तुलसीदास के बारे में यह कहा जाता है कि उन्होंने 'मर्यादापुरूष ' के रुप में श्री राम का चित्रण किया और इसके लिए 'लोकमर्यादा' को आधार बनाया।यह धारणा वास्तविकता से मेल नहीं खाती। रामचरित मानस की समूची परिकल्पना पुरानी 'इच्छा', 'मंशा' और 'मान्यताओं' को चुनौती देती है। इसमें नए के प्रति आकर्षण है।साथ ही इसमें स्त्री की 'पवित्रता' और 'सार्वजनिक' स्थानों से उसे दूर रखने के भाव के प्रति तीव्र प्रतिवाद की भावना है। इस संदर्भ में एक महत्वपूर्ण प्रसंग का जिक्र करना समीचीन होगा।
भक्ति आंदोलन की एक महत्वपूर्ण लेखिका होने के कारण मीरा के प्रति और उसके बहाने स्त्री जाति के प्रति तुलसी के अंदर एकजुटता का भाव दिखाई देता है।यह एक एकजुटता वक्तव्य में नहीं स्त्रियों के चित्रण में व्यक्त हुई है।
किसी भी रचना में विचारधारा की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति से ज्यादा महत्वपूर्ण और प्रभावी अंश वे होते हैं जहां रचनाकार चित्रण के माध्यम से अपनी बात कहता है। मीरा को उसके ससुराल वालों ने इस कारण से घर निकाल दिया और पति-पत्नी का रिश्ता टूट गया कि वह मंदिरों में जाकर नाचती थी।यानी कि स्त्री की सार्वजनिक गतिविधियों के लिए,खासकर घरेलू स्त्री के लिए सार्वजनिक स्थानों पर जाकर अपनी गतिविधियों और एक्शन की कोई गुजाइश नहीं थी।
संभवत: स्त्री की सार्वजनिक गतिविधियों के खिलाफ बने हुए माहौल के प्रतिवाद में ही समूचा कृष्ण काव्य गोपियों और राधा की सार्वजनिक स्थानों पर की गई गतिविधियों से भरा है।यही स्थिति कमोबेश तुलसीदास की है,उन्होंने भी रामचरित मानस में सभी सार्वजनिक कार्यक्रमों में बड़े पैमाने पर स्त्रियों की शिरकत का चित्रण किया है। रामचरित मानस में जितने व्यापक फलक पर रखकर स्त्रियों को सार्वजनिक स्थानों पर चित्रित किया है,वह विलक्षण चीज है। सार्वजनिक स्थानों पर स्त्री का मौजूदगी एकदम नये किस्म की संभावनाओं को जन्म देती है।
तुलसीदास ने रामचरित मानस के माध्यम से संस्कृत कथा साहित्य में प्रचलित स्त्री संबंधी धारणाओं को भी गंभीर चुनौती दी है।तुलसीदास के समकालीन और उनके पहले की संस्कृत कथाओं में स्त्री का सबसे खराब चित्रण मिलता है।
महाभारत की पशुकथाओं, पंचतंत्र,कथासरित्सागर,शुकसप्तति आदि स्त्री के नकारात्मक चित्रण के आदर्श उदाहरण हैं। तुलसीदास ने स्त्री की नकारात्मक,चरित्रहीन,दुष्ट इमेज की बजाय सामान्य इमेज के चित्रण पर ध्यान दिया है।तुलसी ने लोक में प्रचलित उन तमाम धारणाओं को चित्रण के बहाने खंडित किया है जो यह बताती थीं कि व्यक्ति के सभी दुखों का मूल स्रोत औरत है।
तुलसीदास ने स्त्री के परफेक्शन वाले रूप को भी खंडित किया है जिसका निर्माण श्रृंगार साहित्य ने किया था।राम और सीता में प्रेम है और वे एक-दूसरे से अभिन्नता भी महसूस करते हैं,साथ ही उसकी सामाजिक परिणतियों से भी बाकिफ हैं। स्त्री-पुरूष संबंधों को लेकर श्रृंगार रस के रचनाकारों ने जो धारणाएं बनायी थीं ,उनके चित्रण के बहाने तुलसीदास ने एक विकल्प तैयार किया है।मसलन् श्रृंगार रस में लिखी रचनाओं में स्त्री एकनिष्ठ होती है किंतु पुरूष एकनिष्ठ नहीं होते,जबकि रामचरित मानस एकनिष्ठ पुरूष चरित्रों से भरा है।
रामचरित मानस में लंकाकाण्ड में रावण जब राम के साथ युद्ध कर रहा है और यह युद्ध अंतिम दौर में है उस समय राम ने पुरूष की एक नयी परिभाषा दी है जो लैंगिकता से पूरी तरह मुक्त है।
राम कहते हैं कि पुरूष तीन तरह के होते हैं,वे गुलाब,आम और कटहल की तरह के होते हैं।गुलाब की कोटि के पुरूष फूल देते हैं,आम की कोटि के पुरूष फूल और फल दोनों देते हैं,जबकि कटहल में सिर्फ फल ही लगते हैं।इसी तरह पुरूषों में एक कोटि ऐसे पुरूषों की है जो कहते हैं,किंतु करते नहीं,दूसरी कोटि में वे पुरूष आते हैं जो कहते हैं और करते भी हैं,तीसरी कोटि ऐसे पुरूषों की है जो करते हैं किंतु वाणी से कहते नहीं।तुलसीदास ने लिखा-
''जनि जल्पना करि सुजसु नासहि नीति सुनहि करहि छमा।
संसार मँह पूरुष त्रिबिध पाटल रसाल पनस समा॥
एक सुमनप्रद एक सुमन फल एक फलइ केवल लागहीं।
एक कहहिं कहहिं करहिं अपर एक करहिं कहत न बागहीं॥''
लंका काण्ड में युद्ध की तैयारी और युद्ध के दौराने जो घट रहा है,जिस तरह की अनुभूतियां पैदा हो रही हैं,विभिन्न पात्रों के बीच किस तरह के संवाद और तर्क-वितर्क हो रहे हैं,उनका चित्रण और विवरण ज्यादा जगह घेरता है,सही-सही युद्ध में जो हो रहा है,खासकर हिंसाचार का चित्रण न्यूनतम रुप में किया गया है।यही वजह है कि रावण और अन्य राक्षसों की मौत के बाद के माहौल का एक ही छंद में वर्णन है उसमें भी दुख पर कम आनंद और शांति के भाव पर ज्यादा जोर है।रावण की मौत पर मंदोदरी दुखी नहीं होती,बल्कि रावण की मौत को दुर्लभ मौत की संज्ञा देती है।रावण और उसके समूचे राक्षस समूह के नाश पर तुलसीदास के यहां सिर्फ एक ही पंक्ति है।तुलसीदास ने लिखा-
''भरि लोचन रघुपतिहि निहारी।प्रेम मगन सब भए सुखारी॥
रुदन करत देखीं सब नारी। गयउ विभीषनु मन दुख भारी॥''
इसी तरह 'संत' की धारणा भी काफी महत्वपूर्ण है। तुलसीदास की नजरों में संत वह है जो अलंपट है,शील और सदगुणों की खान है, पराया दुख देखकर दुखी और सुख देखकर सुखी होता है।समता रखते हैं,मद,क्रोध,हर्ष और भय से रहित होता है। उसका चित्ता कोमल होता है,निष्कपट होता है।उसकी कोई कामना नहीं होती।मजेदार बात यह है कि तुलसीदास ने संत की धारणा पर जितनी पंक्तियां खर्च की हैं उससे दुगुना पंक्तियां 'दुष्ट' की धारणा के वर्णन पर खर्च की हैं। इस क्रम में वे 'वायनरी अपोजीशन' की धारणा का इस्तेमाल करते हैं। संत और दुष्ट की धारणा के विवेचन के बाद तुलसीदास सबसे महत्वपूर्ण बात कहते हैं,उन्होंने लिखा है कि दोष और गुण की कोई वास्तविक सत्ता नहीं होती। इन्हें देखना अविवेक है। लिखा-
'' सुनहु तात माया कृत गुन अरु दोष अनेक।
गुन यह उभय न देखिअहिं देखिअ सो अविवेक॥''
तुलसीदास के रामचरित मानस की सबसे बड़ी खूबी यह है कि इसमें तुलसी अवधारणाओं में सोचते हैं,अवधारणा बनाते हैं और उसकी व्याख्या करते हैं। उनकी अवधारणाओं का आर्थिक आयाम भी है,अवधारणाओं में अपनी बात कहने की परंपरा भक्ति आंदोलन की साझी विरासत का हिस्सा है। अवधारणाओं में सोचने के कारण ही वे भविष्यवादी नजरिए से चीजें देख पाते हैं।
अवधारणा में कहने की कला ज्यादा सुसंगत सोच की परिचायक है।साथ ही इस तथ्य का भी संकेत है कि नए किस्म की सामाजिक और मानसिक संरचनाएं,नए किस्म के मनुष्य की संरचनाएं और मान्यताएं पैदा हो रही थीं,पुराने किस्म की मान्यताओं से सामाजिक व्याख्या में मदद नहीं मिल रही थी,अथवा वे अप्रासंगिक होती चली जा रही थीं।
नयी अवधारणा का जन्म तब ही होता है जब पुरानी अवधारणा संकटग्रस्त हो, अप्रासंगिक हो जाए।नयी अवधारणाएं तब जन्म लेती हैं जब समाज में उत्पादन के संबंधों में नए उत्पादक वर्ग या उत्पादन के नए औजार दाखिल हो जाते हैं, अथवा श्रम-विभाजन के नए रूप व्यवहार का हिस्सा बन जाते हैं।तुलसीदास को इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि उन्होंने नए किस्म के श्रम-विभाजन और व्यापारिक पूंजीवाद की नयी सामाजिक संरचनाओं की 'कलियुग' के रूप में व्याख्या पेश की है।'कलियुग' सामाजिक व्यवस्था का नाम है।इसे काल के धार्मिक या मिथकीय वर्गीकरण के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। यही व्यापारिक पूंजीवाद कालान्तर में औद्योगिक पूंजीवाद का रूप ग्रहण करता है,उसमें व्यापारिक पूंजीवाद के सभी लक्षण बरकरार रहते हैं,खासकर मूल्य-संरचनाएं बनी रहती हैं।वेदों को शाश्वत प्रासंगिक बताने वालों का तुलसी के दौर में अभाव नहीं था,इनको निशाना बनाकर वे कहते हैं कि कलियुग में वेद की आज्ञा कोई नहीं मानता। उन्होंने लिखा '' कोउ नहिं मान निगम अनुशासन।''
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