मंगलवार, 6 जुलाई 2010

हिन्दू फासीवादियों के वैचारिक खेल

     फासीवादी राजनीति में जो संगठन विश्वास करते हैं उनके नेता आए दिन उन्मादी भाषा,भड़काऊ भाषा में बोलते और लिखते हैं। बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि आंदोलन के समय प्रवीण तोगड़िया-अशोक सिंघल की राष्ट्रीय जोड़ी ने इस तरह की भाषण कला का व्यापक प्रदर्शन किया था। इसी तरह के भड़काऊ भाषण मुस्लिम और क्रिश्चियन फंडामेंटलिस्ट भी देते हैं इनके दर्शन सहज ही धार्मिक चैनलों में कभी भी किए जा सकते हैं।
  फासीवादी उन्मादी भाषणकला का आदर्श था हिटलर । उससे ही सारी दुनिया में उन्मादी भाषणकला का प्रचार-प्रसार हुआ है। आवेगमय भाषा और वक्तृता शैली में राष्ट्रवाद प्राथमिक तत्व है और सारी चीजों को राष्ट्रवाद की कसौटी पर ही रखकर पेश किया जाता है।
     भारत में हिन्दू राष्ट्रवाद के समर्थकों का मानना है कि भारत विविधता का नहीं हिन्दू संस्कृति का देश है। हिन्दू संस्कृति उनके लिए परम पवित्र और अन्य से अप्रभावित संस्कृति है। यह शाश्वत संस्कृति है। एकाकी संस्कृति है। भारत में रहना है तो हिन्दू संस्कृति के साथ एकात्म करके रहना होगा।
   फासीवादी मानते हैं भारत की राष्ट्रीय पहचान का आधार है हिन्दू धर्म। राष्ट्रवाद के आधार पर सोचने के कारण ही हिन्दू फासीवादी संगठन सेना को ज्यादा से ज्यादा शक्तिशाली बनाने पर जोर देते हैं। कारपोरेट घरानों की स्वतंत्रता की हिमायत करते हैं। निजी संपत्ति को स्वीकृति देते हैं। अन्य से भिन्न राजनीतिक पार्टी होने का दावा करते हैं। भारत में हिन्दू राष्ट्रवादियों के एजेण्डे के सामने समाज में व्यक्तिगत और नागरिक स्वतंत्रताएं बेमानी हैं। व्यक्तिगत स्वतंत्रताओं को वे हिन्दू धर्म के रूबरू रखकर देखते हैं। यही हाल मुस्लिम और ईसाई तत्ववादियों का है। वे एक काम और करते हैं राज्य की स्वतंत्रता को धर्म की स्वतंत्रता के रूबरू रखते हैं।
    फासीवादी तर्क के अनुसार भारत में पैदा होने वाला प्रत्येक व्यक्ति जन्मना हिन्दू है। यदि वह इस सत्य को नहीं मानता तो उसकी आलोचना करते हैं। जबकि सच यह है कि किसी भी देश में पैदा होने से किसी भी व्यक्ति का धर्म निर्धारित नहीं किया जा सकता। वे हिन्दू धर्म संबंधी विचारों को इस तरह पेश करते हैं गोया उनके बारे में कोई बात ही नहीं की जा सकती । उनके लेखे हिन्दू धर्म के विचार निरपेक्ष विचार हैं। सामान्य विचार हैं। शाश्वत विचार हैं। धार्मिक विचारों को निरपेक्ष रूप में पेश करने के कारण वे आम आदमी की आत्मा को उद्वेलित करना चाहते हैं। उसे कायल करना चाहते हैं। हिन्दुत्ववादी राजनीतिक दल भारतीय जनता पार्टी का हिन्दुत्व के नारे से गांधीवादी समाजवाद की ओर मुड़ना और गांधीवादी समाजवाद को अपने राजनीतिक कार्यक्रम में शामिल करना इस बात का संकेत है कि भारत में फासीवादी ताकतों के निशाने पर वे विचारधारा और संगठन हैं जो समाजवाद और वर्गसंघर्ष में विश्वास करते हैं।
     विचारणीय सवाल यह है कि भारत में हिन्दू राष्ट्र का निर्माण करने का सपना देखने वाली भाजपा ने आखिरकार अपने कार्यक्रम में गांधीवादी समाजवाद के लक्ष्य को शामिल क्यों किया ? राजनीतिक तौर पर देखें तो भाजपा को उदार पूंजीवादी नीतियों और मूल्यों से सख्त नफरत है। भाजपा शासित राज्यों में उदार मूल्यों के खिलाफ सुनियोजित हमलावर कार्रवाईयां आए दिन संगठित होती रहती हैं। उदार मूल्यों और मान्यताओं के खिलाफ आए दिन देश में जगह-जगह एक्शन संगठित किए जाते हैं। इन एक्शनों में सबसे ताजा एक्शन हैं अन्तर्जातीय-अन्तर्धार्मिक विवाहों के खिलाफ संगठित हस्तक्षेप। इस काम में संघ परिवार के स्वयंसेवक आए दिन सक्रिय रहते हैं। उसी तरह बैलेंटाइन दिवस पर उनका गुस्सा सब जानते हैं।
    फासीवादी दल का असल में कोई कार्यक्रम नहीं होता बल्कि अवसरवादी कार्यक्रम होता है। उनके कार्यक्रम का लक्ष्य है भारत को हिन्दू राष्ट्रवाद के आधार पर नए सिरे से समायोजित करना। हिन्दुत्व के आधार पर सत्ता को पुनर्गठित करना। इसके लिए वे समूची प्रशासनिक मशीनरी को हिन्दुत्व के आधार पर नियोजित करते हैं। प्रशासनिक मशीनरी की धर्मनिरपेक्ष अंतर्वस्तु को नष्ट करते हैं। गुजरात-मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ में इस नजरिए के प्रयोग चल रहे हैं और इस मामले में सबसे ज्यादा सफलता गुजरात में मिली है।
     गुजरात में न्यायपालिका से लेकर पुलिस तक,मुख्यमंत्री के दफ्तर से लेकर नगरपालिका तक हिन्दूकरण सबसे खतरनाक फिनोमिना है। उल्लेखनीय है एनडीए सरकार के जमाने में संविधान पर पुनर्विचार के लिए एक आयोग भी बनाया गया था जिसका बुनियादी लक्ष्य था भारत के संविधान के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को बदलना,संसदीय लोकतंत्र की जगह राष्ट्रपति केन्द्रित शासन व्यवस्था स्थापित करना। इस प्रक्रिया में बड़ी ही बारीकी के साथ भाजपा और एनडीए के बहाने संघ परिवार अपने उदार लोकतंत्र विरोधी एजेण्डे को लागू करना चाहता था। कहने का आशय यह कि उदार लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता को संघ परिवार एकदम पसंद नहीं करता। यही भावना अन्य देशों में सक्रिय फासीवादी संगठनों की रही है।
        फासीवादी संगठन धर्म या नस्ल के आधार पर राष्ट्र को एकजुट करने की कोशिश करते हैं। हिन्दू आस्था के आधार पर भावात्मक एकता पैदा करना चाहते हैं। उनके लिए हिन्दू आस्था परम पवित्र और सर्वोच्च है। हिन्दू आस्था को तोड़ना किसी भी तरह स्वीकार्य नहीं है।
    फासीवाद के लिए व्यक्ति की स्वतंत्र सत्ता और अधिकारों का कोई महत्व नहीं होता। भारत में हिन्दू फासीवादी संगठन व्यक्ति को उदार लोकतंत्र में स्वतंत्र यूनिट के रूप में स्वीकार नहीं करते, वे व्यक्ति की सर्जनात्मक भूमिका को भी स्वीकार नहीं करते। बल्कि व्यक्ति को इन दोनों से भिन्न हिन्दू समुदाय के साथ एकीकृत करके देखते हैं। वे उसे हिन्दू राष्ट्र और हिन्दू जाति के अभिन्न हिस्से के रूप में पेश करते हैं। वे व्यक्ति और राष्ट्र में इसी के आधार पर समरसता पैदा करना चाहते हैं।
    हिन्दुत्ववादी व्यक्ति की नियति को राष्ट्रीय समष्टि की नियति के साथ जोड़कर पेश करते हैं। वे व्यक्ति के यथार्थ को राष्ट्र का यथार्थ और राष्ट्र के यथार्थ को व्यक्ति का यथार्थ बनाकर पेश करते हैं। वे व्यक्ति और राष्ट्र में समरसता पैदा करने की कोशिश करते हैं। व्यक्ति की स्वतंत्रता को राष्ट्र की स्वतंत्रता के साथ नत्थी करते हैं। यही काम हिटलर ने भी किया था।
     वे यह भी मानते हैं कि राज्य के पास जितने अधिकार होंगे व्यक्ति के पास भी उतने ही अधिकार होंगे। हिन्दू फासीवादियों ने व्यक्ति की अस्मिता को हिन्दू अस्मिता के साथ जोड़कर हिटलर के द्वारा प्रतिपादित व्यक्ति और राज्य के अन्तस्संबंध के सिद्धान्त का अक्षरशः पालन किया है। इस धारणा का व्यापक प्रयोग दीनदयाल उपाध्याय के एकात्मकतावाद के सिद्धान्त में मिलता है।
     वे हिन्दू पहचान के साथ व्यक्ति को नत्थी करके उसे नैतिक ऊँचाई प्रदान करने का दावा करते हैं। हिन्दू अस्मिता,हिन्दू राष्ट्र और हिन्दू संस्कृति को व्यक्ति के जीवन का मिशन बनाना चाहते हैं। हिन्दू की सेवा और हिन्दू के लिए त्याग का आए दिन नारा देते रहते हैं।
   हिन्दू फासीवादी संगठन हिन्दू को भारत का स्वाभाविक-नैसर्गिक समुदाय मानते हैं। हिन्दू सामुदायिक पहचान के सामने सामाजिक विभिन्नता को अस्वीकार करते हैं। व्यक्ति की समस्त आधुनिक पहचान के रूपों,पेशेगत पहचान,लैंगिक पहचान,पारिवारिक पहचान ,वर्गीय पहचान आदि को अस्वीकार करते हैं। वे हिन्दू समाज के जातिभेद को अपरिहार्य मानते हैं और इसे भगवान की देन मानते हैं।
     वे मानते हैं कि जब हाथ में पांचों अगुलियां बराबर नहीं हैं तो समाज में सभी बराबर कैसे हो सकते हैं। असमानता एक स्वाभाविक चीज है। प्राकृतिक चीज है। असमानता को कभी खत्म नहीं किया जा सकता। असमानता को प्राकृतिक मानने के कारण ही हिन्दुत्ववादी वर्णव्यवस्था का समर्थन करते हैं। जातिभेद को मानते हैं। वर्णाश्रम व्यवस्था की सवर्ण जातियों के प्रति इनका रूख वही नहीं है जो शूद्रों और आदिवासियों के प्रति है। सवर्णों को वे जन्मना हिन्दू मानकर चलते हैं और असवर्णों को हिन्दू बनाने का अभियान चलाते रहते हैं।
      फासीवादी मानते हैं जो बेहतर हैं वही शक्तिशाली हैं। हिन्दू बेहतर हैं और वही शक्तिशाली हैं। इस आधार पर वे हिन्दू श्रेष्ठत्व का भाष्य रच रहे हैं। जाहिरा तौर पर जो कमजोर हैं उन्हें श्रेष्ठ के तहत रहना होगा। श्रेष्ठ तो सिर्फ हिन्दू है, बाकी गैर हिन्दू उसके मातहत रहने के लिए अभिशप्त हैं। हिन्दू बलि हैं,गैर हिन्दू निर्बल हैं। फासीवादी नियम के अनुसार बलि के मातहत निर्बल को रहना होगा। सशक्त के मातहत अशक्त को रहना होगा।     

                                 
                    


















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