भर हैं वे क्या खाएंगे ? अमेरिकी कंपनियां इस्राइल को नए अस्त्र-शस्त्र सप्लाई कर रही हैं। अमेरिकी सैन्य उद्योग में काम करने वाले ओवरटाइम काम कर रहे हैं। वे इस्राइल के आर्डर की सप्लाई लाइन चालू रखे हुए हैं।
सैन्य उद्योग में काम करने वाले कर्मचारी इस बात पर गर्वित हैं कि वे ज्यादा से ज्यादा उत्पादन कर रहे हैं। क्या हमारे मजदूर आंदोलन को सैन्य उद्योग में काम करने वाले कर्मचारियों के साथ शांति आंदोलन को जोड़ने के बारे में नहीं सोचना चाहिए ? हमें इस सवाल का भी जबाव खोजना होगा कि आखिरकार अमेरिका के शांति आंदोलन ने सैन्य कर्मचारियों को अपने प्रभाव में अभी तक क्यों नहीं लिया है ?
आज हथियारों की दौड़ धरती तक ही सीमित नहीं है बल्कि उसने पूरे अंतरिक्ष को भी अपनी जद में ले लिया है।पेंटागन का अब तक का सबसे बड़ा प्रकल्प है प्लेनेट अर्थ ।इसका लक्ष्य है अंतरिक्ष को हथियारों से भर देना। यह सवाल भी उठाया जा रहा है कि आज अमेरिका अपने देश में शांति के काम में आने वाली कितनी चीजें पैदा कर रहा है ? बाजार में जाने पर बमुश्किल कोई ऐसी चीजें नजर आएं।हथियारों का निर्माण करके अमेरिका बड़े पैमाने जहां युध्द को बनाए रखना चाहता है,वहीं दूसरी ओर अमेरिका युध्द के बहाने गैस और तेल के भंडारों को अपने कब्जे में लेना चाहता है।यह सिलसिला जारी है।
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