तुलसी के मानस की हजारों किस्म की व्याख्याएं प्रचलन में हैं,इसका प्रधान कारण है इसकी भाषा का अनखुलाभाव।यह भाषा प्रतीक के लिहाज से ही अनखुली नहीं है,बल्कि संस्कृति के लिहाज से भी अनखुली है।अपूर्ण है। इसके बावजूद तुलसी के मानस को एकसूत्र में बांधने वाला प्रधान तत्व है उसकी अवधी भाषा।
तुलसी के मानस में जब नैतिक पक्ष को आधुनिक आलोचना के नजरिए से खोलेंगे तो पाएंगे कि वहां जो अच्छा है,वह अच्छा है,उसे बुरा नहीं बनाया जा सकता अथवा वह बुरा नहीं हो सकता। राम अच्छे हैं तो राम अच्छे हैं,रावण बुरा है तो बुरा है। अच्छा कभी बुराई को पैदा नहीं कर सकता और बुरा कभी अच्छाई पैदा नहीं कर सकता। नैतिकता के प्रति इस तरह का रुख धर्म का स्याह पक्ष है।
मजेदार बात यह है कि नैतिकता के सिद्धान्तकारों की रोशनी में हमने कभी तुलसी की नैतिकता को देखा ही नहीं।हम नैतिकता के धार्मिक मानकों के आधार पर मूल्य निर्णय करते रहे। जबकि इस पक्ष पर ज्यादा गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए।क्योंकि राम को मर्यादा पुरूष बनाने का काम नैतिक मूल्यों के आधार पर ही किया गया है।
धर्म और रामचरित मानस जैसी कृति में नैतिकता के सवाल बेहद जटिल रूप में सामने आते हैं। नैतिकता के जो रूप हमें परेशान करते हैं उन्हें तो हम मनमाने ढ़ंग से व्याख्यायित कर लेते हैं,किंतु नैतिकता की व्याख्या करना बेहद कठिन काम है।
नैतिक मूल्यों की कोई सीमा नहीं होती,इसकी सीमाएं स्पष्ट नहीं हैं।यही वजह है कि आसानी से किसी भी चीज को नैतिक मूल्य करार दे दिया जा सकता है।नैतिकता से जुड़ी किसी भी समस्या के कारणों को आप कृति में आसानी से खोज नहीं सकते। नैतिकता के कारण और समस्या को आसानी से अलगाया नहीं जा सकता।
नैतिक मूल्यों को विवेचित करते समय जो व्याख्याएं पेश की जाती हैं उनमें पूर्वाग्रह चले आते हैं,पूर्वाग्रहों के कारण ही हमारे सामने संभावित व्याख्याएं आती हैं। तुलसी के मानस में नैतिकता के मानकों को 'जिम्मेदारी' और 'वफादारी' की धारणाओं के आधार पर निर्मित किया गया है। 'जिम्मेदारी' की धारणा के आधार पर निर्मित नैतिकता का अमूमन लक्ष्य होता है नैतिक उच्चता की ओर ले जाना। किंतु सवाल पैदा होता है कि क्या जिम्मेदारी हमेशा ऊपर की ओर ले जाती है?क्या जिम्मेदारी हमेशा अच्छी भूमिका अदा करती है ?
एक अन्य बात यह भी ध्यान में रखने की है कि भक्ति-आंदोलन के संदर्भ के बिना रामचरित मानस पर कोई बात अधूरी ही रहेगी।भक्ति-आंदोलन का सारा ताना-बाना नैतिकता पर टिका है।भक्ति आंदोलन के रचनाकार किस तरह नैतिकतावादी नजरिए से चीजों को देख रहे थे,इसका आदर्श उदाहरण है जातिप्रथा संबंधी उनका नजरिया। वे जातिप्रथा को नैतिक प्रथा मानकर चुनौती देते हैं। उसके आर्थिक आधार की अनदेखी करते हैं।
व्यापारिक पूंजीवाद के दौर में बुद्धिजीवियों का एक सीमा तक बौद्धिक उत्थान होता है,बौद्धिक उत्थान के सीमित दौर में 'तर्क' (रीजन) की भूमिका की तरफ बुद्धिजीवी तेजी से मुखातिब होते हैं।'तर्क' की चेतना के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका स्वीकार की गयी है। व्यापारिक पूंजीवाद के युग में 'तर्क' को जीवन शैली से युक्त किया गया।तुलसी का 'तर्क' जीवनशैली से जुड़ता है।'तर्क' और 'विचार' के बीच में अंतर या भेद भी इसी युग में पैदा होता है। इस दौर में यह मान लिया गया कि विचार के जरिए जीवन को संतुलित नहीं बनाया जा सकता। इच्छा और अन्तर्विरोध के समाधान के लिए रामचरित मानस में विचार की बजाय 'तर्क' का सहारा लिया गया। आलोचना में मनुष्य का 'अच्छे' और 'बुरे' के रूप में वर्गीकरण भ्रमित करने वाला है। किंतु संकट की अवस्था में ही इन दोनों की स्पष्ट सीमाएं सामने आती हैं।तुलसीदास ने रामचरित मानस में 'अच्छे' और 'बुरे' का जो वर्गीकरण किया है वह संकट की अवस्था में चरित्रों को उभारने में मदद करता है।
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