रविवार, 18 अप्रैल 2010

आओ मीडिया का मॉडल बदलें


      लोकजीवन और सामाजिक विकास के संदर्भ में इटली के अनुभवों के आधार पर प्रसिद्ध मार्क्सवादी विचारक ग्राम्शी ने लिखा ''पत्र,पुस्तक या अभिव्यक्ति किसी भी किस्म का साधन सुनिश्चित तरीके से औसत दृष्टिकोण को पाठकों तक संप्रेषित करता है।यह दृष्टिकोण प्रत्येक को संतुष्ट नहीं कर सकता।किंतु, प्रत्येक को समाहित कर सकता है।कोई भी प्रकाशन सामग्री एकाकी व्यक्ति के चिन्तन-मनन अथवा परिपक्व बुद्धिजीवी और वैज्ञानिक हितों को अपदस्थ नहीं कर सकता।''
      भारतीय समाज में संचार का जो मॉडल प्रचलन में है वह लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं और लोकतांत्रिक शक्तिओं को मदद नहीं पहुँचाता। संचार में लोकतात्रिक प्रक्रिया तब पूरी होती जब तक व्यक्ति को प्रत्येक स्तर शिरकत के लिए उदबुद्ध किया जाए।व्यक्ति को आब्जैक्ट मानकर सम्प्रेषित न किया जाए।भारत जैसे बहुभाषी, बहुधार्मिक, बहुजातीय समाज में यह प्रक्रिया और भी प्रासंगिक है।
        एक अन्य चीज है जिसकी ओर मैकब्राइट कमीशन ने ध्यान खींचा है।मैकब्राइट कमीशन ने लिखा है कि संचार की प्रकृति इस बात तय होती है कि वह किस तरह के समाज में सक्रिय है। असमान समाज में सक्रिय संचार माध्यम असमानता की खाई को चौड़ा करने का औजार रहा है। इससे अमीरों और गरीबों के बीच खाई चौड़ी होती है।यह खाई सूचना दरिद्र और सूचना समृद्ध के रूप में दिखाई देती है। संचार का यह मॉडल कल्पनाशीलता विरोधी है। इसमें विचारों की टकराहट का अभाव है।इसकी नीतियां ऊपर से चलती हैं और वहीं तय होती हैं।इसमें जनता की जरूरतों की परवाह नहीं की जाती।और न ही इस मॉडल की जनता के प्रति जबावदेही है।
       पी.सी जोशी कमेटी ने रेखांकित किया कि उपलब्ध तथ्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि संचार की मौजूदा संरचना और प्रबंध शैली के तहत रचनात्मकता के विकास की संभावनाएं नहीं हैं।
      प्रसिद्ध मार्क्सवादी आलोचक रेमण्ड विलियम्स ने लिखा कि तकनीक, प्रभाव का निर्धारण नहीं करती बल्कि इसके विपरीत नयी तकनीक विशेष सामाजिक व्यवस्था की उपज होती है।इसका विकास अनुसंधान की स्वायत्त प्रक्रिया में वहीं तक होता है,जहां तक वह वास्तव एजेंसी की संगति में हो तथा उसे चुनौती न दे।यहां पर उसकी पहचान और सुरक्षा के ही सवाल ही सिर्फ प्रासंगिक नहीं होते।अपितु उसके विरोधी तत्व भी सक्रिय होते हैं।नयी तकनीकी का समग्र सामाजिक विकास के क्रम में स्थापित सामाजिक व्यवस्था के पक्ष में या इससे भिन्न उद्देश्य के लिए प्रयोग किया जा सकता है।अत: इसका उपयोग और चयन हमारे सामाजिक विकास, प्रगति और संघर्ष का अंग है।
     रेमण्ड विलियम्स ने यह भी रेखांकित किया कि हमें 'माध्यम' को 'संस्थान' के रूप में देखना चाहिए। संचार माध्यमों को लोकतंत्र के उपकरण के रूप में देखने की जरूरत है। संचार के क्षेत्र में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के खिलाफ सख्त कानून बनाने की जरूरत है।क्योंकि ये कंपनियां विध्वंसक विकास लेकर आ रही हैं।इसके लिए तुरंत फैसले लेने की जरूरत है।इसके खिलाफ संघर्ष के लिए सूचना,विश्लेषण,शिक्षा,वाद-विवाद आदि बेहद जरूरी है।
     आज बहस के केन्द्र में सवाल यह है कि विकासमूलक संप्रेषण क्या है ?इसका परिप्रेक्ष्य और सामाजिक भूमिका क्या है ?विकासमूलक संप्रेषण का लक्ष्य है समाज का अंतिम मनुष्य। सबसे नीचे की अवस्था में जीने वाले लोग।वंचित लोग। अल्पसंख्यक।स्त्रियां।मजदूर,।खेत मजदूर। किसान। बच्चे आदि इसका लक्ष्य हैं।
         श्रीनिवास मेलकोटी एवं एच.लीसली स्टीव ने 'कम्युनिकेशन फॉर डवलपमेंट इन द थर्ड वर्ल्ड'' (2001) में विकासमूलक सम्प्रेषण की तीन दृष्टियों का जिक्र किया है।पहला, विकासमूलक संचार के कुछ सिद्धान्तकारों का मानना है कि विकासमूलक संप्रेषण का लक्ष्य है संचार को संगठित करना,ज्यादा से ज्यादा लोगों को संप्रेषित करना,संस्कृति और सभी किस्म के सामाजिक परिवर्तन को संभव बनाने में मदद करना। इस दृष्टिकोण की समझ यह है कि संदेश का तकनीक से जब प्रसार और प्रचार किया जाता है तो आधुनिकीकरण की प्रक्रिया तेज होती है। इससे खास किस्म के मूल्य,संस्कार,व्यवहार आदि का जनता में जन्म होता है।इन लोगों के यहां सम्प्रेषण और सूचना ये दोनों फुसलाने वाला तत्व है।इससे आधुनिकीकरण की प्रक्रिया को मदद मिलती है।सामान्य तौर पर ये लोग सम्प्रेषण को बाजार अनुसंधान के परिप्रेक्ष्य में ही विवेचित करते हैं।वे यह मानते हैं कि बाजार अनुसंधान विकास के लक्ष्यों,और संप्रेषण की रणनीति बनाने में मददगार साबित हो सकता है।इस तरह के सोच की सीमा यह है कि इसमें विकास भी बिकाऊ है।उसे बिकाऊ बनाने के लिए ही बाजार अनुसंधान संस्थाओं की राजनेता मदद लेते हैं।

बाजार अनुसंधान संस्थाएं ही विकास और उससे जुड़े तकनीकी रूपों को लक्ष्यीभूत ऑडिएंस को सम्प्रेषित करते हैं।उसे पाने के लिए फुसलाते हैं। आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में यह दृष्टिकोण विकासमूलक सम्प्रेषण फुसलाने वाली मार्केटिंग का हिस्सा बनकर आता है।इसे मार्केटिंग मॉडल कह सकते हैं।
       दूसरा,आलोचनात्मक दृष्टिकोण है। यह मार्केटिंग के नजरिए को पूरी तरह खारिज करता है।आलोचनात्मक दृष्टिकोण का मानना है कि मार्केटिंग मॉडल का लक्ष्य है पश्चिमी तकनीकी,अर्थनीति और राजनीतिक मूल्यों का प्रसार करना।वे यह भी मानते हैं कि मार्केटिंग मॉडल में जो फुसलाने वाला तत्व है वह जबर्दस्त हानिकारक है।यह आम लोगों की जिन्दगी के सांस्कृतिक संदर्भ को पर्याप्त ध्यान नहीं देते।इसमें बहुस्तरीय लोगों के हित छिपे हुए हैं।इसके कारण बृहत्तर जनता को लाभ नहीं होता।
      आलोचनात्मक दृष्टिकोण मानता है कि विकासमूलक सम्प्रेषण आम सहमति बनाने वाला और प्रतिरोधी भाव पैदा करता है।वह उन तमाम चीजों का विरोध करता है जो फुसलाने से पैदा होती हैं।गरीब और अमीर के बीच पैदा हुए भयानक अंतराल का विरोध करता है। उन तमाम नीतियों को अस्वीकार करता है जो गरीबी और अमीरी के बीच में अंतराल पैदा करती हैं। विकासमूलक सम्प्रेषण का आलोचनात्मक नजरिया बहुआयामी है। सांस्कृतिक तौर पर संवेदनशील है।यह रेखीय विकास की बजाए बहुआयामी विकास पर जोर देता है।इसकी नजर सिर्फ अर्थव्यवस्था पर ही नहीं है।अपितु अर्थव्यवस्था,राजनीति,संस्कृति और वैचारिक संरचनाओं और समग्र समाज के विकास पर इसका जोर है।

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