शनिवार, 10 अप्रैल 2010

मीडियावाली नकली औरत



                          
मीडिया दो तरह के समूहों पर अपना नकारात्मक प्रभाव डालता है,  पहला, उन लोगों पर असर डालता है जो खुले तौर पर जनता के अंदर स्त्रीवादी रूझानों के प्रतिदिन घृणा फैलाते रहते हैं। दूसरा, जिन लोगों में प्रेम के प्रति अविश्वसनीय भावुक लगाव होता है, जो कमजोर होते हैं। जबकि मीडिया का तरूणों पर सामान्य, स्वस्थ प्रभाव पड़ता है। मीडिया में खासकर टेलीविजन या पत्रिकाओं में स्त्रियों पर केन्द्रित प्रकाशित सामग्री में लड़कियां सिर्फ 'लुक' को ही देखती हैं। वे सिर्फ मॉडलों को कामुक वस्तु के रूप में देखती हैं। लड़कियों में मीडिया के प्रभाववश आत्मविश्वास में कमी आयी है। तरूणियों को सम्बोधित पत्रिकाओं में यह संदेश रहता है कि तरूणियों को रोमांटिक लगाव रखना चाहिए,पुरूष पर निर्भर रहना चाहिए,शारीरिक सौन्दर्य पर ध्यान देना चाहिए।
              मीडिया प्रस्तुतियों स्त्री के संदर्भ में दो बातें महत्वपूर्ण हैं,पहली बात यह है कि प्रत्येक सामान्य स्त्रीं की शादी अपरिहार्य है। दूसरी बात यह कि वह ऐसे मर्द को चुनें जो उससे कम सक्षम हो,पेसिव और कामुक हो। आमतौर पर ऐसी ही औरतों का चित्रण आ रहा है जो पति का इंतजार कर रही हैं , बच्चा पैदा करने का इंतजार कर रही हैं, परिवार में कलह के केन्द्र में हैं। अथवा मातहत भूमिका निभा रही है।
   मीडिया निर्मित स्त्री-पुरूष के बीच के अन्तर्वैयक्तिक संबंधों में मर्द पालनकर्त्ता और औरत अनुगामिनी या मातहत के रूप में ही चित्रित हो रही है। स्त्री के अभिभावकत्व ,घरेलूपन , घर की व्यवस्था और स्त्री के युवापन पर ज्यादा  जोर दिया जा रहा है। ऐसी सामग्री भी मिलती है जिसमें बच्चों के साथ बड़े भी जिम्मेदारी से हाथ बटाते दिखाई देते हैं। बच्चों की संवेदनात्मक समस्याओं और पुरूष सामंजस्य की समस्याओं,आनंद ,घर के बाहर के हितों का रूपायन भी मिलता है। ब्रिटिश तरूण पत्रिका जैकी का मूल्यांकन करते हुए मैकरूबी ने लिखा कि इसमें फैशन,सौन्दर्य,पॉप स्टार और रोमांस की समस्याओं पर सामग्री मिलती है। वयस्कों की पत्रिकाएं स्वाधीन लड़की का चित्रण पेश नही करतीं।बल्कि यह बताती हैं कि स्त्री आज भी निर्भर है,और स्त्री के लिए निर्धारित कार्यों मे मशगूल है। इस तरह का चित्रण स्त्री के भविष्य के लिहाज से बेहद नुकसानदेह है।खासकर तरूणियों के लिए इस तरह की प्रस्तुतियां नुकसानदेह हैं,क्योंकि ये लड़कियां इस उम्र में सीख रही होती हैं। वे जैसा सीखती हैं उसका वैसे ही व्यवहार में प्रयोग भी करती है। हाईस्कूल में पढ़नेवाली लड़कियों के लिए परंपरागत स्त्री का स्टीरियोटाइप संदेश जितना असर छोड़ता है,उतना ही इसका वैकल्पिक रूपायन भी असर छोड़ता है। तरूणियों के लिए सम्बोधित पत्रिकाओं के पास यह अच्छा अवसर है कि वे उनके संसार को नयी शक्ल प्रदान करे। अगर स्त्री पत्रिकाओं में गैर-परंपरागत संदेश का प्रचार किया जाता है तो स्त्रियों में यह संदेश भी जाता है कि उनके पास अन्य विकल्प भी हैं। स्त्री को चंद सीमित विकल्पों तक ही सीमित रहने की जरूरत नहीं है।
        स्त्री पत्रिकाओं में छपेलेखों  के प्रमुख विषयहैं- -सुंदरता, फैशन,खाना बनाना और घर सजाना। इस तरह की प्रस्तुतियों ने तरूणियों को यह संदेश दिया कि उनकी गतिविधि और सरोकार का समग्र क्षेत्र है सजना,घरेलू कामकाज में भागलेना,रोमांस और डेटिंग करना। यह एक तरह से परंपरागत विचारधारा को उनके ऊपर थोपना था। इन पत्रिकाओं में प्रकाशित लेखों में स्त्री-पुरूष संबंधों पर कम चर्चा हुई और सबसे ज्यादा ध्यान आत्म विकास पर दिया गया। इसका अर्थ है कि महिला आन्दोलन का स्त्री पत्रिकाओं की संपादकीय नीति पर कोई असर नहीं होता। तरूणियों की पत्रिकाएं मूलत: सुंदर दिखने,मर्द खोजने और घर की देखभाल पर ज्यादा ध्यान दे रहीं  हैं। पत्रिका के प्रबंधक यह कहते थे कि उन्होंने वही पेश किया जिसकी मांग थी। पत्रिकाओं की यह जिम्मेदारी है कि वे तमाम सूचनाएं लड़कियों को प्रदान करें जिनकी उन्हें जरूरत है।साथ ही परंपरागत स्त्री रूप के अलावा अन्य विकल्प चुनने का भी अवसर दें।                 

       मीडिया में   कृशकाय देहयष्टि को आवश्यक,सफलता में सहायक,आत्मविकास के जरूरी बताकर पेश किया गया। इस तरह की प्रस्तुतियों को जब औरतें आत्मसात कर लेती हैं तो उनके दिमागी संतुलन पर बुरा असर होता है ,वे अपने शरीर से घृणा करने लगती हैं, असंतुष्ट रहती हैं। एक अनुसंधान में बताया गया कि मात्र 30 मिनट तक टीवी देखने वाली औरत के दिमाग पर शरीर को लेकर बुरा असर देखा जा सकता है। कहने का तात्पर्य यह है कि आदर्श देहयष्टि(कृशकाय ) का टीवी पर प्रसारण स्त्रियो के मन को प्रभावित करता है।
       खासकर हमारे व्यंग्य कार्यक्रमों में जिन्हें युवा और तरूण लड़कियां ज्यादा देखती हैं। इन कार्यक्रमों में छरहरी स्त्री इमेज ज्यादा प्रभावित करती है।छरहरी औरत का बार-बार सामने आना औरतों में डाइटिंग के रूझान को बढ़ाता है, वे ऐसे उपाय अपनाने लगती हैं जिससे वे छरहरी लगें। इसी तरह फैशन पत्रिकाएं भी खानपान के बारे में गलत रूझान या डिस ऑर्डर पैदा करती हैं। एक अन्य अनुसंधान में बताया गया कि टीवी कार्यक्रम और फैशन पत्रिकाएं कुल मिलाकर स्त्रियों में 'ईटिंग डिस आर्डर' के लक्षण पैदा करती हैं। टीवी कार्यक्रमों में छरहरी औरतों पर सकारात्मक टिप्पणियां होती हैं जबकि मोटी या मांसल औरत पर नकारात्मक टिप्पणियां रहती हैं। टेलीविजन कार्यक्रम के दौरान छरहरी कमनीय मॉडल के प्रति सकारात्मक टिप्पणियां भाषा के माध्यम से व्यक्त होती हैं। इस तरह की टिप्पणियों को शेखर सुमन के कार्यक्रमों,एमटीवी के कार्यक्रमों में सहज ही देखा जा सकता है।   

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