बुधवार, 28 अप्रैल 2010

भारत बंदः विकासदर का सर्जक मनमोहन सिंह या मजदूरवर्ग ?

      कल मंहगाई के सवाल पर भारतबंद था। यह भारत बंद मंहगाई और अन्य समस्याओं पर जनता के गुस्से का इज़हार है। यह संघर्षशील जनता की हाल के समय में सबसे सार्थक कार्रवाई भी है। जिस समय बंद चल रहा था उसी समय संसद में मंहगाई और दूसरी समस्याओं पर विपक्ष  के बजट कटौती प्रस्तावों पर मतदान हो रहा था और शाम को चैनलों पर बंद और बजट प्रस्तावों पर विपक्ष की हार का चैनल वाले सरकारी भोंपू की तरह प्रचार कर रहे थे। चैनलों की इस निर्लज्ज हरकत की जितनी निंदा की जाए कम है।
     असल में संसद में सरकार जीती और जनता में सरकार हार गयी । मंहगाई आदि समस्याओं पर इतना व्यापक जनाक्रोश हाल के वर्षों में नजर नहीं आया। हमें सोचना चाहिए संसद महान है या जनता महान है ? जनता को मंहगाई के अंधकूप में डालने का जनादेश कांग्रेस को नहीं मिला था। जो सरकार जनादेश के बाहर चली जाए उसे शासन करने का राजनीतिक अधिकार नहीं है।
    एकबार संसद के बारे में कवि धूमिल ने लिखा था मेरी संसद तेली की वह घानी है जिसमें आधा तेल आधा पानी है।
      हमें इस सवाल पर सोचना चाहिए कि कारपोरेट मीडिया को मजदूरवर्ग नापसंद क्यों है ? क्या मजदूरवर्ग और उनके हितैषी संगठनों की राष्ट्र निर्माण में कोई भूमिका नहीं है ? क्या 7-8 या 9 प्रतिशत की विकासदर मनमोहन-सोनिया -प्रणव जैसे नेताओ के श्रम का परिणाम है या मजदूरवर्ग की मेहनत का परिणाम है ? कारपोरेट उत्पादन के लिए किसे श्रेय दें मालिक को या मजदूर को ? चैनलों के बेवकूफ एंकरों से लेकर टॉक शो में शामिल होने वाले भाड़े के कारपोरेट विचारक-राजनीतिज्ञ सिर्फ एक सवाल का जबाव दें देश की उत्पादक शक्ति मजदूर हैं या मनमोहन सिंह ?
    भारत बंद के कवरेज पर चैनलों और खासकर कारपोरेट मीडिया का मजदूरवर्ग के प्रति, बंद के प्रति घृणास्पद रवैय्या देखने लायक था। यह सच है कि बंद को व्यापक सफलता मिली और इसमें वामदलों और मजदूर संगठनों की केन्द्रीय भूमिका थी। यह 13राजनीतिक दलों के द्वारा आयोजित बंद था। कारपोरेट मीडिया ने बंद करने वालों को जनता का विरोधी करार दिया है। बंगला में चर्चित नाम है ‘कर्मनाशा दिन’,इसका खूब प्रचार किया गया।
      कुछ कारपोरेट पैरोकार यह भी तर्क दे रहे थे कि बंद से क्या मंहगाई कम हो जाएगी ? बंद से दैनिक मजदूरों का नुकसान हुआ है। देश को आर्थिक नुकसान हुआ है। असल में इस तरह के तर्क उपयोगितावादी राजनीतिक दर्शन के गर्भ से निकले हैं। यह फिनोमिना अमरीकी विचारकों के द्वारा निर्मित उपयोगितावादी दर्शन की देन है। इसके अनुसार वही करो जो उपयोगी हो। वही पढ़ो जो उपयोगी हो। जिससे काम बने उसे दोस्त बनाओ। उपयोगी नहीं तो बेकार है। येनकेन प्रकारेण काम बनाओ।  इस तरह के चिंतन का कारपोरेट मीडिया विज्ञापनों से लेकर समाचारों तक अहर्निश प्रचार चल रहा है।यह मूलतः निहित स्वार्थी असामाजिक दर्शन है।
    फिलहाल हम मीडिया के द्वारा बंद और मजदूरवर्ग के प्रति व्यक्त नजरिए पर गंभीरता से विचार करें।  
     टेलीविजन का मजदूरवर्ग के साथ गहरा अंतर्विरोध है। टेलीविजन की प्रकृति अ-जनतांत्रिक है। जबकि मजदूरवर्ग की प्रकृति जनतांत्रिक है। मजदूरों के मसले अमूमन खबर नहीं बनते। खबर तब ही बनते हैं जब मजदूरवर्ग हड़ताल पर जाता है। मजदूरवर्ग की खबरें सामान्य खबर की कोटि में नहीं आतीं। ये वर्ग विशेष की खबरें हैं। टेलीविजन हमेशा इस वर्ग की खबरों को सामान्य खबर की कोटि में रखकर पेश करता है।    
      टेलीविजन के लिए मजदूरवर्ग की हड़ताल और आम जनता के बीच अंतर्विरोध है। जबकि अवधारणात्मक और सामाजिक तौर पर मजदूरवर्ग के संघर्षों का आम जनता के हितों के साथ अंतर्विरोध नहीं है और न टकराहट है। किंतु ज्योंही मजदूरवर्ग हड़ताल पर जाता है अथवा अपने हकों की लड़ाई शुरू करता है उसका समूचे समाज के साथ अंतर्विरोध दिखाने पर टेलीविजन जोर देने लगता है। टेलीविजन यह भूल जाता है कि जिस तरह जनतंत्र में नागरिकों के हक होते हैं, जिम्मेदारियां होती हैं,उसी तरह मजदूरवर्ग के भी हक होते हैं,जिम्मेदारियां होती हैं।
      जिस तरह नागरिकों को अपने सामान्य जीवनयापन की अनुकूल परिस्थितियों की जरूरत होती है, उसी तरह मजदूरवर्ग को भी सामान्य नागरिक परिवेश, आवश्यक सुविधाएं और सौहार्द्रपूर्ण वातावरण की जरूरत होती है।
    टेलीविजन प्रस्तुतियों में मजदूरवर्ग की हड़ताल हो या सामान्य राजनीतिक कार्रवाई हो आदि सभी मामलों में टेलीविजन पूर्वाग्रह से काम लेता है।जब तक हड़ताल की संभावना नहीं होती तब तक मजदूरवर्ग को टेलीविजन पर्दे पर आने नहीं दिया जाता।   
     टेलीविजन जब हड़ताल की खबर का प्रसारण करता है तो पहला संदेश यह देता है कि यूनियनवाले आर्थिक स्थिति बिगाड़ने की कोशिश कर रहे हैं। यूनियन के नेता की छवि हड़ताली नेता के रूप में पेश की जाती है। आम तौर पर हड़ताल की खबर को विकास विरोधी खबर के तौर पर पेश किया जाता है। उन तत्वों,संगठनों आदि पर बल होता है जो हड़ताल विरोधी होते हैं। उनके बयानों को बगैर किसी प्रमाण के पेश किया जाता है। इसके विपरीत मजदूरों के प्रामाणिक बयानों और तथ्यों को छिपाया जाता है। हड़ताल के मुद्दों को तमाम किस्म की आत्म- सेंसरशिप और कारपोरेट सेंसरशिप से गुजरना होता है। उन्हें चलताऊ ढ़ंग से पेश किया जाता है।
     आम तौर पर मजदूरों के बारे में टेलीविजन में मजदूर विरोधी लोग ज्यादा बोलते नजर आते हैं। टेलीविजन कैसे मजदूर विरोधी मानसिकता का प्रदर्शन करता है इसका आदर्श नमूना है टेलीविजन पर आने वाली व्यापारिक खबरें। इन खबरों में जब कभी यह बताया जाता है कि फलां-फलां कंपनी ने इस तिमाही या साल में मुनाफा कमाया तो इसका श्रेय मालिक को दिया जाता है न कि मजदूरों को।
    आज हिन्दुस्तान की ज्यादातर मुनाफा कमाने वाली कंपनियां मजदूरों के श्रम के कारण मुनाफे पर चल रही हैं। किंतु कोई कंपनी जब मुनाफा कमाती है तो टेलीविजन पर्दे पर मालिक या मुख्य प्रबंधक की छवि दिखाई देती है कंपनी के मजदूर नेता की छवि दिखाई नहीं देती।
    मजदूरों के जीवन में सालों-साल जो कुछ भी घटता है उसकी ओर टेलीविजन कभी ध्यान नहीं देता। किंतु हड़ताल पर तुरंत ध्यान देता है। हड़ताल के पहले मजदूर किस तरह की मुसीबतों का सामना करते रहे हैं,उनके घरों में किस तरह की मुश्किलों से परिवारीजनों को गुजरना पड़ा है। बच्चे समय पर स्कूल जा पाते हैं या नहीं। मजदूरों की औरतों को किस तरह की मुश्किलों से दो-चार होना पडता है। मजदूर परिवार को दो जून की रोटी मिल रही है या नही ? ये सारी चिन्ताएं टेलीविजन की नहीं है।
      टेलीविजन कैमरा मजदूर बस्तियों में प्रवेश ही नहीं करता। कभी यह जानने की कोशिश नहीं की जाती कि आखिरकार मजदूर कैसे रहते हैं ? मलिन बस्तियों में कैमरा जाएगा,वेश्यालयों और वेश्या बस्तियों में टेलीविजन वाले जाएंगे किंतु मजदूर बस्तियों में नहीं जाएंगे । इसका प्रधान कारण यह है कि मजदूर परजीवी नहीं है। वह उत्पादक शक्ति है। समाज को पैदा करके देता है। कैमरे में यदि उत्पादक शक्तियों का संसार उजड़ा हुआ नजर आएगा इससे मीडिया के उस प्रचार की पोल खुल जाएगी कि मजदूरों को बहुत वेतन मिलता है। सामान्य तौर पर पूंजीपतिवर्ग की छोटी सी समस्या भी खबर बन जाती है किंतु मजदूरों के बड़े-बड़े हादसे भी खबर नहीं बन पाते।
    सामान्य तौर पर धनियों की बस्ती में  कोई चोरी की घटना हो जाती है तो मुख्य खबर बन जाती है किंतु मजदूरों की बस्तियों, मलिन बस्तियों में गुंड़े सनसनाते घूमते रहते हैं। उत्पीड़न करते रहते हैं।किंतु खबर नहीं बन पाती। सवाल उठता है कि मजदूर रैली या प्रदर्शन या धरना या हड़ताल क्यों करते हैं ? क्या  वे काम चोर हैं ? क्या उनके कारण पूंजीपति के मुनाफों में कमी आई है ?जी नहीं।
   मजदूर हड़ताल या रैली तब निकालते हैं जब प्रशासन उनकी तकलीफों की तरफ ध्यान नहीं देता। यहां तक कि उनकी शिकायतों को भी कोई नहीं सुनता। मजदूर शौकिया तौर पर हड़ताल या रैली के अस्त्र का इस्तेमाल नहीं करते। बल्कि मजबूरी में,अपनी बातों को प्रशासन तक प्रभावशाली रूप में पहुँचाने के लिए ऐसा करते हैं। ये उनकी अभिव्यक्ति के रूप हैं।
    टेलीविजन अपनी अभिव्यक्ति पर किसी भी किस्म का हमला बर्दाश्त नहीं कर सकता किंतु समाज के कमजोर तबकों खासकर उत्पादक शक्तियों की अभिव्यक्ति के रूपों के खिलाफ माहौल बनाने में सबसे आगे रहता है। यही मीडिया का अधिनायकत्व है।इससे जनतंत्र का विकास बाधित होता है।
    

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