शुक्रवार, 30 दिसंबर 2011

आलोचना के कॉमनसेंस के प्रतिवाद में

हिंदी आलोचना में इनदिनों एकदम सन्नाटा है। इस सन्नाटे का प्रधान कारण है आलोचना सैद्धांतिकी, समसामयिक वास्तविकता और सही मुद्दे की समझ का अभाव। यह स्थिति सामाजिक यथार्थ और आलोचना सिद्धांतों के साथ अलगाव से पैदा हुई है। लेखक-आलोचक लिख रहे हैं लेकिन वे क्या लिख रहे हैं,क्यों लिख रहे हैं और जो लिख रहे हैं उसके साथ सामाजिक सच्चाई के साथ कोई मेल भी है या नहीं इस पर वे थोड़ा देर ठहरकर सोचने या सुनने के लिए तैयार नहीं हैं। एक खासकिस्म की मानसिक व्याधी में लेखक और आलोचक दोनों फंस गए हैं। वे अपनी कह रहे हैं अन्य की सुन नहीं रहे हैं। वे सिर्फ अनुकूल को देख रहे हैं।

दूसरी बड़ी समस्या यह है कि आलोचकों ने अपडेटिंग बंद कर दी है। अधिकांश आलोचना निबंधों में आलोचना सैद्धांतिकी के नए प्रयोग नजर नहीं आते। लोग लिखने के नाम पर लिख रहे हैं।यह आलोचना में आया तदर्थभाव है। सारी दुनिया में आलोचना में जो लिखा-पढ़ा जा रहा है उसके साथ संवाद-विवाद,ग्रहण और अस्वीकार बंद है।सवाल उठता है हमारे आलोचक और लेखक यह क्यों कर रहे हैं ? वे किसी मसले पर बहस कर रहे हैं तो बहस के नाम पर बहस कर रहे हैं। वे किसी साहित्य सैद्धांतिकी के मानकों के आधार पर बहस नहीं कर रहे।

मैं यहां सुविधा के लिए स्त्रीसाहित्य के प्रसंग में कुछ नई बातों की ओर ध्यान खींचना चाहता हूँ। हमारे यहां स्त्री को विलक्षण और औचक भाव से देखा जाता है। यहां तक कि अकादमिक जगत में भी उन्हें दूसरे लोक का प्राणी मानकर व्यवहार किया जाता है। साहित्य की स्नातक और उससे ऊपर की कक्षाओं में 'फेमिनिज्म' या स्त्रीवादी साहित्य सिद्धांत नहीं पढ़ाए जाते। अकादमिक जगत में हम स्त्री के बारे में बातकरते हैं लेकिन उसके शास्त्र को पढ़ाने से परहेज करते हैं। युवा लड़कियां भी फेमिनिस्ट कहलाना पसंद नहीं करतीं। क्या फेमिनिज्म के बिना औरत की स्वायत्त सत्ता संभव है ? क्या फेमिनिस्ट कहलाना गलत है ? हिंदी में फेमिनिज्म गाली है। यह हमारे स्त्रीविरोधी सोच की अभिव्यंजना है।

आज औरतों के पास जितने अधिकार हैं उन्हें दिलाने में फेमिनिज्म और महिला आंदोलन की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। लेकिन अधिकतर औरतें और आलोचक ,फेमिनिज्म के इस कर्ज के प्रति कृतज्ञता से पेश नहीं आते। वे स्त्री की उन परिस्थितियों को अस्वीकार नहीं करते जिनमें औरतें कष्ट और अपमान में रह रही हैं, और अपनी वास्तव स्त्रीचेतना से वंचित है। इस क्रम में औरतें समाज में हाशिए पर चली गयी हैं। अधिकतर औरतें अदृश्य रहना चाहती हैं। वे परिवार के निर्माण में अपनी भूमिका निभाना चाहती हैं लेकिन सामाजिक वातावरण में अपनी भूमिका नहीं निभाना चाहतीं। उनके व्यक्तित्व से नागरिक आयाम एकसिरे से गायब है। यह भी कह सकते हैं औरत की घरेलू अस्मिता ने उसकी नागरिकअस्मिता का अपहरण कर लिया है।

फेमिनिज्म की खूबी है कि वह औरत के आसपास बने हुए परंपरागत माहौल को खत्म करता है।उसके अंदर नागरिक अधिकारों की चेतना पैदा करता है। खासकर लोकतंत्र में फेमिनिज्म तो स्त्रीरक्षा का प्रभावशाली हथियार है। उल्लेखनीय है विभिन्न रंगत का फेमिनिज्म प्रचलन में है स्त्री अपनी सुविधा और समझ के आधार पर चुन सकती है कि वह किस तरह के फेमिनिस्ट नजरिए का पालन करे। फेमिनिज्म के बिना स्त्री अपनी अस्मिता का निर्माण नहीं कर सकती। स्त्री के लिए फेमिनिज्म एक नजरिया है और सामाजिक विकास की दिशा में उठाया गया बड़ा कदम है। हिन्दी की आयरनी है कि हमारे यहां स्त्री साहित्य है लेकिन फेमिनिस्ट कोई नहीं है। उलटे फेमिनिज्म से नफरत करनेवाले लेखक- लेखिकाएं -आलोचक मिल जाएंगे।

लोकतंत्र में स्त्रीअधिकार की आधारशिला है उसका स्वायत्त अस्तित्व।स्त्री को जब तक स्वायत्तता नहीं मिलती,स्वायत्त वातावरण नहीं मिलता। सारी कवायद बेकार है। स्त्री का अस्तित्व और स्वायत्तता ये उसके दो बुनियादी हक हैं। अभी औरत को हम महज सेवा करने वाली और बच्चा पैदा करने वाली के रूप में ही देखते हैं। हिन्दी की आलोचना में स्त्री को मातहत मानने का भाव जड़ें जमाए हुए है। स्त्री-पुरूष संबंधों में लोकतंत्र नहीं आया है। लेखिका और आलोचक के बीच के रिश्ते में भी लोकतंत्र दाखिल नहीं हुआ है। इन सब स्थानों पर पितृसत्ता का कब्जा बरकरार है। स्त्री को हम पुरूष की पूरक मानते हैं। उसकी स्वायत्त सत्ता को नहीं मानते।कुछ लोग स्त्री की स्वायत्त सत्ता मानते हैं तो उसे नागरिकचेतना और नागरिक अधिकारों के साथ जोड़ नहीं पाए हैं। स्त्री महज स्त्री नहीं है। वह नागरिक है। स्त्री को स्त्री की पहचान के साथ नागरिक की पहचान के रूप में देखने की आवश्यकता है। वह जेण्डर भी है और नागरिक भी है। लोकतंत्र में नागरिक की पहचान हासिल करना प्रधान लक्ष्य है।

इसके अलावा विभिन्न संस्थानों को भी लोकतंत्र का पाठ नए सिरे से पढ़ाने की आवश्यकता है। जिससे वे नागरिकअधिकारों और नागरिकचेतना के प्रति परिपक्वता से पेश आएं। नागरिक परिपक्वता पैदा करने के लिए नागरिक कानूनों की नए सिरे से पड़ताल की जानी चाहिए। जजों से लेकर सांसदो-विधायकों को नागरिकता का गहन प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। वे जानें कि नागरिक अधिकारों का मतलब क्या है ? सीमाएं क्या हैं ? प्राकृतिक नियम विधान और कानूनी नियम विधान की सीमाएं क्या हैं ? इस दिशा में पहले कदम के तौर पर स्त्री की इच्छा और अधिकारों का हम सम्मान करना सीखें, उस पर थोपना बंद करें।

स्त्री-पुरूष ये दोनों समाज में स्वायत्त इकाई हैं। इस बात को बुनियादी तौर पर मानें। लोकतंत्र का आरंभ नागरिक संबंधों से होता है और नागरिक संबंधों को नागरिक अधिकारों के जरिए संरक्षण प्राप्त है। ये नागरिक अधिकार पुरूष की तरह स्त्री को भी प्राप्त हैं। स्त्री-पुरूष के बीच में प्रेम रहे। दोनों एक-दूसरे की संवेदना,अनुभूति,शरीर और मूल्यों का सम्मान करें।

हमारे देश में लोकतंत्र है, संविधान में हक भी मिले हैं। लेकिन स्त्री-पुरूष एक-दूसरे का सम्मान नहीं करते। नागरिकता का उदय तब होता है ,जब हम सम्मान करते हैं। भिन्नता को स्वीकार करते हैं। भिन्न किस्म की धार्मिक ,राजनीतिक और सांस्कृतिक भावनाओं को स्वीकार करते हैं। नागरिक भावबोध पैदा करने लिए हमें स्त्री-पुरूष के प्राकृतिक अंतर को भी मानना पड़ेगा। इन दोनों की स्वायत्तता को भी मानना पड़ेगा।

लोकतंत्र में हक मिलते नहीं हैं।उनको हासिल करना पड़ता है। यह स्त्रीविवेक पर निर्भर करता है कि वह अपने अधिकारों के प्रति कितनी सजग है। स्त्री की सजगता के आधार पर यह भी देख सकते हैं कि वह अपने को दासता से किस हद तक मुक्त करना चाहती है। इसके लिए स्त्री को लिंग के दायरे से बाहर निकलकर नागरिक के दायरे में आना होगा। लिंगबोध का नागरिकबोध में रूपान्तरण करना होगा।

लिंगबोध ,स्त्रीदासता बनाए रखता है। जबकि नागरिकता का दायरा इस दासता से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करता है। इससे स्त्री को अपनी प्राकृतिक पहचान को नागरिक अस्मिता में रूपान्तरित करने में मदद मिलती है। स्त्री जब तक स्त्री की इमेज में बंधी रहेगी उसे नागरिक समाज और नागरिक अधिकारों के साथ सामंजस्य बिठाने में असुविधा होगी। यह भी संभव है स्त्री अपनी प्राकृतिक जिंदगी को पूरी तरह त्यागे बिना नागरिक जिंदगी में प्रवेश करे। जिस तरह स्त्री के लिए वस्त्र जरूरी हैं वैसे ही नागरिक अधिकार भी जरूरी हैं। इसके लिए जरूरी है कि स्त्री-पुरूष में प्रेम हो। प्रेम के बिना सब बेकार है। यहां तक कि नागरिक अधिकार भी अर्थहीन हैं। परंपरा और धर्म भी अर्थहीन है। स्त्री की स्वायत्तता बचे इसके लिए स्त्री-पुरूष में प्रेम जरूरी है। स्त्रियों में आपसी प्रेम जरूरी है।

स्त्री के प्रति रवैय्या बदले इसके लिए जरूरी है कि हम उसे देखने का तरीका बदलें। स्त्रीचेतना का सामाजिक स्रोत हैं संस्थान। स्त्री के बारे में जब भी किसी विषय पर बात की जाए उसे संस्थान के साथ जोड़कर देखा जाना चाहिए। स्त्रीचेतना का निर्धारण स्त्री कम और सामाजिक संस्थान ज्यादा करते हैं। मसलन् ,मध्यकाल में स्त्री पर विचार करना है तो मध्यकालीन संस्थानों से जोड़कर देखें। आधुनिक औरत पर बात करनी है तो आधुनिक संस्थानों की भूमिका के संदर्भ में विश्लेषित करें। संस्थान के चरित्र उदघाटन के बिना स्त्री अस्मिता का रहस्योदघाटन संभव नहीं है।

सवाल उठता है संस्थान किसे कहते हैं ? उनका काम क्या है ? संस्थान की केन्द्रीय भूमिका है शिरकत पैदा करने की। जैसे न्यायालय,संसद,विधानसभा आदि ये संस्थान हैं। इनमें कोई भी शिरकत कर सकता है। स्त्रीसाहित्य को संस्थानों की शिरकत वाली भूमिका से जोड़ने की जरूरत है। उसे संस्थान बनाने की जरूरत है। आज हमारे यहां साहित्य या स्त्रीसाहित्य को संस्थान के रूप में विश्लेषित नहीं करते बल्कि महज कम्युनिकेशन के रूप में विश्लेषित करते हैं। संस्थान के रूप में विश्लेषित करते तो फेमिनिज्म के प्रति अछूतभाव न होता।

सामान्यतौर पर स्त्री पर बात करते समय ,उसके लिखे पर बात करते समय हम स्त्री को लिंग की तरह नहीं देखते,उसकी राय को लिंग की राय के रूप में ग्रहण नहीं करते।बल्कि व्यक्तिगत राय के रूप में देखते हैं। इस तरह देखने का दुष्परिणाम यह निकला है कि स्त्री को,उसके विचारों को हाशिए पर डाल देते हैं। उसके स्वायत्त अस्तित्व और उसकी उपलब्धियों या सामाजिक भूमिका को सीमित करके पुंस वर्चस्व के अधीन बना देते हैं।

उल्लेखनीय है लिंगरहित पहचान की जितनी भी धारणाएं या संबंध हमारे समाज में प्रचलन में हैं उनके आधार पर स्त्री की सही समझ नहीं बनती। मसलन्, स्त्री को मनुष्य, निजी,व्यक्ति, बीबी,बहू,बेटी,बहन आदि के आधार पर नहीं समझा जा सकता। इस तरह के सारे पदबंध स्त्री की लिंग की पहचान को छिपाते हैं,या उसकी उपेक्षा करते हैं। स्त्री को न्यूनतम स्पेस देते हैं। साथ ही इनमें किसी न किसी रूप में पुंसवादी संदर्भ निहित है और वह निर्णायक भूमिका अदा करता है। ये सभी पदबंध पुरूषसंहिता में निर्मित हैं। कायदे से हमें मर्द के सॉचे में ढ़लकर आई अवधारणाओं और स्त्री के साँचे में ढलकर आई अवधारणाओं में अंतर करना चाहिए।

बुनियादी बात यह है कि स्त्री को आज फेमिनिज्म के साथ अपना अलगाव या अछूतभाव खत्म करना होगा। पाठ्यक्रमों में फेमिनिज्म को सम्मानजनक दर्जा देना होगा।स्त्री को स्त्रीअस्मिता के बाहर ले जाकर नागरिक की पहचान के रूप में स्थापित करना होगा। नागरिक अधिकार ही हैं जो अस्मिता के अधिकारों को विस्तार देते हैं। ये बातें दलित अस्मिता की राजनीति पर भी लागू होती हैं।

एक अन्य सवाल है कि लेखक को कैसे पढ़ें ? इन दिनों लेखक को पढ़ने की पद्धति बदल गयी है। लेकिन हिन्दी में अधिकांश आलोचक अभी भी पुरानी शैली में पढते हैं। पाठ में अनेक जटिलताएं होती हैं। इसकी परिभाषा को लेकर भी व्यापक मतभेद हैं। इसके बावजूद सवाल यह है कि पाठ किसे कहते हैं ? पाठ अनेक संकेतों का समूह है। इको का मानना है शब्द ही पाठ है और पाठ ही शब्द है। लेकिन इनका असुरक्षित इतिहास है।पाठ के शब्दसंसार पर प्रतिक्रिया देने का अर्थ है नए अर्थ की खोज करना। सवाल यह नहीं है कि रचना को आप कृति कहते हैं या पाठ कहते हैं। सवाल यह है उसका क्या निश्चित अर्थ होता है ? क्या उसमें अनेक संभावित अर्थ होते हैं ? अथवा कोई अर्थ ही नहीं होता ?

इनदिनों पाठक के पास अपने समाज,संस्कृति,राजनीति आदि की व्यापक जानकारी है और वह इसके आधार पर विभिन्न पाठों को नए सिरे से खोलता है। पाठ के संदर्भ में बुनियादी मसला क्या है ? यहां पर स्त्री का पाठ बुनियादी मसला है। अतः पाठ को स्त्री के संदर्भ में पढ़ा जाना चाहिए। उसी संदर्भ में पाठ के अर्थ की खोज की जानी चाहिए। साथ ही यह भी देखना चाहिए कि कौन पढ़ रहा है ? स्त्री पढ़ रही है या मर्द पढ़ रहा है ? इससे यह भी पता चलेगा कि पाठ का अर्थ कौन ग्रहण कर रहा है ? कौन रोक रहा है ? कौन प्रतिवाद कर रहा है ? या कौन अर्थ को समायोजित कर रहा है। यानी पाठक की अस्मिता का पाठ के मूल्यांकन में महत्व होता है। अपनी अस्मिता के आधार पर ही वह अर्थ की खोज करता है।

पाठ का पाठक पर विखंडित असर पड़ता है जिसके आधार पर वह राय बनाता है। पाठ का पाठक पर असर ही नहीं पड़ता बल्कि मूल्यों और विचारधारा का भी असर पड़ता है। इसका भी असर पड़ेगा कि आखिरकार पाठक निजी तौर पर स्त्री,लिंग,सेक्स, कामुकता, नस्ल,रक्तसंबंध,वर्ग ,जातीयता आदि के बारे में किस तरह के मूल्यों को जानता और महसूस करता है। उसमें वह किन मूल्यों को घातक मानता है। यह भी संभव है किसी कृति या फिल्म में ऐसे मूल्यों का चित्रण किया गया हो जिनका पाठक की मूल्य संरचना के साथ अन्तर्विरोध हो, विवाद हो,पंगा हो,ऐसे में वह पाठ से असहमत भी हो सकता है। उल्लेखनीय है फिल्म का पाठ नहीं संकेत की धारणा के आधार पर मूल्यांकन किया जाना चाहिए। यह भी देखें संकेत को किन तत्वों के साथ सजाकर पेश किया है।

मसलन् आप किसी शिक्षक के पढ़ाने को ले सकते हैं। कक्षा में विभिन्न किस्म के छात्र होते हैं। इनकी मनोदशा भी भिन्न किस्म की होती है। वे पाठ और शिक्षक को एक ही तरह से ग्रहण नहीं करते। उनके ग्रहण का आधार होता है ,उनकी अपनी चेतना और रीडिंग आदतें होती हैं। जिस छात्र की किताब पढ़ने की आदत नहीं है और नोटस से काम चला लेता है ,उसके लिए वह शिक्षक मूल्यवान है जो नोटस लिखाता है या नोटस देता है। लेकिन जो छात्र किताब पढ़ने में दिलचस्पी रखता है उसके लिए वह शिक्षक मूल्यवान है जो किताब के सवालों को विभिन्न तरीकों से खोलकर पढ़ाता है। यानी छात्र की अस्मिता और चेतना यहां मूलतः निर्धारण का काम कर रही है।

एस .हाल ने रेखांकित किया है पाठ की रीडिंग में शरीर की अवस्थिति की बड़ी भूमिका होती है। मसलन् कब,कहां,किस समय,किस अवस्था में शरीर है। इसका पाठ की रीडिंग पर सीधा असर पड़ेगा। इसी प्रसंग में मिशेल फूको ने व्यक्ति के शरीर के नियमन और अनुशासित करने की प्रक्रियाओं को विस्तार से बताया है कि आधुनिककाल आने के बाद व्यक्ति के शरीर को किस तरह नए किस्म के अनुशासन ,आदतों,संस्कार और नियमों में बांधा गया।

एस. हाल का मानना है अस्मिता आंतरिक तत्वों से बनती है, बाह्य रिप्रजेंटेशन से नहीं। प्रत्येक व्यक्ति अपना आख्यान एवं प्रस्तुति स्वयं बनाता है। जिसमें उसका समाज झांकता है। वह समाज के सांस्कृतिक तत्वों के जरिए ही अस्मिता बनाता है फलतः व्यक्ति की अस्मिता सांस्कृतिक निर्मित होती है। उसमें बहुस्तरीय सामयिक विषय तैरते रहते हैं। जो चीज उसके सांस्कृतिक संदर्भ में आ जाती है उसका वह रूपान्तरण कर लेता है।

पाठ की व्याख्या की कई परंपराएं हैं। खासकर रैनेसां के साथ पाठ की सार्वभौम व्याख्याओं का जन्म होता है। सार्वभौम तुलनाओं का किया जाता है। सार्वभौम तुलना का अर्थ है कि प्रत्येक चीज,बात,व्यक्ति,घटना,विचार आदि अन्य से जुड़ा है। यानी अन्य तत्व उस तत्व की अभिव्यंजना है या अन्य किसी चीज की अंतर्वस्तु है। जब आप दो चीजों में तुलना करेंगे, एक-दूसरे के साथ जोड़कर देखेंगे तो व्याख्या के अनियंत्रित होने की संभावनाएं भी रहेगी।यहां अर्थ से अर्थ की ओर रूपान्तरण होगा। समानता से समानता की ओर स्थानान्तरण होगा। इस छोर का उस छोर के साथ संपर्क बनेगा। यानी एक से दूसरे की ओर स्थान्तरण होगा। यहां कोई कदम सुनिश्चित नहीं हो सकता। हिन्दी में अभी तक रैनेसांकालीन आलोचना पद्धति प्रचलन में है। इस पद्धति में अर्थ और तुलना दोनों के ही असीमित रूपों के उदय की संभावना निहित है। रैनेसांकालीन आलोचना की सीमा यह है कि वह किसी चीज की अनुपस्थिति या रूपान्तरणकारी अर्थ के बारे में नहीं बताती। यही वजह है हमारे यहां भारतेन्दु से लेकर छायावाद तक रैनेसांकालीन आलोचना को अपने रूपान्तरण के अर्थ का पता नहीं है। वे तो यह देखते हैं कि हर चीज एक-दूसरे से जुड़ी है और उसके आधार पर ही आलोचना के सारे मानक बने हैं।

रैनेसां जब आया तो स्थिति यह थी कि व्याख्याओं का ढ़ेर लग गया।गद्य की बाढ़ आ गयी। वस्तु,घटना, व्यक्ति,संवृत्ति,प्रवृत्ति आदि के बारे में हम ज्यादा जानने लगे। हम ज्यादा जानते हैं इसका अर्थ नहीं है कि हम सब कुछ जानते हैं। यही हाल रैनेसाकालीन लेखकों का था। वे जिन चीजों को जानते थे ,साथ में उनके कुछ आधार को भी जानते थे। वे जिस संदर्भ में लिख रहे थे उसकी क्षमता भी जानते थे। नयी आधुनिक व्यवस्था के संदर्भ में वे असीमित जान सकते थे। लेकिन प्रक्रियाएं सीमित ही थीं,उनका असीमित ज्ञान संभव नहीं था।

रैनेसां में आलोचना की जो पद्धति अपनायी गयी उसमें अर्थ की जडों को जानने का भाव है। उसके आधार पर व्याख्या करने की प्रवृत्ति मिलती है। लेकिन एक अवस्था या समय गुजर जाने के बाद लेखक और आलोचक यथास्थितिवाद में बंध जाता है,रूढ़िवाद में बंध जाता है और फिर उससे निकलने की छटपटाहट आरंभ हो जाती है। अभिव्यक्ति के फॉर्म और अंतर्वस्तु को बदलने की छटपटाहट आरंभ हो जाती है। फलतः एक ही समय में अनेक किस्म की प्रवृत्तियां और शैलियां सक्रिय नजर आती हैं। अब हर किस्म का संदर्भ और हर चीज से संबंध प्रासंगिक नजर आता है। प्रत्येक वस्तु के साथ संबंध स्वीकार्य हो जाता है।

मसलन्, भारतेन्दु के साहित्य के साथ सन् 1857 का संपर्क ,संबंध और असर मान लिया गया। नयी पूंजीवादी सभ्यता के विभिन्न रूपों के साथ संपर्क-संबंध भी मान लिया गया।प्रेस से संबंध मान लिया, धार्मिक-समाजसुधार आंदोलन,पुनरूत्थानवाद,ब्रजभाषा,खड़ीबोली हिन्दी,उर्दू,पुराने भक्ति आंदोलन आदि जो भी चीजें मिलती गयीं उससे संबंध जोड़ते चले गए। इनमें से प्रत्येक चीज को अन्य के साथ जोड़ा,अभिव्यक्ति रूपों के साथ जोड़ा। एक अभिव्यक्ति रूप को दूसरे के साथ जोड़ा। यानी प्रत्येक अंतर्वस्तु को अन्य अंतर्वस्तु की अभिव्यक्ति माना। ग्लोबल अंतर्वस्तु का भी विकास होता रहा।

रैनेसांकाल से आरंभ हुई अनंत समीक्षा की संभावनाओं ने अवधारणा और अर्थ की अनंत संभावनाओं के द्वार खोले हैं। इसे आलोचना की भाषा में विस्थापन कहते हैं। जब आप आलोचना करते हैं तो अनुगमन करते हैं ,विस्थापन करते हैं। देरिदा ने "ऑफ ग्रामोटॉलॉजी "में लिखा ,पाठ तो मशीन है उसमें अनंत विस्थापन निहित हैं।इसकी प्रकृति वसीयत के मर्म को समेटे होती है। यानी इसमें वसीयती भाव है । यही वजह है इतिहास,परंपरा आदि की खोज का काम आधुनिककाल में ज्यादा हुआ है। लेखक अपने को भक्ति आंदोलन,रैनेसां आदि के वारिस के रूप में पेश करने लगे हैं।

यह ऐसा दौर है जिसमें पाठ का आनंद लें या कष्ट उठाएं,उससे आगे निकलें,या उसे छोड़ें।प्रत्येक क्षण का अध्ययन करें। प्रत्येक संकेत या पाठ या प्रवृत्ति के उदय की प्रक्रिया पढ़ने लायक होती है साथ ही वो एक समय के बाद खो जाती है या नष्ट हो जाती है। वह अपने समय से संबंध बनाती है और एक अवस्था के बाद संबंध विच्छिन्न कर लेती है। देरिदा के नजरिए से यही बुनियादी तौर पर "ड्रिफ्ट" है।

पाठ की आलोचना में मंशा की अवधारणा की महत्वपूर्ण भूमिका है। अम्ब्रेतो इको ने इसी संदर्भ में लिखा है पाठ के पीछे निहित आत्मगत मंशा को जब अस्वीकार कर दिया जाता है तो पाठक की पाठ के प्रति वफादारी खत्म हो जाती है। फलतः उसकी भाषा बहुस्तरीय खेलों का आधार बन जाती है।यही वजह है पाठ में अंतिम अर्थ को शामिल नहीं किया जा सकता। यहां कोई रूपान्तरणकारी संकेतित अर्थ नहीं रह जाता। प्रत्येक संकेतक अन्य संकेतक के साथ युक्त नजर आता है। कोई भी चीज प्रासंगिकता के दायरे के बाहर नजर नहीं आती। आलोचना का काम है पाठ में अंतर्निहित अर्थ की खोज करना । उसे भिन्न लक्ष्य के साथ पेश करना। इस क्रम में आलोचना कॉमनसेंस के दायरे का अतिक्रमण कर जाती है।









रविवार, 11 दिसंबर 2011

डिजिटल युग में लघुपत्रिकाओं की चुनौतियां


    डिजिटल की दुनिया ने हमारे रचना संसार के सभी उपकरणों पर कब्जा जमा लिया है। लघुपत्रिका अथवा साहित्यिक पत्रकारिता जब शुरू हुई थी तो हमने यह सोचा ही नहीं था कि ये पत्रिकाएं क्या करने जा रही हैं। हमारी पत्रकारिता और पत्रकारिता के इतिहासकारों ने कभी गंभीरता से मीडिया तकनीक के चरित्र की गंभीरता से मीमांसा नहीं की। हम अभी तक नहीं जानते कि आखिरकार ऐसा क्या घटा जिसके कारण लघु पत्रिकाएं अभी भी निकल रही हैं।
      आर्थिक दृष्टि से लघु पत्रिका निकालना घाटे का सौदा साबित हुआ है। लघु पत्रिका प्रकाशन अभी भी निजी प्रकाशन है। इस अर्थ में लघु पत्रिका प्रकाशन को निजी क्षेत्र की गैर-कारपोरेट उपलब्धि कहा जा सकता है। संभवत: निजी क्षेत्र में इतनी सफलता अन्य किसी रचनात्मक प्रयास को नहीं मिली। लघु पत्रिकाओं क प्रकाशन को वस्तुत: गैर-व्यावसायिक पेशेवर प्रकाशन कहना ज्यादा सही होगा। समाज में अभी भी अनेक लोग हैं जो लघुपत्रिका को व्यवसाय के रूप में नहीं देखते, बल्कि उसे लघुपत्रिका आंदोलन कहना पसंद करते हैं। वे क्यों इसे लघुपत्रिका आंदोलन कहते हैं ,यह बात किसी भी तर्क से प्रकाशन की मीडिया कसौटी पर खरी नहीं उतरती।
   लघु पत्रिका प्रकाशन की अपनी दुनिया वहीं है जो प्रकाशन की दुनिया है। फ़र्क इसके चरित्र और भूमिका को लेकर है। आप जितना बेहतर और वैज्ञानिक ढ़ंग से प्रिंट टैकनोलॉजी के इतिहास से वाकिफ होंगे। उतने ही बेहतर ढ़ंग से लघुपत्रिका प्रकाशन को समझ सकते हैं। लघु पत्रिकाओं की आवश्यकता हमारे यहां आज भी है, कल भी थी, भविष्य में भी होगी। लघुपत्रिका का सबसे बड़ा गुण है कि इसने संपादक और लेखक की अस्मिता को सुरक्षित रखा है। हमें जानना चाहिए कि कैसे संपादक की सत्ता और लेखक की पहचान का प्रतिष्ठानी प्रेस अथवा व्यावसायिक प्रेस में लोप हो गया ?
    आज प्रतिष्ठानी प्रेस में संपादक है ,लेखक हैं ,किंतु उनकी कलम और बुद्धि पर नियंत्रण किसी और का है,विज्ञापन कंपनियों का है। संपादक लेखक,स्तंभकार और संवाददाता  की सत्ता को विज्ञापन एजेंसियों ने रूपान्तरित कर दिया है। आज विज्ञापन एजेंसियां तय करती हैं कि किस तरह की खबरें होंगी, किस साइज में खबरें होंगी, किन विषयों पर संपादकीय सामग्री होगी ? किस तरह की भाषा का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। इस समूची प्रक्रिया के व्यवसायिक समाचारपत्र और पत्रिका जगत पर क्या असर हुए हैं, इसके बारे में हमने कभी गंभीरता के साथ विचार नहीं किया। हमने कभी यह सोचा ही नहीं कि जब पहलीबार समाचारपत्र आया तो उसने क्या किया और जब समाचारपत्र में विज्ञापन दाखिल हो गया तो क्या बदलाव आने शुरू हुए, लघु पत्रिका प्रकाशन भी इस प्रक्रिया से प्रभावित हुआ है। इन सबको लेकर हमारे पास कुछ अनुभव हैं, कुछ संस्मरण हैं। कुछ किंदन्तियां हैं। किंतु भारत के कम्युनिकेशन तकनीक के इतिहास और उसके परिणामों की कभी गंभीरता से पड़ताल नहीं की। लंबे समय तक हम साहित्य के एक हिस्से के तौर पर लघपत्रिकाओं अथवा साहित्यिक पत्रिकाओं को देखते रहे, उनमें प्रकाशित सामग्री का हमने मीडिया सैध्दान्तिकी अथवा आलोचना के नजरिए से कभी मूल्यांकन ही नहीं किया। यहां तक कि एक स्वतंत्र मीडिया रूप के तौर पर पत्रिकाओं की सत्ता को हमने कभी स्वीकार नहीं किया।
  आज जब हम बातें कर रहे हैं तो स्थिति में कोई मूलगामी किस्म का परिवर्तन नहीं आया है। सिर्फ एक परिवर्तन आया है हमने पत्र-पत्रिकाओं के इतिहास को साहित्य के इतिहास से अलग करके स्वतंत्र रूप से पत्रकारिता के इतिहास के रूप में पढ़ाना शुरू कर दिया है। पत्र-पत्रिकाओं को स्वतंत्र रूप से पढ़ाने से मामला हल नहीं हो जाता, बल्कि और भी पेचीदा हो उठा है।
    समाचारपत्र का इतिहास हो या लघुपत्रिका का इतिहा हो, इसकी सही समझ तब ही बनेगी जब हम कम्युनिकेशन तकनीक के इतिहास से वाकिफ होंगे। हमारी मुश्किल अभी यहीं पर बनी हुई है, हमें साहित्य से प्रेम है, पत्रिकाओं से प्रेम है, किंतु तकनीक से प्रेम नहीं है। अगर हमारा तकनीक से प्रेम होता तो हम उसके इतिहास को जानने की कोशिश करते।
    हिन्दी में संपादक - लेखकों का एक तबका तैयार हुआ है जो धंधेखोरों की तरह लघुपत्रिका आंदोलन के नाम पर टटुपूंजिया दुकानदारी कर रहा है। इसके बावजूद ये स्वनाम-धन्य विद्वान यह मानकर चल रहे हैं कि लघुपत्रिकाओं के सबसे बड़े हितचिन्तक वे हैं। जबकि सच यह है कि ऐसे संपादकों की बाजार में कोई साख नहीं है। वे अपनी किताबों की बिक्री तक नहीं कर पाते। अपनी पत्रिका को बेच तक नहीं पाते। हमें यह देखना होगा कि लघुपत्रिकाएं क्या साहित्यिक अभिरूचि पैदा करने का काम कर रही हैं अथवा कुछ और काम कर रही हैं ? क्या हमारी लघु पत्रिकाओं ने कभी इस तथ्य पर गौर किया कि कैसे विगत तीस सालों में भारत के पत्रिका प्रकाशन में विस्फोट हुआ है।
   आज पत्रिका प्रकाशन सबसे प्रभावी व्यवसाय है। एक जमाना था जब सारिका,दिनमान, धर्मयुग आदि को विभिन्न बहाने बनाकर बंद किया गया था, किंतु आज स्थिति यह है कि पत्रिका प्रकाशन अपने पैरों पर खड़ा हो चुका है। आज बाजार में सभी भाषाओं में पत्रिकाओं की बाढ़ आई हुई है। बड़े पैमाने पर पत्रिकाएं बिक रही हैं। अपना बाजार बना रही हैं। लघुपत्रिका का प्रकाशन अभी कम मात्रा में होता है। हंस,पहल,उद्भावना,आलोचना जैसी पत्रिकाएं पांच-सात हजार का आंकड़ा पार नहीं कर पायी हैं। जबकि छोटे से कस्बे से निकलने वाली धार्मिक पत्रिका लाखों की तादाद में बिक रही हैं। हमें बेचने की कला को धार्मिक पत्रिकाओं से सीखना चाहिए। बड़े प्रतिष्ठानी प्रेस ने धार्मिक पत्रिकाओं से यह गुण सीखा है और आज बाजार में हर विषय की एकाधिक पत्रिकाएं मिल जाएंगी ,जिनकी साधारण तौर पर इनकी बिक्री हमारी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं से कई गुना ज्यादा है। धार्मिक पत्रिकाओं से सीखने की बात मैं इसलिए कर रहा हूँ कि आप पत्रिका निकालना यदि चाहते हैं तो दूसरों से सीख लें।
   लघुपत्रिका की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि वह अपने पाठक की अभिरूचियों को नहीं जानती, अपने पाठक को नहीं जानती, वह सिर्फ साहित्य ,विचारधारा और साहित्यकार को जानती है, उसमे भी वह संकुचित भाव से चयन करती है। यह तो कुल मिलाकर कंगाली में आटा गीला वाली कहावत चरितार्थ हो गयी।
    हमारी लघु पत्रिकाओं का समूचा नजरिया विधा केन्द्रित सामग्री प्रस्तुति पर ही केन्द्रित रहा है। हमने विधा केन्द्रित पैमाना 19वीं  शताब्दी में चुना था, वह पैमाना आज भी बरकरार है, उसमें परिवर्तन की रूरत हमने महसूस नहीं की। हम यह भूल ही गए कि पाठक की भी अभिरूचियां होती हैं। पाठक का भी नजरिया होता है, हम संपादक की रूचि जानते हैं, लेखक का नजरिया जानते हैं किंतु लघु पत्रिकाओं को पढ़कर आप पाठक को नहीं जान सकते। हमें इस सवाल पर गंभीरता के साथ विचार करना चाहिए कि क्या गैर-पेशेवर ढ़ंग से लघु पत्रिका प्रकाशन संभव है ? क्या उसका कोई भविष्य है।
   हमें पाठक की अभिरूचि और साहित्य की स्वायत्तता को केन्द्र में रखकर लघुपत्रिका प्रकाशन करना चाहिए। साथ ही इस पहलू पर भी गौर करना चाहिए कि साहित्य की परिभाषा बदल गयी है ? आज साहित्य की वही परिभाषा नहीं रह गई है जो आज से पचास या पच्चीस साल पहले थी। लघु पत्रिका का संसार साहित्य के बदले हुए स्वरूप को परिभाषित किए बिना आगे चला जा रहा है। इस संदर्भ में आलोचना पत्रिका के पुनर्प्रकाशन को प्रस्थान बिंदु के रूप में विश्लेषित करने की जरूरत है। आलोचना पत्रिका का जब पुनर्प्रकाशित हुई तो उसका पहला अंक फासीवाद पर आया। सवाल किया जाना चाहिए कि इस अंक से पहले भी अनेक राजनीतिफिनोमिना आए किंतु उन पर कभी आलोचना पत्रिका के संपाक का ध्यान नहीं गया। मेरा इशारा आपात्काल की तरफ है, आलोचना पत्रिका के द्वारा आपात्काल के बारे में एकदम चुप्पी और साम्प्रदायिकता पर  विशेष अंक इसका क्या अर्थ है ? इस प्रसंग को इसलिए सामने पेश कर रह हूँ कि आप यह जान लें कि विगत पच्चीस वर्षों लघु पत्रिकाएं आम तौर पर उन विषयों पर सामग्री देती रही हैं जो सत्ता प्रतिष्ठानों ने हमारे लिए तैयार किए हैं।
    लघुपत्रिका का विमर्श सत्ता विमर्श नहीं है। लघुपत्रिकाएं  पिछलग्गू विमर्श का मंच नहीं हैं। ये पत्रिकाएं मौलिक सृजन का मंच हैं। साम्प्रदायिकता का सवाल हो या धर्मनिरपेक्षता का प्रश्न हो अथवा ग्लोबलाईजेशन का प्रश्न हो हमारी पत्रिकाएं सत्ता विमर्श को ही परोसती रही हैं। सत्ता विमर्श कैसे परोसा जाता है इसका आदर्श नमूना है लघु पत्रिकाओं में चलताऊ ढ़ंग से सामयिक प्रश्नों पर छपने वाली टिप्पणियां। लघु पत्रिका का चरित्र सत्ता के चरित्र से भिन्न होता है, यह बात सबसे पहले भारतेन्दु ने समझी किंतु हमारे नए संपादकगण अभी तक नहीं समझ पाए हैं। लघुपत्रिका की हमारी अवधारणा में भी गंभीर समस्याएं हैं। लघु पत्रिकाओं में कारपोरेट जगत की पत्रिकाओं की समस्त बीमारियां घर कर गयी हैं। जिस तरह कारपोरेट घरानों की पत्रिकाओं में पक्षपात होता है,खासकर रचना के चयन को लेकर, लेखक के चयन को लेकर, जिस तरह कारपोरेट पत्रिकाओं के लिए विज्ञापनदाता महत्वपूर्ण और निर्णायक होता है। उसके आधार पर पक्षपात होता है ,ठीक वैसे ही लघु पत्रिकाओं में भी पक्षपात का गुण विचारधारा विशेष के प्रति आग्रह के रुप में कैंसर की तरह घर कर चुका है।
     लघुपत्रिकाओं को दो कमजोरियों से मुक्त करने की जरूरत है , पहला है 'विचारधारात्मक पक्षपात', दूसरा है ' निर्भरता'। ये दोनों ही तत्व लघुपत्रिकाओं के स्वाभाविक विकास में सबसे बड़ी बाधा हैं।  दूसरी प्रधान समस्या है जो लघुपत्रिका की धारणा से जुड़ी है। अभी हम जिस लघुपत्रिका को निकाल रहे हैं उसके केन्द्र में संस्कृति है। संस्कृति को ही संदर्भ बनाकर हम साहित्य का चयन करते हैं। जबकि सारी दुनिया में संस्कृति के संदर्भ के आधार पर चयन नहीं हो रह, बल्कि अभिरूचि और जीवनशैली के आधार पर सामग्री चयन हो रहा है।
    यदि लघुपत्रिकाएं साहित्य,राजनीति, अर्थनीति, विज्ञान आदि पर केन्द्रित सामग्री प्रकाशित करती हैं तो उन्हें इस संदर्भ में पेशेवर र विशेषज्ञता को ख्याल में रखना चाहिए। हिन्दी के लेखकों का आलम यह है कि वे सभी विषयों के ऊपर लिख सकते हैं और वेकिसी भी क्षेत्र की विशेष जानकारी हासिल नहीं कना चाहते। मौलिक लेखन के नाम पर प्रतिष्ठित लघुपत्रिकाओं में जिस तरह की घटिया और स्तरहीन सामग्री प्रकाशित होती है इसने पाठकों को लघुपत्रिकाओं से दूर किया है। आज स्थिति यह है कि विशेषज्ञान के बिना काम चलने वाला नहीं है। विशेषज्ञता हासिल किए बिना आप स्वीकृति नहीं पा सकते।
   आखिरी समस्या सबसे गंभीर समस्या है जिस  पर गौर किया जाना चाहिए। आज हम डिजिटल के युग में आ गए हैं। हमें पत्रिका को डिजिटल रूप में प्रकाशित करना चाहिए, सीडी और वेबसाइट पत्रिका के रूप में प्रकाशित करना चाहिए।  डिजिटल प्रकाशन पत्रिका प्रकाशन से सस्ता और व्यापक है। इसकी पहुँच दूर-दूर तक है। आप चाहें तो अपनी वेब पत्रिका के लिए सस्ते विज्ञापन भी ले सकते हैं। हमें यह तथ्य ध्यान में रखना चाहिए कि मौजूदा दौर लाइब्रेरी का नहीं है, डिजिटल लाइब्रेरी का है।          

शनिवार, 5 नवंबर 2011

ब्रज और चौबों का लोकोत्सव कंस मेला


                     (मथुरा में कंस मेले का दृश्य)          
आज कंस  का मेला है।  चौबों का परंपरागत परिवार और बगीची-अखाड़े इसके प्रमुख आयोजक हैं, इन्हें कंसटीले वाले कहते हैं। इसी नाम से मथुरा में कंस का अखाड़ा हुआ करता था। मैंने बचपन में वहां पर चौबों को खूब कसरत करते और कुश्तियों के मेले आयोजित करते देखा है।पहले चौबों को पहलवानी का खूब शौक होता था। मथुरा की वो शानदार लोक संस्कृति का हिस्सा रहा है। कंस के टीले पर एक जमाने में बड़ा ही शानदार अखाड़ा था ,और उस पर पखवाड़े में एकबार कुश्तियां होती थीं ,जिनमें जीतने वालों को शानदार इनाम भी मिलता था।इस अखाडे के एक तरफ अंतापाड़ा नाम का मोहल्ला है,दूसरी ओर जिला अस्पताल है। यह इलाका शहर के बाहर मुख्यबाजार में पड़ता है। अब मथुरा के चौबों में सालाना जलसे के रूप में कंस मेला ही बचा है।
      एक जमाना था जब कंस के मेले के लिए चौबों में सुंदर से सुंदर लाठी खरीदने और पुरानी लाठियों को तेल पिलाने और साफ करके रखने की परंपरा थी, खासकर कंस मेले के मौके पर सैंकड़ों सुंदर लाठियों का प्रदर्शन देखने लायक होता था।प्रत्येक चौबे के हाथ में लाठी इस दिन शुभ मानी जाती थी। और कंस मेले के दिन बड़े पैमाने पर चौबे लाठियां लेकर निकलते भी थे।कंस वध करके कंस के अखाड़े से लौटते हुए चतुर्वेदी युवाओं के अनेक टोल हुआ करते थे और कई अखाड़े भी रहते थे, जिनमें पटेबाजी करते युवाओं के दल सड़कों पर अपनी कला का प्रदर्शन करते दिखते थे,एक समूह ऐसा भी होता था जिसके हाथ में तकरीबन 20 मीटर से ज्यादा लंबी बल्ली पर कंस का शिर हुआ करता है ,कंस के अखाड़े में कंस के धड़ का वध होता है, शिर बच जाता है ,उसे जुलूस की शक्ल में नाचते-गाते मंडलियों में परिक्रमा करते हुए कंसखार बाजार में लाकर चौबों के द्वारा लाठियों से मारकर चूर चूर किया जाता है।
    यह मान्यता है कि कंस वध करने जब भगवान श्रीकृष्ण ने कंस के किले पर धावा बोला तो कंस भागकर कंस अखाडे में चला आया,वहां उसके पालतू 4 पहलवानों से भगवान और चौबों का युद्ध हुआ,ये पहलवान थे, सल,तोसल,चाणडूल,मांडूल इन पहलवानों को माकर जब भगवान ने कंस क खोज की तो पता चलाकि वो भागकर कंसखार इलाके में जाकर छिप गया है।यही वजह है कि कंस के शिर का वध लौटकर कंसखार में जाकर ही होता है और यह कार्य चौबों की मदद से होता है। आम धारणा है कि श्रीकृष्ण ने कंस को मारा था,लेकिन कंस वध में चौबों की महत्वपूर्ण भूमिका थी,इसकी ओर कभी लोगों का ध्यान नहीं जाता।
आज के दिन कंस का भगवान श्रीकृष्ण ने वध किया था। यह धारणा है कि स्थानीयतौर पर मथुरा के चौबों ने इस वध में भगवान की मदद की थी। यही वजह है कि कंस जैसे जल्लाद राजा के मेले और उसके वध के आयोजन की परंपरा सैंकड़ों सालों से मथुरा के चौबों में चली आ रही है।गोपालजी मंदिर के गुरूजी के जिम्मे श्रीकृष्ण-बलराम को सजाकर तैयार करने की जिम्मेदारी हुआ करती थी।बाकी आयोजन को कंस अखाड़े के चौबे मिलकर तैयार करते थे। चौबों में एक जमाने में इस मेले के लिए नए कपड़े आदि खरीदने और नए वस्त्र पहनने की परंपरा थी। कंस के अखाड़े पर प्रति पखवाडे कुश्तियों के दंगल हुआ करते थे। इनमें मथुरा के विभिन्न अखाड़ों के पहलवानों के अलावा आसपास के इलाकों के गांवों से भी पहलवान आकर नियमित भाग लिया करते थे।

आज के दिन कंस का मेला शाम 5 बजे के आसपास आरंभ होता है। कंस का विशाल पुतला लेकर चौबे निकलते हैं। यह चौबों का लोकोत्सव है। मजेदार बात यह है कि मथुरा के चौबे ही सारे देश में कंस मेला का आयोजन करते हैं और यह सिर्फ मथुरा में होता है।यह मान्यता है कि राजा कंस का भगवान श्रीकृष्ण ने चौबों की मदद से वध किया था। यही वजह है कि चौबे ही इस मेले का आयोजन करते हैं। चतुर्वेदी सज-धजकर और हाथों में सुंदर लाठियां लेकर इस मेले में टोल बनाकर निकलते हैं।विश्राम घाट से यह मेला एक जुलूस के रूप में आरंभ होता है जिसमें कंस का विशालकाय पुतला होता है और लट्ठ लेकर चतुर्वेदियों के टोल उसके चारों ओर नाचते-गाते चलते हैं ,अंत में कंस के टीले पर ले जाकर कंस का लाठियों से मार-मारकर चौबे वध करते हैं।बाद में नाचते-गाते लौटते हैं। साथ में हाथी पर श्रीकृष्ण-बल्देव भी सजे हुए विराजमान रहते हैं।अंत में यह जुलूस विश्रामघाट पर कंस के अस्थि विसर्जन और भगवान की आरती के साथ सम्पन्न होता है।

बुधवार, 2 नवंबर 2011

माओवाद,आधुनिकतावाद और हिंसाचार





आधुनिकतावाद के दो प्रमुख बाईप्रोडक्ट है सामाजिकहिंसा और माओवाद। आधुनिकतावाद की खूबी है कि उसने हिंसा को सहज ,स्वाभाविक और अपरिहार्य बनाया है फलतः हिंसा के प्रति घृणा की बजाय उपेक्षा का भाव पैदा हुआ है। हिंसा के हम अभ्यस्त होते चले गए हैं। घरेलू हिसा से लेकर वर्गीय हिंसा तक के व्यापक फलक को देखें तो पाएंगे कि आधुनिकतावाद की आंधी में विकास कम और हिंसा का विस्तार ज्यादा हुआ है। इसमें मीडिया हिंसाचार से लेकर माओवादी हिंसाचार तक का बड़ा दायरा आता है।

आधुनिकतावाद महज कला की समस्या नहीं है बल्कि यह सामाजिक-राजनीतिक और आर्थिक हिंसा से भी जुड़ा फिनोमिना है। यह संयोग की बात है कि भारत में जिस समय आधुनिकतावाद संकटग्रस्त था ठीक उसी समय नक्सलबाड़ी आंदोलन पैदा हुआ।भारत में जिन दिनों दंगे,किसानों की कर्जों के कारण आत्महत्या,औरतों की दहेज-हत्या ,घरेलू हिंसा आदि की सबसे ज्यादा खबरें आई हैं ठीक उसी दौर में माओवादी संगठनों की हिंसाचार की खबरें भी आई हैं।

विचारधारात्मक सच यह है कि माओवादी विचारधारा बुर्जुआजी के अधूरे सपनों को दिखती है और उनको ही पूरा करने पर जोर देती है। बुर्जुआ समाज में जिस तरह अन्य प्रतिवादी विचारधाराएं सक्रिय हैं वैसे ही माओवाद भी सक्रिय है। मसलन् अविकसित आदिवासी और ग्रामीण इलाकों में वे काम करते हैं और वहीं पर विकास के सवालों को बार-बार विभिन्न रूपों में उठाते हैं। कभी विस्फोट करके,कभी हथियारबंद जंग करके,कभी मुक्तांचलों का निर्माण करके और कभी हडताल करके।



माओवादियों की मांगें व्यवहार में बुर्जुआ विकास से जुड़ी हैं। क्रांति की बातें करते हुए वे अधूरे विकास के सवालों पर रोशनी डालते हैं। सामान्यतौर पर अपने को मार्क्सवाद का असली बारिस कहते हैं। उल्लेखनीय है कि आधुनिककाल में दो विचारधाराओं मार्क्सवाद और उदारतावाद का जन्म हुआ। और दोनों ही मुक्तिकामी विचारधारा का दावा करती हैं। दोनों का लक्ष्य है आधुनिक समाज और आधुनिक मनुष्य का निर्माण करना। जिन समाजों में बुर्जुआ सभ्यता,संस्कृति,आचार-व्यवहार,जीवनशैली और सामाजिक विकास नहीं हुआ है उनमें मार्क्सवाद के मानने वाले विभिन्न राजनीतिक गुटों का पहला लक्ष्य होता है असमानताओं को कम करना। अविकसित क्षेत्रों में विकास और समानता की मांग मूलतः बुर्जुआ मांग है। भूमिसुधार,शिक्षा,स्थानीय जनजातियों के हितों का संरक्षण ,सड़क,पानी,बिजली आदि मांगें मूलतः बुर्जुआ मांगें हैं।

आमतौर पर माओवादी वर्चस्व और विकास के सवालों को उठाते हैं ,खासकर गांवों में सामन्तों,जमींदारों और सूदखोरों के वर्चस्व के सवालों को उठाते हैं और उनसे मुक्ति की मांग करते हैं। वे किसानों-आदिवासियों के हितों के सवालों को उठाते हैं और शहरों में मध्यवर्ग-उच्चमध्यवर्ग से जुड़े रहते हैं। यह सच है आदिवासी और ग्रामीण इलाकों में विकास नहीं हुआ है। अधूरे विकास की जगह पूर्ण विकास की मांग, अधूरी आजादी की जगह पूरी आजादी की मांग,पूंजीवादी उत्पादन संबंधों में व्याप्त असमानता की समाप्ति की मांग मूलतः बुर्जुआ फ्रेमवर्क से आगे निकलने नहीं देती।

माओवादियों की भाषा क्रांति,प्रतिवाद,समाजवाद,वर्गसंघर्ष,वर्गीय अन्तर्विरोध,आदिवासी इलाकों लोकतंत्र के हनन,पुलिस उत्पीड़न,हत्या बलात्कार आदि घटनाओं से भरी होती हैं। इस तरह की भाषा और इन घटनाओं से जुड़ी विचारधारा के प्रचार से बुर्जुआ व्यवस्था के विकास में मदद मिलती है। खासकर उन इलाकों में जहां पूंजीपति वर्ग पहुंचा ही नहीं है वहां पर मार्क्सवाद से प्रभावित विभिन्न राजनीतिक दल ,जिनमें माओवादी भी शामिल हैं, लोकतंत्र के विकास के बुनियादी कामों में दिलचस्पी लेते हैं।

जिस तरह का माओवादी संगठनों के जनाधार का विकास नव्य -उदारतावाद के दौर में हुआ है वैसा विकास पहले नहीं हुआ । सन् 1990 के बाद वे जितने आक्रामक बने हैं इतने आक्रामक वे पहले कभी नहीं थे। माओवादी हों या वामदल हों, इन सबकी शक्ति में इजाफा इस बात पर निर्भर करता है कि बुर्जुआ समाज का किस गति से विकास होता है।

कुछ लोग यह सोचते हैं कि क्रांतिकारी आंदोलन का विकास क्रांति के भावों और विचारों के कारण होता है,लेकिन वस्तुस्थिति यह नहीं है। क्रांति की विचारधारा मूलतः लोकतंत्र का बायनरी अपोजीशन है। यानी बुर्जुआजी का बायनरी अपोजीशन है। मजदूरवर्ग,बुर्जुआजी अपना विकास करेगा तो उसके अपोजीशन का भी विकास होगा। उस अपोजीशन को संगठित करने वाली ताकतों का भी विकास होगा। यही वजह है कि अभी तक मजदूरवर्ग की मांगे मूलतः बुर्जुआ मांगें ही रही हैं। वे अपनी मांगों के संघर्ष के जरिए बुर्जुआ वातावरण का विकास करते हैं।

मसलन् माओवादियों के आदिवासी और पिछड़े हुए इलाकों में सांगठनिक विस्तार को ही गंभीरता से देखें तो पाएंगे कि इनमें से अधिकांश इलाकों में वे तब ही गए हैं जब वहां किसी न किसी प्रकल्प के लिए जमीन ली गयी,बाँध बनाया गया,कारखाना लगाया गया या अन्य किसी काम के लिए आदिवासियों को बेदखल किया गया। आदिवासियों की बेदखली के पहले माओवादी इन इलाकों में नजर नहीं आते। आदिवासी इलाकों में बेदखली के खिलाफ उनकी मांगें क्या हैं ? वे सारी मांगें आदिवासी इलाकों के विकास से जुड़ी हैं। इनमें भी वे आदिवासियों को उनकी जमीन पर अधिकार दिलाने या उनका मालिकाना हक बरकरार रखने पर ज्यादा जोर देते हैं।

यानी वे "सचेतनता" की बजाय "संरचना" (जमीन)को बचाने पर ज्यादा जोर देते हैं। फलतः "सचेतनता" की बजाय "संरचना" पर ज्यादा वजन पड़ रहा है। बुर्जुआजी का जोर भी "संरचना" को हासिल करने पर है और माओवादियों का भी जमीन को बचाने पर मूल जोर है। वे आदिवासी और ग्रामीण समाज में पूर्व सामंती ,सामंती मूल्यों और सामाजिक शक्तियों के खिलाफ इसके आधार पर कोई विकल्प पैदा नहीं कर सकते। आदिवासियों और किसानों को नए मूल्यों और नई सामाजिक संरचनाओं में रूपान्तरित करने का उनके पास कोई विकल्प नहीं है। पुराने वर्गों या शोषक वर्गों से मुक्ति का उनके पास एक ही रास्ता है हत्या और हिंसा। यह शत्रु को खत्म करने का प्राचीनमार्ग है। वर्गशत्रु को जमीनी और मूल्यों की जंग में परास्त करने की बजाय हिंसा के जरिए खत्म करने की पद्धति अंततः उन्हें सामंती और पूर्व-सामंती वर्गों के खिलाफ संघर्ष से विमुख करती है। इस तरह की हिंसा से माओवादियों को तत्काल मदद तो मिलती है लेकिन दीर्घकालिक तौर पर यह पद्धति उनके लिए मददगार साबित नहीं हुई है।

जिन इलाकों में माओवादी वर्चस्व है वहां वे सभी काम माओवादी करने लगते हैं जो जमींदार-सूदखोर और लठैत किया करते थे।यानी वे अपने विरोधी वर्ग के अवगुणों को स्वयं अपना लेते हैं। सूदखोरों-जमींदारों को जान से मारना एक जमाने में उनके लिए गुरिल्ला संघर्ष का महत्वपूर्ण अस्त्र था।वे मानते थे इससे गांवों में जमींदारों-सूदखोरों का वर्चस्व खत्म होगा और आम किसान की सत्ता स्थापित होगी। माओवादियों की इस रणनीति के कारण अनेक जमींदार-सूदखोर इलाका छोड़कर चले गए,जो गांवों में रह गए वे मार दिए गए या उन्होंने माओवादियों के सामने समर्पण कर दिया।

माओवादियों की आरंभ में नक्सलवादी के रूप में पहचान थी ।वे गुरिल्ला पद्धति से संघर्ष में विश्वास करते थे,इसी आधार मुक्तांचलों का निर्माण और वर्गशत्रु की हत्या के काम को अंजाम दिया गया। उस समय किसानों और मजदूरों को संगठनबद्ध करने के काम को गौण माना गया। व्यापक शिरकत वाले जनांदोलन की पद्धति को अनुपयुक्त कहा गया। लेकिन कालान्तर में इस पद्धति में सुधार करते हुए माओवादियों ने विभिन्न इलाकों में अलग-अलग नामों से संगठन बनाए या बनवाए और उनके बहाने आदिवासियों-ग्रामीणों आदि को एकजुट करने,मीटिंग करने,रैली करने ,वर्गशत्रु की हत्या करने या बेदखल करने की पद्धति पर जोर दिया गया। गुरिल्ला युद्ध की पद्धति के नाम पर हत्याएं करने के काम को संघर्ष का सर्वोच्च रास्ता माना गया। वे मानते हैं कि इससे सामंती और सत्ता के दलालों के वर्चस्व को खत्म करने में मदद मिलती है।गांवों में किसानों को राजनीतिक शक्ति मिलती है। असल में यह अतिवामपंथ है जो वस्तुगत परिस्थितियों को आत्मगत अधीरभाव से देखता है। कुछ समाजविज्ञानी इसे 'अराजक-आतंकी सिद्धांत' और 'पेटी बुर्जुआ अराजकता' के नाम से भी पुकारते हैं। माओवादियों का मानना है कि उनके द्वारा वर्गशत्रु का सफाया करने की प्रक्रिया के गर्भ से समाज में एक नए मनुष्य का जन्म होगा। यह ऐसा मनुष्य होगा जो मौत से नहीं डरेगा और सभी किस्म के निजी स्वार्थ के विचारों से मुक्त होगा।

माओवादी राजनीति के उभार के कारण नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह के शासनकाल तक के दौरान हुए विकास की सीमाएं बड़ी तेजी से आम लोगों के सामने उजागर हुई हैं। माओवादियों ने बुर्जुआ विकास की तमाम बातों की महानरीय-मध्यवर्गीय सीमाओं को उजागर किया है। आज 136 जिलों में माओवादी सक्रिय हैं और इस सक्रियता का बड़ा कारण है सामाजिक-आर्थिक असमानता का 63 सालों के विकास के बावजूद बने रहना।

माओवादियों ने अंधाधुंध विकास की नव्य-उदारतावादी नीतियों का देश के विभिन्न इलाकों में जनांदोलन खड़ा करके प्रतिवाद किया है ।अनेक स्थानों पर उन्होंने सरकार को पीछे हटने के लिए मजबूर किया है। इस क्रम में कारपोरेट मीडिया में मीडिया उनका महिमामंडन भी हुआ है और माओवादियों ने गरीबी-असमानता और विस्थापन के सवालों पर सरलीकृत फार्मूलों का जमकर दुरूपयोग किया है। इसमें गरीबी को उन्होंने अपनी हिंसा के लिए वैध अस्त्र ठहराया है।



माओवाद के खिलाफ कुछ लोग यह तर्क दे रहे हैं कि हमें उनके खिलाफ राजनीतिक जंग लड़नी चाहिए। उन्हें जनता में अलग-थलग करना चाहिए। उनके खिलाफ जनता को गोलबंद करना चाहिए। सवाल यह है कि क्या माओवादी हिंसा के समय जनता में राजनीतिक प्रचार किया जा सकता है ? क्या माओवाद का विकल्प जनता को समझाया जा सकता है ? राजनीतिक प्रचार के लिए शांति का माहौल प्राथमिक शर्त है और माओवादी अपने एक्शन से शांति के वातावरण को ही निशाना बनाते हैं,सामान्य वातावरण को ही निशाना बनाते हैं, वे जिस वातावरण की सृष्टि करते हैं उसमें राज्य मशीनरी के सख्त हस्तक्षेप के बिना कोई और विकल्प संभव नहीं है। राज्य की मशीनरी ही माओवादी अथवा आतंकी हिंसा का दमन कर सकती है।

दूसरी बात यह है कि जब एक बार शांति का वातावरण नष्ट हो जाता है तो उसे दुरूस्त करने में बड़ा समय लगता है। माओवादी और उनके समर्थक बुद्धिजीवी माओवादियों की शांति का वातावरण नष्ट कर देने वाली हरकतों से ध्यान हटाने के लिए पुलिस दमन,आदिवासी उत्पीड़न, आदिवासियों का आर्थिक-सामाजिक पिछड़ापन,बहुराष्ट्रीय निगमों के हाथों आदिवासियों की प्राकृतिक भौतिक संपदा को राज्य के द्वारा बेचे जाने,आदिवासियों के विस्थापन आदि को बहाने के तौर पर इस्तेमाल करते हैं।

माओवादी राजनीति या आतंकी राजनीति का सबसे बड़ा योगदान है सामान्य राजनीतिक वातावरण का विनाश। वे जहां पर भी जाते हैं सामान्य वातावरण को बुनियादी तौर पर नष्ट कर देते हैं। ऐसा करके वे भय और निष्क्रियता की सृष्टि करते हैं। इसके आधार पर वे यह दावा पेश करते हैं कि उनके साथ जनता है। सच यह है कि आदिवासी बहुल इलाकों से कांग्रेस, माकपा, भाजपा आदि दलों के लोग चुनाव के जरिए विशाल बहुमत के आधार पर चुनकर आते रहे हैं। माओवादियों के प्रभाव वाले इलाकों में उनकी चुनाव बहिष्कार की अपील का कोई असर नहीं पड़ता।

मीडिया के प्रचार ने कारपोरेट पूंजी निवेश का जिस तरह पारायण किया है और इसके विध्वंसात्मक आयाम पर पर्दादारी की है, उसे गायब किया है, उससे दर्शकीय नजरिया बनाने में मदद मिली है। प्रचार के जरिए हर चीज का जबाब बाजार में खोजा जा रहा है,हमसे सिर्फ देखने और भोग करने की अपील की जा रही है। बाजार,पूंजी निवेश, परवर्ती पूंजीवाद को वस्तुगत बनाने के चक्कर में मीडिया यह भूल ही गया कि वह जनता को सूचना संपन्न नहीं सूचना विपन्न बना रहा है। हमसे यह छिपाया गया है कि पूंजीवाद आखिरकार किन परिस्थितियों में काम करता है।

माओवादी संगठनों के संदर्भ में बुनियादी सवाल यह है कि क्या मौजूदा हिंसाचार जायज, तार्किक,वैध,और न्यायपूर्ण है ? क्या इस हिंसाचार से भारत के किसानों के जानो-माल की रक्षा हो रही है ? क्या माओवादी संगठनों के प्रभाव वाले इलाकों में किसान और आम आदमी चैन की नींद सो रहा है ? माओवादी संगठन अपने प्रभाव वाले इलाकों में जबरिया धन वसूली कर रहे हैं ।

दूसरा सवाल यह है कि माओवादियों के पास कई हजार सशस्त्र गुरिल्ला हैं और उनकी पचासों टुकडियां हैं, इन सबके लिए पैसा कहां से आता है ? गोला-बारूद से लेकर पार्टी होलटाइमरों और सशस्त्र गुरिल्लाओं के वेतन का भुगतान किन स्रोतों से होता है ? कौन हैं वे देशी-विदेशी संगठन और लोग जो इतने बड़े पैमाने पर माओवादी गुरिल्लाओं को पैसा भेज रहे हैं ?

माओवादियों की बात मानें तो आदिवासी अतिदरिद्र हैं। और वे कम से कम माओवादियों के लिए नियमित चंदा नहीं दे सकते। माओवादियों को कभी किसी ने शहरों में भी चंदा की रसीद काटकर या कूपन देकर चंदा वसूलते नहीं देखा। ऐसी स्थिति में वे धन कहां से प्राप्त करते हैं ? हिन्दुस्तान की गरीब जनता और खासकर आदिवासियों को यह जानने का हक है कि माओवादियों के पास धन कहां से आता है ?और किन मदों में खर्च होता है ?

माओवादियों के संदर्भ में तीसरा महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या भारत की बहुलता को माओवादियों के राज्य में कोई जगह मिलेगी ? आज तक राजनीतिक,वैचारिक ,सामाजिक और धार्मिक बहुलतावाद के प्रति माओवादियों का घृणास्पद और बर्बर व्यवहार रहा है ऐसा ही व्यवहार साम्प्रदायिक,फंड़ामेंटलिस्ट और आतंकवादी संगठन भी करते हैं।

आज भारत में ऐसे दल हैं जो क्रांति लाना चाहते हैं। सर्वहारा के अधिनायकवाद के पक्षधर हैं। लेकिन वे भारत के बहुलतावादी समाज और राजनीतिक तानेबाने को मानते हैं और उसकी रक्षा के लिए समय-समय पर अपने दलीय स्वार्थ का भी उन्होंने त्याग किया है। उनकी लोकतंत्र और भारत के संविधान में आस्था है। भारत के दोनों कम्युनिस्ट दल इसके प्रमाण हैं।

समस्या यह है कि माओवादी बहुलतावाद के प्रति सहिष्णु क्यों नहीं हैं ? यदि सहिष्णु हैं तो वह सहिष्णुता व्यवहार में नजर क्यों नहीं आती ? ‘ऊपर से छह इंट छोटा कर देने से लेकर दनादन मौत के घाट उतारने तक’ का माओवादियों का राजनीतिक सफर इस बात की ओर संकेत कर रहता है कि उनके यहां बहुलतावाद के लिए कोई जगह नहीं है।

क्या हम यह कल्पना कर सकते हैं कि माओवादी शासन होगा और उसमें सभी धर्मों की आजादी बरकरार रहेगी ? सभी दलों की राजनीतिक स्वाधीनता बची रहेगी ? सभी वर्गों में भाईचारा रहेगा ? औरतों ,आदिवासियों और अल्पसंख्यकों की राजनीतिक-धार्मिक और भाषायी स्वाधीनता बरकरार रहेगी ? उनके राज्य में विभिन्न रंगत के मार्क्सवादी,राष्ट्रवादी,उदारवादी सुरक्षित और स्वतंत्रभाव से रहेंगे ? और उन्हें अभी जितनी आजादी बुर्जुआ संविधान के तहत मिली हुई है उससे भी ज्यादा स्वाधीनता और अधिकार प्राप्त होंगे ?

माओवाद के संदर्भ में चौथा सवाल यह है कि क्या माओवाद प्रभावित 136 जिलों में सामाजिक-राजनीतिक शक्ति संतुलन माओवादियों के पक्ष में है ? जी नहीं ,माओवादी संगठन ही नहीं सभी रंगत के क्रांतिकारी संगठन मिल जाएं तो भी सामाजिक और राजनीतिक शक्ति संतुलन उनके पक्ष में नहीं है।माकपा और वाममोर्चा लंबे समय से पश्चिम बंगाल,त्रिपुरा और केरल में प्रमुख राजनीतिक शक्ति हैं लेकिन सामाजिक वर्गीय शक्ति संतुलन आज भी उनके पक्ष में नहीं हैं जबकि उन्हें जनता में बड़ी मात्रा में जनसमर्थन प्राप्त है। इसकी तुलना में माओवादियों का किसी भी राज्य में राजनीतिक वर्चस्व नहीं है,सामाजिक वर्गीय शक्ति संतुलन उनके पक्ष में होना तो दिवा-स्वप्न है। माओवादी संगठन किसान,आदिवासी और क्रांति की कितनी ही बातें करें भारत के वैचारिक, राजनीतिक, भाषायी,धार्मिक और सांस्कृतिक बहुलतावाद को नतमस्क होकर स्वीकार करना होगा। बहुलतावाद के इन रूपों को अस्वीकार करने के कारण सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के सभी देशों में समाजवाद गिर गया और कम्युनिस्ट पार्टियों के अंदर से विभिन्न रंगत के पृथकतावादी,फासिस्ट,अंधराष्ट्रवादी,अपराधी, राज्य की संपत्ति के लुटेरे पूंजीपतियों का समूह रातों-रात पैदा हो गया था। समाजवादी व्यवस्था के पराभव के साथ ही हठात् कम्युनिस्टों के अंदर से ऐसे तत्व बाहर आए हैं जिनकी कोई कल्पना तक नहीं कर सकता। आज पूर्व समाजवादी देशों की जनता का कम्युनिस्टों पर विश्वास नहीं है। कहने का अर्थ यह है कि वैचारिक ,सामाजिक और सांस्कृतिक बहुलतावाद और लोकतंत्र वास्तविकता हैं। इनको हर कीमत पर बचाया जाना चाहिए।

माओवादी राजनीति का राजनीतिक बहुलतावाद से बैर है।राजनीतिक बहुलतावाद और लोकतंत्र एक सिक्के के ही दो पहलू हैं। माओवादियों की भारत के लोकतंत्र में आस्था नहीं है ऐसे में बहुलतावाद का क्या होगा ? क्या माओवाद के नाम पर भारत के लोग बहुआयामी बहुलतावाद की बलि देने को तैयार हैं ?

एक अन्य सवाल उठता है कि माओवादी अंधाधुंध कत्लेआम क्यों कर रहे हैं ? इस कत्लेआम का उनके प्रतिवादी संघर्षों और किसान-आदिवासियों में नव्य-उदारतावादजनित विस्थापन और भूमि अधिग्रहण के खिलाफ संघर्ष के एजेण्डे गहरा संबंध है।

आज भारत में नव्य उदारतावाद का एजेण्डा पिट चुका है। दूसरा कारण है माओवादी आंदोलन का चंद क्षेत्रों तक सीमित हो जाना। हिन्दुस्तान के अन्य वर्गों की समस्याएं उनके आंदोलन के केन्द्र में नहीं हैं। वे राजनेताओं और विभिन्न राजनीतिक दलों की नीतियों को खारिज करते हैं। कल तक माओवादियों के अंदर एक हिस्सा था जो लोकतंत्र को नहीं मानता था लेकिन अब वे चुनावों में भाग लेते हैं।

आज माओवादियों के सामने संकट यह है कि नव्य-उदारतावाद के खिलाफ उनका संघर्ष किसानों से लेकर मध्यवर्ग तक अपील खो चुका है। दूसरी ओर बुर्जुआ उदार लोकतंत्र की साख में भी बट्टा लग चुका है। समाजवाद के अधिकांश मॉडल पिट चुके हैं ऐसी अवस्था में माओवादी समझ नहीं पा रहे हैं कि क्या करें ?

माओवादियों ने हाल वर्षों में नव्य-उदारतावाद के खिलाफ संघर्ष करके जो जमीन बनायी थी वह ग्लोबल एजेण्डा पूरी तरह पिट गया है। यह अमरीकी ग्लोबल एजेण्डा था आज जब अमेरिका में इस एजेण्डे का अंत हुआ है तो स्वाभाविक तौर पर सारी दुनिया में इसकी विदाई की घोषणा हो गयी है।

नव्य-उदारतावाद की विदाई की बेला में माओवादियों के पास सही एजेण्डे का अभाव है यही बुनियादी वजह है जिसके कारण वे अंधाधुंध हत्याएं कर रहे हैं। यह उनके दिशाहीन होने का संकेत है। माओवादियों का हिंसाचार 2001 के बाद से क्रमशः बढ़ा है और यह उनके एजेण्डे के पिटने का संकेत है।

माकपा और वामदलों ने नव्यउदारतावाद के बरक्स अपनी राजनीति में संतुलन पैदा किया और विकल्प का मार्ग चुना और इस दौर में नव्य उदारतावाद के संदर्भ में नए नीतिगत उपाय लागू कराने में सफलता हासिल की। नव्य-उदारतावाद के पिटते ही सोनिया-राहुल गांधी भी किसानों के हितों का ख्याल रखने की बातें करने लगे हैं। आज सोनिया और माओवादियों में किसानों की जमीन के मामले में एक ही स्वर दिखाई दे रहा है। अब वे जमीन अधिग्रहण के मामले में नया सख्त कानून लाना चाहते हैं। लेकिन अधिकांश राज्यों में किसानों की लाखों एकड़ जमीन तो कारपोरेट घराने खरीद चुके हैं। कानून ही लाना था तो 10 साल पहले क्यों नहीं लाए ?

माओवादी संगठनों के हिंसाचार का एक अन्य कारण है भारत में खासकर आदिवासी इलाकों में लोकतंत्र में जनता की व्यापक शिरकत। लोकतंत्र में व्यापक शिरकत के कारण ही वे लाख प्रचार करके भी साधारण लोगों को वोट ड़ालने से रोक नहीं पाए हैं। यही वजह है कि वे गरीबों की अंधाधुंध हत्याएं कर रहे हैं। उल्लेखनीय है नव्य-उदारतावाद के लाख दोष हों लेकिन आम आदमी की चेतना और शिरकत में कई गुना वृद्धि हुई है। संचार क्रांति ने क्रांति के सभी रूपों को फीका बना दिया है। बुर्जुआ लोकतंत्र के प्रति आकर्षण बढ़ा है।

मंगलवार, 1 नवंबर 2011

सांस्कृतिक अध्ययन की राजनीति-फ्रैंसिस म्यूलहर्न

इन अनुमानतः उत्तर आधुनिक समयों की एक आश्चर्यजनक बौद्धिक परिघटना महानगरीय विद्वतपरिषद में सांस्कृतिक अध्ययनों के एक नए ‘ज्ञान क्षेत्र’ का आरंभ होना है। मैं यहां ‘नए’ शब्द का इस्तेमाल कर रहा हूँ क्योंकि सांस्कृतिक अध्ययन सही मायनों में कभी भी महत संस्कृति का एक सुव्यवस्थित अध्ययन नहीं था। यह आरमब से ही विचारधारात्मक एवंआनुभविक गवेषणा की एकदिष्ट और आत्मज्ञात विरोधात्मक कार्ययोजना था। एक विचार,जिसने सर्वप्रथम बर्मिँघम विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग में एक उपविभाग के रूप में संस्थागत आकार ग्रहण किया,आज विकसित होकर शैक्षिक गतिविधि की समस्त सूची में शामिल हो गया है। इसमें विशिष्ट डिग्री,स्नातक कार्यक्रम,पेशे से संबंधित संस्थाएं, बड़े-बड़े सम्मेलन और अंतर्महाद्वीपीय नेटवर्क ये सभी चीजें उपलब्ध हैं। निगमित प्रकाशकों ने तो सांस्कृतिक अध्ययनों से संबंधित लेखन के लिए पूरी पुस्तक सूची ही समर्पित कर दी है। जिसमें इस विषय से जुड़े न केवल शोध शामिल हैं बल्कि इसका इतिहास भी। इसमें अध्येताओं के लिए भारी भरकम पाठ्यपुस्तक हैं न कि झांसापट्टी केकुछ गाइड। अपनी प्रभावशाली संरचना का निर्माण करने के साथ-साथ सांस्कृतिक अध्ययनों ने अधिकारिक सफलता के साथ शिक्षा के अन्य क्षेत्रों विशेष रूप से साहित्य,इतिहास,समाजशास्त्र और महिलाओं से संबंधित अध्ययन के क्षेत्रों में शोध तथा शिक्षण को नए रूप में प्रस्तुत करने का सुझाव दिया है। तीस साल पूर्व आरंभ हुआ एक छोटा सा रैडिकल हस्तक्षेप अब समस्त मानवविज्ञानों के लिए व्यापक रूप से एक नए सामान्य सूत्र के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है।

यह घटना एक समझदार प्रेक्षक में अनिवार्य रूप से एक विसंगति या सहज अवास्तविकता का अहसास उत्पन्न करती है। यह अहसास इस कल्पना से और भी गहरा हो जाता है कि यह घटना उन ऐतिहासिक स्थितियों में हुई जिनमें इसे विफल करने की प्रवृत्ति होनी चाहिए थी। सांस्कृतिक अध्ययन रैडिकल नवपरिवर्तन तथा पुनर्संरचना की एक स्व-परिभाषित योजना है। जिन बरसों में इसका पल्लवन हुआ, वह उन शैक्षिक संस्थानों, जहां इस विषय का अध्ययन होता है, (विशेष रूप से, लेकिन केवल ब्रिटेन में ही नहीं) उसके लिए कठोर वित्तीय संयम तथा उन रैडिकल आंदोलनों के पराभव और दिशाभ्रम कासमय था, जो इसके प्रेरणा स्रोत रहे हैं। सांस्कृतिक अध्ययन की धूम एक प्रभावशाली वास्तविकता है लेकिन किसी को भी इसे विकासगाथा मानकर जश्न मनाना नहीं चाहिए। सांस्कृतिक अध्ययन के कारण जो व्यक्तिगत तथा सामूहिक उपलब्धियां संभव हुई हैं, इन्हें स्वीकार करना उचित है। लेकिन साथ ही हमें सांस्कृतिक विश्लेषण की रीति के रूप में इस योजना के आम तर्क पर और सांस्कृतिक राजनीति पर कुछ आवश्यक आलोचनात्मक विवेचना भी करनी चाहिए।

मैंने यहां यह विवेचना पांच संक्षिप्त टिप्पणियों के रूप में करने का प्रयास किया है। सबसे पहले मैंने सांस्कृतिक अध्ययन को सांस्कृतिक विश्लेषण की एक अलग स्पष्ट प्रवृत्ति के रूप में परिभाषित करने की कोशिश की है। इसके बाद इस विषय में जीवन के कुछ अंतर्विराधों तथा विचारों की चर्चा करते हुए अंत में इसमें जो संबंध दांव पर है, जैसे, संस्कृति और राजनीति के बीच के संबंध के बारे में कुछ सामान्य आलोचनात्मक अभ्युक्तियां दी हैं।

1

सांस्कृतिक अध्ययन की पुराशास्त्रीय परिभाषा रेमंड विलियम्स द्वारा प्रतिपादित की गई थी। उनके अनुसार यह ऐतिहासिक भौतिक मानवीय संघटन समझे जाने वाले समाजों में बोध-निर्माण की पूरी दुनिया (व्याख्याओं, विश्लेषणों, अधिनिरूपणों, सभी प्रकार के मूल्यांकनों) में तथा 'संपूर्ण जीवन शैली' के नियामक भाग के रूप में बोध-निर्माण का अन्वेषण करेगा। यानी सांस्कृतिक अध्ययन सबसे पहले विश्लेषण के क्षेत्र में व्यापक विस्तार की मांग करता है; साहित्यिक आलोचना की सीमाओं से भी परे जिससे यह उत्पन्न हुआ है। अर्थात सभी सामाजिक अर्थों की जांच की जा सकती है। बहरहाल, सांस्कृतिक अध्ययन की परिभाषा के लिए इतना कहना काफी नहीं। सांस्कृतिक आलोचना (या कल्चुरीक्रितिक, जो कि इसका मानक जर्मन शब्द है जिसका मैं इसके बाद रोमन टाइप में उपयोग करना पसंद करूंगा क्योंकि मिलते-जुलते अंग्रेजी के शब्द इतने आम हैं कि वे मेरे तर्क के लिए आवश्यक परिभाषा को सही-सही संप्रेषित नहीं कर पाते) की पुरानी परंपरा दैनिक जीवन के अर्थ के अध्ययन को विशेष महत्व देती थी। इस परंपरा के लेखकों में इंगलैंड के साहित्यिक समालोचक एफ.आर. लेविस तथा क्यू.डी. लेविस, स्पेन के दार्शनिक जोस ओटर्ेगा वाई गैसेट, या जर्मन के युवा थॉमस मान थे। उन्होंने लोकतंत्र की नई 'जनसमूह संस्कृति' का तथा वाणिज्यीकृत साक्षरता का पूरे मनोवेग के साथ प्रत्युत्तर दिया लेकिन हमेशा उच्च विचार की भावना और परंपरावादी जुगुप्सा से। इनके विपरीत सांस्कृतिक अध्ययन अपने आंकड़ों के 'प्रतिक्रियात्मक समतुल्यीकरण' का प्रस्ताव करता है। दूसरे शब्दों में, हालांकि कविता और पॉपकॉर्न के विज्ञापन किसी भी सत्याभासी नैतिक अर्थ में समान महत्व के नहीं हो सकते लेकिन सामाजिक अर्थों के वाहक के रूप में दोनों काफीरोचक हैं और उस अर्थ में दोनों के प्रति समान विश्लेषणात्मक गंभीरता होनी चाहिए। बहरहाल यह विभेद भी, पहली परिभाषा के समान, सांस्कृतिक अध्ययन की विवेचना के लिए अपर्याप्त है। सांस्कृतिक अध्ययन महज मानवशास्त्र की एक शैली नहीं जो सांकेतिक प्रतिक्रियाओं के एक समूह के रूप में समाज का अध्ययन करता है। एक तीसरा विशिष्ट विवरण भी है जो बहुत महत्वपूर्ण है।

सांस्कृतिक अध्ययनों ने सांस्कृतिक आलोचना (कल्चुरीक्रितिक) की सामाजिक संवेदनशीलता और इसके रेंज का महज विस्तार नहीं किया बल्कि उन मूल्यों के संपूर्ण तंत्र को चुनौती दी जो पुरानी परंपरा और सांस्कृतिक सत्ता के पूरे तंत्र का समर्थन करता था तथा एक वैकल्पिक सत्ता के रूपों को यदि स्थापित नहीं किया, तो कम से कम उन्हें ढूंढ़ने का कार्य आरंभ किया। इसी अर्थ में सांस्कृतिक अध्ययन को 'निसर्गत: राजनीतिक' माना जाता है।

2

सांस्कृतिक अध्ययन के एक विस्तारित, समतल क्षेत्र का यह प्रत्यय व्यावहारिक कम और सैध्दांतिक अधिक है। कोई पेशेवर समूह, कोई भी व्यक्ति 'सभी कुछ' के अध्ययन का दिखावा नहीं कर सकता। अध्ययन सामग्रियों के एक उदासीन चयन की धारणा भी परस्पर विरोधी है। चयन के लिए कुछ मौलिक विकल्प हैं; और ऐसा प्रतीत होता है अपनी सभी संभव अनुभूतियों की भिन्नता तथा संस्थागत परिस्थिति की विविधता के बावजूद सांस्कृतिक अध्ययन अपनी प्राथमिकताओं के अर्थ में अपेक्षाकृत स्थायी रहा है। इसके विश्लेषण का मुख्य क्षेत्र सामाजिक परिघटनाओं का वही रेंज रहा है जिसने पारंपरिक सांस्कृतिक आलोचना (कल्चुरीक्रितिक) को अत्यधिक चौकन्ना और प्रतिकर्षित कर दिया यानी उन्नत पूंजीवाद के प्रत्ययों तथा 'जनसमूह' सांस्कृतिक रूपों : सिनेमा, टेलीविजन, जनपत्रकारिता, विज्ञापन, शॉपिंग को। इसका प्रमुख विवादात्मक थीम, जो सांस्कृतिक आलोचना (कल्चुरीक्रितिक) के रूढ़ि विश्वास का सीधे-सीधे खंडन करता है, यह रहा है कि इस प्रकार की संस्कृति महज मूर्छाकारी औषधि नहीं, जिसे समाजातीय जनसमूह में उदासीनता उत्पन्न करने के लिए सफलतापूर्वक तैयार किया गया हो बल्कि इसके विपरीत इसमें सक्रिय, स्वैच्छिक, चुनिंदा और विध्वंसात्मक जनभागीदारी है।

संस्कृति के किसी भी समाजवादी सिध्दांत के लिए क्षेत्र तथा परिप्रेक्ष्य के ये परिवर्तन अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। यदि सांस्कृतिक आलोचना (कल्चुरीक्रितिक) की मतांध प्रस्थापनाएं वास्तव में वैध हैं, और कुछ मार्क्सवादी खासकर हर्बर्ट मारकस उस विचार से सहमत हैं, तो मेहनतकश वर्ग की आत्म मुक्ति के रूप में समाजवाद को पुराशास्त्रीय अर्थग्रहण एक सांप्रदायिक धर्मपरायणता से ज्यादा कुछ भी नहीं। जब अंतोनियो ग्राम्शी ने कहा कि सभी मनुष्य बुध्दिजीवी है, यद्यपि उनमें से केवल कुछ को ही 'प्रबुध्द' का दर्जा तथासामाजिक कार्य का दायित्व दिया जाता है तो उन्होंने यह बात इसी पुराशास्त्रीय भावना से कही थी।

हालांकि ग्राम्शी के सूत्र का निर्णायक पहलू इसका दोहरा चरित्र है : यह न केवल मुक्ति और भौतिक संभावना पर बल देता है बल्कि वर्चस्व के स्थापित तथ्य की भी पुष्टि करता है। सांस्कृतिक अध्ययन की प्रमुख प्रवृत्ति का जोर दूसरी ओर है। चूंकि सांस्कृतिक अध्ययन अपने विश्लेषण क्षेत्र में 'उच्च' सांस्कृतिक रूपों तथा आचरणों को शामिल नहीं करता है अत: यह अपनी ही विचारधारात्मक महत्वाकांक्षा से समझौता करता है जो कि 'संपूर्ण जीवन शैली' या और अधिक स्पष्ट शब्दों में कहें तो संस्कृति के समग्र विद्यमान सामाजिक संबंधों की विवेचना करना है। और चूंकि यह प्रचलित सांस्कृतिक व्यवहारों के सक्रिय तथा महत्वपूर्ण तत्व पर एकतरफा जोर देता है अत: इसमें असमानता और दमन की व्याकुल कर देने वाली ऐतिहासिक वास्तविकताओं की अनदेखी करने की प्रवृत्ति भी है। ये ऐतिहासिक वास्तविकताएं उनका निर्धारण करती हैं। ये प्रवृत्तियां संयुक्त रूप से उचित आलोचना सिध्दांत के विकास तथा विश्लेषण के विरुध्द कार्य करती है; जो सांस्कृतिक आलोचना (कल्चुरीक्रितिक) को प्रतिस्थापित करने का दावा करती हैं लेकिन वास्तव में इसकी प्रतिपूरक प्रतिक्रिया से ज्यादा कुछ भी प्रस्तुत नहीं करती है।

सांस्कृतिक अध्ययन में कुछ मत इन प्रवृत्तियों के खिलाफ उठ खड़े हुए हैं लेकिन बिना किसी खास सफलता के। बहुसंख्यक प्रवृत्ति के विरुध्द 'जनवाद' का आरोप लगाया गया है और यह सही भी है। लेकिन अपने सभी रूपों में जनवाद अपने आपको विरोधपरक पाता है; यहां इसके विरुध्द इससे भी अधिक गंभीर आरोप लगाए जा सकते हैं। चूंकि आज अधिकांश महानगरीय लोक संस्कृति ने पण्यीकृत मनोरंजन या सौंदयीकृत जीविकोपार्जन कार्य का रूप ले लिया है; 'जीवनशैली' में सब कुछ बाजार के साथ संघटित है, अत: सांस्कृतिक अध्ययन का स्वत:स्फूर्त झुकाव वास्तव में विन्यासवादी है; और सबसे बुरे ढंग से सोचने पर यही 'सैटेलाइट टेलीविजन तथा शापिंग माल्स' की विचारधारात्मक आत्मचेतना है।

3

माना कि यह विवरण स्थिति की सबसे खराब विवेचना है। इसके प्रति उल्लेखनीय ऊर्जा और प्रतिभा तथा कार्य का असाधारण रिकार्ड प्रस्तुत किया जाना चाहिए। लेकिन यह इस स्वीकृत दृढ़ विश्वास के अर्थ पर और विचार करने के लिए प्रेरित करता है कि सांस्कृतिक अध्ययन अनिवार्य रूप से वामपंथ की ओर है या जैसा कि एक जोरदार तथा खोखले पदबंध में हमसे बार-बार कहा जाता है कि यह 'निर्सगत: राजनीतिक' है।

इसमें कोई संदेह नहीं कि सांस्कृतिक अध्ययनों ने समाजवादी, स्त्रीवादी, नस्लवादविरोधी, साम्राज्यवादविरोधी जैसे मुक्तिदायी सामाजिक उद्देश्यों को आगे बढ़ाने का प्रयास किया है।इन विशिष्ट और ठोस अर्थों में इनका हस्तक्षेप राजनीतिक है। लेकिन सांस्कृतिक अध्ययन को महज 'हस्तक्षेप' समझते रहना रूमानी होगा। अब यह संस्थागत शैक्षिक गतिविधि है। और शैक्षिक गतिविधि, इसके आंतरिक गुण चाहे जो भी हो, निश्चित तौर पर राजनीतिक परियोजना नहीं हो सकती। जब कोई विरोधात्मक प्रवृत्ति एक ऐसा विषय बन जाती है जिसके लिए अलग बजट प्रावधान हो, जो प्रत्यय-पत्र, आजीविका और शोध के लिए धन मुहैया कराता हो तो क्या होता है? कमोबेश वही जो कोई यथार्थवादी उम्मीद करेगा। कोई भी शैक्षिक विषय सम्मान रूप में या यथार्थ रूप में अपने छात्रों या शिक्षकों पर राजनीतिक परीक्षण लागू नहीं कर सकता। वाकई वह दिन दूर नहीं और शायद वह आ चुका है जब इस विषय के वास्तविक प्राध्यापक, जिन्होंने इसमें प्रशिक्षण प्राप्त किया है तथा इसे विद्वतापूर्ण आजीविका के रूप में अपनाया है 'विध्वंस' या इसी प्रकार की शीर्षक वाले नेमी पाठयक्रमों पर कक्षाओं में परिचयात्मक व्याख्यान देने के लिए अपना स्थान ग्रहण करेंगे। यह केवल कटु परिकल्पना नहीं। यदि हम कोई पहले का उदाहरण देखना चाहें तो केवल एफ.आर. लेविस और उसके सहकर्मियों का स्मरण करने की आवश्यकता है जिनकी साहित्यिक आलोचना की युयुत्सु, उग्र और विद्वता-विरोधी शैली का व्यापक अनुकरण किया गया और जो अंतत: काफी पारंपरिक हो गई लेकिन इसका विरोधात्मक वैचित्र्य इसमें अभी भी था। उपदेश देना बेकार है लेकिन सांस्कृतिक अध्ययन से जुड़े वामपंथी विचारकों को उनका नया 'राजनीतिक' विषय उन्हें जितना प्रोत्साहित करने के लिए तत्पर प्रतीत होता है उससे कहीं अधिक उन्हें व्यंग्यात्मक आत्मचेतना की आवश्यकता है।

4

लेविस का यह उदाहरण सांस्कृतिक आलोचना (कल्चुरीक्रितिक) और सांस्कृतिक अध्ययन के बीच के संबंध के बारे में और भी विचार करने के लिए प्रेरित करता है। और वो भी एक ऐसे आयाम में जहां वे एक दूसरे के गहरे विरोधी प्रतीत होते हैं, यानी राजनीतिक आयाम में।

इसके भिन्न राष्ट्रीय तथा अनुशासनिक रंग-प्रबंधों (डिसिपलिनरी कलरेशंस) के बावजूद सांस्कृतिक आलोचना (कल्चुरीक्रितिक) एक स्थायी बौध्दिक परिघटना थी। इसके प्रवर्तक सामान्यतया मूल्यों के एक सत्तात्मक केंद्र से बोलने का दावा करते थे जिन्हें 'मानवीय' या 'सार्वभौम' या 'पारंपरिक' जैसे पदों के रूप में अभिलक्षित किया जा सकता है और जिसके लिए सर्वाधिक स्वीकार्य संक्षिप्त शब्द 'संस्कृति' है। इस अर्थ में उनका स्व-परिभाषित कार्य आधुनिकता के बढ़ते खतरों के विरुध्द संस्कृति के हितों की रक्षा करना था, जिसका निरूपण बौध्दिक विशिष्टीकरण या औद्योगिक प्रौद्योगिकी या वाणिज्यवाद या 'साधारण समाज' के रूप में किया जा सकता है और जिसके लिए पुराशास्त्रीय संक्षिप्त शब्द 'सभ्यता' थी। सांस्कृतिक आलोचना (कल्चुरीक्रितिक) प्राय: संभ्रांतवर्गीय थी; यहएक अकाटय सत्य था कि संस्कृति हमेशा कुछ लोगों का ही सरोकार होना चाहिए जिसे सामान्य उदासीनता और अबोध्यता की स्थिति में जारी रखा जाना चाहिए। इसकी वकालत करने वालों के लिए खास राजनीतिक विकल्प दक्षिणपंथ से वामपंथ तक परिवर्तनीय थे। लेकिन सभी मामलों में ये विकल्प गौण थे क्योंकि सांस्कृतिक आलोचना का अंतर्निष्ठ उद्देश्य दृढ़तापूर्वक एक प्रकार की सामाजिक सत्ता प्रस्तुत करना था जो 'केवल' राजनीतिक नहीं इससे आगे हो। अत: संस्कृति, जो कि आवश्यक मूल्यों का क्षेत्र है तथा सभ्यता, जो कि सामाजिक 'मशीनरी' का क्षेत्र, के बीच मुख्य अंतर ने ही इस कल्पना को असंभव बना दिया कि राजनीति एक सार्थक सामाजिक गतिविधि है।

सांस्कृतिक अध्ययन ने सांस्कृतिक आलोचना (कल्चुरीक्रितिक) को विस्थापित करने का प्रयास किया है। इसने 'संस्कृति' और 'साधारण समाज' (मासेस) की एक वैकल्पिक व्याख्या प्रस्तुत की है। इसकी गतिविधि, विकल्प, और महत्व की खोज की है। वहीं सांस्कृतिक आलोचना केवल जड़ता और यंत्रवाद को ही देख सकती थी और इसने ऐसा रैडिकल सामाजिक लक्ष्यों के नाम पर किया है। फिर भी यहां कुछ कौतूहलपूर्ण है। स्वाभाविक है कि सांस्कृतिक अध्ययन ने उदारवादी और रूढ़िवादी विचारों को निरंतर चुनौती ही है लेकिन यदि यह किसी चीज से पूर्वग्रहग्रसित रहा है तो वह वामपंथ की कमियां हैं। अब यह सच है कि समझने के लिए कई चीजें हैं लेकिन सांस्कृतिक अध्ययन ने सबसे अधिक केवल एक बात पर फोकस किया है। इसका लगातार सुझाव, जो कि प्रभावी रूप में इस विषय का संकेत-धुन भी है, यह है कि लोक संस्कृति न केवल राजनीतिक समझ को बढ़ाती है, प्रत्युत कुछ अर्थों में वामपंथ को विरासत में मिली राजनीतिक परंपराओं को अवैध करार देती है तथा अतिक्रमण करती है। दूसरे शब्दों में सांस्कृतिक अध्ययन केवल राजनीति ('वर्ग', 'राज्य', 'संघर्ष', 'क्रांति' और इसी प्रकार की पुरानी अवधारणा) को लोक संस्कृति की उच्चतर सत्ता के अधीन लाना चाहता है। और ऐसा करने में यह विश्वसनीयता के साथ सांस्कृतिक आलोचना (कल्चुरीक्रितिक) के मूल पैटर्न को दोहराता है। यह सांस्कृतिक आलोचना (कल्चुरीक्रितिक) को नकारता है लेकिन ठीक वैसे ही जैसे दर्पण का बिंब आकृति को अक्षुण्ण रखते हुए इसके मूल को उलटा करता है। यहीं उन विरोधाभासों का स्रोत है जो इस हस्तक्षेपवादी विषय जिसे सांस्कृतिक अध्ययन कहते हैं के जीवन का निर्माण करता है।

5

तो फिर हम सांस्कृतिक सिध्दांत तथा राजनीति के बीच संबंध के बारे में कैसे सोच सकते हैं? मैंने यह दावा किया है कि सांस्कृतिक अध्ययन इस संबंध की विशिष्ट तथा गहरी समझ को दोहराता है। ऐसा कहने का मेरा अभिप्राय यह है कि यह समझ गलत है और यह सांस्कृतिक अध्ययन से जुड़े वामपंथियों के संजीदा राजनीतिक उद्देश्यों के साथ समझौताकर सकता है। निष्कर्ष के रूप में, मैं समाजवादी सांस्कृतिक सिध्दांत की 'राजनीतिक' स्थिति के बारे में वैकल्पिक तरीके से विचार करने का साहस करूंगा।

संस्कृति और राजनीति के बीच का संबंध वामपंथ में दो प्रकार के न्यूनीकरणवाद के अध्यधीन रहा है। बिना किसी खेद के हम एक बड़े विकल्प का त्याग कर सकते हैं : यानी प्रचलित राजनीतिक न्यूनीकरणवाद, जिसकी वजह से साम्यवादी आंदोलन कुख्यात हो गया, जो सभी सांस्कृतिक पहल के एक पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के रूप में वर्गीकृत करता है और जिसके मानवीय संभावनाओं संबंधी बोध का आरंभ और अंत राजनीतिक उद्देश्य के साथ होता है। लेकिन अब हमारे पास एक वैकल्पिक न्यूनीकरणवाद है। इस बार यह संस्कृतिवादी किस्म का है जिसे अकादमी सांस्कृतिक अध्ययन के अधीन तथा बाहर की दुनिया में उत्तरआधुनिक बुध्दिमत्ता के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। यह न्यूनीकरणवाद सांस्कृतिक विभेद की सभी अभिव्यक्तियों को राजनीतिक मानकर सम्मानित करता है और इसलिए विशेषाधिकारवाद को प्रोत्साहित करता है तथा अनिवार्य रूप से कठोर अर्थ में राजनीति का आत्मासक्ति विषयक विघटन करता है। यदि न्यूनीकरणवाद ने संस्कृति को एक राजनीतिक उपकरण के रूप में स्वीकार किया है तो विशेषाधिकारवाद ने प्रभावी रूप से राजनीति की संभावना को ही समाप्त कर दिया और कहूंगा कि सचमुच राजनीतिक संघर्ष के क्षेत्र के रूप में संस्कृति की संभावना को ही समाप्त कर दिया है।

एक समाजवादी सांस्कृतिक सिध्दांत के लिए सांस्कृतिक आचरणों की संभावनाओं तथा सीमाओं को स्वीकार करना आवश्यक है। इसके लिए यह स्वीकार करना भी जरूरी है कि इस प्रकार के आचरण राजनीति से कम भी हैं, अधिक भी। हालांकि संस्कृति एक विवादित धरातल है, राजनीतिक संघर्ष का एक क्षेत्र, लेकिन यह केवल राजनीतिक नाटयशाला नहीं हो सकती, न ही पूर्णरूपेण राजनीति को ही समाहित कर सकती है। संस्कृति के समाजवादी सिध्दांत का पहला नियम कहता है कि राजनीति और संस्कृति के बीच संबंध की प्रतीकात्मक अवस्था 'विसंगति' होगी। यह कोई बहुत आकर्षक प्रतिपादन नहीं प्रतीत हो सकता लेकिन सामाजिक अर्थों की समग्रता या 'संपूर्ण जीवन शैली' को समाहित करने के लिए 'संस्कृति' के दायरे का एक बार विस्तार कर लेने के बाद इस पर बल देना आवश्यक है। क्योंकि यह विस्तारित अर्थग्रहण समाजवादी सांस्कृतिक सिध्दांत के लिए महत्वपूर्ण होने के साथ-साथ यह अपनी भी अवधारणात्मक समस्याएं खड़ी करती है।

यदि संस्कृति सामाजिक अर्थों की संपूर्णता है और यदि राजनीतिक गतिविधि का उद्देश्य एक दिए हुए स्थान के भीतर सामाजिक संबंधों की संपूर्णता है (जैसा कि एक सच्ची मुक्तिकारी राजनीति की होनी चाहिए) तो प्रथम द्रष्टया यह प्रतीत हो सकता है कि मानो संस्कृति और राजनीति दोनों एक ही चीज हैं, जैसा कि अब सांस्कृतिक अध्ययन मानने को तैयार है। सैध्दांतिक रूप में हम यह नहीं कह सकते कि एक प्रकार की सामाजिक विषय-वस्तु राजनीतिक और दूसरी प्रकार की नहीं। यदि पूरा समाज संस्कृति के अंत:क्षेत्र में है तोऐसा लगता है कि कोई भी सांस्कृतिक प्रवृत्ति वैध रूप से अपने आपको 'राजनीतिक' कह सकती है।

लेकिन यहां एक मौलिक भ्रांति है। ऐसा समझा जा सकता है कि संस्कृति और राजनीति दोनों ही सामाजिक संबंधों की समग्रता को अपने में समेटे हुए हैं, लेकिन वे ऐसा अलग-अलग रूप में करते हैं। राजनीति सामाजिक संबंधों के चरित्र के निर्धारण में अपनी भूमिका के कारण अन्य सामाजिक आचरणों से अलग है। जब यह शब्द और बिंब के रूप में पूरी तरह अर्थ के क्षेत्र में भी कार्य करती है तो राजनीतिक आचरण अपने विशिष्टीकृत प्रकार्य द्वारा विनियमित होता है। यह एक विचारात्मक आचरण (डेलिबरेटिव प्रैक्टिस) है जो सामान्यतया निर्णयोन्मुख होता है; नियंत्रण संबंधी प्रश्न हमेशा रहता है कि, 'क्या किया जाना है?' शांतिपूर्ण जनतांत्रिक स्थितियों में यह एक आदेशात्मक आचरण (इंजंक्टिव प्रैक्टिस) कार्य है, प्रभावी सहमति के लिए एक संघर्ष। और अंतत: यह उन संसाधनों की ओर मुड़ता है जिन्हें संस्कृति में परिणत नहीं किया जा सकता है यानी भौतिक अवपीड़न के साधन।

सांस्कृतिक आचरण इस प्रकार के नहीं होते जिन्हें हम अपेक्षाकृत कम अमूर्त रूप में वह समझें जिनका प्रमुख प्रकार्य अर्थ उत्पन्न करना होता है। उनके अर्थ की दुनिया भी वही है। उनमें राजनीतिक संकेत बहुत अधिक हैं लेकिन उन विशिष्टीकृत लक्षणों की कमी है, और इनकी आवश्यकता भी नहीं। विचार-विमर्श, आदेश और बलप्रयोग द्वारा सामाजिक संबंधों की प्रकृति का निर्धारण करना संस्कृति का कार्य नहीं है। इस अंतर का निहितार्थ ग्राम्शी द्वारा अनुभव किया गया। उन्होंने कहा कि सांस्कृतिक निर्णय और राजनीतिक निर्णय की प्रकृति अलग होती है और उनमें एक स्थान पर मिलने की प्रवृत्ति भी नहीं होती।

सांस्कृतिक आचरण किसी भी और सभी विभेदों को निरपेक्ष मान सकता है (जैसा कि एक बार जार्ज लुकास ने कहा था कि कला और प्रत्ययों के क्षेत्र में कोई भी संयुक्त मोर्चा नहीं होता)। जबकि राजनीति किसी खास वस्तु स्थिति को लाने या रोकने के लिए, जीवन के इस या उस सामान्य स्थिति को प्राप्त करने के लिए विभेदों के साथ समान रूप में व्यवहार नहीं कर सकती। इसमें उन विभेदों को पाटने की क्षमता होनी चाहिए जिन्हें सांस्कृतिक आचरण निरपेक्ष मानता है ताकि विशिष्ट उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए एकजुटता बनाई जा सके। साथ ही उन्हीं कारणों से राजनीतिक हित सांस्कृतिक एकजुटता वाले क्षेत्र में विभाजन को प्रोत्साहित करना अनिवार्य बना सकता है। उदाहरण के लिए, एक राजनीतिक लक्ष्य की प्राप्ति के लिए (उदाहरणस्वरूप राज्य द्वारा वित्तपोषित नर्सरी की व्यवस्था) किसी धार्मिक संप्रदाय के भीतर वर्ग तथा लिंगभेद संबंधी वैमनस्य को उजागर करना आवश्यक हो सकता है। किसी दिए हुए सांस्कृतिक हित के परिप्रेक्ष्य में देखने पर राजनीतिक मांग हमेशा ही या तो बहुत अधिक या बहुत कम होती है और संस्कृति के विरुध्द राजनीतिक शिकायत भी हमेशा इसी प्रकार की होती है। प्रत्येक एक-दूसरे के सापेक्ष, सांप्रदायिक और एकतावर्धक दोनों हैं।

सांस्कृतिक अध्ययन इसी मौलिक विभेद का लोप करता है। यहां इसके ऐतिहासिक कारणों की पड़ताल करने के लिए पर्याप्त स्थान नहीं है, लेकिन इसके परिणामों के बारे में कुछ कहा जा सकता है। आरंभ से ही सांस्कृतिक अध्ययन की प्रवृत्ति राजनीति को संस्कृति में विलीन करने की रही है। रेमंड विलियम्स ने भी अनुदर्शन में स्वीकार किया कि उन्होंने सांस्कृतिक राजनीति की संभावनाओं को बढ़ा दिया था। वह सांस्कृतिक क्षेत्र से बाहर राजनीतिक रूप से सक्रिय रहे और अपने सैध्दांतिक कार्य में भी इस प्रवृत्ति से कभी भी बाहर नहीं निकल पाए। फिर भी उन्होंने तथा उनके पूर्व के समाजवादी सांस्कृतिक अध्ययन करने वालों ने कम से कम दो महत्वपूर्ण कार्य किए : पहला, स्तालिनवादी रूप में संस्कृति को राजनीतिक साधन बनाने की अस्वीकृति करते हुए उन्होंने विशेष रूप से उपभोक्ता पूंजीवाद तथा 'जन' संचार के युग में संघर्ष की जमीन के रूप में इसके महत्व को स्वीकार किया। दूसरा, 'लोक' संस्कृति को संवेदनमंदक रहस्यवाद मानकर खारिज करने की संभ्रांतवर्गीय प्रवृत्ति के विरुध्द उन्होंने इसकी वैधता पर बल दिया। पूंजीवादी समाज में लोक संस्कृति वर्चस्व या वस्तुवाद (कमोडिफिकेशन) की अनिवार्यताओं के संबंधों से बाहर कभी भी नहीं रही। फिर भी उन संबंधों तथा अनिवार्यताओं के भीतर 'साधारण समाज' कभी भी केवल निष्क्रिय और दमित नहीं था। लोक संस्कृति में दमन और प्रतिरोध दोनों ही परिलक्षित होते थे।

आज सांस्कृतिक अध्ययन न केवल राजनीति का संस्कृति में विलय को आगे बढ़ा रहा है बल्कि इस प्रक्रिया में यह इसके प्रथ प्रदर्शकों की विरासत को भी बरबाद कर रहा है। यह सांस्कृतिक आचरण से परे राजनीति के लिए या सांस्कृतिक विभेद के विशेषाधिकार से परे किसी राजनीतिक एकजुटता के लिए कोई स्थान नहीं छोड़ता। वास्तव में सांस्कृतिक प्रतिवाद की राजनीति के लिए भी कोई स्थान नहीं है। और यदि 'उच्च' संस्कृति तथा असमानता और वर्चस्व सभी जनसमूह संस्कृति की ऐतिहासिक वास्तविकताओं से अमूर्त रूप में पहले ही सक्रिय तथा अत्यंत महत्वपूर्ण है, यदि टेलीविजन और शॉपिंग पहले ही विध्वंस के थिएटर हैं तो संघर्ष के लिए कोई जगह नहीं और दरअसल इसकी आवश्यकता भी नहीं। लेकिन यदि इन सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों से परे कुछ भी नहीं, तो 'साधारण समाज' का दमन तथा उपभोक्ता पूंजीवाद के आगे उनका आत्मसमर्पण उतना ही संपूर्ण है जितना सांस्कृतिक आलोचना (कल्चुरीक्रितिक) के प्रवर्तक मानते थे। यहां पर सांस्कृतिक अध्ययन का सबसे गहरा अंतर्विराध यह है कि इसका अंत इस जनतंत्रविरोधी निर्णय की पुष्टि तथा जश्न के साथ होता है।































शुक्रवार, 30 सितंबर 2011

साहित्य में भावुकता की हिमायत में



साहित्यालोचना में इन दिनों उदासी छायी हुई है। इस उदासी का प्रधान कारण है कृति-कृतिकार का जीवन से कृत्रिम संबंध।आलोचकों की इस कृत्रिम संबंध को पहचानने में असफलता। किसी भी कृतिकार की कलात्मक श्रेष्ठता उस समय ज्यादा समझ में आती है जब वह अपनी कृति में भावुकता का चित्रण करता है। इन दिनों कृतियों में विवरण-ब्यौरे तो खूब हैं लेकिन भावुकता पता नहीं कहां खो गई है। भावुकता के चित्रण के साथ यह समझ भी होनी चाहिए कि आखिर वे कौन से स्थल हैं जहां भावुकता का निर्वाह किया जाना चाहिए। कथानक के मार्मिक स्थलों की सही समझ और विषय के साथ गहरा संबंध अंततः भावुक स्थलों के चित्रण में मददगार हो सकता है। हिन्दी के प्रमुख आलोचक रामचन्द्र शुक्ल ने तुलसीदास के प्रसंग में यह सवाल काफी पहले बड़े ही सुंदर ढ़ंग से उठाया है। शुक्लजी ने लिखा है-  "प्रबन्धकार कवि की भावुकता का सबसे अधिक पता यह देखने से चल सकता है कि वह किसी आख्यान के अधिक मर्मस्पर्शी स्थलों को पहचान सका है या नहीं। राम कथा के भीतर ये स्थल अत्यन्त मर्मस्पर्शी हैं-राम का अयोध्‍या त्याग और पथिक के रूप में वनगमन; चित्रकूट में राम और भरत का मिलन; शबरी का आतिथ्य; लक्ष्मण को शक्ति लगने पर राम का विलाप; भरत की प्रतीक्षा। "इन स्थलों को गोस्वामीजी ने अच्छी तरह पहचाना है; इनका उन्होंने अधिक विस्तृत और विशद वर्णन किया है।यानी रचना में मार्मिक स्थलों का रचनाकार को ज्ञान होना चाहिए। हमारे अधिकतर उपन्यासकारों को कथानक के मार्मिक स्थलों का पता ही नहीं रहता और कथानक स्टीरियोटाइप ढ़ंग से चलता रहता है। इसके अलावा मार्मिकता में निहित भावुकता का चित्रण करते समय मूल्यों के चित्रण में निपुण होना जरूरी है।
    आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है " एक सुन्दर राजकुमार के-छोटे भाई और स्‍त्री को लेकर-घर से निकलने और वन वन फिरने से अधिक मर्मस्पर्शी दृश्य क्या हो सकता है? इस दृश्य का गोस्वामीजी ने मानस, कवितावली और गीतावली तीनों में अत्यन्त सहृदयता के साथ वर्णन किया है। गीतावली में तो इस प्रसंग के सबसे अधिक पद हैं। ऐसा दृश्य स्त्रियों को सबसे अधिक स्पर्श करनेवाला, उनकी प्रीति, दया और आत्मत्याग को सबसे अधिक उभारनेवाला होता है, यह बात समझकर मार्ग में उन्होंने ग्राम बधुओं का सन्निवेश किया है। ये स्त्रियाँ राम जानकी के अनुपम सौन्दर्य पर स्नेह शिथिल हो जाती हैं, उनका वृत्तान्त सुनकर राजा की निष्ठुरता पर पछताती हैं; कैकेयी की कुचाल पर भला बुरा कहती हैं। सौन्दर्य के साक्षात्कार से थोड़ी देर के लिए उनकी वृत्तियाँ कोमल हो जाती हैं, वे अपने को भूल जाती हैं। यह कोमलता उपकार बुद्धि की जननी है-
सीता  लषन  सहित  रघुराई। गाँव निकट जब निकसहिं जाई।।
सुनि सब बालबृद्ध नर  नारी। चालहिं तुरत गृह काज बिसारी।।
राम लषन सिय रूप  निहारी। पाइ  नयन  फल  होहिं सुखारी।।
सजल विलोचन पुलक सरीरा। सब भए मगन  देखि दोउ बीरा।।
रामहिं देखि एक अनुरागे। चितवत चले जाहि सँग लागे।।
एक देखि बट छाँह भलि, डासि मृदुल तृन पात।
कहहिं 'गँवाइय छिनुक स्तम, गवनब अबहिं कि प्रात'।।
    राम जानकी के अयोध्‍या से निकलने का दृश्य वर्णन करने में गोस्वामीजी ने कुछ उठा नहीं रखा। सुशीलता के आगार रामचन्द्र प्रसन्नमुख निकलकर दास दासियों को गुरु के सुपुर्द कर रहे हैं, सबसे वही करने की प्रार्थना करते हैं जिससे राजा का दु:ख कम हो। उनकी सर्वभूतव्यापिनी सुशीलता ऐसी है कि उनके वियोग में पशु पक्षी भी विकल हैं। भरतजी जब लौटकर अयोध्‍या आए, तब उन्हें सर सरिताएँ भी श्रीहीन दिखाई पड़ीं, नगर भी भयानक लगा। भरत को यदि रामगमन का संवाद मिल गया होता तो हम इसे भरत के हृदय की छाया कहते। पर घर में जाने के पहले उन्हें कुछ भी वृत्ता ज्ञात नहीं था। इससे हम सरसरिता के श्रीहीन होने का अर्थ उनकी निर्जनता, उनका सन्नाटापन लेंगे। लोग रामवियोग में विकल पड़े हैं। सरसरिता में जाकर स्नान करने का उत्साह उन्हें कहाँ? पर यह अर्थ हमारे आपके लिए है। गोस्वामीजी ऐसे भावुक महात्मा के निकट तो राम के वियोग में अयोध्‍या की भूमि ही विषादमग्न हो रही है; आठ आठ ऑंसू रो रही है।
    चित्रकूट में राम और भरत का जो मिलन हुआ है, वह शील और शील का, स्नेह और स्नेह का, नीति और नीति का मिलन है। इस मिलन से संघटित उत्कर्ष की दिव्य प्रभा देखने योग्य है। यह झाँकी अपूर्व है? 'भायप भगति' से भरे भरत नंगे पाँव राम को मनाने जा रहे हैं। मार्ग में जहाँ सुनते हैं कि यहाँ पर राम लक्ष्मण ने विश्राम किया था, उस स्थल को देख ऑंखों में ऑंसू लेते हैं-
राम बास थल बिटप बिलोके। उर अनुराग रहत नहिं रोके।।
    मार्ग में लोगों से पूछते जाते हैं कि राम किस वन में हैं। जो कहता है कि हम उन्हें सकुशल देखे आते हैं, वह उन्हें राम लक्ष्मण के समान ही प्यारा लगता है। प्रिय सम्बन्धी आनन्द के अनुभव की आशा देनेवाला एक प्रकार के उस आनन्द को जगानेवाला है-'उद्दीपन' है। सब माताओं से पहले राम कैकेयी से प्रेमपूर्वक मिले। क्यों? क्या उसे चिढ़ाने के लिए? कदापि नहीं। कैकेयी से प्रेमपूर्वक मिलने की सबसे अधिक आवश्यकता थी। अपना महत्तव या सहिष्णुता दिखाने के लिए नहीं, उसके परितोष के लिए। अपनी करनी पर कैकेयी को जो ग्लानि थी, वह राम ही के दूर किए हो सकती थी, और किसी के किए नहीं। उन्होंने माताओं से मिलते समय स्पष्ट कहा था-
अंब! ईस आधीन जग काहु न देइय दोषु।
    कैकेयी को ग्लानि थी या नहीं, इस प्रकार के सन्देह का स्थान गोस्वामीजी ने नहीं रखा। कैकेयी की कठोरता आकस्मिक थी, स्वभावगत नहीं। स्वभागवत भी होती तो भी राम की सरलता और सुशीलता उसे कोमल करने में समर्थ थी।
लखि सिय सहित सरल दोउ भाई। कुटिल   रानि   पछितानी   अघाई।।
अवनि जमहि  जाचति  कैकेयी। महि न बीचु, बिधि मीचु न देई।।"
  आचार्य शुक्ल ने रामचरित मानस के संदर्भ में जिस भावुकता का जिक्र किया है क्या वह भावुकता आज भी मानस के पाठकों को अपील करती है ? क्या महाकाव्य के सुख,दुख,विषाद,प्रेम,क्रोध आदि आज भी अपील करते हैं ? क्या आम लोग आज भी रामचरित मानस के मार्मिक स्थलों के भावुक चित्रण से भावविभोर होते हैं ? तुलसीदास ने मानस में भावुकता का चित्रण करते समय एक साथ कई सामाजिक संबंधों को चित्रित किया है। एक साथ कई धर्मों को चित्रित किया है। सामाजिक और धार्मिक बहुलतावाद का इतना सुंदर मार्मिक चित्रण ही रामचरित मानस को भारत की आत्मा बना सका है। रामचरित मानस के बहुलतावादी चित्रण को रेखांकित करते हुए रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है " जिस समाज के शील सन्दर्भ की मनोहारिणी छटा को देख वन के कोल किरात मुग्ध होकर सात्‍विक वृत्ति में लीन हो गए, उसका प्रभाव उसी समाज में रहनेवाली कैकेयी पर कैसे न पड़ता?
    (क) भए सब साधु किरात किरातिनि राम दरस मिटि गई कलुषाई।
    (ख) कोलकिरात  भिल्ल   बनवासी। मधु सुचि सुन्दर स्वादु सुधा-सी।।
       भरि भरि परन पुटी रुचि रूरी। कन्द  मूल  फल  अंकुर जूरी।।
       सबहिं देहिं करि बिनय प्रनामा। कहि कहि स्वाद भेद गुननामा।।
       देहिं लोग बहु, मोल न लेहीं। फेरत  राम   दोहाई  देहीं।।
    और सबसे पुलकित होकर कहते हैं-
       तुम्ह प्रिय पाहुन बन पगु धारे। सेवा    जोगु  न   भाग  हमारे।।
       देब काह हम तुम्हहिं गोसाईं। ईंधन  पात  किरात  मिताई।।
       यह हमारि अति बड़ि  सेवकाई। लेहिं न   बासन   बसन  चोराई।।
       हम जड़ जीव  जीव  धन  घाती। कुटिल कुचाली कुमतिकुजाती।।
       सपनेहुँ धरम बुद्धि कस  काऊ। यह   रघुनन्दन   दरस   प्रभाऊ।।
    उस पुरुष समाज के प्रभाव से चित्रकूट की रमणीयता में पवित्रता भी मिल गई। उस समाज के भीतर नीति, स्नेह, शील, विनय, त्याग आदि के संघर्ष से जो धर्मज्योति फूटी उससे आसपास का सारा प्रदेश जगमगा उठा-उसकी मधुर स्मृति से आज भी वहाँ की वनस्थली परम पवित्र है। चित्रकूट की उस सभा की कार्रवाई क्या थी, धर्म के एक एक अंग की पूर्ण और मनोहर अभिव्यक्ति थी। रामचरितमानस में वह सभा एक अध्‍यात्मिक घटना है। धर्म के इतने स्वरूपों की एकसाथ योजना, हृदय की इतनी उदात्त वृत्तियों की एकसाथ उद्भावना तुलसी के ही विशाल 'मानस' में सम्भव थी। यह सम्भावना उस समाज के भीतर बहुत से भिन्न भिन्न वर्गों के समावेश द्वारा संघटित की गई है। राजा और प्रजा, गुरु और शिष्य, भाई और भाई, माता और पुत्र, पिता और पुत्री, श्वसुर और जामाता, सास और बहू, क्षत्रिय और ब्राह्मण, ब्राह्मण और शूद्र, सभ्य और असभ्य के परस्पर व्यवहारों का उपस्थित प्रसंग के धर्मगाम्भीर्य और भावोत्कर्ष के कारण, अत्यन्त मनोहर रूप प्रस्फुटित हुआ। धर्म के उस स्वरूप को देख सब मोहित हो गए-क्या नागरिक क्या ग्रामीण और क्या जंगली। भारतीय शिष्टता और सभ्यता का चित्र यदि देखना हो तो इस राज समाज में देखिए। कैसी परिष्कृत भाषा में, कैसी प्रवचन पटुता के साथ, प्रस्ताव उपस्थित होते हैं, किस गम्भीरता और शिष्टता के साथ बात का उत्तर दिया जाता है, छोटेबड़े की मर्यादा का किस सरसता के साथ पालन होता है। सबकी इच्छा है कि राम अयोध्‍या को लौटें; पर उनके स्थान पर भरत बन को जायँ, यह इच्छा भरत को छोड़ शायद ही और किसी के मन में हो। अपनी प्रबल इच्छाओं को लिए हुए लोग सभा में बैठते हैं; पर वहाँ बैठते ही धर्म के स्थिर और गम्भीर स्वरूप के सामने उनकी व्यक्तिगत इच्छाओं का कहीं पता नहीं रह जाता। राजा के सत्यपालन से जो गौरव राजा और प्रजा दोनों को प्राप्त होता दिखाई दे रहा है, उसे खंडित देखना वे नहीं चाहते। जनक, वशिष्ठ, विश्वामित्र आदि धर्मतत्‍व के पारदर्शी जो कुछ निश्चय कर दें, उसे वे कलेजे पर पत्थर रखकर मानने को तैयार हो जाते हैं।"
तुलसी ने मानस में भावुकता के चित्रण के साथ कई सामाजिक संबंधों का भी चित्रण किया है।मसलन, राजा-प्रजा,परिवारीजनों के बीच के संबंध,ऋषियों और राजकुमारों के बीच का संबंध,माता-पुत्र, पिता-पुत्र,पति-पत्नी,आदिवासी और राजा,भाई-भाई का संबंध ,श्वसुर-दामाद का संबंध,ऋषियों और आदिवासियों का संबंध आदि संबंधों का चित्रण करते हुए लेखक ने तदनुरूप भाव की सृष्टि करने में सफलता हासिल की है।
इसी प्रसंग में रामचन्द्र शुक्ल ने एक महत्वपूर्ण बात कही है, उन्होंने लिखा है , " कवि की पूर्ण भावुकता इसमें है कि वह प्रत्येक मानवस्थिति में अपने को डालकर उसके अनुरूप भाव का अनुभव करे। इस शक्ति की परीक्षा का रामचरित से बढ़कर विस्तृत क्षेत्र और कहाँ मिल सकता है! जीवनस्थिति के इतने भेद और कहाँ दिखाई पड़ते हैं! इन क्षेत्रों में जो कवि सर्वत्र पूरा उतरता दिखाई पड़ता है, उसकी भावुकता को और कोई नहीं पहुँच सकता। जो केवल दाम्पत्य रति में ही अपनी भावुकता प्रकट कर सकें, या वीरोत्साह ही का अच्छा चित्रण कर सकें, वे पूर्ण भावुक नहीं कहे जा सकते। पूर्ण भावुक वे ही हैं जो जीवन की प्रत्येक स्थिति के मर्मस्पर्शी अंश का साक्षात्कार कर सकें और उसे श्रोता या पाठक के सम्मुख अपनी शब्दशक्ति द्वारा प्रत्यक्ष कर सकें। हिन्दी के कवियों में इस प्रकार की सर्वांगपूर्ण भावुकता हमारे गोस्वामीजी में ही है जिसके प्रभाव से रामचरितमानस उत्तरी भारत की सारी जनता के गले का हार हो रहा है।'' शुक्लजी ने सवाल उठाया है कि "गोस्वामीजी की भावात्मक सत्ता का अधिक विस्तार स्वीकार करते हुए भी यह पूछा जा सकता है कि क्या उनके भावों में पूरी गहराई या तीव्रता भी है? यदि तीव्रता न होती, भावों का पूर्ण उद्रेक उनके वचनों में न होता, तो वे इतने सर्वप्रिय कैसे होते? भावों के साधारण उदगार से ही सबकी तृप्ति नहीं हो सकती। यह बात अवश्य है कि जो भाव सबसे अधिक प्रकृतिस्थ है, उसकी व्यंजना सबसे अधिक गूढ़ और ठीक है। जो प्रेमभाव अत्यन्त उत्कर्ष पर पहुँचा हुआ उन्होंने प्रकट किया है, वह अलौकिक है, अविचल है और अनन्य है। वह घन और चातक का प्रेम है।"







विशिष्ट पोस्ट

मेरा बचपन- माँ के दुख और हम

         माँ के सुख से ज्यादा मूल्यवान हैं माँ के दुख।मैंने अपनी आँखों से उन दुखों को देखा है,दुखों में उसे तिल-तिलकर गलते हुए देखा है।वे क...