मीडिया समाजीकरण करता है।खासकर स्त्री के संदर्भ में समाजीकरण करता है।इसमें विज्ञापनों की सबसे बड़ी भूमिका होती है। विज्ञापनों के द्वारा स्त्री की परंपरागत भूमिका को आरोपित किया जाता है। मसलन् अमेरिका में प्रत्येक व्यक्ति रोजाना तीन हजार विज्ञापन देखता है। जबकि भारत में प्रत्येक व्यक्ति रोजाना दो सौ विज्ञापन देखता है। मीडिया के बारे में अनेक लोग यह मानते हैं कि मीडिया यथार्थ का रूपायन नहीं करता। यदि मीडिया यथार्थ का रूपायन नहीं करता है इसके बावजूद यह एक वास्तविकता है कि मीडिया प्रभावित जरूर करता है। मीडिया की इमेज,फैंटेसी,आदर्श आदि समाज पर अपना असर डालते हैं। खासकर आदर्श औरत कैसी हो और किस तरह का व्यवहार करे। मीडिया की नजर में आदर्श औरत वह है जो मर्द की कामुक इच्छाओं की पूर्ति करे।
कामुकता के कारण लिंगभेद पैदा होता है,अत: लिंगभेद को जानने का सबसे प्रभावी तरीका यही है कि कामुकता का गंभीरता से मूल्यांकन किया जाए। प्रसिद्ध स्त्रीवादी लेखिका मेकनिन ने रेखांकित किया है कि लिंगों के बीच में विषमता का प्रधान कारण कामुकता है।
मीडिया में स्त्रियों के विज्ञापन देखकर पहले यह कहा जा सकता था कि स्त्री का समर्पित रूप ही आदर्श रूप था। किन्तु हाल के वर्षों में स्त्री की स्वायत्त या स्वतंत्र छवि भी सामने आयी है,स्त्री और पुरूष के बीच में समानता का संदेश देने वाले विज्ञापन भी आए हैं। इसके बावजूद स्त्री का समर्पित रूप आज भी सबसे ज्यादा आकर्षित करता है, मुख्यधारा के विज्ञापनों में इसका वर्चस्व है।
विज्ञापनों के माध्यम से जो मुख्य संदेश संप्रेषित किया जा रहा है कि स्त्री का मुख्य लक्ष्य है पुरूष को आकर्षित करना। पुरूषों के इस्तेमाल की वस्तुओं में जो कामुक औरत दिखाई जाती है उसकी कामुक अपील मर्द के साथ संबंध बनाते हुए सामने आती है। इसी तरह औरतों के इस्तेमाल वाली वस्तुओं के विज्ञापनों में रूपायित स्त्री कामुकता का लक्ष्य है मर्द को आकर्षित करना। विज्ञापन यह बताता है कि स्त्री और पुरूष आपस में कैसे व्यवहार करें। साथ ही हम यह भी सोचते हैं कि वे कैसे व्यवहार करें।
पितृसत्तात्मक समाज में विज्ञापनों के जरिए हैट्रोसेक्सुअल मर्द परिप्रेक्ष्य में इमेज बनायी जाती हैं। इस परिप्रेक्ष्य में स्त्री को शारीरिक आकर्षण के साथ जोड़कर पेश किया जाता है।मर्द की पहचान इस संकेत से होती है कि उसके साथ कितनी आकर्षक स्त्रियां जुड़ी हैं। जो औरत शारीरिक तौर पर जितनी आकर्षक होगी उसके सहयोगी मर्द की उतनी ही प्रतिष्ठा होगी।फलत: मीडिया की स्त्री इमेजों और कामुकता से अंतत: पुरूष लाभान्वित होता है। यही वजह है कि कामुकता लिंगभेद की धुरी है, पुंसवादी वर्चस्व का आधार है।मीडिया में समर्पित कामुक औरत का रूपायन जेण्डर हायरार्की की सृष्टि करता है।
विज्ञापनों के अध्ययन की पहली हाइपोथिस है -कामुक औरत को समर्पित और आश्रित रूप में पेश किया जाए। भारत में विज्ञापनों में स्त्री इमेज में हिन्दू स्त्री की इमेज ही चारों ओर छायी हुई है।अन्य अल्पसंख्यक समुदाय की स्त्रियों का रूपायन तकरीबन गायब है। कभी-कभार टीकाकरण अभियान के समय अल्पसंख्यक औरत नजर आ जाती है। सवाल उठता है कि हिन्दू औरत की कामुकता का केन्द्र में बने रहना क्या अल्पसंख्यक स्त्रियों के लिए शुभ लक्षण है ? क्या इससे साम्प्रदायिक भेदभाव बढ़ता है ?
मीडिया के संदर्भ में दूसरी पूर्वधारणा यह है कि हिन्दू औरत अल्पसंख्यक औरत की तुलना में प्रभुत्वशाली और स्वतंत्र होती है। भारत की विशेषता है कि यहां का समूचा मीडिया मूलत: हिन्दू मीडिया है। यहां पर अल्संख्यकों का पक्षधर मीडिया गायब है। हिन्दू मीडिया में नमूने के मुस्लिम अभिनेता/ अभिनेत्रियों को देखकर हमें यह भ्रम नहीं पालना चाहिए कि भारत का मीडिया धर्मनिरपेक्ष है।
मीडिया के हिन्दुत्ववादी पूर्वाग्रहों को उसकी प्रस्तुतियों के समग्र फ्लो के संदर्भ में देखा जाना चाहिए। हमें इस सवाल पर विचार करना चाहिए कि भारतीय सिनेमा ने कितनी फिल्में इस्लामिक संस्कृति की थीम या मुसलमानों की जीवन शैली पर पेश कीं ? कितनी फिल्में हिन्दुओं की संस्कृति और देवी-देवताओं पर पेश कीं ? जो मुस्लिम कलाकार मीडिया में नजर आते हैं वे कितना अल्पसंख्यक समाज का चित्रण करते हैं ?
दिलीप कुमार से लेकर शाहरूख खान तक की पूरी फिल्मी पीढ़ी हिन्दू कथानकों और जीवनशैली के चित्रण से भरी है।फिल्म उद्योग में अनेक मुस्लिम अभिनेताओं और अभिनेत्रियों के होने के बावजूद हमें मुस्लिम समाज की न्यूनतम जानकारी तक नहीं है। हिन्दू और मुस्लिम समाज के बीच विगत पचास-पचपन साल में जो बेगानापन बढ़ा है, वह चिन्ता की बात है। इस बेगानेपन को मीडिया तोड़ सकता था,किन्तु ऐसा नहीं हुआ।
मीडिया में हिन्दू औरत का दर्द,उत्पीडन,शोषण,कामुक रूप तो बार - बार और प्रत्येक क्षण सामने आता है किन्तु मुस्लिम औरत की कामुकता,शोषण,वैषम्य,दर्द,सुख आदि को हम देख ही नहीं पाते। मुस्लिम औरत के बारे में हम खास किस्म के स्टीरियोटाईप से कभी-कभार दो-चार होते हैं, हिन्दुओं में भी ऊँची जाति की औरतें ही मीडिया का पर्दा घेरे हुए हैं। ऊँची जाति का सवर्ण विमर्श ही प्रमुखता से दोहराया जा रहा है। इसी तरह अल्पसंख्यक मीडिया में भी अल्पसंख्यक स्त्री की इमेज एकसिरे से अनुपस्थित है। समग्रता में देखें तो मध्यवर्गीय हिन्दू ऑडिशंस के बाजार को केन्द्र में रखकर मीडिया में स्त्री इमेजों का रूपायन होता रहा है।
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